सोचता हूं, जिस देश में एकदम से इतने साधु हों, उस जनता की अंदरूनी हालत क्या है? वह क्यों भला चमत्कार पर इतनी मुग्ध है? वह जो गैस सिलिंडरों, राशन के लिए लाइन लगाती है और राशन नहीं मिलता है, वह लाइन छोड़कर साधु की शरण में चली जाती है। मुझे लगता है 63 सालों में देश की जनता की मानसिकता है ऐसी हो गई है कि वह जादू देखो और ताली पीटो। बाकी हम पर छोड़ो। भारत-पाक युद्ध इसी तरह का जादू था। मुंबई पर जो हमला हुआ, इस मामले में जादू थोड़ा बड़े स्केल पर दिखाया गया और जा रहा है। जनता अभी तक ताली पीट रही है। उधर, राशन की दुकान की लाइन बढ़ती जा रही है। देशभक्तों से मैं क्षमा चाहता हूं, पर मुझे लगता है शिमला या आगरा शिखर वार्ता टाइप की एक और बैठक होगी। हाल में हमारे विदेशमंत्री पाक गए थे, गरिया के भेज दिए गए, अब हम उनके विदेशमंत्री कुरैशी को भारत बुला रहे हैं, लेकिन कुरैशी ने भांप लिया कि मेरी भी बेइज्जती भारत बुलाकर होगी, इसलिए उन्होंने भारत आने से पहले शर्त रख दी। अब भारत पसोपेश में है कि क्या करे? कैसे बेइज्जती और भारतीय जनता के लिए चमत्कार की तरकीब निकाली जाए।
हर तरफ भारत का ही नाक कटने को तैयार है। हम खामोश हैं। देश परेशान है। लोग मस्त हैं। राष्ट्र हैरान है। राष्ट्रमंडल खेलों को लेकर जो देशभक्त तमाम तैयारियां करवा रहे हैं, उन्ही पर भारत के चीरहरण का आरोप लग रहा है। यह आरोप से बढ़कर है। भारत में आजकल यह होने लगा है कि कोई भी अवसर पैसा कमाने का जरिया समझा जाने लगा है। यह नई प्रवृत्ति चंद लोगों को बहुत भाने लगा है। हालांकि, अधिकांश लोग भी उसकी ओर जाने की सोचने लगा हैं। उन्हें तकलीफ इस बात की है कि ज़िंदगी भर ईमानदारी और आदर्श का लबादा ओढ़ने से कुछ नहीं, बस गरीबी और घुटन की मौत मिलने वाली है। नतीजतन वह भी अपना रास्ता बदलने लगे हैं या बदलने की सोच रहे हैं। एक तरह आज हम सभी संक्रमण की दौर से गुजर रहे हैं। यह संक्रमण कहां तक ले जाता है, इसा कुछ अता-पता नहीं हैं। मंजिल लोगों को मालूम नहीं, पर रास्ते तैयार हैं। लोग चल रहे हैं, चलते जा रहे हैं। जाना कहां है, मालूम नहीं। ऐसे में अंजाम की परवाह कोई करने को भी तैयार नहीं। कोई रुकना नहीं चाहता। उसे पिछड़ जाने का भय है।
यह लेख कुछ दिन पहले का है, पर पता नहीं मुझे लगा कि आपसे मुझे साझा करना चाहिए.
ईश्वर का सहारा है बस।
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