यादें शेष रह जाती हैं

जब तन्हा होता हूं तो तुम्हारी याद आती है,
जब भीड़ में होता हूं, फिर भी तुम्हारी याद आती है,
क्या करूं तुम्हारे बग़ैर सिर्फ़ तुम्हारी ही याद आती है।

कोहरे की धुंध में कहीं खो गई वो यादें,
जो मुझे कभी परेशान किया करती थी,
यादें आती हैं, यादें जाती भी हैं,
पर ये भी सच है कि कुछ यादें,
दिलों में एक ज़ख्म छोड़ जाती हैं।
महसूस करता हूं तुम्हें हर पल
लम्हा दर लम्हा, ज़ख्म दर ज़ख्म,
एक टीस उठती है, ज़ुबां फिर ख़ामोश हो जाती है।
पर अब किया है फ़ैसला हमने,
छोड़ देंगे उन गलियों को, भूल जाएंगे हरेक लम्हे को
मुंह मोड़ लेंगे हर उस महफिल से,
जिससे जुड़ी हुई है तुम्हारी यादें।
कोई वजह नहीं, कोई कसक नहीं
वस यूं ही तय की है ज़िंदगी अपनी.

प्रधानमंत्री अमेरिका चले गए, कौन लेगा सुध!

संसद का सत्र चल रहा है। इसके पहले दिन गन्ना किसानों ने अपनी मांगों कों लेकर संसद और जंतर मंतर पर डेरा डाला। फिर भी पीएम अमेरिका गए। महंगाई आसमान पर है, दिन में ही तारे नज़र आने लगे हैं, सब्जि और आटा सहित कई ज़रूरी सामानों को ख़रीदते-ख़रीदते। इधर मधु कोड़ा ख़रबों की संपत्ति चपत करने के बाद भी पकड़ में नहीं आ रहा है। उधर अमेरिका चीन के सामने घुटने टेक कर भारत को लॉलीपॉप थमा रहा है। कोड़ा कांग्रेस की मदद से ही मुख्यमंत्री बना। राजनीति में आने से पहले कोड़ा कोयला खादान में काम करता था। हालांकि उसे राजनीति में बीजेपी लेकर आई, लेकिन सीएम बनाया कांग्रेस ने। अंदरूनी समस्याएं सुलझ ही नहीं रही हैं और पीएम चले गए अमेरिका से संबंध बनाने। शायद उन्हें नहीं मालूम जब तक हम अपने नाव की छेद को बंद नहीं करते तब तक नाव के डूबने का ख़तरा बरकरार ही रहने वाला है। ख़ैर इन सब बातों को छोड़ दीजिए, बातें हैं सब बातों का क्या? लेकिन ज़रा फ़ुर्सत मिले तो ठहर कर इन पर ग़ौर करने की जहमत ज़रूर उठाइए, तो आपको ख़ुद के कुछ सवालों को जवाब ज़रूर मिल जाएगा। लेकिन मेरा एक सवाल यह भी है कि पीएम अमेरिका चले गए।
ज़रा एक और बात पर नज़रे इनायत कीजिएगा। सबसे पहले अमेरिका में हुए नाइन इलेवन के हमले को याद कीजिए और उसके ठीक साल भर बाद मनाए जाने वाली बरसी को भी। अमेरिकी राष्ट्रपति उस हमले के बरसी के दिन कहां थे, क्या वो भारत, जापान, चीन या इज़रायल के दौरे पर थे। जी नहीं, वो किसी विदेशी दौरे पर नहीं थे। अमेरिकी राष्ट्रपति हमले में मारे गए लोगों को अपनी श्रद्धांजलि दे रहे थे, ठीक किसी आम अमेरिकी की तरह। उनसे यही अपेक्षा भी की जा रही थी। यही अमेरिकी राष्ट्रपति की संवेदनशीलता है या कहें कि अपने मुल्क के प्रति उनकी ज़िम्मेदारी। लेकिन क्या आप यही आपने मुल्क यानी भारत के आंग्रेज़ी दां प्रधानमंत्री से यही उम्मीद कर सकते हैं, यदि हां तो यहीं आपकी उम्मीदों का चिराग हवा की झोंकों से बूझ जाएगा। मुमकिन हो हम या आप कुछ बहाना तलाश लें कि पीएम का अपना प्रोटोकॉल होता है, वो जो कर रहे हैं, देश की तरक्की और नीतियों के हिसाब ही कर रहे हैं। यदि हम यही सोचते हैं हम हमारी सोच को दोष नहीं दे सकते। हमारी सोच भी अंग्रेज़ियत के चश्मे में मिल गई है। लेकिन मैं परेशान हूं, हताश हूं और निराश भी। मैं संतुष्ट नहीं हूं। एक बेचैनी है। तड़प है। विपक्षी पार्टी बीजेपी हिंदुओं का ठेकेदार बन चुकी है तो तथाकथित समाजवादी पूंजीपतियों के इशारे के बग़ैर सर भी नहीं हिला सकते। आम आदमी अब आम नहीं रहा, तबाह हो गया। दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेल होने वाले हैं, इसी दौरान शीला दीक्षित को दिल्ली को शंघाई और पेरिस बनाने की सूझी। दिल्ली की ग़रीबी दूर करने की सूझी। ग़रीबी ख़त्म हो या न हो, पर ग़रीबों को ख़त्म करने का उन्होंने पूरा बंदोबस्त कर लिया है। बस किराया दोगुना हो चुका है, लोगों को दाल और आटा मिल नहीं रहा है, इसलिए सरकार ख़ुद इन्हें बेचने सड़कों पर उतर आई है। कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ, इसी नारे से चुनाव जीता कांग्रेस ने, पर वो हाथ भी अब शायद मैली हो गई। उससे इतनी बदबू आने लगी है कि आम आदमी का दम ही घुटने लगा है। फिर भी प्रधानमंत्री अमेरिका चले गए। हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री लोगों को उसके हाल पर छोड़ कर अमेरिका चले गए इसका ग़म नहीं है ग़म तो इस बात का है कि छब्बीस इलेवन के शहीदों की बरसी तक वो क्या नहीं क सकते थे, शायद नहीं तभी तो चले गए। बेहद ज़रूरी था। या सब नज़रों का धोखा।

अजब खेल के गज़ब खिलाड़ी

अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट के दो मज़बूत और शक्तिशाली स्तंभ। एक दूसरे के चीर प्रतिद्वंद्वी. जहां क्रिकेट का मैदान भी युद्ध का मैदान नज़र आता है. एक टी-20 का पूर्व तो दूसरा मौजूदा चैंपियन, लेकिन आजकल दोनों की हालत खस्ता है. पहले का खिलाड़ी पैसे और ग्लैमर की चकाचौंध में खो गया है तो दूसरा अपने अंदरूनी कलह की वजह से ही परेशान है. अब आपके लिए अंदाज़ा लगाना आसान हो गया होगा कि हम किसकी बात करे रहे हैं? यह कहानी है दुनिया के उन दो देशों की जो क्रिकेट के लोकप्रिय गढ़ माने जाते हैं. हम बात कर रहे हैं भारत और पाकिस्तानी क्रिकेट में आए भूचाल की. इसे भूचाल ही कहना ज़्यादा बेहतर होगा क्योंकि भारतीय खिलाड़ी हैदराबाद में हार के बाद भी जश्न मनाते नज़र आते है तो पाकिस्तानी कप्तान को यह कहना पड़ता है कि उसके हाथों में टीम की कमान तो है, लेकिन खिलाड़ियों पर उनका कोई काबू नहीं है. यही वजह है कि पाकिस्तानी कप्तान थकान का बहाना बनाकर कप्तानी के पद से अपना इस्ती़फा देते हैं. यह उस खिलाड़ी की दास्तां है जिसे संन्यास की घोषणा के बदले टीम की बागडोर मिली थी. शायद यह पाकिस्तान की नियति ही है, जो देश अपने वजूद में आने के समय से ही उथल पुथल में जी रहा है, वहां क्रिकेट जैसे खेलों में इस तरह की बातें बेहद ही आम है. यह हैरान करता है कि जो टीम तेज़ गेंदबाजों का गढ़ माना जाता है, उनके गेंदबाज़ न तो कोई करतब दिखाते नज़र आ रहे हैं और न ही टीम को जीत दिला पा रहे हैं. वहीं भारत की बात करें तो बल्लेबाज़ी के दम पर विरोधियो को पस्त करने वाली टीम के धाकड़ खिलाड़ियों को चंद रन बनाने में ही पसीने छूट रहे हैं. मानों ये सभी क्रिकेट नहीं अजब खेल के गज़ब खिलाड़ी हैं. भारत और पाकिस्तान की समस्याएं एक हैं, लेकिन उनके पहलू और कसूरवार अलग-अलग. पाकिस्तानी क्रिकेट जहां अपने प्रशासकों और खिलाड़ियों के ग़ैर ज़िम्मेदार रवैये से पतन की गर्त में जा रहा है तो भारतीय क्रिकेटर पैसे और ग्लैमर की चकाचौंध में खोते जा रहे हैं. दोनों ही टीमों ने अपने आख़िरी सीरीज़ में हार का स्वाद चखा है. दोनों टीमों ने अपने आखिरी सीरीज़ में हार का स्वाद चखा है और आगे भी डगर आसान नहीं है. यदि सबकुछ ऐेेसे ही चलता रहा तो दोनों देशों में क्रिकेट के लिए कयामत आने से भी इनकार नहीं किया जा सकता. विश्वकप के तारीखों का बिगुल बच चुका है और इनकी तैयारियां क्या गुल खिला रही हैं, ये भी सभी के सामने है. पिछले विश्वकप में दोनों का प्रदर्शन बेहद ही निराशा जनक रहा था फिर भी ये दोनों टीमें अपने इतिहास से सबक लेते नज़र नहीं आ रहे हैं, ऐसे में तो यही कहा जा सकता है कि यदि एकबार फिर पिछले विश्वकप की तरह ख़ुद को दोहराए तो कतई आश्चर्य नहीं.

निराशा, हताशा या उदासी

मीडिया में ख़बरें आती-जाती रहती हैं। इसका काम भी है, दिखना और उसका नतीजा क्या निकलता है इसकी परवाह कोई नहीं करता। हां, यदि कोई असर पड़ता हैतो उसका क्रेडिट लेना कभी नहीं भूलते। ये हमारी दिखाई गई रिपोर्ट का ही असर है, फलाने चैनल का इंपैक्ट, ...इतना ही नहीं ख़बरे नीचे एक्सक्लूसिव बैंड में दिखती हैं, पर दिख हर चैनल पर रहा होता है। व्यक्तिगत ज़िंदगी में बड़ी बड़ी और उसूल एवं आदर्शों की बातें करने वाले टीवी पर आते आते कि तरह की ख़बरे दिखाने लगते हैं यह हर कोई जानता है । अक्सर सुनने को मिलता है मालिक के हाथों पत्रकार मजबूर हैं, लेकिन कल के पत्रकार जो उस जगह पर पहुंच गए हैं, जहां उनके बूते कुछ भी करना आसान होता है, वह भी इसी दलदल का हिस्सा बन गए हैं। कल के दिग्गज और सफल पत्रकार आज एक सफल व्यवसायी बन गए हैं।
प्रभाष जी चले गए और उनके साथ चला गया पत्रकार धर्म का एक अहम और बड़ हिस्सा। अब चंद लोग उनके खाली जगह को हथियाने और क़ब्ज़ा करने में लगे हैं। कोई हैरत नहीं वो कामयाब भी हो जाएंगे। लेकिन उनकी यह कामयाबी पत्रकारिता के लिए बड़ी नाकामयाबी साबित होगी। अभी ख़ुद मीडियाकर्मी चापलूसों और कामचोरों से घिरे हैं। उन्होंने अपने आसपास समर्थकों का एक ऐसा चक्रव्यूह बना लिया है कि जिसे भेदना आज के किसी भी अर्जुन के बूते की बात नहीं रह गई है। मैं यह नहीं कहता कि सब जगह निराशा, हताशा या उदासी घर कर गई है, और ऐसा होना भी नहीं चाहिए। बेहतर भविष्य के लिए ज़रूरत है, हम ख़ुद को बेहतर बनाए। दूरों के दुख का उल्लास मनाने के बयाज ख़ुद के सुख पर हर्षित और उल्लासित हों.

वो ख़ुद ख़राब है

सबसे पहले शुरू करता हूं बद्र साहब की चंद पंक्तियों से,
नाहक ख्याल करते हो दुनिया की बातों का,
जो तुम्हें ख़राब कहे, वो ख़ुद ख़राब है।
और मैं भी मानता हूं कि.
यह सोचते सोचते अब आदत सी हो गई है,
कि हर कोई कहता है ख़राब मुझे,
कल उसका एसएमएस आया था,
वो भी कह रही थी ख़राब मुझे।
जमाना चिट्ठी पत्री और तार से होते-होते
अब एसएमएस तक आ गया,
शायद इसीलिए ख़राब बनने का दौर भी
लोगों को है भा गया।
कल वायदा किया था मैंने उसे,
अबकी तुमसे मिलूंगा ज़रूर,
पर मेरा ये वायदा भी,
रहा हर वायदे की तरह।

अब उनसे कहां होती है मुलाक़ातें
न बातें, न वो जज्बात, न कोई ख्याल,
सब अधूरी छूट गई, उस मोड़ पर
जब आख़िरी बार देखा था उसे
दांतों में उंगली दबाए मुस्कुराते हुए,
न जाने कहां गई वो बातें, मुलाक़तें।

वक़्त बीतता गया, हम ठहर से गए
वो जमाने क साथ बढ़ती गई,
हम इंतज़ार करते रहे, सोचते रहे...

पार्टी चालीसा की

आजकल सभी राजनीतिक दल किसी न किसी वजह से परेशान नज़र आ रहे है। आइए देखते हैं, कि किस तरह की उनकी समस्या है और कोशिश यह भी का निदान क्या है,.............सभी राजनीतिक दलों को सबसे पहले मेरा नमन,
१ बीजेपी हुई बहरी, इसे बचाओ,
२ सपा (समाजवादी पार्टी) इसे मत सताओ
३ बसपा को पूरे देश में बसाइए, तभी कल्याण है।
४ तृणमूल कांग्रेस- तृण यानी घास यानी जड़ से जोड़े रखो,
५ जेडीयू- जल्द जनता से जुड़िए, बिहार उपचुनाव के नतीजों के बाद
६ राजद- लालू जी जनता की सेवा करते करते राजा बन गए अब राजशाही छोड़िए,
७ लोकजनशक्ति- नाम लोकजनशक्ति लेकिन नहीं इसके पास कोई शक्ति, अब करते रहिए पासवान जी भक्ति
८ वाम मोर्चा- अब वक़्त आ गया है मोर्चा लेने का,
९ मनसे (महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना) - मन से लग जाइए एक नए महाराष्ट्र के निर्माण में।
१० एनसीपी- कांग्रेस की पिछलग्गू
११ शिवसेना- ये वाक़ई शिव सैनिक हैं, ज़रा सावधान रहिएगा, मनसे के बाद इन्ही की बारी है।
१३ कांग्रेस- आजकल इनकी कारगुजारियों के तले ही तो दबी है, भारतीय जनता। कांग्रस की जय हो

पीएम की संवेदनशील चिट्ठी

माफ़ी से किसी का पेट नहीं भरता है. यह हम भी जानते हैं और आप भी. यह बात हमारे प्रधानमंत्री जी भी जानते हैं. हमारी वजह से हत्या होती है तो हम जेल में होते हैं, भले ही ग़ैर इरादतन हत्या का मामला दर्ज़ हो. जिसमें फ़ांसी की सज़ा नहीं सुनाई जाती है. लेकिन हमारे प्रधानमंत्री जी ने किया तो वह भी माफ़ है, लेकिन उन्हें कौन बताए कि माफ़ी से किसी मजलूम के परिवार का पेट नहीं भरने वाला. प्रधानमंत्री जी के सुरक्षा में जितने लोग लगे रहते हैं उतने में न जाने कितने भारतीयों के दो वक़्त की रोटी का तज़ाम हो जाए. इस बात को वह भी जानते हैं और ख़ूब समझते भी हैं. लेकिन फिर भी मजबूर हैं, किसके हाथों. कोई मजबूरी नहीं, ये मजबूरी है भारतीय जनता की. उसके रहनुमा उन्हें कुचलते हुए चलते हैं, फिर भी कोई हर्ज नहीं. कहते हैं, लोकतंत्र में जनता अहम होता है, नेता नहीं. लेकिन हमारे प्रधानमंत्री ने साबित किया कि जनता नहीं नेता ही ख़ास होता है. आम आदमी तो हमेशा से ही आम रहा है, वह रहेगा भी. प्रधानमंत्री जी के क़ाफिले की सुरक्षा की वजह से एक शख्स की जान चली गई. प्रधानमंत्री जी ने अंग्रेज़ी भाषा में एक चिट्ठी लिखकर माफ़ी मांग ली और उनका अपराध हो गया माफ़. क्या यह अंग्रेज़ी में लिखी माफ़ी का असर है या प्रधानमंत्री होने का अभयदान. या दोनों. ये अजीब इत्तेफाक है, हमारे प्रधानमंत्री जी हिंदी नहीं समझते इसलिए उन्होंने चिट्ठी अंग्रज़ी में लिखी और जिसकी मौत हुई उसका परिवार अंग्रेजी नहीं समझ सकता इसलिए वह हिंदी के अलावा कुछ भी नहीं समझ सकता और वह प्रधानमंत्री जी ने क्या माफ़ी मांगी है वह भी नहीं समझ सका. इस तरह पीएम साहब की माफ़ी एक तरह से वहीं माफ़ी का मक़सद पता चल गया. उनकी संवेदनशीलता का भी अंदाज़ा लग गया. बस चंद लोगों ने बताया कि पीएम साहब ने आपके पति की मौत पर अफ़सोस ज़ाहिर किया है और माफ़ी मांगी है. और माफ़ी चिट्ठी लेकर गए कलेक्टर साहब ने चिट्ठी पर साइन भी करवा लिए, आप कह सकते हैं जबरन. पर उस महिला का सवाल शेष ही रहा माफ़ी से किसी पेट नहीं भरता. यहां एक बात और अहम है कि पीएम साहब ने अपना अफ़सोस तो ज़ाहिर कर दिया और सुरक्षा अधिकारियों को और संवेदनशील होने की बात भी कह दी, लेकिन उनकी इस सलाह की ऐसी तैसी तो कलेक्टर साहब ने वहीं कर दी, जो उनकी चिट्ठी लेकर उस मरहूम परिवास के पास गए थे. उस वक़्त शोक संतप्त परिवार, जिसका पति मरा था, वह बेचारी रो रही थी और कलेक्टर साहब उससे साइन करवा रहे थे कि ये सुनिश्चित हो जाए कि पीएम साहब की चिट्ठी सही हाथों में पहुंच चुकी है, ताकि कल को यदि कोई कहे कि उन्हें कोई माफ़ीनामा नहीं मिला तो उनके पास साइन के बाद सबूत के तौर पर पावती तो हो दिखाने के लिए. जिसे दिखाकर वह कह सकते हैं कि वह सच बोल रहे हैं और चिट्ठी सही हाथों में सुपुर्द किया. यह कोई लाखों या करोड़ों का मुआवजा थोड़े ही जिसे डकारा जा सकता है।
बशीर बद्र ने बिल्कुल सही कहा है,
वो नहीं मिला तो मलाल क्या, जो गुज़र गया सो गुज़र गया
उसे याद करे न दिल दुखा, जो गुज़र गया सो गुज़र गया।
यही बात उस परिवार को भी याद रखनी चाहिए, क्योंकि पीएम साहब से उम्मीद बस उतनी ही है जितना बिल्ली के गले में घंटी बांधना। जिसकी कोई हिमाकत नहीं कर सकता। क्योंकि वह पीएम हैं। वह कह रहे हैं कि माफ़ी दीजिए तो समझ लीजिए मिल भी गई। वह कह रहे हैं, वह संवेदनशील हैं तो वाक़ई वह हैं.

मर्दों की मानसिकता

यह जमाना है, अधुनिकीकरण का। 21वीं सदी का और इस सदी में भारत भी काफ़ी तरक्की कर रहा है। आधुनिकता के लबादे में भारतीय समाज ख़ुद को पाकर फूले नहीं समा रही है। अक्सर हमें सुनने को मिलता है, अशिक्षा ही अधिकतर समस्याओं की जड़ होती है। बलात्कार जैसी घटनाएं कुंठा की भावना की वजह से होती हैं। यह कुंठा की भावना अशिक्षित लोगों में अधिक होती है. यदि इन कुंठित लोगों का शारीरिक और मानसिक विकास ढंग से हो तो यह कुंठा की भावना उनके के लिए व्यक्तित्व विकास में सहायक होता है। इसी तरह की बातें हमें सिखाई जाती हैं। लेकिन, मुनिरका में जो कुछ हुआ मामला ठीक इसके विपरीत था। यहां कुकृत्य एक आला दर्जे के शिक्षित इंसान ने किया। आईआईटी में शोध करने वाला छात्र ने। हालांकि यह का मामला अब शांत हो चुका है। मीडिया ने भी इसे कुछ अधिक तवज्जो नहीं दिया। मीडिया भी मर्दों की मुट्ठी में है। अखबारों की बात करें तो वहां भी चंद पैराग्राफ के अलावा कुछ भी देखने को नहीं मिला। मुनिरका का मामला किस बात की ओर इशारा करती है, थोड़ी बहुत झलक हमें एनडीटीवी पर देखने को मिली थी। रवीश न्यूज़ टेन में ख़ुद की एक स्पेशल रिपोर्ट तैयार करके ला थे। दरअसल, ख़ुद रवीश ने मुनिरका में काफ़ी अरसा बीताया है, सो उन्हें इसी बहाने मुनिरका की याद आ गई होगी। कुछ भी हो मणिपुरी छात्रा के साथ हुए हादसे को बड़े ही मार्मिक अंदाज़ में उठाया। मणिपुर या पूर्वोतर के लोग क्यों भारत से नहीं जुड़ पाते इसकी वजह भी इसी वाकये से सामने आती है। दरअसल, आज जब हम महिला सशक्तिकरणकी बात करते हैं तो लगता है ख़ुद के साथ छलावे के अलावा कुछ भी नहीं लगता। महज़ चंद अधिकार और आज़ादी देकर हम समझने लगे हैं कि महिलाओं के लिए बहुत बड़ा काम कर रहे हैं, लेकिन यह हमारी सबसे बड़ी ग़लतफ़हमी है। एकबार फिर इसे साबित किया मुनिरका में हुए इस कलंकी वारदात ने। जिसने हमारे समाज को कलंकित किया। यह साबित करने के लिए काफ़ी है कि भारतीय समाज में महिलाओं की क्या हैसियत है। हम मर्दों के लिए उनकी क्या उपयोगिता और अहमियत है। कहते हैं कि दिल बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है। इसी तरह हम भी कभी कभी दिल बहलाने के लिए उनके संदर्भ में कुछ अच्छी बातें कर जाते हैं। लेकिन कु, बात तो यही है कि हम मर्द उसे अभी भई अपने पैरों की जूती समझना ही बेहतर समझे हैं हो सकता हैं मैं कुछ मामलों में ग़लत होउं, लेकिन मेरी बात काफ़ी हद तक सही है। आज़ादी के इतने सालों बाद जब आज हमारे देश की कमान भले ही अप्रत्यक्ष तौर पर एक महिला के हाथों में है, उके बावजूद महिलाओं की ऐसी हालत कुछ नहीं, बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है.