टीआरपी और मीडिया पर नई बहस.......

इसके पहले वाला लेख मैंने महंगाई पर लिखा था...उसके बाद वाला भी महंगाई पर ही तैयार किया है...लेकिन उसे ड्रॉप करना पड़ रहा है....कोई मजबूरी नहीं है...दरअसल मीडिया का विद्यार्थी हूं....बहस भी आजकल मीडिया पर शुरू हो गई है...जाने माने पत्रकार, जिन्हें हम आदर्श नहीं तो कम से कम पत्रकार की कसौटियों पर खड़ा उतरने वाला पत्रकार मानते रहे हैं, ने एक बसह छेड़ दी है...टीआरपी का मसला....सबसे पहले हिंदुस्तान में आशुतोष का लेख पढ़ा...दिल को तसल्ली मिली...अब पत्रकारिता बदलेगी...उसकी रुपरेखा नहीं तो कंटेट के मामले में बदलाव तो ज़रूर होना चाहिए...लेकिन दर्द का एहसास होता है...ये लोग जब बदलाव या मीडिया के पतन पर कुछ लिखते हैं...मैनेजिंग एडीटर हैं...मेरे पसंदीदा एंकर्स में एक हैं...वह आज उस पद पर क़ायम हैं....जहां से फ़ैसले लिए जाते हैं...स्वर्ग की सीढ़ी कार्यक्रम की आलोचना की उन्होंने...लेकिन दिखाया किस चैनल ने उन्हें यह भी सोचना चाहिए...कहते हैं प्राइम टाइम यानी शाम के सात बजे से दस-ग्यारह बजे तक लोग ख़ूब चैनल देखते हैं...इस दौरान किस चैनल ने क्या दिखलाया....कहने की ज़रूरत नहीं है...बस अपने गिरेबां में झांकने की ज़रूरत है...मैं अभी नाम लेकर भी बता सकता हूं कि किस चैनल ने क्या-क्या दिखलाया....जो नहीं दिखलाने चाहिए थे....पर डर लगता है....आशुतोष सर ने यह कहा कि आज हिंदी के लोग मीडिया में इस गिरावट-पतन के ख़िलाफ़ कुछ नहीं बोलते....बोलने से उनको भी मेरी तरह डर लगता है...मैं भी इसी मीडिया का हिस्सा हूं....कल को नौकरी की ज़रूरत पड़ेगी उन्हीं के पास जाना होगा...नहीं देंगे....क्यों....तो उनकी आलोचना जो की मैंने....लेकिन जो लोग इस बहस की शुरूआत कर रहें हैं वे मीडिया के शीर्ष पदों पर हैं....फ़ैसला लेने वाले लोग हैं...न्यूज़ रूम में ख़बरें तय करने वाले...तो वे क्यों नहीं फ़ैसला लेते हैं......बस अब एक नया तरकीब निकाल लिया है....काग़ज़ काला करने का.....कम से कम उन्हें यह सब नहीं करना चाहिए....आइडिया का बेहतरीन एड आया है...उन्हें तो कम से कम उससे सीख लेनी चाहिए....उनकी जगह है टीवी, उन्हें कहने के बजाय करना चाहिए.....वह भी लिखने लगे तो अखबारों में ज़्यादा स्पेस लगेगा....उसके लिए ज़्यादा काग़ज़ चाहिए....फिर पेड़ काटना पड़ेगा.......यानी आइडिया के एड की हम सिर्फ़ तारीफ़ करना चाहते हैं....अमल नहीं.....
कभी कभी मुझे लगता है कि अखबारों में लिखने का मतलब कहीं ख़ुद को धीर-गंभीर और आदर्श का योद्धा बताना तो नहीं....क्योंकि लोग टीवी पर उनकी ख़बरें देखते देखते उनकी हक़ीक़त से वाक़िफ़ हो चुके हैं....

अब एक और बात रवीश कुमार ने भी अपने ब्लॉग पर इस संदर्भ में बहुत ही बढ़िया लिखा....पढ़कर अच्छा लगा...लेकिन पढ़कर ही अच्छा लगा...बाक़ी कुछ नहीं....उन्होंने बताया उनका चैनल भी टीआरपी की अंध भागदौड़ में पड़ चुका है....भले ही आपत्ति हो उन्हें मेरी बातों पर...लेकिन उनका अंदाज़ बताता है...किस तरह से ख़ुद को डिफेंड किया जाता है....फैन हो गया में उनकी लेखना का....अंधेर नगरी में रहते हुए ख़ुद के घर में किस तरह उजाला लाया जाता है...कालिख की कोठरी से बेदाग़ किस तरह कोई निकलता है...इसकी बेहतरीन मिसाल है....रवीश सर का वह लेख...पढ़िएगा ज़रूर....लेकिन माफ़ कीजिएगा सर अभी बच्चा हूं...हमें क्लास में जो पढ़ाई गईं.....उसी के हिसाब मैं अपनी बात रख रहा हूं...मैं आपकी विचारों का अभी भी कायल हूं......आप मना भी करेंगे तो भी रहूंगा.....लेकिन तकलीफ़ ज्यादा होती है.......पत्रकारिता के सभी पुरोधाओं को यह कहते हुए कि बदलाव की ज़रूरत है...जबकि बदलाव करने वाली जगहों पर वही लोग क़ाबिज़ हैं.......आगे जारी.....

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