माफ़ी से किसी का पेट नहीं भरता है. यह हम भी जानते हैं और आप भी. यह बात हमारे प्रधानमंत्री जी भी जानते हैं. हमारी वजह से हत्या होती है तो हम जेल में होते हैं, भले ही ग़ैर इरादतन हत्या का मामला दर्ज़ हो. जिसमें फ़ांसी की सज़ा नहीं सुनाई जाती है. लेकिन हमारे प्रधानमंत्री जी ने किया तो वह भी माफ़ है, लेकिन उन्हें कौन बताए कि माफ़ी से किसी मजलूम के परिवार का पेट नहीं भरने वाला. प्रधानमंत्री जी के सुरक्षा में जितने लोग लगे रहते हैं उतने में न जाने कितने भारतीयों के दो वक़्त की रोटी का तज़ाम हो जाए. इस बात को वह भी जानते हैं और ख़ूब समझते भी हैं. लेकिन फिर भी मजबूर हैं, किसके हाथों. कोई मजबूरी नहीं, ये मजबूरी है भारतीय जनता की. उसके रहनुमा उन्हें कुचलते हुए चलते हैं, फिर भी कोई हर्ज नहीं. कहते हैं, लोकतंत्र में जनता अहम होता है, नेता नहीं. लेकिन हमारे प्रधानमंत्री ने साबित किया कि जनता नहीं नेता ही ख़ास होता है. आम आदमी तो हमेशा से ही आम रहा है, वह रहेगा भी. प्रधानमंत्री जी के क़ाफिले की सुरक्षा की वजह से एक शख्स की जान चली गई. प्रधानमंत्री जी ने अंग्रेज़ी भाषा में एक चिट्ठी लिखकर माफ़ी मांग ली और उनका अपराध हो गया माफ़. क्या यह अंग्रेज़ी में लिखी माफ़ी का असर है या प्रधानमंत्री होने का अभयदान. या दोनों. ये अजीब इत्तेफाक है, हमारे प्रधानमंत्री जी हिंदी नहीं समझते इसलिए उन्होंने चिट्ठी अंग्रज़ी में लिखी और जिसकी मौत हुई उसका परिवार अंग्रेजी नहीं समझ सकता इसलिए वह हिंदी के अलावा कुछ भी नहीं समझ सकता और वह प्रधानमंत्री जी ने क्या माफ़ी मांगी है वह भी नहीं समझ सका. इस तरह पीएम साहब की माफ़ी एक तरह से वहीं माफ़ी का मक़सद पता चल गया. उनकी संवेदनशीलता का भी अंदाज़ा लग गया. बस चंद लोगों ने बताया कि पीएम साहब ने आपके पति की मौत पर अफ़सोस ज़ाहिर किया है और माफ़ी मांगी है. और माफ़ी चिट्ठी लेकर गए कलेक्टर साहब ने चिट्ठी पर साइन भी करवा लिए, आप कह सकते हैं जबरन. पर उस महिला का सवाल शेष ही रहा माफ़ी से किसी पेट नहीं भरता. यहां एक बात और अहम है कि पीएम साहब ने अपना अफ़सोस तो ज़ाहिर कर दिया और सुरक्षा अधिकारियों को और संवेदनशील होने की बात भी कह दी, लेकिन उनकी इस सलाह की ऐसी तैसी तो कलेक्टर साहब ने वहीं कर दी, जो उनकी चिट्ठी लेकर उस मरहूम परिवास के पास गए थे. उस वक़्त शोक संतप्त परिवार, जिसका पति मरा था, वह बेचारी रो रही थी और कलेक्टर साहब उससे साइन करवा रहे थे कि ये सुनिश्चित हो जाए कि पीएम साहब की चिट्ठी सही हाथों में पहुंच चुकी है, ताकि कल को यदि कोई कहे कि उन्हें कोई माफ़ीनामा नहीं मिला तो उनके पास साइन के बाद सबूत के तौर पर पावती तो हो दिखाने के लिए. जिसे दिखाकर वह कह सकते हैं कि वह सच बोल रहे हैं और चिट्ठी सही हाथों में सुपुर्द किया. यह कोई लाखों या करोड़ों का मुआवजा थोड़े ही जिसे डकारा जा सकता है।
बशीर बद्र ने बिल्कुल सही कहा है,
वो नहीं मिला तो मलाल क्या, जो गुज़र गया सो गुज़र गया
उसे याद करे न दिल दुखा, जो गुज़र गया सो गुज़र गया।
यही बात उस परिवार को भी याद रखनी चाहिए, क्योंकि पीएम साहब से उम्मीद बस उतनी ही है जितना बिल्ली के गले में घंटी बांधना। जिसकी कोई हिमाकत नहीं कर सकता। क्योंकि वह पीएम हैं। वह कह रहे हैं कि माफ़ी दीजिए तो समझ लीजिए मिल भी गई। वह कह रहे हैं, वह संवेदनशील हैं तो वाक़ई वह हैं.
चन्दन, बहुत सटीक जूता मारा है आपने ! आखिर यह कौन तय करता है कि कौन vip है और कौन vip नहीं है ?
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