हिंदू इस्लाम के उन गुणों से कम वाकिफ़ थे, जिसकी वजह से यह धर्म क्रांतिकारी समझा जाता था। और ऐसा नहीं कि आज नहीं है, है और सौ फ़ीसदी है, लेकिन उनके मानने वालों में अज्ञानता है, सहनशीलता नहीं है। ख़ासतौर पर " भारतीय मुसलमानों की अज्ञानता कम नहीं है। पूरी दुनिया जानती है कि प्राचीन समय में सभ्यता का गुरू भारतवर्ष था, लेकिन हिंदुस्तान में आज ऐसे बहुत से मुसलमान हैं, जो खुलकर बोलते तो नहीं, पर मन ही मन यह महसूस करते हैं कि मुसलमानों के आने के पहले भारत की संस्कृति बहुत उंची नहीं थी। " जो कहीं-न-कहीं आज भी बरकरार है। यहां पर समस्या दो तहजीबों के बीच के टकराहट की हो जाती है, जिसे न तो हिंदू और न ही मुसलमान समझने की कोशिश करते हैं। ऐसे हालात में आख़िर वो कौन से उपाय हैं, जिससे हिंदू मुसलमान को और मुसलमान हिंदू के क़रीब आ जाए, केवल कहने को नहीं बल्कि सही मायनों में। दरअसल ऐसे में सारा मामला मनोवैज्ञानिक पहलू में आकर उलझ जाता है। ये सच है कि हिंदुस्तान पर मुसलमानों का वर्चस्व काफी समय तक रहा, चाहे वह जिस हिसाब से रहा हो। और इस दौरान ऐसे कई क़िस्से हुए जो नहीं होने चाहिए। बात यहीं आकर रूकती है कि, हिंदुओं की मानसिक कठिनाई है कि इस्लाम का अत्याचार उन्हें भुलाए नहीं भूलता और मुसलमान यह सोचकर पस्त हैं कि जिस देश पर उनकी कभी हुकूमत चलती थी, उसी देश में उन्हें अल्पसंख्यक बनकर जीना पड़ रहा है
कभी बाबरी, तो कभी गोधरा ये सारी बातें मुसलमानों के दिल में दहशत पैदा करते हैं, जो किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता है। आख़िर दंगे में जो लोग मारे जाते हैं उनमें बच्चे, बूढ़े, औरतें होती जिनका कोई कसूर न होते हुए भी मौत के घाट बड़ी बेरहमी से उतार दिए जाते हैं। यही बात हिंदुओं के संदर्भ में भी लागू होती है। लेकिन बहुसंख्यक होने नाते हमारा कर्तव्य अधिक हो जाता है। साथ ही यह भी सच्चाई है कि प्रजातंत्र में ऐसा कोई भी तरीक़ा नहीं है, जिससे अल्पसंख्यक लोग बहुसंख्यक बना दिए जाएं। लेकिन, ऐसे तरीक़े तो हर शासन में अपनाए जा सकते हैं, जिससे अल्पसंख्यकों की हर जायज़ शिकायत दूर की जा सके। लेकिन यह तभी मुमकिन है, जब अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक सुमदाय एक-दूसरे पर भरोसा करे, यकीन करे।
यहां बात यह आती है कि मुसलमानों को यह समझना है कि उसके धर्म और स्वदेश-प्रेम में कोई विरोध नहीं है। अमीर खुसरो, अकबर, जायसी भी मुसलमान थे और भारत भक्त भी और हिंदुओं को यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि इस्लाम की ओर से जिन लोगों ने भारत पर हमले कि वे इस्लाम के सही प्रतिनिधि नहीं थे...आख़िर मुगल अकबर और औरंगजेब में कोई कैसे समानता बता सकता है, जबकि दोनों अपने हिसाब से इस्लाम की सेवा कर रहे थे ?
सहयोग-संस्कृति के चार अध्याय।
सवाल - हिन्दू और मुसलमान ! झगडे़ की जड़ क्या ?
ReplyDeleteजवाब - हम
हा हा!
maza aa gaya, behad hi gyanvardhak
ReplyDeleteअकबर और औरंगज़ेब वाकई इस्लाम की "सेवा" कर रहे थे, इसमें कोई शक नहीं… :)
ReplyDeleteलेकिन दोनों में काफी फ़र्क था और यही फ़र्क सच्चे और धर्म के नाम पर बहकाने वाले में है
ReplyDeleteislam ki sewa aise hi karte rahiye
ReplyDeleteआप भी बड़ा अच्छा मजाक कर लेते हो चंदनजी, अकबर और औरंगजेब एक ही सिक्के के दो पहलू थे. आपने अकबर को सह्रदय माना है लेकिन...अकबर को गाजी की पदवी से नवाजा गया था. और गाजी का मतलब तो आप समझते ही होंगे! दूसरी बात आपने औरंगजेब को क्रूर माना है लेकिन उसे महान दयावान, धर्मप्रेमी और मानवता का पुजारी साबित करने में जुटा धर्मनिरपेक्ष और वामपंथी कुनबा आप से नाराज न हो जाए इसका ध्यान रखिये. वरना आपका सेकुलर चरित्र लांछित हो जाएगा और 'साम्प्रदायिक' करार दी जाओगे!
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