कोरोना वायरस से जंग में हिंदू-मुसलमान और थूकने, छिपने, वायरस फैलाने की खबर... सब फेक न्यूज़ है !


यह सच है कि दिल्ली के निजामुद्दीन में तबलीगी जमात की वजह से देश में कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ जंग को नुकसान पहुंचा। इसकी वजह से कोरोना के हज़ारों मरीजों की संख्या बढ़ गई। कुछ अप्रत्याशित ख़बरें भी आईं। ऐसी ख़बरें आईं, जो साफ़ बताती है कि हमारा मीडिया कैसे इस्लामोफोबिया से ग्रसित है। इसकी वजह से वह फेक न्यूज़ फैलाने से भी बाज नहीं आता। ट्विटर पर दो मामलों में तो उत्तर प्रदेश पुलिस को बाकायदा चेतावनी तक देनी पड़ी। 
पहला मामला सहारनपुर का है, यहां ख़बर चलाई/छापी गई कि यहां क्वारंटीन किए गए तबलीगी जमात केलोग खाने में नॉनवेज न मिलने पर हंगामा कर रहे हैं। बाहर खुले में ही शौच कर देरहे हैं। सहारनपुर पुलिस ने बाकायदा नोटिस चस्पा करके इसका खंडन किया। पुलिस ने साफ कहा की ख़बर के बाद मामले की जांच की गई जो ग़लत निकली। फेक न्यूज़ थी। लेकिन इसका खंडन कहीं छपा नहीं। वैसे भी इस तरह एक धर्म विशेष के ख़िलाफ़ ख़बरे प्रमुखता से छपती हैं और खंडन कोने में। खंडन की यही विडंबना है। वैसेऐसी महामारी में झूठी खबरें फैलाने वाले किस जमात के लोग हैं? इनकी खबर कौन लेगा?
इसी तरह उत्तर प्रदेश के औरेया ज़िले का एक मामला है। यहां वॉट्सऐप के जरिए अफवाह फैलाई गई कि दिल्ली से आए 4-5 जमाती छिपे रहे और बाद में गायब हो गए। पुलिस ने इस मामले में कार्रवाई की तो ख़ुद को पत्रकार कहने वाले एक शख्स को गिरफ्तार किया।
एक मामला है मशहूर न्यूज एजेंसी एएनआई का। एजेंसी ने डीसीपी के हवाले से ख़बर चलाई कि उत्तर प्रदेश के ही नोएडा के सेक्टर-5 के हरोला में तबलीगी जमात के संपर्क में आने वाले लोगों को क्वांरटीन किया गया है। बाद में डीसीपी नोएडा ने इसका खंडन किया और कहा कि हमने तबलीगी जमात का नाम नहीं लिया था। कोरोना पॉजिटिव के संपर्क में आने वाले लोगों को नियमों के हिसाब से क्वारंटीन किया गया है।डीसीपी नोएडा ने साफ कहा कि आप (न्यूज़ एजेंसी) गलत बात को कोट कर रहे हैं और फेक न्यूज फैला रहे हैं।
इसी तरह ज़ी न्यूज के उत्तरप्रदेश/उत्तराखंड ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया गया कि फिरोजाबाद में चार तबलीगी जमाती कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं औऱ जब उन्हें लेने मेडिकल टीम गई, तो उन पर पथराव किया गया। इस पर फिरोजाबाद पुलिस ने ट्विटर पर जवाब दिया कि आपके द्वारा असत्य और भ्रामक खबरे फैलाई जा रही हैं। फिरोजोबाद में न ही किसी मेडिकल टीम और न ही किसी एम्बुलेंस पर पथराव किया गया है। फिरोजाबाद पुलिस ने तत्काल जी न्यूज को ट्वीट डिलीट करने को कहा। इसके बाद जी न्यूज की तरफ से ट्वीट डिलीट भी कर दिया गया। यानी फेक न्यूज फैलाने वाले को बैकफुट पर आना पड़ा।
बात यहीं नहीं थमती। यह तो मेन स्ट्रीम मीडिया का हाल है। सोशल मीडिया पर भी इस तरह की कई बातें फैलाई जा रही हैं, जिनका सच्चाई से दूर-दूर तक लेना नहीं है। फैक्ट चेक वेबसाइट ऑल्ट न्यूज के मुताबिकफेसबुक पेज हिंदुस्तान की आवाज़ लाइव ने एक वीडियो शेयर करते हुए लिखा है, देखिए 14 दिन के एकांतवास में भी इन तबलीगी जमात के लोगों ने अश्लीलता और आतंक मचा रखा है…… क्वारंटीन में जमकर किया हंगामा। #सरम नाम की सारी हदें कर दी पार #खेला नंगा नाच. वीडियो हुवा वाइरल# प्रशासन है इन लोगो से परेशान#” ऑल्ट न्यूज ने जब फैक्ट चेक किया तो पता चला कि मामला तो पाकिस्तान का है। वहां के एक पुराने वीडियो को इस गलत दावे से शेयर किया जा रहा था कि आइसोलेशन वॉर्ड में तबलीगी जमात के लोग नंगा घूम रहे हैं और तोड़-फोड़ कर रहे हैं।
यह सारा शुरू हुआ निजामुद्दीन वाला मामला सामने आने के बाद। जब से जमात वाली ख़बर आई, तब से #CORONAJIHAD और #NizamuddinIdiot जैसे हैशटैग से मुसलमानों के खिलाफ तरह-तरह की फर्जी खबरें यानी फेक न्यूज और अफवाहें फैलाई जा रही हैं। फेक न्यूज़ ऐसी बाढ़ आई कि एक डॉक्यूमेट्री फिल्ममेकर यूसुफ सईद ने सोशल मीडिया पर पिछले कुछ सप्ताह के दौरान इन तमाम फेक न्यूज की लिस्ट बनानी शुरू कर दी। वह कहते हैं, ‘हम उनकी लापरवाही के लिए तबलीगियों का बचाव नहीं कर रहे हैं।लेकिन, इस तरह की फेक न्यूज़ का मकसद क्या है? सईद ने 5 अप्रैल को अपने फेसबुक पेज पर कुछ फर्जी यानी फेक न्यूज की रिपोर्ट और उससे जुड़े स्पष्टीकरण को पब्लिश किया है।
इनमें से एक उदाहरण देता हूं कि कैसे तबलीगी जमात का मामला सामने आने के बाद मुसलमानों से संबंधित पुराने वीडियो शेयर करने की बाढ़ आ गई है। जैसे- एक वीडियो खूब वायरल हुआ, जिसमें कुछ मुसलमान बर्तन को थूक से जूठा कर रहे हैं। वीडियो शेयर करने के दौरान कहा गया कि कोरोनो वायरस फैलाने के लिए जानबूझकर ऐसा किया जा रहा है। बाद में पता चला कि यह वीडियो 2018 का था। इसमें दाउदी बोहरा संप्रदाय के सदस्यों ऐसा कर रहे थे। दरअसल, दाउदी बोहरा संप्रदाय अनाज का एक भी दाना बर्बाद न करने में विश्वास करता है। इस वीडियों में वे बर्तन नहीं चाट रहे थे या जूठा कर रहे थे, बल्कि उसे धोने से पहले साफ कर रहे थे।
तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आख़िर कोरोना वायरस के नाम पर हम क्या कर रहे हैं? दरअसल, हमारे देश में जब तक हजरत निजामुद्दीन में तबलीगी जमात का मामला सामने नहीं आया था, तब तक कोरोना से हमारी जंग सही चल रही थी। टीवी चैनलों और कुछ अखबारों ने दिल्ली दंगों के बाद हिंदू-मुसलमान बंद ही किया था कि यह एक नई महामारी आ गई। उनकी मेहनत और ऊर्जा वैसी नहीं दिख रही थी, क्योंकि देश एकजुट होकर इस वैश्विक आपदा का सामना कर रहा था। सोशल मीडिया से लेकर मेन स्ट्रीम की मीडिया तक में हम एकजुट होकर लड़ रहे थे, लेकिन तभी नया मसाला मिला। तबलीगी जमात का। यहीं से कोरोना से जंग ने रुख मोड़ लिया।

कोरोना वायरस, हिंदू-मुसलमान और श्वेत-अश्वेत


कोरोना वायरस। पूरी दुनिया इस महामारी से लड़ रही है। लेकिन इसके साथ-साथ एक दूसरी लड़ाई भी चल रही है। सांप्रदायिकता की। नस्लवाद की। श्वेत-अश्वेत की और हिंदू-मुसलमान की। भारत में जब तक हजरत निजामुद्दीन में तबलीगी जमात के मामला सामने नहीं आया था, तब तक कोरोना से हमारी जंग सही चल रही थी। टीवी चैनलों और कुछ अखबारों ने दिल्ली दंगों के बाद हिंदू-मुसलमान बंद ही किया था कि यह एक नई महामारी आ गई। उनकी मेहनत और ऊर्जा वैसी नहीं दिख रही थी, क्योंकि देश एकजुट होकर इस वैश्विक आपदा का सामना कर रहा था। सोशल मीडिया से लेकर मेन स्ट्रीम की मीडिया तक में हम एकजुट होकर लड़ रहे थे, लेकिन तभी नया मसाला मिला। तबलीगी जमात का। यहीं से कोरोना से जंग ने रुख मोड़ लिया।
अमेरिका में बंदूक की दुकान पर कतार में लोग। फोटोः इंटरनेट
पूछा जाने लगा कि आख़िर यही 'चंद लोग' हमेशा 'अल्लाहु अकबर' कह कर क्यों फट जाते हैं? कश्मीर से लेकर गाजा तक और नाइजीरिया से लेकर सीरिया तक, यही 'चंद लोग' दशकों से कत्लेआम क्यों मचा रहे? अगर आप कहते हैं कि कौम या मजहब को गाली मत दो तो आपको एक और सवाल का जवाब देना पड़ेगा। "जमात वालों ने अपनी करतूतों से बिरादरों के लिए एक नया शब्द गढ़ा है- थूकलमान। इसकी कड़ी निंदा करता हूं।अब थूकलमान शब्द का प्रयोग किसके लिए किया गया है, आपको समझ आ रहा होगा। हालांकि, जिसके लिए और जिस संदर्भ में किया गया, उसकी पुष्टि हो नहीं पाई। आज चप्पे-चप्पे पर सीसीटीवी लगे हैं। फिर अस्पतालों से ऐसे वीडियो नहीं आए। ख़ैर मेरी चिंता यह नहीं है।
दरअसल, दिक्कत यह नहीं है कि यह सब भारत में हो रहा है। पूरी दुनिया में यही खेल चल रहा है। भारत में हिंदू-मुसलमान चल रहा है, तो अमेरिका में ब्लैक और व्हाइट यानी अश्वेत और श्वेत। हमारे यहां सांप्रदायिकता है, तो अमेरिका में भी एक तरह सांप्रदायिकता है, जिसे रेसिज्म यानी नस्लवाद कहते हैं। वह कैसे आइए देखिए। आज अमेरिका कोरोना वायरस की वजह से सबसे अधिक प्रभावित देश है। यहां (भारतीय समय के अनुसार रात 12:56 तक 24 घंटे में 1529 से ज्य़ादा मौतें हुईं, जबकि कुल मौत 12,400 वहीं, कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या 3 लाख 90 हजार तक पहुंच गई। इतनी मौतों और संक्रमण के लोगों में भय सताने लगा है कि अगर राशन और खाने-पीने का सामान खत्म हुआ, तो फिर अराजकता की स्थित हो जाएगी। ऐसे में लोग गन कल्चर यानी बंदूक का रुख कर चुके हैं। यहां बंदूकों की दुकानों पर लोगों की कतारें देखी जा सकती हैं। यह खौफ खासतौर पर अफ्रीकी और एशियाई मूल के अमेरिकियों में देखा जा रहा है।
कोरोना संक्रमण से सर्वाधिक प्रभावित इलाकों कैलिफोर्निया,  न्यू यॉर्क और वॉशिंगटन में बंदूक और हथियारों की बिक्री में भारी वृद्धि देखी गई है। ऑनलाइन हथियार बेचने वाली दुकान एम्मो डॉट कॉम के मुताबिक, 23 फरवरी के बाद से बिक्री में 68 प्रतिशत की तेजी आई है। कुछ खरीदारों ने बताया कि उन्हें डर है कि कामबंदी के हालात में देश में जरूरी वस्तुओं की कमी आ सकती है। इससे भोजन,  दवा आदि के लिए लूटपाट मच सकती है। ऐसी स्थिति में परिवार की सुरक्षा के लिए हथियार ही विकल्प होंगे। कई राज्यों में टॉइलेट पेपर से ज्यादा मांग बंदूकों और कारतूसों की हो गई। गन स्टोर्स के बाहर ग्राहकों की वैसे ही लाइन लगने लगी जैसे कि सुपर मार्केट्स में लग रही थी। 20 मार्च को ओरेगन पुलिस ने इंस्टेंट चेक सिस्टम के तहत 3189 आवेदन क्लियर किए। इलिनोय राज्य में भी पांच दिन में बंदूक खरीदने की 19 हजार अर्ज़ियां आ गईं। तुलना करें तो पिछले साल 9 से 20 मार्च के बीच बंदूक खरीदने के 17136 आवेदन आए थे, जबकि इस साल इन्हीं दिनों में 35473 आवेदन आए। कैलिफोर्निया में तो बंदूकों की बिक्री 800 फीसदी बढ़ गई है।
इसी बीच नस्लवाद भी बढ़ने लगा है। कुछ वैसे ही जैसे हमारे यहां एक खास वर्ग इन दिनों हावी है। उसी तरह अमेरिका में ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के श्वेत-अश्वेत खाई बढ़ी है। एक रिपोर्ट की मानें, तो ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के दो महीने के भीतर ही 1052 मामले नस्लवाद के दर्ज किए गए। यह मौजूदा समय में भी दिख रहा है, जब कोरोना महामारी की वजह से अमेरिका में अनिश्चितता तेजी से बढ़ी है और लोग अपनी सुरक्षा के लिए बंदूकों की दुकान पर कतारबद्ध होने लगे हैं, जिसमें अधिकांश अश्वेत अमेरिकी हैं। (अगले लेख में विस्तार से...)

मास्क पहनकर यूं 5 करोड़ जान लेने वाले स्पेनिश फ्लू से जीती जंग, अब कोरोना को हराने की बारी

1918 में जब स्पेनिश फ्लू महामारी फैली, तो इससे अमेरिका सहित यूरोपीय देशों में मास्क पहनने की संस्कृति ने जन्म ली। इससे तब 5 करोड़ से अधिक लोगों की जान लेने वाली इस महामारी पर काबू पाने में उम्मीद से अधिक मदद मिली। लेकिन लगता है 100 साल बाद अमेरिका और यूरोपीय देश इस मास्क संस्कृति को भूल गए, जिससे अमेरिका और इटली, स्पेन, जर्मनी, इंग्लैंड, फ्रांस जैसे में कोरोना वायरस का कहर बरप रहा। कोरोना वायरस की वजह से रविवार रात 1:38 बजे तक कुल 68,499 में से 51878 मौतें इन्हीं छह देशों में हुई हैं। अब शायद फिर इन्हें मास्क कानून लागू करना पड़े...

फोटोः इंटरनेट
तो हम बातें कर रहे थे स्पेनिश फ्लू की। आख़िर कैसे मास्क कल्चर ने इस महामारी को हराने में मदद की। अभी तक हमने बातें की कि अमेरिका में पहली बार कानून लागू किया गया कि मास्क न पहनना एक अपराध होगा। पॉपुलर कल्चर में इसे लेकर जागरूकता अभियान शुरू किए गए। महामारी से डर के चलते हर कोई मास्क पहन रहा था। इस अभियान ने काम करना शुरू कर दिया। अमेरिका के कई राज्यों जैसे कैलिफोर्निया वगैरह ने भी यही कदम उठाया। मास्क को लेकर अनिवार्यता सिर्फ अमेरिका तक ही सीमित नहीं रही। अटलांटिक देश भी इसी राह पर चले और स्पेनिश फ्लू से बचाव का उपाय मास्क में ही ढूंढ़ा। फ्रांस में एक समिति ने नवंबर 1918 की शुरुआत में मास्क पहनने की सिफारिश की। वहीं, इंग्लैंड का मैनचेस्टर भी इसमें आगे आया। स्पेनिश फ्लू से बचने के लिए जापान में स्टूडेंट प्रोटेक्टिव मास्क पहनकर स्कूल जाते थे। उधर, लॉस एंजिल्स के मेयर ने सरकारी तौर पर मास्क की खरीदारी की और लोगों से मास्क पहनने को कहा।
अब दिसंबर 1918 तक धीरे-धीरे पूरे यूरोप और उत्तरी अमेरिका में मास्क के इस्तेमाल में तेजी आई। इस दौरान मास्क की मांग इतनी बढ़ गई कि इसे बनाने वाली कंपनियां आपूर्ति को पूरा नहीं कर पा रही थीं।
फिर भी मास्क का चलन हर जगह बढ़ गया। यहां तक कि सफाई कर्मचारी से लेकर पुलिस भी बिना मास्क के नजर नहीं आती थी। युद्ध के मैदानों में सैनिक चेहरे पर मास्क और हाथों में हथियार लिए नजर आते। तब एक मशहूर जुमला चला था कि सैनिक युद्ध के दौरान गैस मास्क पहनें और घरों पर इन्फ्लुएंजा मास्क। दरअसल, जंग के मैदान में गैस चैंबर और इस तरह के खतरनाक गैसों से बचने के लिए सैनिक गैस मास्क पहनते थे। फिर स्पेनिश फ्लू आया, तो उससे बचने के लिए इन्फ्लुएंजा मास्क। तब वॉशिंगटन टाइम्स ने एक रिपोर्ट छापी थी कि घर लौटने वाले सैनिकों के लिए 45 हजार मास्क दिए जाएंगे।
जब 11 नवंबर 1918 को पहला विश्वयुद्ध खत्म हुआ, तो गैस-मास्क बनाने वाली कंपनियों का कारोबार ठप हो गया। ऐसे में उन्होंने स्पेनिश फ्लू से बचाव के लिए इन्फ्लुएंजा मास्क बनाना शुरू कर दिया। उस वक्त अमेरिकी अखबार सैन फ्रांसिस्को क्रॉनिकल ने फ्रंट पेज पर शहर के शीर्ष जजों और नेताओं की मास्क पहने तस्वीर छापी थी। शायद वह 25 अक्टूबर 1918 के दिन का अखबार था।
जल्द ही ऐसा वक्त आ गया कि कोई भी बिना मास्क के नजर नहीं आता। हर तरफ सभी मास्क पहने ही दिखते। बेशक कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने नियमों की धज्जियां उड़ाईं। तब का एक किस्सा है कि एक बॉक्सिंग मैच के दौरान कैलिफोर्निया में लगभग 50 फीसदी पुरुष दर्शकों ने मास्क नहीं पहन रखे थे। आज की तरह हर जगह सीसीटीवी या कैमरे नहीं होते थे। तब इनकी एक फोटो फोटोग्राफर ने ले ली थी। पुलिस ने उस वक्त फोटो को एनलार्ज यानी बड़ा किया और उस तस्वीर का इस्तेमाल करके मास्क न पहनने वालों की पहचान की। सभी को सजा के तौर पर "चैरिटी के लिए दान" करने और फिर चेतावनी देकर छोड़ दिया गया।
तो मास्क पहनने से फायदा हुआ?
दिसंबर 1918 की शुरुआत में लंदन के टाइम्स अखबार ने बताया कि अमेरिका में डॉक्टरों ने साबित किया कि स्पेनिश फ्लू लोगों के संपर्क में आने और संक्रमण की वजह से फैलता है। उस वक्त लंदन के एक अस्पताल में सभी कर्मचारियों और मरीजों को हमेशा मास्क पहने रहने का निर्देश जारी किया गया। अखबार ने एक जहाज के हवाले से इसकी सफलता की कहानी पेश की। टाइम्स ने बताया कि अमेरिका और इंग्लैंड के बीच न्यूयॉर्क से आने वाले जहाजों पर संक्रमण दर अधिक थी। इसके बाद जहाज के सभी चालक दल और यात्रियों को अमेरिका लौटते वक्त मास्क पहनने का आदेश दिया गया। इसके बाद जब जहाज अमेरिका पहुंचा, तो कोई भी यात्री संक्रमित नहीं पाया गया। कुछ इस तरह स्पेनिश फ्लू से बचाव में मास्क की जरूरत और सफलता की कहानी पेश की गई। इस तरह की खबरें तब दुनिया के कई देशों जापान, चीन के अखबारों में सामने आई, जिसमें बताया गया कि मास्क पहनने से संक्रमण की दर कम हो गई।
दिसंबर 1918 आते-आते स्पेनिश फ्लू का दूसरा दौर समाप्त हो गया। अमेरिकी शहरों और राज्यों में स्पेनिश फ्लू के मामले में अनिवार्य रूप से मास्क पहनने के कानून को खत्म करने की जरूरत महसूस की गई और अंततः 10 दिसंबर, 1918 को शिकागो के एक अखबार में इसकी खबर छपी कि अब इस मास्क कानून की जरूरत नहीं रह गई है। संभवतः ऐसा इसलिए था कि मास्क ने संक्रमण से फैलने वाले स्पेनिश फ्लू को पूरी तरह न सही, तो बहुत हद तक या इससे कहीं अधिक काबू पाने में मदद की थी।
अब आज क्या, कोरोना वायरस और फिर वही मास्क की जरूरत

1918 में अमेरिका ने सख्ती और तत्परता से मास्क को अपनाया था। लेकिन, एक सदी बाद अमेरिका ही अपनी सफलता से सबक नहीं सीख पाया। उस सबक को सीखा है, एशियाई देशों ने। संभवतः यही वजह है कि आज अमेरिका सहित यूरोप के तमाम देशों को चीन सहित कई देशों से मास्क और दास्तानों का आयात बड़ी संख्या में करना पड़ रह है। एशियाई देशों ने इस वजह से भी मास्क को अपनाया, एक सदी के बीच-बीच में इसने हैजा, टाइफाइड और अन्य संक्रामक रोगों के प्रकोपों ​​से निपटा है। इन संक्रामक रोगों के प्रकोप ने मास्क पहनने वाली संस्कृति जिंदा रखने में मदद की है। वहीं, अमेरिका और यूरोप में ऐसा नहीं देखा गया। अब लगता है कि कोरोना वायरस महामारी से फिर से उनकी सोच में बदलाव आए।

तब मास्क न पहनना अपराध था, और यूं 5 करोड़ जान लेने वाले स्पेनिश फ्लू से जीती जंग

Photo: wsj.com
कोरोना वायरस महामारी की वजह से पांच अप्रैल रात 1 बजे तक 64 हजार 51 लोगों की मौत हो चुकी है। 11 लाख 87 हजार 846 लोग इससे बीमार हैं। सबसे ज्यादा मौतें इटली में 15,362 हुई हैं। वहीं, अमेरिका में अकेले तीन लाख से ज्यादा लोग इससे संक्रमित हो चुके हैं। जबकि इस वायरस ने जहां जन्म लिया यानी चीन इसे लगभग पूरी तर नियंत्रित करने में सफल दिख रहा है। हालांकि, हम बात इस कोरोना वायरस से जंग और उसके तौर तरीके पर करेंगे। आखिर हम कैसे एक वायरस से जंग अपनी ही लापरवाही की वजह से हारते चले जा रहे हैं। इसमें सबसे बड़ी बात आती है, खुद को सुरक्षित रखना। खुद को सुरक्षित रखने में एक तरीका है मास्क पहनना। इसे लेकर अमेरिका में कई तरह के विवाद चल रहे हैं। राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप शुरू से मास्क पहनने के आदेश देने के खिलाफ रहे हैं, लेकिन अब उन्होंने भी हार मान ली है। हालांकि, उन्होंने खुद मास्क न पहनने का फैसला किया है।
अमेरिका की सिएटल पुलिस 1918 में मास्क पहनी नजर आई...तस्वीरः सीएनएन
हमारी कहानी यह भी नहीं है। हमारी बात यह है कि मौजूदा कोरोना वायरस से भी भयानक एक महामारी आई थी स्पेनिश फ्लू। वह भी 1918 में। तब पहला विश्वयुद्ध खत्म हुआ ही था या खत्म होने की कगार पर था। वैसे स्पेनिश फ्लू का मतलब यह नहीं है कि इसकी उत्पत्ति स्पेन में हुई थी। इसका पहला केस अमेरिका में आया। लेकिन, अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैंड जैसे देशों ने प्रथम विश्वयुद्ध की वजह से कई खबरों या कहें मीडिया पर कई तरह की पाबंदियां लगाई हुई थीं। लेकिन स्पेन में मीडिया न्यूट्र्ल था। वहां इसकी रिपोर्टिंग हुई औऱ आगे चलकर इसी वजह से इसका नाम स्पेनिश फ्लू हुआ। दुनिया की एक तिहाई आबादी इसकी चपेट में आई थी। तकरीबन 5 करोड़ से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। ख़ैर हमारी कहानी यह भी नहीं है।
हम लौटते हैं अपनी मूल बात पर कि कैसे कोरोना महामारी में लोगों ने लापरवाही बरती। लापरवाही यह कि मास्क न पहनना। स्पेनिश फ्लू जब फैला, तब भी दुनियाभर में लोग मास्क पहने नजर आए थे। इसी मास्क ने दुनिया के लोगों को संक्रमण से बचाया था। कहा तो यह भी गया कि अमेरिका में तब कुछ हिस्सों में मास्क न पहनना गैरकानूनी था। यानी अगर आप मास्क नहीं पहनते हैं, तो समझिए आप अपराध कर रहे थे। अगर लेकिन इस बार आख़िर क्या बदला सा दिख रहा है। तब मास्क न पहनना अपराध था, और यूं 5 करोड़ जान लेने वाले स्पेनिश फ्लू से जीती जंग। तब और अब में फिर अंतर क्या है?
तो यह था अंतर। जब कोरोनो वायरस महामारी ने एशिया को चपेट में लेना शुरू किया, तो पूरे महाद्वीप में लोग मास्क पहनने लगे। ताइवान और फिलीपींस जैसे कुछ देशों में तो इसे अनिवार्य कर दिया गया। लेकिन, पश्चिमी देशों में इसे लेकर एक लापरवाही-सी रही। इंग्लैंड के मुख्य चिकित्सा अधिकारी क्रिस व्हिट्टी ने तो दावा तक किया कि मास्क पहनना कोई जरूरी नहीं है। लेकिन आप जानते हैं स्पेनिश फ्लू और कोरोना वायरस महामारी में यहीं एक बात अहम हो जाती है। स्पेनिश नियंत्रित होने के बाद अक्टूबर 1918 में अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में महामारी फिर तेजी से फैलने लगी। अस्पतालों में संक्रमितों की संख्या में वृद्धि होने लगी। इसके बाद 24 अक्टूबर, 1918 को सैन फ्रांसिस्को ने मास्क अध्यादेश पारित किया। यह पहली बार था, जब सार्वजनिक रूप से मास्क पहनना अमेरिकी धरती पर अनिवार्य किया गया। सैन फ्रांसिस्को में सार्वजनिक रूप से मास्क अनिवार्य करने के बाद जागरूकता अभियान शुरू हुआ। लोगों को बताया गया कि "मास्क पहनें और अपना जीवन बचाएं! एक मास्क स्पेनिश फ्लू से बचाव की 99% गारंटी है।" मास्क पहनने के बारे में गाने तक लिखे गए। यहां तक कि बिना मास्क के बाहर पाए जाने वाले को जुर्माना या जेल भी हो सकती थी। (आगे जारी...)

आइए हम सभी केजरीवाल से नफ़रत करें...!

बेहद ही अजीब है हमारा देश. नफ़रत करना हमें पसंद है. हम अपनी समस्याओं और सरकार की नाकामियों से इतने आजिज आ चुके हैं कि अब हमें नफ़रत करने के लिए मीडिया द्वारा उठाए गए मुद्दों की ज़रूरत पड़ गई है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में बिना किसी तर्क, औचित्य और सहिष्णुता के किसी को निशाना बनाया जा रहा है.
आम आदमी पार्टी (आप) के नेता अरविंद केजरीवाल ने हालिया लोकसभा चुनावों में बेहद सादगी से चुनाव लड़ा. अन्य दलों की तरह प्रचार-प्रसार का युद्ध नहीं छेड़ा, बस जनता से संपर्क की कोशिश की. इसके बावजूद आप के सिर्फ चार सांसद ही संसद पहुंच सके और खुद केजरीवाल प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी से बनारस में तीन लाख 37 हज़ार से भी अधिक वोटों से हार गए. अगर ईमानदारी से कहूं, तो बनारस में मोदी को चुनौती देना केजरीवाल का मूर्खतापूर्ण कदम था. वे अपने लोकसभा क्षेत्र से लड़ सकते थे और अपनी सीट जीतकर संसद में जा सकते थे और अगले पांच वर्षों तक संसद में जाकर बहुत बड़ा अंतर पैदा कर सकते थे. क्या यह वही रास्ता नहीं था, जिसके आधार पर पहली नज़र में वे अन्ना हज़ारे से अलग हुए
अरविंद केजरीवाल के प्रति नफ़रत पिछले साल उस वक्त शुरू हुई, जब उन्होंने 49 दिनों के भीतर ही दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया. हां, उन्होंने दिल्ली और पूरे देश के विश्वास के साथ धोख़ा किया, क्योंकि सबकी निगाहें केजरीवाल पर थी. यह निराशा नफरत में बदल गई और हम उसे फर्जीवाल, फेकरीवाल और भगोड़ा कहने लगे. यहां तक कि हिंदी के कुछ ऐसे पारंपरिक शब्दों का इस्तेमाल केजरीवाल के खिलाफ किया जाने लगा, जिसे शायद ही कोई सार्वजनिक तौर पर प्रयोग कर सकता है. अगर अधिक नहीं, तो कई बार उसे जस्टीफाई भी किया गया.
केजरीवाल ने इस सप्ताह लोगों से ज्यादा से ज्यादा से माफ़ी और एक और मौक़ा ही मांगा था. केजरीवाल ने दिल्ली और देश की जनता से माफ़ी मांगी. उन्होंने अपनी ग़लती और अनुभवहीनता को स्वीकार किया. उन्होंने इसकी वजह भी बताई और अपनी ग़लतियों को सुधारने के लिए एक और मौक़ा मांगा.
और हम क्या करते हैं? हम सोशल मीडिया पर केजरीवाल को भला-बुरा कह रहे हैं, नाटकबाज बता रहे हैं और इस तरह की तमाम आरोप लगा रहे हैं और सार्वजनिक तौर पर उनके पीटे जाने के बारे में बाते कर रहे हैं और क्या नहीं. यहां यह भी बताने की ज़रूरत है कि उनके समर्थकों को अंग्रेजी में आपटर्ड्स (जो अंग्रेज़ी की गाली का स्वरूप है) और हिंदी में आपिए (जो हिंदी में एक गाली का स्वरूप है) कहा जा रहा है. गनीमत है उन्हें नस्लभेदी नहीं कहा जा रहा.
चुनाव से पहले अरविंद केजरीवाल को कोई छूना नहीं चाहता था. केजरीवाल आए और उन्होंने देश के सर्वाधिक प्रभावशाली लोगों के खिलाफ भ्रष्टाचार और कालेधन का आरोप लगाया और इन आरोपों को ख़ारिज करने और केजरीवाल पर ही ऐसे आरोप लगाने के अलावा किसी ने कुछ नहीं किया. लेकिन, अब चुनावों में भाजपा भारी बहुमत से जीत चुकी है. नितिन गडकरी ने जो मानहानि का केस उन पर किया हुआ है. यह केस चुनावों से पहले किया गया था, लेकिन फिर भी वैसे तमाम अपराध जो लोग कर सकते हैं उन सभी मामलों में किसी को भ्रष्टाचारी कहने पर उसके ख़िलाफ़ केस दर्ज का मतलब समझा जा सकता है.
केजरीवाल ने जमानत या बेल बॉन्ड के 10 हजार रुपए की राशि जमा करने से इनकार कर दिया और उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. हम केजरीवाल को कानून से ऊपर होने का आरोप क्यों लगाते हैं? किसी भी प्रतिवादी के पास बेल की राशि जमा न करने का अधिकार है. यह एक विकल्प है, न कि कोई क़ानून. उन्होंने कहा कि अदालती सुनवाई में वह अपना पक्ष रखेंगे. हालांकि, इसमें कोई शक़ नहीं कि उन्हें अदालत के फ़ैसले का सम्मान करना चाहिए था, जैसा कि उन्होंने हाईकोर्ट के कहने के बाद किया. केजरीवाल सोशल मीडिया पर ऐसे लोगों के सवालों का जवाब देने के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं. लोगों को यह समझने की आवश्यकता है. केजरीवाल के प्रति नफ़रत की भावना रखने से उन्हें कुछ नहीं मिलने वाला है.
अगर 2011 में जाएं, तो उस वक्त भी इन्हीं आरोपों के आधार पर वे जेल गए थे. उस वक्त वे महज एक्टिविस्ट थे, राजनीतिक नेता नहीं. उन्हें फंसाना आसान था. फिर भी उन्होंने इस वक्त भी जमानत की राशि नहीं दी. उसके बाद वे लोगों के बीच नायक की तरह पसंद किए जाने लगे. तब केजरीवाल को कानून से ऊपर क्यों नहीं माना गया. हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी खुद अंग्रेजों द्वारा कई बार जेल भेजे गए, उन्हें जमानत के तौर पर 1 रुपए की राशि देने को कहा गया, लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया.
हम हर बार अपराधियों को चुनकर संसद में भेजते हैं. भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में शामिल लोग, काले धन कमाने वाले बड़ी ठाठ से अपनी जिंदगी जीते हैं. सभी को माफ़ कर दिया जाता है और उन्हें दोबारा चुनकर संसद भेज दिया जाता है.
फिर केजरीवाल क्यों नहीं? एक स्वच्छ छवि, शिक्षित और बेदाग इतिहास एवं काम करने की ईमानदारी इच्छा वाले क्यों नहीं. आज कांग्रेस और भाजपा आप और केजरीवाल के बारे में जो हमें दिखाना चाह रही है हम वहीं देख रहे हैं. जो सुनाना चाह रही है, हम वहीं सुन रहे हैं. लेकिन, ज़रूरत है कि एक बार सोचने की. केजरीवाल को एक और अवसर देने की.