बेहद ही अजीब है हमारा देश. नफ़रत करना
हमें पसंद है. हम अपनी समस्याओं और सरकार की नाकामियों से इतने आजिज आ चुके हैं कि
अब हमें नफ़रत करने के लिए मीडिया द्वारा उठाए गए मुद्दों की ज़रूरत पड़ गई है. दुनिया
के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में बिना किसी तर्क, औचित्य और सहिष्णुता के किसी को
निशाना बनाया जा रहा है.
आम आदमी पार्टी (आप) के नेता अरविंद
केजरीवाल ने हालिया लोकसभा चुनावों में बेहद सादगी से चुनाव लड़ा. अन्य दलों की
तरह प्रचार-प्रसार का युद्ध नहीं छेड़ा, बस जनता से संपर्क की कोशिश की. इसके
बावजूद आप के सिर्फ चार सांसद ही संसद पहुंच सके और खुद केजरीवाल प्रधानमंत्री पद
के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी से बनारस में तीन लाख 37 हज़ार से भी अधिक वोटों से हार
गए. अगर ईमानदारी से कहूं, तो बनारस में मोदी को चुनौती देना केजरीवाल का
मूर्खतापूर्ण कदम था. वे अपने लोकसभा क्षेत्र से लड़ सकते थे और अपनी सीट जीतकर
संसद में जा सकते थे और अगले पांच वर्षों तक संसद में जाकर बहुत बड़ा अंतर पैदा कर
सकते थे. क्या यह वही रास्ता नहीं था, जिसके आधार पर पहली नज़र में वे अन्ना
हज़ारे से अलग हुए?
अरविंद केजरीवाल के
प्रति नफ़रत पिछले साल उस वक्त शुरू हुई, जब उन्होंने 49 दिनों के भीतर ही दिल्ली
के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया. हां, उन्होंने दिल्ली और पूरे देश के
विश्वास के साथ धोख़ा किया, क्योंकि सबकी निगाहें केजरीवाल पर थी. यह निराशा नफरत
में बदल गई और हम उसे फर्जीवाल, फेकरीवाल और भगोड़ा कहने लगे. यहां तक कि हिंदी के
कुछ ऐसे पारंपरिक शब्दों का इस्तेमाल केजरीवाल के खिलाफ किया जाने लगा, जिसे शायद
ही कोई सार्वजनिक तौर पर प्रयोग कर सकता है. अगर अधिक नहीं, तो कई बार उसे
जस्टीफाई भी किया गया.
केजरीवाल ने इस
सप्ताह लोगों से ज्यादा से ज्यादा से माफ़ी और एक और मौक़ा ही मांगा था. केजरीवाल
ने दिल्ली और देश की जनता से माफ़ी मांगी. उन्होंने अपनी ग़लती और अनुभवहीनता को
स्वीकार किया. उन्होंने इसकी वजह भी बताई और अपनी ग़लतियों को सुधारने के लिए एक
और मौक़ा मांगा.
और हम क्या करते
हैं? हम सोशल मीडिया पर केजरीवाल को भला-बुरा कह रहे हैं, नाटकबाज बता रहे हैं और इस तरह की तमाम आरोप लगा रहे हैं और
सार्वजनिक तौर पर उनके पीटे जाने के बारे में बाते कर रहे हैं और क्या नहीं. यहां
यह भी बताने की ज़रूरत है कि उनके समर्थकों को अंग्रेजी में आपटर्ड्स (जो
अंग्रेज़ी की गाली का स्वरूप है) और हिंदी में आपिए (जो हिंदी में एक गाली का
स्वरूप है) कहा जा रहा है. गनीमत है उन्हें नस्लभेदी नहीं कहा जा रहा.
चुनाव से पहले
अरविंद केजरीवाल को कोई छूना नहीं चाहता था. केजरीवाल आए और उन्होंने देश के
सर्वाधिक प्रभावशाली लोगों के खिलाफ भ्रष्टाचार और कालेधन का आरोप लगाया और इन
आरोपों को ख़ारिज करने और केजरीवाल पर ही ऐसे आरोप लगाने के अलावा किसी ने कुछ
नहीं किया. लेकिन, अब चुनावों में भाजपा भारी बहुमत से जीत चुकी है. नितिन गडकरी
ने जो मानहानि का केस उन पर किया हुआ है. यह केस चुनावों से पहले किया गया था,
लेकिन फिर भी वैसे तमाम अपराध जो लोग कर सकते हैं उन सभी मामलों में किसी को
भ्रष्टाचारी कहने पर उसके ख़िलाफ़ केस दर्ज का मतलब समझा जा सकता है.
केजरीवाल ने जमानत
या बेल बॉन्ड के 10 हजार रुपए की राशि जमा करने से इनकार कर दिया और उन्हें न्यायिक
हिरासत में भेज दिया गया. हम केजरीवाल को कानून से ऊपर होने का आरोप क्यों लगाते
हैं? किसी भी प्रतिवादी
के पास बेल की राशि जमा न करने का अधिकार है. यह एक विकल्प है, न कि कोई क़ानून.
उन्होंने कहा कि अदालती सुनवाई में वह अपना पक्ष रखेंगे. हालांकि, इसमें कोई शक़
नहीं कि उन्हें अदालत के फ़ैसले का सम्मान करना चाहिए था, जैसा कि उन्होंने
हाईकोर्ट के कहने के बाद किया. केजरीवाल सोशल मीडिया पर ऐसे लोगों के सवालों का
जवाब देने के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं. लोगों को यह समझने की आवश्यकता है. केजरीवाल
के प्रति नफ़रत की भावना रखने से उन्हें कुछ नहीं मिलने वाला है.
अगर 2011 में जाएं,
तो उस वक्त भी इन्हीं आरोपों के आधार पर वे जेल गए थे. उस वक्त वे महज एक्टिविस्ट
थे, राजनीतिक नेता नहीं. उन्हें फंसाना आसान था. फिर भी उन्होंने इस वक्त भी जमानत
की राशि नहीं दी. उसके बाद वे लोगों के बीच नायक की तरह पसंद किए जाने लगे. तब
केजरीवाल को कानून से ऊपर क्यों नहीं माना गया. हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी
खुद अंग्रेजों द्वारा कई बार जेल भेजे गए, उन्हें जमानत के तौर पर 1 रुपए की राशि
देने को कहा गया, लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया.
हम हर बार
अपराधियों को चुनकर संसद में भेजते हैं. भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में शामिल
लोग, काले धन कमाने वाले बड़ी ठाठ से अपनी जिंदगी जीते हैं. सभी को माफ़ कर दिया
जाता है और उन्हें दोबारा चुनकर संसद भेज दिया जाता है.
फिर केजरीवाल क्यों
नहीं? एक स्वच्छ छवि,
शिक्षित और बेदाग इतिहास एवं काम करने की ईमानदारी इच्छा वाले क्यों नहीं. आज
कांग्रेस और भाजपा आप और केजरीवाल के बारे में जो हमें दिखाना चाह रही है हम वहीं
देख रहे हैं. जो सुनाना चाह रही है, हम वहीं सुन रहे हैं. लेकिन, ज़रूरत है कि एक
बार सोचने की. केजरीवाल को एक और अवसर देने की.