लोग कह रहे हैं कि ठंड ज्यादा है। क्या वाक़ई? क्या इससे ज्यादा ठंड कभी नहीं पड़ी। या कहीं नहीं पड़ती? दिलीप मंडल साहब अपने फेसबुक के स्टेटस मैसेज पर लिखते हैं, 'यह बात सौ फ़ीसदी सच है...हम लोग ठंड का हो हल्ला मचाकर ग़रीबी को ठंड से ढकने की कोशिश करते हैं...दुख की बात तो यह कि सफल भी हो जाते हैं..यह एक कड़वी हक़ीकत जो आज के हमारे चिल्लाऊ पत्रकार बंधु समझना नहीं चाहते। दूसरी बात यह है कि आज जो सत्ता की साज़िश में शामिल नहीं है, वह सत्ता का दलाल बनकर काम कर रहा है। मतलब दोनों हालातों में मरना उसी को है जो दशकों से मरता आया है। और उसी की मौत का तमाशा दिखाकर या छापकर हमारे बंधु अपनी अय्याश ज़िंदगी जीते हैं। और, ग़रीब ठंड में मरता है, गर्मी में लू से मरता है बरसात में बाढ़ से मरता है और तो और इलाज न होने की हालत में छोटी-मोटी बीमारियों से मरता है। वैसे मरना सबको हो, लेकिन उसका मरना औरों के मरने से अलग होता है। पैसे वालों को न तो सर्दी लगती है न गर्मी। उनके लिए तो यह बस उल्लास और कौतूहल की चीज है। हमारे लिए भी यह किसी कौतूहल से कम नहीं। मैं क्या कर रहा हूं, बस लिख रहा हूं या कभी दिल नहीं मानता तो किसी ग़रीब को कुछ दे देता हूं। लेकिन, रेत के मैदान में एक बूंद पानी कुछ नहीं कर सकता। उसी तरह यह करना भी ठेस पहुंचाता है।
दोनों में ही होड़ लगी है।
ReplyDeleteएकदम सही लिखा है, मरना गरीब को ही होता है।
ReplyDeleteसंख्तिप्त और सटीक पोस्ट !
ReplyDeleteइस नज़रिए से बहुत कम सोचा गया है कि यदि लोग ठण्ड से मरते तो ठन्डे देशों में कोई जीवित न रहता...मँहगाई, भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, घोटाले अपने चरम पर है और सक्षम लोग इसे कौतूहल का विषय मान कर पढ़ लिख लेटे हैं सुबह की चाय के साथ...
कृपया संख्तिप्त को संक्षिप्त पढ़ा जाय
ReplyDeleteजी सत्य कहा आपने
ReplyDeleteदर्द पीडा,चुभन सिहरन सब अकिंचनों को ही तो मिलती है
पद्म सिंह जी बहुत बहुत धन्यवाद और गिरीश मुकुल जी आपका भी. दरअसल आज के वक़्त की यही सच्चाई है.
ReplyDeleteगरीबी ही बडी है हमेशा गरीब ही पिसता है।
ReplyDeleteyahi to garibon kee badkismati hai
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