यहां किसी का टैलेंट काम नहीं देता। न ही आपकी शिक्षा। यह दुनिया है दलालों की, काम आती है तो बस दलाली। कोई चीज़ दूर से जितनी प्यारी लगती है, ज़रूरी नहीं कि उसकी असलियत भी वैसी ही हो। यही हालत मीडिया की है। इस फील्ड में ऐसे कई कलम के दलाल हैं, जिनकी रोजी-रोटी इसी से चलती है। काफी सारे लोग हैं, जो यहां किस तरह टिके हुए हैं, यह शायद बताने की ज़रूरत नहीं। दिन-रात जिस अपराध को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाते हैं और अपराधियों के लिए ख़तरे की घंटी बने रहते हैं, दरअसल इनकी पोल-पट्टी खुल जाए तो इन्हीं के गले में वह घंटी बंधी नज़र आएगी। ऐसे कई नाम हैं, जिनसे मैं भी वाकिफ़ हूं, लेकिन नाम न बताने की मज़बूरी है। सबसे बड़ी बात मैं इस सिस्टम से लड़ भी नही सकता, बदलने की कोशिश करूंगा भी तो ख़ुद बदल दिया जाउंगा। कई दफ़ा पत्रकारिता का विद्यार्थी होने के नाते सोचता हूं, क्या सचमुच में इसी को पत्रकारिता कहते हैं। टीवी और प्रिंट के तमाम दिग्गज भारतीय राजनीति में वंशवाद को पानी पी-पीकर कोसते नज़र आते हैं, लेकिन असलियत तो यह है कि उससे भी कहीं ज़्यादा वंश और भाई-भतीजवाद मीडिया में हावी है। फिर ये लोग अपनी गिरेबां में झांकने की जहमत क्यों नहीं उठाते। इनकी न्यूज़ सेंस भी देखिए, ये हर उस चीज को ही दिखाते हैं, जो बिके, उसके अलावा कुछ नहीं। ऐसे में ये एक बनिया से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। हक़ीक़त तो यह है कि यह लालच, ठगी, स्वार्थ और लूटखसोट से अधिक कुछ भी नहीं।हम हर बात में अमेरिका और यूरोप की मीडिया का हवाला देते नहीं थकते कि वहां कि पत्रकारिता कैसी है, सच्चाई यह है कि वह तो ठीक ही हैं, लेकिन हमें अपनी मंडियों में तब्दील कर दिया। आज विदेशी निवेश से कई सारे मीडिया हाउस खुल रहे हैं जिनका मक़सद सत्ता को प्रभावित करना और मुनाफ़ा कमाना ही होता है। पत्रकारों की स्थिति वैसी ही है कि वो इस पाक प्रोफेशन में तो आ गए, कुछ इस तरह कि,
मस्जिद तो बना ली दम भर में,
ईमा के हरारत वालों ने,
मन अपना पुराना पापी था,
बरसों में नमाजी बन न सका।
इसी तरह वर्षों के अनुभवी कई पत्रकारों की हालत ऐसी ही है। लेकिन हम बाज़ार या विदेशी निवेश को भी क्यों कसूरवार ठहराएं, पैसे के बग़ैर तो कोई व्यवसाय चल भी नहीं सकता। लेकिन वंश और भाई-भतीजावाद, क्षेत्रीयता का जो दीमक इसे दिन-ब-दिन खोखला करती जा रही, उसके बारें क्या कह सकते हैं। इसका कीड़ा तो हमारे ही अंदर है। इसका इलाज कौन करेगा। हम तो अपनी ही भूलभुलैया में घिरे हैं,
दुष्यंत ने ठीक ही कहा है,
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुंचा जाता,
हम घर में भटके हैं, कैसे ठौर-ठिकाने आएंगे।
देख रहा हूं मीडिया को एक बार फ़िर गुजरात के फ़र्ज़ी एनकाऊंटर पर रोते हुये क्या इन लोगो ने कभी कश्मीर मे सैकडो लोगो के मरने पर एक भी सवाल उठाये हैं।मीडिया तो अब दलालो से भी गया गुज़रा होगया है।
ReplyDeleteहालत बडी चिंतनीय है. मैं तो अब केवल बीबीसी की साइट पर समाचर पढना ही पसन्द करता हूं. ये न्युज़ चैनल न्युज़ के अलावा सब दिखाते हैं.
ReplyDeleteजी, अनिल और अभिनव भाई आपकी अनुभवों से साफ जाहिर है, हालात किस तरफ इशारे कर रहे हैं........
ReplyDeleteबहुत खुब। एक दम खरी बात कही है जनाब आपने
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा है | अब देखिये ना ये समाचार मीडिया नी कहाँ छुपा दी मालुम नहीं : http://raksingh.blogspot.com/2009/09/blog-post_3944.html
ReplyDeleteसत्य वचन |
ReplyDeleteहाँ भैय्या यही सच है
ReplyDeletebilkul sahee hai news chanel apane utardayitwa ko bhul gaye hai .......yah dalalo se vi battar hai .........our kya kahe .....bahut hi sahi lekh leakar parastut hote hai aap
ReplyDeleteसही कहा आपने, पूर्णत सहमत।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
असल में इस तरह के लोग हर जगह मौजूद हैं। केवल इस क्षेत्र में नहीं। अंतर इतना है कि क्योंकि ये लोग लोकतंत्र के एक आधार स्तंभ में से एक हैं और नैतिक ज़िम्मेदारी के अंतर्गत आते हैं इसलिए इन पर नज़रें ज़्यादा गड़ती हैं।
ReplyDeleteशमां बुझ कर भी जल सकती हैं,
ReplyDeleteकिश्ती तूफां से भी निकल सकती हैं
मायूस ना हो गम ना कर
तक़दीर कभी भी बदल सकती हैं
लगता हैं मियां किसी मीडियाकर्मी से चोट खोये हो या जॉब नही मिल रही ..मायूस ना हो दोस्त इस शेर पर गौर फरमा...
ReplyDeleteशमां बुझ कर भी जल सकती हैं,
किश्ती तूफां से भी निकल सकती हैं
मायूस ना हो गम ना कर
तक़दीर कभी भी बदल सकती हैं
bahut sundar post.........
ReplyDelete