‘वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई’ बहुत दिनों बाद 70 के दशक की याद आई। जब फिल्मों का नायक गरीबी में बचपन गुजारने के बाद जवानी अमीरी में मौत और जीवन की खतरनाक खेल की बीच गुजारता है। जीत मौत की होती है। अफसोस हर किसी को होता है। जब इंसान अपराध की दुनिया छोड़ अच्छी राह बनाने की सोचता है, मौत ही उसे गले लगाती है। इसकी तुलना मैं अमिताभ बच्चन के फिल्मों से कतई नहीं करूंगा। अजय देवगन का एक अलग अंदाज है। उनमें अमिताभ जैसी बात न हो, शाहरूख जैसी फैन फॉलोइंड भले ही न हो, लेकिन आज के नायकों में वह बिल्कुल जुदा नजर आते हैं। रील लाइफ को रियल एहसास कराने का माद्दा उनमें ही दखता है। एक मोड़ पर वह इन सबसे बेहतर नजर आते हैं। ‘वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई’ यही साबित करती है। लोग कह रहे हैं, यह फिल्म मशहूर (?) डॉन हाजी मस्तान, अजय देवगन का चरित्र (मस्तान) और इमरान हाशमी का दाउद इब्राहिम से प्रेरित है। मस्तान को मशहूर इसलिए कहा क्योंकि जब गरीबी छाई हो और पेट अन्न के दानों के बिना चिपटा जा रहा हो, दो रोटी देने वाला ही खुदा होता है। आजादी की वर्षगांठ एकबार फिर हम इस महीने की 15 तारीख को मनाने जा रहे हैं। यह 63वीं वर्षगांठ होगी यानी हमें आजाद हुए तिरेसठ बरस बीत गए, लेकिन आज भी बहुसंख्यक आबादी दो वक्त की रोटी की खातिर जान गंवा रहा है। कुछ नक्सली के नाम पर ढेर किए जा रहे हैं तो कुछ किसी और के नाम पर। सच्चाई तो वाकई यही है कि सन् 47 के पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे और उसके बाद गरीबी के। पहले हमें दूसरों ने लूटा अब अपने नोच- खसोट रहे हैं। इस फिल्म को देखकर हम अपनी गरीबी के मसीहा को पाते हैं। सुल्तान मिर्जा का किरदार यदि मस्तान से प्रभावित है तो वाकई वह उन लोगों के लिए खुदा था, जिसकी उसने मदद की। सरकार के खिलाफ उसने बेशक काम किए, क्योंकि सरकार जिस काम की इजाजत नहीं देती, वह वहीं काम करता था। वह काम वह कभी नहीं करता था, जिसकी इजाजत जमीर नहीं देता। इसकी तर्ज पर कहूं तो सरकार हर उस काम को नहीं करती या करने देती, जो उसके खिलाफ और जनता के हित में हो। इंसान का जमीर सरकार से बड़ी चीज है। सरकार गोली तो दे सकती है, पर रोटी नहीं। नक्सलियों को मार तो सकती है, लेकिन नक्सली बनने की वजह को नहीं मार सकती। लिखना तो फिल्म के बारे में ही चाहता था, लेकिन फिल्म दिल के इतना छू गई कि क्या कहूं मन का गुबार सामने आ गया। ‘वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई’ के नायक अजय देवगन हकीकत में नायक नजर आने लगते हैं। वह हर उस शख्स की आंखों में उम्मीदों नजर आते हैं, जिसकी जिंदगी गरीबी में बीती है। इसे एहसास करने का दावा वही कर सकता है, जिसने गरीबी को जिया है। फिल्म में जब तक अजय देवगन जीवित रहते हैं, गरीबों का मसीहा, जिंदा रहता है। पर, उनके मरते ही, गरीब फिर से मनहूस जीवन को मजबूर हो जाते हैं। कड़वी सच्चाई यह है कि असल जिंदगी का फलसफा भी यही है। यहां गरीबों का परवाह करने वाला, उसके हक की लड़ाई करने वाला ज्यादा वक्त तक जिंदा नहीं रहता या रहने नहीं दिया जाता। यानी अमीरी ही हमेशा जिंदा रहती है तो मौत गरीबों के लिए। मेरे जेहन में यह सवाल बार-बार उठ रहा है, आखिर मौत हमेशा बदलते वक्त की क्यों होती है। बदलाव शायद सिर्फ संपन्न और सक्षम लोगों के लिए ही है।
ReplyDeleteचंदन भाई, आपकी समीक्षा ने फिल्म के प्रति रोचकता बढा दी है। अब तो देखनी पडेगी।
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अद्भुत रहस्य: स्टोनहेंज।
चेल्सी की शादी में गिरिजेश भाई के न पहुँच पाने का दु:ख..।