जब भारी पड़ा जूनियर पत्रकार
कास्त्रो की कहानी
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सिक्सर किंग हुए आउट
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कॉस्टकटिंग के कारनामें
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ग़ौरतलब है कि सोनिया गांधी ने भी इकॉनमी क्लास में मुंबई तक सफर किया, लेकिन यह जानना भी दिलचस्प है कि उस १२२ सीटों वाले एयर इंडिया के प्लेन में महज़ ७२ लोगों को टिकट मिल पाई, क्यों अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं. इससे कितना नुकसान एयर इंडिया को हुआ, इस पर एयर इंडिया कह रहा होगा मैडम आप पहले जैस लावलश्कर से चलती थीं, वैसे ही चलिए. एक तो मंदी का टाइम उस पर कॉस्ट कटिंग के नाम पर कम से कम हमारा कॉस्ट तो मत बढ़ाइए.
दो ज़िदगी का अंतर
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न्यूज़-चैनलों ने बर्बाद कर दिया मीडिया
प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों ही मीडिया के रूप हैं। दोनों में फ़र्क़ भी बिल्कुल साफ है। इस क्षेत्र की जहां अपनी सीमाएं हैं, तो वहीं इलेक्ट्रॉनिक के लिए यह बात नहीं कही जा सकती। लेकिन एक हक़ीक़त यह भी है कि दोनों का एक दूसरे पर विश्वास भी नहीं के बराबर ही है। आख़िर इसकी वदह क्या हो सकती है, इस पर लंबी बस चली है और आगे भी चलती रहेगी। इसमें कोई अचरज की बात नहीं है। इनमें एक दो बातें बिल्कुल सामान्य सी है, जो सभी को सीधे तौर पर समझ में आती भी हैं। यह कि जिस तरह से पल-पल की ख़बरसे हम इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से लोगों तक पहुंचाते हैं, ऐसा कर पाना प्रिंट के लिए नामुमकिन है। और कितनी भी बड़ी ख़बर क्यों न हो, वह कल सुबह तक ही आप तक पहुंचेगी। तबतक टीवी वेले उसकी इतनी कचूमर निकाल चुके होते हैं, कि शायद पाठक उस चीज़ के प्रति उतनी उत्सुकता नहीं लेते जितनी उन्हें किसी घटना के बारे में टीवी से तत्काल मिलती है। इस तरह कई और बातें हैं, जिसका प्रत्यक्ष फ़ायदा टीवी के लोगों को मिलता है। लेकिन आज जिस तरह से न्यूज़-चैनलों की विश्वसनीयता गिरी है, इस मामले में अख़बार वाले (प्रिंट) चैनलों से बाजी मारते नज़र ही नहीं आते, बल्कि उनसे कोसों आगे हैं। और आज के समय में इसके मामने में कोई बदलाव भी नज़र आता नहीं दिखता। इसकी भी साफ वजह है। बाज़ार आज इस क़दर हावी हो चुका है कि चैनलों पर कि उन्हें टीआरपी के अलावा कुछ भी नहीं दिखता। उनकी विश्वसनीयता का आलम यह है कि हाल ही में आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री का हवाईजहाज गुम हो गया, इस दौरान पता नहीं इंडिया टीवी के मैनेजिंग एडीटर विनोद कापड़ी को कहां से ख़बर मिल गई, जहाज का पता चल गया है और मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी सही सलामत हैं। इस ख़बर को सहारा समय ने भी चलाया। जो कि बाद में कोड़ी कल्पना साबित हुई। ख़ैर इंडिया टीवी तो ऐसी कल्पना लोक में विचरता रहता है। लेकिन बात अहम यह है कि टीवी चैनलों ने ख़बर के नाम पर जो खिलवाड़ दिखाना शुरू किय़ा है, उसने तो मीडियी की विश्वसनीयता की ऐसा-तैसी कर दी है। इस मामले में अख़बारों की हालत थोड़ी ठीक ठाक ही है, हालांकि यहां भी ख़बरें पैसे देकर छापने जैसी बातें होती रहती हैं। यक़ीन का लेवल इस क़दर गिरा है कि पत्रकारों के सम्मेलन में एक केंद्रीय मंत्री ने तो यहां तक कह दिया कि मीडिया वाले चाहे जो कुछ भी दिखाते या छापते रहें, हमें कुछ नहीं फ़र्क़ पड़ता। तो ये हालत है मीडिया के विश्वनीयता की। लोग कह रहे हैं, आजकल मीडिया में बहुत बुरा दौर चल रहा है, मैं समझता हूं, वाक़ई। लेकिन यह आर्थिक मंदी का नहीं, बुरा दौर है इसकी पहचान और विश्वसनीयता की मंदी का.
दलालों की दुनिया है, मीडिया !
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मस्जिद तो बना ली दम भर में,
ईमा के हरारत वालों ने,
मन अपना पुराना पापी था,
बरसों में नमाजी बन न सका।
इसी तरह वर्षों के अनुभवी कई पत्रकारों की हालत ऐसी ही है। लेकिन हम बाज़ार या विदेशी निवेश को भी क्यों कसूरवार ठहराएं, पैसे के बग़ैर तो कोई व्यवसाय चल भी नहीं सकता। लेकिन वंश और भाई-भतीजावाद, क्षेत्रीयता का जो दीमक इसे दिन-ब-दिन खोखला करती जा रही, उसके बारें क्या कह सकते हैं। इसका कीड़ा तो हमारे ही अंदर है। इसका इलाज कौन करेगा। हम तो अपनी ही भूलभुलैया में घिरे हैं,
दुष्यंत ने ठीक ही कहा है,
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुंचा जाता,
हम घर में भटके हैं, कैसे ठौर-ठिकाने आएंगे।
आप भी ख़बर बन सकते हैं !
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एनडीटीवी इंडिया....चला इंडिया टीवी की राह !
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कौन कहता है, आसमान में सुराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो, यारो ! एनडीटीवी वालों ने सही में पत्थर उछाला भी था, उनका मिजाज भी शायद दुरूस्त ही था, लेकिन एक ग़लती कर बैठे पत्थर किचड़ में दे मारा। फिर होना क्या था, इस हमाम में वह भी नंगे हो गए। कल तक पब्लिक और दूसरे चैनल वालों को सबक सिखा रहे थे, आज ख़ुद ककहरा भी भूल बैठे। क्या ज़रूरत थी लोगों को सीख देने की जब एक दिन वही सब करना था।हाल में, एनडीटीवी के कई पत्रकारों को अवार्ड मिला लेकिन शायद वे सारे अपनी झोली में बटोरना चाहते थे, रजत शर्मा से बेस्ट एंटरप्रेन्योर का अवार्ड भी छीनना चाहते थे। कोई बात नहीं यह मंशा भी अगले साल पूरी हो ही जाएगी। अब बात कीजिए उनके नए फॉरमेट की जिससे एनडीटीवी का कायाकल्प हुआ है...कभी ६-७ के बीच रहने वाली उनकी टीआरपी दो अंकों में पहुंच गई। कोई बुरी बात नहीं। बधाई हो। लेकिन कैसे ? कभी इंडिया टीवी को यू-ट्यूब चैनल कहते थे, शायद अभी भी। लेकिन यह चैनल भी अब अजब-ग़जब में फंस गया है। ख़बर बिना ब्रेक के रात नौ बजे ज़्यादातर पेज-थ्री की ख़बरें, फिलहाल तीन-चार दिनों से नहीं देख रहा एनडीटीवी तो बदलाव और भी मुमकिन है-पोजिटीव और निगेटिव भी। कभी स्पेशल रिपोर्ट जो कि जान थी वाकई स्पेशल हो चुकी है। मेरे एक मित्र ने बताया अब तो ब्रेकिंग न्यूज़ भी इस पर माशा-अल्ला आने लगे हैं- अगर ज़्यादा ज़रूरी न हो तो घर से न निकलें। ठीक है साहब नहीं निकलेंगे। अपने फेसबुक पर एकबार फिर रवीश कुमार ने आप सभी से राय मांगी है कि आप रात १० बजे किस तरह की ख़बरें देखना पसंद करते हैं, तो बता दीजिएगा मेरी तरफ से भी शायद उनकी अदालत में हमारी फरियादों की सुनवाई हो जाए।
एक बार फिर कहूंगा, कुछ ज़्यादा ही परेशान हो रहा हूं मैं एनडीटीवी इंडिया के लिए। क्या करूं आख़िर जिन्ना साहब मेरा पीछा भी तो नहीं छोड़ रहे। क़ायदे साहब रवीश के सपने में आए, मेरे सपने में भी आए और कहा उस रवीश को समझाते क्यों नहीं, कि जो शीशे के घरों में रहते हैं, वो दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं मारते।
बदल रहा है.....एनडीटीवी----इंडिया.
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