एक रात की कहानी


मेरी ज़िंदगी में एक ही विश्वास है,
वो हो तुम!

जानता हूं कितने ही जल-प्रलय हो,
तुम्हारे सहारे हमेशा ऊपर रहूंगा,

तुम मुझे डूबने नहीं दोगी,
इन लहरों से भी खेल सकता हूं,
सिर्फ तुम्हारे सहारे।


लेकिन यकीन का डोर कभी टूटा,
तो किन अंधेरी गहराईयों में डूब जाउंगा,
ये कभी सोच ही नहीं पाता।

एक उम्मीद थी तुमसे,
कि होगी मुलाक़ात...

पर वक़्त दग़ा दे गया
औऱ समझता रहा कुसूर था वो मेरा!

अब सोचता हूं,
काश ! एक ऐसा भी दिन आए,
जब मांगू कोई भी मुराद
वो आख़िरी तो हो, पर अधूरा न रह जाए!!!

दिल चाहता है!


दिल चाहता है, दर्द बयां करना,
पर डरता है!

आंखें चाहती हैं, आंसूओं की बरसात करना।
लेकिन डरता है, कहीं ख़ुद न डूब जाए।।

कल देखा जो एक ख़्वाब।
दरहक़क़ीत रूबरू हुआ ज़िंदगी से।।

क्यों रोया उस रात फूट-फूट कर तन्हाई में,
शायद तन्हाई ही ग़म था या थी बात कुछ और।

कौन करे फिक्र उस रात की,
जब दुनिया ने किया मरहूम मुझे हर खुशी से।
आज भी सोचता हूं तो रूह कांप जाती है।।

दिल मे दर्द की दस्तक से,
जिंदगी की कड़वी सच्चाईयों से

कौन दिलाएगा 'मुक्ति'
जब दिल में दफ़न हैं, कई राज़ ज़मानें से।।

आख़िर कसूर किसका ?


आतंकवाद, उग्रवाद और नक्सलवाद, जी हां ये महज अल्फाज़ नहीं हैं। आज ये एक ऐसी विचारधारा के रूप में हमारे सामने है जो बेहद ही ख़ौफनाक शक्ल अख़्तियार कर चुका है। केवल बेग़ुनाहों का कत्लेआम ही इनका मक़सद है। सिविल सोसायटी में इनके लिए कोई जगह नहीं है। आज ऐसे समूहों की तादाद एक या दो नहीं है, बल्कि लाखों से कम भी नहीं है। आख़िर कभी हमने ढंग से सोचने या समझने की कोशिश की, किस वजह से समाज के ये लोग समाज के ही ख़िलाफ हो गए। चलिए एक हद तक ये मान भी लेते हैं कि अतिवादी सोच ने इन्हें अपनों का दुश्मन बना दिया,अपनी हुकूमत या कहें तो अपने मुताबिक़ दुनिया चलाने की जिद ने इन्हें अपनों से दूर कर दिया। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यकीन न होना, ख़ून-खराबा करना इनकी फितरत बन चुकी है। लेकिन क्या सही में यही सच्चाई है?

आज देश में नक्सली समस्या इतनी गंभीर हो चुकी है कि हर रोज ही कहीं न कहीं किसी वारदात की ख़बर मिल ही जाती है। इन्हें राष्ट्रविरोधी कहकर इनके खिलाफ़ कार्रवाई कर , वास्तविक समस्या से मुंह मोड़ लिया जाता है। दरअसल प्रॉब्लम वहां नहीं, ग़रीबों की वोटों से बनी सरकार अमीरों की अमीरी बढ़ाने का काम करती है और इसे राष्ट्रीय समृद्धि बताकर फूले नहीं समाती। और जो हिंसा नक्सलवाद और आतंकवाद के नाम पर हो रही है, उसके पीछे स्टेट का कितना आतंक है, यह सवाल आते ही देशभक्ति का ऐसा जज्बा जगाया जाता है, कि हर कोई लाचार हो जाता है। यह लाचारी किस हद तक समाज के भीतर या कहें राज्य के सिस्टम में मौजूद है, यह समझना काफी मुश्किल है। आगर राज्य की नीतियां राज्यहित और राज्य की जनता के ही ख़िलाफ़ हैं, तो कोई न्याय की गुहार करने कहां जाएगा? जब देश के सबसे अमीर और ग़रीब आदमी के बीच नब्बे लाख गुना का फ़र्क हो और इस हालत में जब सतहत्तर फीसदी आबादी रोज़ बीस से भी कम रूपये पर गुजारा करने को मज़बूर हो, उसे पता नहीं कि सुबह के बाद रात को खाने को कुछ नसीब होगा भी नहीं ऐसे में फिर कौन से रास्ते बचते हैं। बर्दाश्त करने वाला कर जाता है जो नहीं करता वो विद्रोह करता है, सरकार उसे नक्सलवादी कहती है, देशद्रोही कहती है।

मुझे भी सताया गया, अब मेरी बारी........


लगता है आजकल सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयता का ख़ूब बोलबाला है, जिधर देखो इसी तरह की बातें, माहौल। अख़बार से पोर्टल तक में जिक्र। मुंबई से मेलबोर्न तक। अपने यहां बात करें तो बाबरी मस्जिद, गोधरा दंगा हो या महाराष्ट्र में नॉर्थ इंडियन खासकर बिहारी और यूपी के लोगों को हिंसक गतिविधियों का निशाना बनाना। पहले तो बुद्धिजीवी उनका विरोध करते थे, अब लगता है उन्होंने भी मोर्चा खोल दिया है। ताज़ा उदाहरण है, अभिलाष खांडेकर साहब का जो दैनिक भास्कर जैसे अख़बार के मध्यप्रदेश हेड हैं। ये सही है कि बिहार जैसे राज्य विकास के मामले में काफी पीछे हैं, लेकिन ये भी देखने की बात है कि दंगे और आग उगलने वाले बयानबाज़ी में भी पीछे हैं,। कहा जाता है, भारत में गुजरात का ग्रोथ रेट चीन से भी ज़्यादा है लेकिन गोधरा जैसे दंगे भी वहीं होते हैं, हिंदू और मुसलमानो के पहचान के लिए अलग-अलग कॉलनिया हैं। मुंबई भी डेवलप है तो डॉन का दबदबा भी वहीं है...इस बात से बिल्कुल इनकार नहीं किया जा सकता कि यहां नेताओं के निकम्मेपन ने हर तरह से आबाद राज्य को बर्बाद करके छोड़ दिया। उसे बस अपनी जागीर समझ कर इस्तेमाल किया और हमारे जैसे नागरिक जाति और मजहब के नाम पर वोट दे-देकर उन्हे अपना ख़ून चूसने का मौक़ा देते रहे। और हम उंगली उठाते हैं, ऑस्ट्रेलिया में हो रहे नस्लभेदी हमलों पर लेकिन हम ये क्यों भूल जाते हैं कि जिनके घर कांच के होते हैं उन्हें पत्थर नहीं उछालना चाहिए.....ज़रूरत तो अपने घर को भी ठीक करने की है...जिस तरह से हम भारत में बिहार और यूपी जैसे राज्यों को हिकारत भरी निगाहों से देखते ठीक यही तमाशा भारतीयों के साथ विदेशों में होता है। अगर कोई बिहार का रहने वाला है तो हम उसे बिहारी इसलिए नहीं कहते कि वो बिहार का रहने वाला है, ये एक गाली का लब्ज़ बन चुका है। मतलब जाहिल, गंवार और निचले दर्जे का इंसान। ठीक यही सोच होती है, गोरे लोगों का काली चमड़ी वालों के लिए। हालांकि इनकी तादाद अधिक नहीं है फिर भी ये ख़ुद को एक्सपोज़ करना बख़ूबी जानते हैं। कुल मिलाकर ये कि हर एक तबका जो ख़ुद प्रतारित, सताया, भेदभाव का शिकार होता अपने से नीचे वाले के साथ ठीक उसी तरह का बिहैव करता है। एक जगह वो इंनफीरीयर है तो दूसरी जगह सुपीरीयर।

प्रेम प्याला पत्रकार पिया.........


नाम नहीं बताउंगा। सारा खेल ही तो नाम का है। ख़बर ही तो सूत्रों के हवाले से निकलती है। ऐसे में नाम का गुमनाम रहना ही बेहतर है। हालांकि मेरे कुछ मित्रों को इस कहानी की पूरी हक़क़ीत मालूम है। शुरूआत में मुझे कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं, फैज़ की हैं,,,,,,,
सैर कर दुनिया की ग़ाफिल,
ज़िंदगानी फिर कहां,
ज़िंदगानी गर रही तो नौजवानी फिर कहां।।
जी हां, जनाब ज़िंदगानी का ही लुत्फ़ उठा रहे थे। उनके सफर की शुरूआत भी एक बड़े चैनल से हुआ, और आज वे टीआरपी के ख़बरिया चैनल में 12 वें रैंक के चैनल में कार्यरत हैं, आप क्या ख़ूब कहेंगे कि आपको उसका पता नहीं बताया। मोहब्बत कब, किससे और किस उम्र में हो जाए, किसे मालूम? इश्क करने की कोई तय उम्र होती भी नहीं। अपने मटूकनाथ और जूली को ही देख लीजिए उम्र का फासला तो बाप-बेटी का होगा, लेकिन दिल के आगे किसका जोर चलता है,,,,जो ये जनाब अपने धड़कते दिल को काबू में कर लेते। लेकिन कहानी में एक ट्विस्ट भी है,,,दरअसल पिछले दिनों मैंने एक मूवी देखी। नाम था-“सैंडविच” । जिसमें गोविंदा की दो बीवियां रहती हैं....उसमे ही बाबा बने शम्मी कपूर कहते हैं- तू जिस बीवी को ज्यादा प्यार करता है, उसकी मौत हो जाएगी।लेकिन गोविंदा की दोनों बीवियां फिल्म ख़त्म होने के बाद भी सही-सलामत रहती हैं, गोली लगने के बाद भी। बाद में बाबा कहते हैं, हां तू अपनी दोनों बीवियों से एक-समान मोहब्बत करता है इसलिए दोनों बच गईं।
यहां मामला थोड़ा जायकेदार है। हमारे पत्रकार महोदय की अच्छी-खासी शादी-शुदा ज़िदगी है...एक बीवी जी हां, एक इसलिए कि होने को तो अनेक भी हो सकती हैं, खैर, एक प्यारा-सा बेटा भी है। उनके मुताबिक़ पत्नी से हमेशा अनबन रहती है, उनकी ज़िंदगी जैसे जहन्नुम हो गई है, उपर वाले ने हमेशा उनसे कुछ छीना ही है, दिया कुछ नहीं.........लेकिन अपने बेटे को बेइंतहा चाहते हैं, इसीलिए अपनी बीवी के साथ हैं, नहीं तो ज़माने में उनके जीने का तो कोई सहारा ही नहीं है....दुनिया में थोड़ा ग़म है, मेरा ग़म सबसे नम है...ये सारा दुखरा जनाब ने अपने ही ऑफिस में काम करने वाली ख़ूबसूरत महिला पत्रकार को सुनाया और माशा-अल्ला सुनकर उनका भी दिल भर आया...बात आगे बढ़ी, दो दिलवालों का मिलन हुआ...नित-नए कसमें-वादे खाए जाने लगें...पत्रकार महोदय को तो मानो जन्नत मिल गई। साथ लंच, घंटो फोन पर चिपके रहना, काग़ज के चिरकुट पर संदेशों का लेनदेन...लेकिन कहते हैं न..... इश्क छुपता नहीं छुपाने से,,,,इश्क पूरी तरह परवान चढता, पहले ही राज़ आम हो गया, इनके भी इश्क का वायरस पूरे ऑफिस में संक्रमित हो गया...एक अच्छे ओहदे पर क़ाबिज होने और बीवी-बच्चे वाला होने की वज़ह से राज़ का आम हो जाना बदनामी का सबब ले कर आया...प्रेमी पत्रकार साहब को लगा अब पानी सर के उपर से गुजर रहा है तो प्रेमिका को चैनल से निकलवा दिया भरोसा ये कि कहीं और लगवा दूंगा, यहां ज़माना हमे जीने नहीं देगा...और ऐसा स्वांग रचा कि लोगों को लगे सबकुछ ख़त्म हो गया..काफी हद तक सफलता भी मिली....लेकिन लड़की परेशान कि सात महीने तक की मेहनत पर पानी फिर गया। दरअसल ये नई पत्रकार साहिबा सात महीने से बेगारी में ही काम कर रही थीं, लाख जतन करने के बाद भी जॉब परमानेंट नहीं हो पा रहा था...एक से एक पासा फेंकने के बाद भी कुछ दिख नहीं रहा था..उधर बदनामी का पारा चढ़ता ही जा रहा था. लड़की भी खेल थोड़ा बहुत समझने लगी थी..लेकिन वो भी हार मानने वाली नहीं थी। लेकिन सबसे बड़ा झटका तो प्रेमी पत्रकार साहब को लगा था..बिना कुछ किए-धड़े बदनामी को गले लगा लिया,,तो फिर खेल शुरू हुआ “इमोशनल अत्याचार” का। एक नौजवान, प्रेमी,तिस पर पत्रकार के आंखों से आंसूओं का सैलाब बहने लगा। ऐसा कि पूरा चैनल ही डूब जाए। हररोज़ यह जताने की कोशिश कि अब तो बस चार दिनों का ही मेहमान हूं मैं। उधर परवान चढ़ते प्रेम और बदनामी के दाग ने महिला पत्रकार को कहीं का नहीं छोड़ा। फिर भी कहती फिरती हैं कि दाग़ अच्छे हैं...लेकिन हक़क़ीत देखें तो जिस चेज़ को हासिल करने के लिए उसने प्रेम किया, उसी ने फ़कीर बना दिया..मीरा बन दर-दर भटकती फिरती हैं..
और किसी पर इल्ज़ाम भी नहीं लगा सकती, क्योंकि
“कैसे हम इल्जाम लगाएं, बारिश की बौछारों पर।
हमने ख़ुद तस्वीर बनाई, मिट्टी की दीवारों पर।।“

एक नई शुरूआत

अपने बासठ साल के इतिहास में आधे से अधिक समय प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर सैनिक शासन के तहत गुजारने वाले पाकिस्तान में पिछले 7-8 महीनों में काफी महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक घटनाक्रम हुए। जहाँ एक तरफ लंबे अरसे तक निर्वासन झेलने के बाद दो पूर्व प्रधानमंत्रियों, नवाज शरीफ और बेनज़ीर भुट्टो की वतन वापसी हुई, वहीं बेनज़ीर भुट्टो की हत्या से पूरा पाकिस्तान सहम गया। आए दिन सड़को पर हिंसा और चरमपंथियों के आत्मघाती हमले होने लगे, लगा पाक मे सरकार किसी की नहीं, बस यही बात मुझे याद आई कि, पाक पर कोई राज़ नहीं कर सकता, वह तो सिर्फ, अल्लाह, आर्मी और अमेरिका के ही भरोसे चल सकता है। ऐसा इसका इतिहास भी रहा है। लेकिन थोड़ी बहुत सुकून उस वक्त मिलती नज़र आई, जब मुशरर्फ की विदाई के बाद युसूफ रज़ा गिलानी के अगुआई में मियां शरीफ के सहयोग से लोकतांत्रिक सरकार सत्ता में आई। बाद में बेनज़ीर भुट्टो के शौहर साहब यानी आसिफ अली ज़रदारी ने राष्ट्रपति का ओहदा संभाला। बेनज़ीर भुट्टो के शौहर साहब इसलिए की पहले उनकी पहचान इससे भी बदतर थी...मिस्टर टेन परसेंट। जी हां, इसी नाम से जाने जाते थे, जनाब ज़रदारी साहब। ख़ैर अब वक़्त बदला तो पहचान भी बदली। जिससे हमें कोई शिकायत नहीं।
आप सोच रहे होंगे कि लेकिन अभी उनकी चर्चा की वजह क्या? तो जनाब अभी-अभी अपने पीएम से मिल कर आए हैं और सबसे बड़ी बात कि इंडो-पाक वार्ता के बड़े हिमायती हैं। तो सोचा इनकी नज़रे इनायत भी जान लें। भारत आख़िर किस हिसाब से बात करे, ये सबसे बड़ी समस्या है। वजह पाक में सत्ता का कोई एक सेंटर नहीं है और किस पर यकीन किया जाए यह भी संदेह में है। संदेह की वजह भी है। क्या ज़रदारी का थोड़ा भी असर पाक सत्ता प्रतिष्ठानों पर है, क्या हर फैसला वो ख़ुद लेते हैं, सेना या आई.एस.आई का कोई दखल राजनीतिक मामलों में नहीं होता है? अगर ऐसा है तो बेनज़ीर भुट्टो की हत्या के बाद सबसे अधिक फायदा किसे हुआ, भुट्टो की हत्या की साज़िश की जांच का क्या हुआ, क्यों ज़रदारी साहब ने मुख्य-न्यायाधीश इफ्तेख़ार चौधरी के पुनर्बहाली पर इतना आनाकानी करते रहे? जब गिलानी साहब कहते हैं, आईएसआई होम मिनिस्ट्री के तहत काम करेगी तो चौबीस घंटे के भीतर ब्रिटनी स्पियर्स की शादी और डायवोर्स की तरह, क्यों वादा और वादाख़िलाफी उनके बयानों में नज़र आती है? ये सही है कि पाकिस्तान आतंकवाद की अमेरिकन लड़ाई में अमेरिका के साथ है और ख़ुद अंदरूनी जंग से परेशान है। तालिबान पाकिस्तान के भीतर आ चुका है और उसके वजूद के लिए ही ख़तरा बन चुका है। यहां तक कि जरदारी साहब भी इस बात को क़बूल चुके हैं। लेकिन ये तालिबान और आतंकवाद भी तो पाकिस्तान ने ख़ुद खड़ा किया, जब अफ्गानिस्तान में तालिबान ने क़ब्ज़ा जमाया तो सबसे पहले पाक ने ही तालिबान सरकार को मान्यता दी। और जो अमेरिका आज आतंक के खिलाफ खड़ा है ये भी उसी का करा-धरा है जो उसने बोया अब वही काट रहा है। पाकिस्तान तो ख़ुद गृह-युद्ध की चपेट में फंसता जा रहा है। वैसे भी यहां निर्वाचित सरकारों की विदाई ग़ैर-लोकतांत्रिक तरीक़ो से होती रही है और कट्टरपंथियों, आतंकवादियों के लिए गढ़ बनते जा रहे पाकिस्तान को ज़रूरत है पहले अपने घर को साफ करने की ताकि कोई मेहमां आ सके। रही बात इंडो-पाक डायलॉग की तो उस सिलसिले में हमारे पीएम साहब ने फरमा ही दिया कि हमे जनादेश ही इस बात के लिए मिला है। क्योंकि कुछ लोग हैं जो सोचते है, हमारे बारे में कि,
जाहिद-ए-तंग नज़र ने मुझे काफिर जाना।
और काफिर समझता है मुसलमान हूँ मैं।।

गरीब वोटर अमीर नेता

देश की दो अलग-अलग तस्वीरें...लोकसभा चुनाव ख़त्म। जब हमारे देश की बहुसंख्य आबादी गर्मी की तपिश झेलने को मज़बूर है...दो बूँद पानी के लिए छटपटा रही है...वहीं चुनाव जीतकर आए, ये नेता अब एयरकंडीशन में बैठकर और जब एक बड़ी आबादी पानी से मरहूम है या गंदा पानी पीने को मज़बूर है, जैसा कि हाल में राजस्थान का मामला सामने आया..ऐसे में ये प्यूरीफायड पानी पीकर लोगों की ज़िंदगी की दशा-दिशा तय करेंगे..ख़ैर ये कोई आज की कहानी नहीं है, ये एक सिस्टम के तौर पर सदियों से हमारी सोसायटी में फैला हुआ है।गांधी ने बस एक धोती पहनकर आज़ादी दिलाई तो नेहरू ने चूड़ीदार पायजामा पहनकर हुकूमत चलाया। राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति भवन में संत बने रहे , पटेल रियासतों को एक करते रहे , नेहरू कश्मीर विवाद को जन्म देते रहे। हम यहां नेहरू की आलोचना नहीं कर रहे , दरअसल परिवारवाद आदि में कोई बुराई नहीं है, अगर देखें तो मौर्य वंश और मुगल काल आदि में भी लोगों का जीवन स्तर काफी बेहतर था, तो क्या राजशाही को भी बेहतर माना जा सकता है। बात दरअसल ये है कि सरकार चाहे किसी की भी हो आम और मज़बूर बहुसंख्य जनता को कोई फ़र्क नहीं पड़ता है.चाहे इंडिया शाइनिंग हो या भारत निर्माण। यहां तो बस लोगों की जान बस इस बात पर चली जाती है कि वह हिंदू है , वह मुसलमान है या ईसाई है। सही तौर पर देखा जाए तो हम आज भी एक सभ्य मुल्क नहीं बन पाए हैं। सही शासन-प्रशासन के लिए आज भी तरस रहे हैं। बेरोज़गार पड़े हैं। कोई पूछने वाला नहीं है। अपने ही मुल्क में ग़ैरों-सा बर्ताव होता है, मुंबई जाओ या साउथ सब जगह से भगाए जाते हैं वह भी डंडे के दम पर। आज क्यों हर जगह हत्या, लूट मार, बलत्कार हो रहा है। सबसे बड़ी वजह सिस्टम का फेल्योर होना है। न हम लोगों को रोज़गार दे पा रहे हैं , न ही जिंदगी की सुरक्षा। फिर भी अगर चुनाव लड़ते भी हैं तो जय हो! कहते हैं या भय हो! लेकिन न तो किसी की जय होती है और न ही किसी का भय दूर होता है............

पानी के लिए खून


दुनिया में धरती के दो-तिहाई से भी अधिक हिस्से पर पानी है, लेकिन फिर भी हत्याएं पानी के लिए ही हो रही हैं। हम चांद और मंगल तक तो पहुंच गए, वहां रहने की तमाम खोजबीन में लगे हैं। लेकिन अगर हक़क़ीत देखी जाए तो हम धरती पर भी रहने के क़ाबिल नहीं हैं। विकास के इस अंधेर भागदौड़ में हमने सब कुछ खो दिया है। आज हमारे घरों में एसी, फ्रीज़,वाशिंग मशीन तक हैं। लेकिन हमने कभी नहीं सोचा कि ये सारी चीज़े किस क़ीमत पर हासिल की है।हमने सबसे बड़ी क़ीमत चुकाई है इस बात की...अपने अस्तित्व की क़ीमत। आप सोच रहे होंगे कि फालतू की बकवासबाज़ी आपको क्यों बता रहा हूं मैं? आज सबकुछ मिलता है, अगर आपके पास दौलत है तो दुनिया आपके कदमों में है, यकीनन दुनिया आपके कदमों में होगी...लेकिन फर्ज़ कीजिए आपकी जरूरत की चीज़ ही दुनिया से दूर हो जाए तो क्या करेंगे आप? क्या आपकी बेशुमार दौलत भी उस चीज़ को ख़रीद पाएगी, बिल्कुल नहीं।
जी हां, यही कहानी है, पानी की। धरती पर दो-तिहाई से भी ज्यादा हिस्से पर पानी है, लेकिन पीने लायक बस ढाई फीसदी ही है और ढाई फीसदी का भी पचहत्तहर फीसदी बर्फ से ढका है। तो सोच लीजिए आपके आपके पास कितना पानी है? औऱ पूरी दुनिया का गुजारा कैसे होता है? इस भागदौड़ भरी जिंदगी में इन बातों को सोचने की फुर्सत ही किसे है? लेकिन अब जो रहा है वो बेहद ही विकट संकट है। अगर समय रहते नहीं संभले तो यकीन मानिए गंभीर नतीजे भुगतने पड़ेंगे। अबी पिछले दिनों की ही बात है, जब पानी के लिए हत्या की वारदात को अंजाम दिया गया...मामला मध्यप्रदेश का है। दरअसल भारत का यह प्रदेश आजकल पानी की भारी कमी से संघर्ष का समरभूमि बना हुआ है। इसका जीताजागता उदाहरण है, भोपाल में सरपंच और उसके साथियों के हमले में हुई एक युवक की मौत। सिर्फ भोपाल में ही अब तक पानी की लड़ाई में चार लोग अपनी जान गवां चुके हैं....वहीं पूरे सूबे की बात करें तो अलग-अलग थानों में इस सिलसिले में कुल पौंतालीस मामले दर्ज हैं तो कुल सात लोग पानी के लिए मौत के परवान चढ़ चुके हैं। पानी की कमी ने किस कदर लोगों को परेशान करना शुरू कर दिया है, ये तो महज कुछ उदाहरण हैं। ऐसे अनेक मामले हैं जहां लोग पानी के लिए अपना ख़ून बहा रहे हैं और यही हुआ भोपाल के शाहजहांबाद इलाक़े में। जहां सात साल के ब्रजेश के माता-पिता और बड़ा भाई पानी की लड़ाई में हमेशा के लिए मौत की आगोश में सो गए। कोई इत्तेफाक नहीं ब्रजेश अगर दो घूंट पानी के लिए तड़पता रहे।
पानी के संकट का आलम ये है कि भोपाल से महज चालीस किलेमीटर दूर सिहोर शहर में चार दिन में एकबार तो बाक़ी नगरों में दो दिन में एकबार पानी आता है। इसी से हररोज का तमाम कामकाज। सोचने पर विवश करती हैं ये परिस्थितियां। हालांकि सरकार ने कुछ कदम उठाए हैं, मसलन अनाजों की तरह पानी की राशनिंग, पाइपलाइन के इर्दगिर्द पुलिस का पहरा। मतलब अब पानी पर भी पहरा और पानी आपको मिलेंगे भी तो ठीक उसी तरह जैसे अनाज, घासलेट(केरोसिन तेल) के लिए डीलर के घर पर लाइन में लगकर लेना पड़ता है।
मध्यप्रदेश के इस ताज़ा सूरतेहाल में हम आने वाली दुनिया की तस्वीर साफ़ देख सकते हैं। और हक़क़ीत तो है कि, महज 6-7 साल पहले हम पढ़ते थे, दुनिया का सबसे अधिक बारिश वाला जगह कौन तो चेरापूंजी,,,,,,और आज यही चेरापूंजी औसत बारिश के लिए भी तरस रहा है..............