कहानी में छिपा एक सच

ख़ुद को समझना भी कभी काफी मुश्किल होता है। दु:ख होता है जब हम ख़ुद को ही समझने की कोशिश में असफल होते हैं। अपनी बेचैनी, छटपटाहट और तड़प में हर पल जीने को मज़बूर हो जाते हैं। अपनी फीलींग्स का एहसास तो होता है, लेकिन जब उसे शब्दों में बयां नहीं कर पाते तो दिल की कसक जो एक कोने में छिपी रहती है, अक्सर टीस मारने लगती है। तब जीना लगता है मानो मौत से भी बदतर हो गई है।
जब हम कॉलेज की चारदीवारी के भीतर होते हैं, तो दुनिया हमारी मुट्ठी में होती है। सिगरेट के कश लगाते हुए जिंदगी ऐसे जीते हैं मानो किसी की फिक्र ही नहीं है। वीकेंड बीयर की बोतल और दोस्तों के साथ गुजरती है तो लगता है, ज़िदगी को हमने मुट्ठी में कर लिया है। फिर रात, दिन की तरह और दिन तो ख़ैर....पापा की डांट से जब सुबह होती तो हमेशा यही सोचता कहां से भगवान ने इन्हें मेरा बाप बना दिया। पता नहीं इतना पैसा रखकर क्या करेंगे। ख़ुद तो चालीस की उम्र में ही साठ के लगने लगे हैं और इनको लगता है कि मैं भी कुछ ऐसा करूं जो इनकी शोहरत में चार चांद लगाए। धन-दौलत में दिन-दोगुनी और रात-चौगुनी तरक्की होने लगे। लेकिन कौन बेवकूफ़ उनकी बातों पर अमल करता है। भैया को तो कभी नहीं कहते जबकि वो हमेशा आवारागर्दी में लगे रहते हैं। बड़े शान से अपने साथ रखने के लिए उनको ले गए थे। और बाद में मां और दीदी को भी ले गए। मुझे अकेला छोड़ दिया दादी के साथ। तब मेरी उम्र ही क्या थी...बस पांचवीं मे ही तो गया था। और पहली बार अकेले छोड़ दिया, बग़ैर ये जाने की मुझ पर क्या बीतेगी। उस पर जो कभी अकेला नहीं रहा। लेकिन फिर भी अकेला रह गया, कुछ भी नहीं बोला मैंने। इस तरह से हमेशा से अकेले रहने की आदत हो गई। शिवांगी , हां यही तो नाम था उसका। शिवांगी शर्मा। मेरे पूरे क्लास में तीन लड़कियों में सबसे ख़ूबसूरत और मुमकिन तौर पर हम सभी में सबसे अक्लमंद भी। क्लास का मिनटर होने के नाते काफी धाक थी मेरी। शायद इसलिए कि छोटी सी ग़लती पर भी मैं शिकायत कर देता था...जिसकी वजह से थोड़ा नकचढ़ा, जिद्दी और घमंडी भी था। एक ऐसा लड़का जिसे अपनी सीमित ताकत को ज़रा-सा भी शेयर करना कतई पसंद नहीं। लेकिन साथ में अपने काम के प्रति लगनशील और ईमानदार भी। एक बचपना था लेकिन कहीं गुम हो गया था।

1 comment:

  1. कहानी विस्तार की मांग करती है दोस्त......जारी रखो.

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