गोत्र, गांव और ग्लोब्लाइजेशन

कहने को तो हम मॉडर्न हो गए हैं। जी हां हो भी गए हैं, लेकिन वो इंडिया है या भारत। यदि दोनों है तो अभी तक न तो इंडिया शाइनिंग हुआ है और न ही भारत-निर्माण। भरत अभी भी गांवों में बसता है, वही उसकी आत्मा भी है। लेकिन ये भी हक़क़ीत है कि कुछ चीज़ें ऐसी भी हो जाती हैं कि इंसानियत को भी शर्मसार कर देती है। एक ही गोत्र में शादी को लेकर हत्या, इस तरह के मामले आजकल काफी सुनने में आ रहे हैं। ऐसा क्यों ? क्या अंग्रेजियत की धमक वहां तक नहीं पहुंच पाई है ? क्या ग्लोब्लाइज़ेशन की हवा से गांव अभी भी महरूम हैं ? ऐसा भी नहीं है। गांवों में भी अब प्रेम विवाह होने लगे हैं और मां-बाप, उन्हें तक़लीफ तो होती है कि बेटे ने उसकी नहीं सुनी और नाक कटवा दी, लेकिन इसके बावजूद बेटे-बहू को अपना लेते हैं। जबकि अभी से महज पांच साल पहले की ही बात है, ऐसी कोई भी बात वहां होना मतलब आप जाति-बिरादरी से निकाल दिए जाते। बस यही एक फ़ैसला। ऐसी बात नहीं है कि पंचायतों की परमपरा वहां नहीं है, अभी भी हैं। लेकिन एक फ़र्क है उन्होंने ख़ुद को ज़माने के मुताबिक़ बदला भी। लेकिन कुछ जगहों पर एक ही गोत्र में शादी को लेकर पंचायतों का कायराना फ़ैसला अभी भी हमें शर्म से पाना-पानी होने पर मज़बूर कर देता है। नया मामला हरियाणा के झझर का है...दरअसल देखा जाए तो राजस्थान, हरियाणा जैसे राज्यों में पंचायतों का काफी बोलबाला रहता है। यहां तक कि हाल में जब मामला हरियाणा के सीएम और राहुल बिग्रेड के युवा सांसद दीपेंद्र हुड्डा के इलाक़े का आया और जब उनसे इस पर प्रतिक्रिया मांगी गई तो एक शब्द भी हलक से नहीं निकला कि इस घटना की आलोचना भी कर सकें। उन्हें भी अपनी सीमाएं मालूम है। इन जगहों पर पंचायतों का फरमान तालिबानी फरमानों से कम नहीं होता और किसी नेता या मंत्री में ये कुव्वत नहीं होती के उसके ख़िलाफ़ एक शब्द भी बोल सके। यहां तक कि न्यायपालिका(कोर्ट) तक के आदेश को ताक पर रख दिया जाता है। तभी तो हाल में पुलिस को पीट-पीट कर भगा दिया और उस युवक की बेरहमी से हत्या कर दी गई, जिसे अदालत ने सुरक्षा देने का जिम्मा प्रशासन को सौंपा था...उसके फैसले को पैरों तले रौंदते हुए ये सब हुआ तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि क़ानून कि क्या हैसियत है इस मुल्क में। परंपरा रीति-रिवाज के नाम सरेआम तमाशा होता रहता है और ऐसा नहीं कि जो लोग ऐसा करते हैं वो अनपढ़, जाहिल या गंवार होते हैं। वेल एजुकेटेड लोग भी इस बात का समर्थन करते हैं, जैसा कि दीपेंद्र हुड्डा ने इसे परंपरा का हवाला देकर चुप्पी साध ली थी। आख़िरीतौर बात आकर ठहरती है कि “ समरथ कछु दोष नहिं गुसाईं “ जो कि एक कड़वी सच्चाई है।

3 comments:

  1. जब तक आम आदमी अपनी आज़ादी इसी तरह के दोमुंहों के हवाले किये रहेगा ...इस संत्राप को तो सहना ही होगा. आैर नेताआें का क्या है उन्हें तो बस उन्हीं की हां में हां मिलानी है जो ज़्यादा वोट देकर उन्हें जिता सकें..

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  2. बेहतरीन. रचना बधाई।

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