शब्दों की फितरत

आज भी शेष हैं यादें,
धुंधली भले ही हो गईं हो,
पर खोई नहीं।
जीवन की आस बनकर।
एक नया अर्थ गढ़ती है जिंदगी,
हां, मालूम है सबको
कि शब्दों की फितरत है अर्थ गढ़ना,
पर जब अर्थ ही अनर्थ हो जाए तो ?

अब तो बाजारू हो गए हैं रिश्ते-नाते,
हरकोई खेलना चाहता है शब्दों से,
पहले भावनाओं से खेला करते थे,
खेलने का यह चलन अब पुराना हो गया।

भला किसकी मजाल,
कि गुजर जाए बदनाम बस्ती से,
रात के अंधेरों में कारोबार करने वाले
कभी दिन के उजाले में चेहरा छिपाया नहीं करते।
चलो एकबार हम दखते हैं,
कि अपने पेशे में बेईमानी कैसे करते हैं!

5 comments:

  1. behtareen kavita.........

    padh kar acchha laga

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  2. बहुत बढ़िया रचना!

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  3. हर रंग को आपने बहुत ही सुन्‍दर शब्‍दों में पिरोया है, बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  4. बढ़िया रचना!

    achi he

    shekhar kumawat

    http://kavyawani.blogspot.com/

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  5. Shabdon se har koi khelna chaahta hai ...
    bahut hi achhee rachna ... vaise kavita bhi to shabdon se khelna hi hai ...

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