अब असर नहीं होता

दिल्ली की सडकों पर गाड़ियाँ बहुत हैं. राष्ट्रमंडल खेलों के मद्देनज़र काफी काम भी हुआ है. निर्माण से लेकर साज-सज्जा तक. अब तो ब्लू लाइन बसों को भी हटा दिया गया है. वह भी बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था के. आम लोग किस कदर परेशान होंगे इसकी फिक्र किसी को नहीं. दिल्ली की सड़कों से ब्लू लाइन बसों को हटाने की खबर अख़बारों में भी छपी और  चैनलों ने भी मामले को उठाया. लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात. मैं जहाँ काम करता हूँ, उस अखबार में भी यह खबर हम लोगों ने पहले पन्ने पर छापी थी. लेकिन इसका असर कुछ नहीं हुआ. हमारा अखबार भारत का सबसे बड़ा अखबार समूह है. पर इन बातों का क्या, सब कुछ बेअसर. हम लाख कुत्तों की तरह भूंकते रहें, हमारी आवाज़ गुम हो जाती है. कभी-कभी लगता है फिर यह स्यापा किसलिए. हम भी काम करते हैं और बस काम समझ कर करते जाते हैं. बहुत तमन्ना थी की पत्रकार बनूँ. लेकिन अब लगता है...खैर, दिल्ली की समस्याओं की बात करें तो यह सब कोई जनता है कि राष्ट्रमंडल की तैयारियों से दिक्कतें बढ़ी ही हैं. मैं अपनी बात करूँ तो जब से ब्लू लाइन बसों को बंद किया गया है, मेरा दो से तीन  घंटे का वक़्त बसों  के इंतज़ार में बर्बाद हो जाता है. अब मै समय बर्बाद करने के अलावा कुछ कर नहीं सकता. मेरे पास न तो अपनी गाडी है और न ही अभी लेने की हालत में हूँ. मैं अपनी समस्या यानी समय की बर्बादी का ज़िम्मेदार अपने पत्रकार भाइयों को ही कसूरवार ठहरता हूँ. उन्होंने अपने पेशे को प्रोफेशनल बनाने के बजाय बेकार का कबाड़ बना दिया. वैसे कबाड़ बेकार ही होता है. लेकिन बेकार इसलिए कि अनुप्रास का बेहतरीन संयोग बन जाये. हमारे पत्रकार बन्धु भी तो यही कर रहे हैं. अनुप्रासों की छठा में हेडिंग और तमाम बात कहने की कला पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं. खैर, इसे भी छोड़ें. अपनी मूल बात पर लौटें तो, पहले यदि कोई बात अख़बारों में छपती थी या फिर चैनलों पर चलता था तो हडकंप मच जाता था. सत्ता का इन्द्रासन हिल जाता और बदलाव की बयार न सहीं पर चीज़े दुरुस्त हो जाती थीं. अब तो आठ घंटे जी तोड़ मेहनत करते हैं और महीनवें दिन अगर तनख्वाह आ जाये तो उसका इंतज़ार करते हैं. कहते हैं, बदलाव प्रकृति का नियम है. जों होता है वह अच्छे के लिए ही होता है. लेकिन आजकल जों बदलाव हो रहा है और लोग हम इसे अच्छा मान रहें हैं तो मैं कहता हूँ हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है. बेहतर की आस में टकटकी लगाये बैठा हूँ. मेरी तरह कई आस में बैठे है अपंग. सिर्फ सोचते रहते है. दूसरों से बदलाव का अगुआ बनाने की करते हैं.

मैं सोच रहा हूँ

आजकल बहुत परेशान हूँ,
पता नहीं किन बातों से हैरान हूँ,
कभी-कभी ऐसा भी होता है,
हमें हमारी परेशानियाँ पता नहीं होती,
ऐसे में हम सोचते हैं,
आखिर मर्ज़ क्या है ये,
मैं भी सिर्फ सोच ही रहा हूँ,
सोचने का सिलसिला बदस्तूर जारी है,
यही सोच कर ज़रा हैरान हूँ.
मैं क्या चाहता हूँ?
मेरी मंजिल क्या है?
सोच कर हैरान हूँ,
शिकायतों से सबकुछ हासिल नहीं होता,
सोचने से कुछ नहीं होता,
कुछ करना पड़ेगा,
फ़िलहाल मैं सोच रहा हूँ.
जब सोचना बंद करूँगा,
तो कुछ ज़रूर करूँगा.
फ़िलहाल मैं सोच रहा हूँ,
और क्या सोच रहा हूँ,
ये मत पूछए, क्योंकि
आजकल हर कोई सोच रहा है,
अंतर इतना है कुछ को पता है,
मुझे अभी पता करना है,
कि मै क्या सोच रहा हूँ?

गिल साहब फोटो खिंचाना छोड़िए, ज़रा कॉमनवेल्थ की सुध लीजिए

भारत में हर कोई अपनी मर्जी का मालिक है. यह बात हमारे मत्री साहब से लेकर आम जनता तक पर लागू होती है. इस हिसाब से चलें तो एम एस गिल खेलों के खुदा हैं. वह हमारे कहल मत्री हैं. उनकी ज़िम्मेदारी है खेलों को बढ़ावा देना. खेलों की सभ्यता कायम करना है. लेकिन भारतीय खेलों के खुदा ने जों हरक़त मंगलवार को की है, उसे कभी नहीं भूला जा सकता है. आप सभी इस बात से वाकिफ होंगे ही कि हमारे खेलों के खुदा ने क्या किया है. सुशील कुमार मास्को से कुश्ती का गोल्ड मेडल जीत कर लौटे थे. सुशील के चाहने वालों के अलावा मीडिया भी उनका स्वागत में आँखें बिछाए था. साथ में खेल मंत्री गिल भी आ पहुंचे सुशील को बढ़ायी देने. यहाँ तक तो बात ठीक थी, लेकिन खुद सुशील के साथ फोटो खिंचाने के चक्कर में गिल ने सुशील के गुरु सतपाल का अपमान कर दिया. शायद उन्हें इस बात का एहसास नहीं था कि सतपाल से ज्यादा अहमियत वह सुशील के लिए नहीं रखते हैं. आज सतपाल की वजह से ही सुशील शीर्ष पर हैं. उन्हें भी पता था कि खेल मत्री ने उनके गुरु के साथ ठीक नहीं किया.उन्होंने यह बात कही भी. पर खेल मंत्री के भेजे में यह बात शायद घुसी नहीं. शायद खेल मत्री या दूसरे नेताओं को खुद पहले सभ्यता सिखाने की ज़रुरत है. उन्हें ज्यादा ज़रुरत है. मुझे एक वाकया याद आ रहा है. बात चैम्पियंस ट्रॉफी की है. ऑस्ट्रेलिया की टीम विजेता बनी थी. उस वक़्त शरद पवार बीसीसीआई के कर्ता-धर्ता थे. उस समय कंगारू कप्तान रिकी पोंटिंग अपने बाकी साथियों के साथ कप लेकर जश्न माना रहे थे. बीच में पवार आ गए.  उन्हें धक्का देते हुए पोंटिंग ने हटाया कि आप बीच से हट जाइये. इस पर भारत में हल्ला मच गया, पोंटिंग बदतमीज़ है. मीडिया भी यही बता रहा था. इसकी प्रासंगिकता यह है कि यहाँ सुशील के मामले बिलकुल ऐसा न हुआ हो. पर जों भी हुआ बहुत बुरा हुआ. खेल मंत्री को खुद को समझाना चाहिए, वह बार-बार अख़बारों के अगले पन्ने पर चाप सकते हैं. चैनलों में दिख सकते हैं. पर इन खिलाडियों के पास बहुत काम मौका होता है और उनके गुरु को तो और भी कम. एक तो वह रिटायर नौकरशाह हैं. उसके बाद मनमोहन सिंह की कृपा से चोर दरवाजे से राजनीति में घुसे हैं. आपको बता दें कि उन पर पहले भारत में चुनाव करवाने का ज़िम्मा था मतलब यह कि वह निर्वाचन आयुक्त थे. अब समझ सकते हैं कि वह कांग्रेस की सरकार में मंत्री कैसे बने. बस मैं यही कहना चाहता हूँ कि गिल साहब फोटो खिचाना छोडिये ज़रा राष्ट्रमंडल का हालचाल लीजिये. वैसे भी काफी किरकिरी हो चुकी है. भ्रष्ट्राचार कि तो बात ही नहीं कर रहा, उसका हिसाब तो भाई लोग खेलों के बाद करेंगे. दिल्ली में वैसे भी बारिश रोज़ हो रही है, देखिये कहीं किसी स्टेडियम की छत तो नहीं टपक रही है.

सल्लू से चाहिए माफीनामा


भारत का सबसे तेज़ चैनल देख रहा था. भाई लोग कह रहे थे कि सलमान खान को देश से माफ़ी मंगनी चाहिए. मुझे समझ में नहीं आया कि सल्लू भाई साहब ने अब क्या कर दिया. थोड़ी देर तक मैंने अपनी निगाहें चैनल पर टिकाई रखी. ऐसा मुमकिन है, क्योंकि अब तक तक सल्लू भाई के इतिहास को देखते हुए इससे बिलकुल इनकार नहीं किया जा सकता है. वैसे भी चैनल वाले तभी चिल्लाते हैं जब बात उनपर आती है. या फिर उनके पास कोई ढंग की खबर न हो. खबरों का अकाल होने पर हमारे मीडिया बंधु कुछ भी करने पर उतारू हो जाते हैं. खैर, तो सबसे तेज़ चैनल सल्लू भाई पर देश से माफी मांगने के लिए दबाव बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाह रहे थे.  मुझे तो इसमे से साजिश की बू आ रही है. मुझे क्या लगता है कि शाहरुख़ खान कि फिल्म काफी दिनों से आयी नहीं. और इधर सलमान की दबंगई थोड़ी बढ़ गयी है, तो सरे हैरान परेशान नज़र आ रहे हैं. उन से परेशान लोगों ने खबरिया भाइयों को खूब खिलाया पिलाया, ताकि सल्लू की दबंगई कम की जाये. खैर, ये मेरी काल्पनिक सोच है. पर यह बात अब ता समझ में नहीं आ रही थी कि सल्लू से माफ़ी क्यों मंगवाई जा रही थी. थोड़ी देर बाद खुलासा हुआ कि सलमान खान ने मुंबई पर आतंकी हमले के बारे में एक पाकिस्तानी चैनल को साक्षात्कार दिया, वाही विवाद कि वजह है. दरअसल चैनल वाले भाई बता रहे थे कि सल्लू ने कहा कि मुंबई पर हमला देश पर नहीं, भारत के संभ्रांत तबके पर हमला था. नतीज़तन नेताओं और और संभ्रांत लोगो ने एक ऐसी मुहिम शुरू कि जो निर्णायक हो. अब निर्णायक कितना साबित हुआ, यह तो सभी जानते हैं. पर मुझे क्या लगता है कि बगैर आप जनता की भागीदारी के कोई भी जंग अपने अंजाम तक नहीं पहुँच सकता है. पर सल्लू का विवाद मसाला बन गया. कल तक जो यमुना को संकट बता रहे थे, अब सलमान के बयान को बकवास बताते हुए उनसे माफी मांगने को कह रहे थे. भाई लोग कह रहे थे कि यह अब तक का देश का सबसे बड़ा अपमान है. शायद उन्हें यह नहीं पता कि उनका कुछ बोलना भी अपमान ही था. एक बात और कि, इस देश में चैनल वाले भाइयों को लगता है कि जो कुछ भी हो रहा है, वह सब कुछ विशाल और बड़ा ही है. हालाँकि, सबसे बड़ा और पहला का टैग लाइन एक अन्य भारतीय चैनल का है. लगता है तेज़ चैनल, टीआरपी में उससे पिछड़ने के बाद उसके पीछे पड़ गया है. अब फिर मुद्दे पे आते हैं. पहले मुझे लगा कि तेज़ चैनल का सलमान के खिलाफ मुहिम कोई कॉमेडी प्रोग्राम है. इस चैनल पर ज्यादा वक़्त यही सब चलता रहता है. पर बाद में कुछ और माज़रा था. मुझे लगा भाई सलमान तो मुन्नी डार्लिंग के लिए बदनाम था, अब उसे क्या हुआ...फिर समझा ये तो सलमान का माफीनामा चाहते थे. वह भी ऐसे मसले पर जिस पर सलमान ने शायद सौ फीसदी सही बात कही थी. उन्होंने कहा था कि इस देश में पहले भी आतंके हमले हो चुके थे, हजारों बेगुनाहों ने अपनी जान गवाईं, पर सरकार कुछ करने के नाम पर खानापूर्ति करती रही. इस बार हमला इलीट पर था तो सब जगे. यह हमारी सुरक्षा की नाकामी थे.

भारत कथा

सोचता हूं, जिस देश में एकदम से इतने साधु हों, उस जनता की अंदरूनी हालत क्या है? वह क्यों भला चमत्कार पर इतनी मुग्ध है? वह जो गैस सिलिंडरों, राशन के लिए लाइन लगाती है और राशन नहीं मिलता है, वह लाइन छोड़कर साधु की शरण में चली जाती है। मुझे लगता है 63 सालों में देश की जनता की मानसिकता है ऐसी हो गई है कि वह जादू देखो और ताली पीटो। बाकी हम पर छोड़ो। भारत-पाक युद्ध इसी तरह का जादू था। मुंबई पर जो हमला हुआ, इस मामले में जादू थोड़ा बड़े स्केल पर दिखाया गया और जा रहा है। जनता अभी तक ताली पीट रही है। उधर, राशन की दुकान की लाइन बढ़ती जा रही है। देशभक्तों से मैं क्षमा चाहता हूं, पर मुझे लगता है शिमला या आगरा शिखर वार्ता टाइप की एक और बैठक होगी। हाल में हमारे विदेशमंत्री पाक गए थे, गरिया के भेज दिए गए, अब हम उनके विदेशमंत्री कुरैशी को भारत बुला रहे हैं, लेकिन कुरैशी ने भांप लिया कि मेरी भी बेइज्जती भारत बुलाकर होगी, इसलिए उन्होंने भारत आने से पहले शर्त रख दी। अब भारत पसोपेश में है कि क्या करे? कैसे बेइज्जती और भारतीय जनता के लिए चमत्कार की तरकीब निकाली जाए।
हर तरफ भारत का ही नाक कटने को तैयार है। हम खामोश हैं। देश परेशान है। लोग मस्त हैं। राष्ट्र हैरान है। राष्ट्रमंडल खेलों को लेकर जो देशभक्त तमाम तैयारियां करवा रहे हैं, उन्ही पर भारत के चीरहरण का आरोप लग रहा है। यह आरोप से बढ़कर है। भारत में आजकल यह होने लगा है कि कोई भी अवसर पैसा कमाने का जरिया समझा जाने लगा है। यह नई प्रवृत्ति चंद लोगों को बहुत भाने लगा है। हालांकि, अधिकांश लोग भी उसकी ओर जाने की सोचने लगा हैं। उन्हें तकलीफ इस बात की है कि ज़िंदगी भर ईमानदारी और आदर्श का लबादा ओढ़ने से कुछ नहीं, बस गरीबी और घुटन की मौत मिलने वाली है। नतीजतन वह भी अपना रास्ता बदलने लगे हैं या बदलने की सोच रहे हैं। एक तरह आज हम सभी संक्रमण की दौर से गुजर रहे हैं। यह संक्रमण कहां तक ले जाता है, इसा कुछ अता-पता नहीं हैं। मंजिल लोगों को मालूम नहीं, पर रास्ते तैयार हैं। लोग चल रहे हैं, चलते जा रहे हैं। जाना कहां है, मालूम नहीं। ऐसे में अंजाम की परवाह कोई करने को भी तैयार नहीं। कोई रुकना नहीं चाहता। उसे पिछड़ जाने का भय है।
यह लेख कुछ दिन पहले का है, पर पता नहीं मुझे लगा कि आपसे मुझे साझा करना चाहिए.

पाकिस्तान और फिक्सिंग की फांस

क्रिकेट में मैच फिक्सिंग कोई नयी बात नहीं है. पहले भी यह होता रहा है. शुरुआती दौर में जहाँ यह नैतिकता का लबादा ओढ़े हुए था. धीरे-धीरे इसकी शक्लो शुरात बदलती गयी. पकिस्तान के खिलाडियों के फिक्सिंग में फंसने की भी कहानी भी कोई नयी नहीं है. साथ ही, इसके आरोपों से मुकरने का रिश्ता भी पुराना है. अब तीन पाकिस्तानी खिलाड़ियों- सलमान बट्ट, मोहम्मद आसिफ़ और मोहम्मद आमिर के ख़िलाफ़ आरोप लगे थे कि सट्टेबाज़ी के संबंध में उन्होंने तय समय पर लॉर्ड्स टेस्ट में तीन नो बॉल फेंके. अब इस मामले की पुलिस और आईसीसी जांच कर रही है. बकौल बीबीसी के रिपोर्टर अब्दुर्रशीद शकूर पाकिस्तानी क्रिकेट में पहली बार सट्टेबाज़ी या नाजायज़ तरीक़े से पैसा बनाने की बात पाकिस्तानी तेज़ गेंदबाज़ सरफ़राज़ नवाज़ की ज़ुबानी सुनने को आई थी.उन्होंने 1979-80 में भारत का दौरा करने वाली पाकिस्तानी टीम के कप्तान आसिफ़ इक़बाल की तरफ़ उंगली उठाई थी कि भारतीय कप्तान के साथ उन्होंने जो टॉस किया था उनके अनुसार वह टॉस संदिग्ध था.इसके बाद ताज़ा मामला बहुत कुछ कहता है. लेकिन सबसे हैरत की बात पकिस्तान का रवैया है.पाकिस्तान हर बात पर डिनायल मोड पर रहता है उसकी यही सबसे बड़ी समस्या है. भारत में मुम्बई पर हमला मामले में भी उसने यही रवैया अपनाया और अब भी वह यही कर रहा है.
लंदन में पाकिस्तान के उच्चायुक्त वाजिद शम्शुल हसन ने बिना किसी जांच के तीनों क्रिकेटरों को निर्दोष करार दिया और रहमान मलिक ने साजिश का अंदेशा जताया। पर यह भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि 1983-84 में पाकिस्तानी टीम में शामिल क़ासिम उमर भी आरोप लगे. 1995 में सलीम मलिक पर मैच फ़िक्सिंग का इल्ज़ाम लगा. एलन बोर्डर ने 1993 में पूर्व पाकिस्तानी खिलाड़ी मुश्ताक़ मोहम्मद पर इसी तरह का इल्ज़ाम लगाया था.कहानी बस पाकिस्तानी क्रिकेट तक ही सीमित नहीं है. सटोरियों और क्रिकटरों का नापाक रिश्ता काफी पुराना रहा है.शायद वह साल २०००-०१ का वक़्त था, जब हैंसी क्रोनिए ने मैच फिक्स करने के लिए सटोरियों से रिश्वत लेने की बात क़बूल की थी.आईसीसी ने भ्रष्टाचार से निबटने के लिए एक विशेष इकाई बनाई है, लेकिन 'स्प्रेड बेटिंग' के कारण इस समस्या पर काबू कर पाना मुश्किल हो रहा है. कुल मिलकर यह कहा जा सकता है कि मैच फिक्सिंग में दामन तो कमोबेश सभी देशों के खिलाडियों का हुआ है. पर सबसे अधिक पाकिस्तान का. इस वजह से उस पर सबसे अधिक नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह डिनायल मोड से निकल कर डूइंग मोड में आये और अपने पाक दामन को नापाक होने से बचाए.

छात्रसंघ चुनाव की सड़ांध

चुनावी राजनीति में जीत ही सब कुछ है. हारने वालों के लिए यहाँ कोई जगह नहीं है. चाहे चुनाव लोकसभा का हो, राज्यों का हो या फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ का ही क्यों न हो? हर जगह जीत ही पूजी जाती है हारने वालों को सांत्वना भी कोई नहीं देता, मिलता है तो बस चमचों का साथ. यह तो बिलकुल जाहिर हो चूका है की छत्र संघ का चुनाव किस तरह अहम होता जा रहा है. लोकतान्त्रिक सुधर के लिहाज से नहीं, बल्कि देश की राजनीति में जगह बनाने के लिए. रास्ता यहीं से निकलता है. रास्ता यहीं से निकलता है, नतीजतन इसके साफ़ और स्वच्छ होने की उम्मीद लगाई जाती है. पर, ऐसा होता कभी नहीं है. आज देश की दो बड़ी पार्टियों में शीर्ष के नेताओं में शुमार होने वाले भी इन्हीं यूनिवर्सिटी से निकले हैं. चाहे अरुण जेटली हो या अजय माकन. माकन आज मंत्री हैं तो जेटली राज्यसभा में विपक्ष के नेता. जहाँ उनके बगैर सरकार कोई भी बिल पास नहीं करा सकती है. मतलब साफ़ है, छात्र संघ से निकले नेता आज देश का भविष्य तय कर रहे हैं. हालाँकि, कैसी तस्वीर वो बना रहे हैं, यह अलग मसला है. एक सवाल जो बार-बार परेशां करता है, वह यह कि जब छात्र नेता से जनता के नेता ये लोग बन जाते हैं, तो किस तरह से इनकी सोच में बदलाव आ जाता है. इनकी चुनावी रणनीति कैसे बदल जाती है. किस तरह विकास या जनता से जुड़े मुद्दों को दफ़न कर जाति, मजहब, क्षेत्र और गोत्र के नाम पर गंदी खेल खेलने लगते है. यहाँ सवाल उठ सकता है कि छात्र जीवन में तो इस तरह कि गंदी राजनीति नहीं होती, फिर अचानक से यह बदलाव कैसे आ जाता है. अगर मै कहूं कि उनके नेचर में बदलाव कभी आता ही नहीं, तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? मुमकिन है, आपमें कई मेरी बातों से सहमत हो सकते हैं तो कइयों को कड़ा ऐतराज़ भी होगा. पर, आपको बता दूं यह सौ फीसदी सच है. आज नेताओं की जो पौध आ रही है, वह अपने शुरुआत से ही भ्रष्ट है. छात्र संघ चुनाव में अगर आपकी दिलचस्पी है तो ज़रा इसे करीब से देखें. दिल्ली विश्विद्यालय इसका बेहतरीन उदहारण है. यहाँ का छात्र संघ चुनाव बड़े ही व्यापक तौर पर होता है. लगभग ७० से अधिक कॉलेज और डूसू का अलग. भले ही छात्र नेता आपसे खुलेआम न पूछे कि आप किस राज्य से हैं या फिर आपकी जाति क्या है? लेकिन यह तय है कि वो आपसे ऐसे सवाल करेंगे ज़रूर. और इसका मकसद क्या होगा आप समझ सकते है. यदि आप अपनी जानकारी देते है तो अपना अजेंडा बताना आपको शुरू कर देते हैं. वो यह भी आपको बताएगा कि उसके कई सारे दोस्त आपके ही राज्य का निवासी है. कहानी लंबी है, बाकी अगले अंक में, तब तक डूसू के नतीजे भी आ जायेंगे...