एक न्यूज़-चैनल दर्शक की इच्छा !!!

आजकल चैनलों पर वही घिसी-पिटी ही ख़बरें देखने को मिलती हैं। अब तो बोरियत भी महसूस होने लगी है, टीवी देखने से। वही उमर अब्दुल्ला और श्रीनगर सेक्स कांड, पाक पीएम गिलानी और मनमोहन सिंह के साझा बयान में बलूचिस्तान का ज़िक्र होने पर हो-हल्ला, पीएम की संसद में सफाई... ये सभी बोरियत का एहसास दिलाते हैं, लेकिन हां कुछ चीज़ें हैं जो दिल खुश कर देती हैं। जब न्यूज़ चैनल पर चटपटी ख़बरों में सलमान, दीपिका और फ़राह की झलक दस का दम में जो दिखाया जाता है, कसम से रोमांच भर देता है। वो दीपिका का सलमान की कलाई मोड़ते हुए, शर्माते हुए डायलॉग बोलना कलमुंही चल बर्तन मांज तो एक गुदगुदी पैदा करती है, जनाब। कसम से मज़ा आ गया। लेकिन फिर वही जब महंगाई का ज़िक्र...परंपरा के नाम पर बच्चों को मंदिर की छत से फेंकना...मेट्रो हादसे को दिखाना यार बोर करने लगती है...भाई साहब मज़ा आ जाता है जब राखी का स्वयंवर की झलकियां देखता हूं, हालांकि राखी मुझे कतई अच्छी नहीं लगती, लेकिन एकबारगी सोचता हूं, काश मैं भी चला गया होता स्वयंवर में तो बहुत ही मज़ा आता। लेकिन कोई नहीं जी, यहां बैठे-बैठे देखना भी कम रोमांच नहीं देता है। और तो और जब प्रोमो देखता हूं तभी लग जाता है, इस खबर में जरूर दम है, मसलन कल रात सलमान की आंखे क्यों लाल थीं...पहले तो सोचता हूं वही पी-पा के किया होगा इधर-उधर कुछ लेकिन फिर भी मज़बूर कर देता दिल कि एक झलक तो देख ही लूं...हालांकि देखने के बाद बहुत पछताया समय बर्बाद कर दिया इसे देखकर... लेकिन क्या करूं प्रोमो ही इतना ज़बरदस्त था कि ख़ुद को रोक ही नहीं पाया...जी ऐसे होने चाहिए सेगमेंट जो आपको मज़बूर कर दे देखने को, नहीं तो वही बोर होते रहिए...गुर्जर आरक्षण, रिभु हत्याकांड में मोबाइल और गाड़ी बरामद, किसानों की आत्महत्या, और उमर अब्दुल्ला और बेग साहब की सफाई देखकर.....

बचपन का प्यार



वो बचपन, पुराने संगी-साथी
याद आती है उन पलों की,


जो कभी बिताए थे उनके साथ...

अनजान थी वो या था एक बचपना

कोई कुछ भी नाम दे उसे,

पर थी वो सबसे अलग सबसे ज़ुदा।

हमने गुजारे साथ-साथ कुछ पल

उन यादों के बहाने

वो रही मेरी धड़कनों में

सासों के बहाने।



जब भी ख़ुद को तन्हा और अकेला पाया,

चुपचाप-सी आई तुम मेरे पास,

एक विश्वास और प्रेरणा बन

इस जहां में जीने की एक आस के सहारे...

अनजानी राहें

चाहत हमेशा होती है कुछ करने की,
लेकिन कुछ भी करता नहीं,
ललक सबसे आगे बढ़ने की,
पर मैं दौड़ता नहीं,
ये कौन बताए ज़माने को,
कि जीना ही सिर्फ़ मेरा मक़सद नहीं।
कभी- कभी तो ज़िंदगी भी नीरस लगती है,
पर सोचता हूं, उन ख़्वाबों का क्या?
जिन्हें यकीं है पूरा करने की...
सभी को मलूम हैं अपनी मंजिलें
और डगर है अनजान
फिर भी डर नहीं अनजानी राहों पर चलने की।

छोटी की पहली कविता

सवालों के घेरे में मीडिया

आज मीडिया की नैतिक दुनिया काफी बदल गई है। एक अख़बार में दस से पंद्रह लोग मार्केट कवर कर रहे हैं, फैशन-डिज़ाइन और ग्लैमर संवाददाता हैं, लेकिन ग्रामीण और शहरी ग़रीबों को कवर करने वाला कोई पूर्णकालिक संवाददाता नहीं है। सामाजिक क्षेत्र की समस्याएं जिस हिसाब से बढ़ रही हैं, इस क्षेत्र को कवर करने वाले संवाददाताओं की बीट उसी अनुपात में घट रही हैं।
ये बातें दो साल पहले कही थीं, द हिंदू के रूरल एडीटर पी साईनाथ ने पत्रकारिता के गिरते स्तर के बारे में। और आज हररोज़ कहीं न कहीं इसी तरह की बातें उठ रही हैं। चाहे हाल में उदयन शर्मा स्मृति के अवसर पर आईबीएन ७ के आशुतोष, केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल और कुर्बान अली के वाद-विवादों की बात हो या अब राज्य सभा में टीआरपी के खेल पर होने वाली बहस का मुद्दा। हरकोई इस पत्रकारिता के पेशे को ही सवालों के घेरे में लाने की कोशिश में लगा हुआ है। तो क्या सचमुच पत्रकारिता का पतन हो रहा है? एक टीवी पत्रकार हैं पुण्यप्रसून वाजपेयी, जिनके नाम से लगभग हरकोई वाकिफ होगा...अगर हम इनके विचारों और लेखों को पढ़े और समझने की कोशिश करें तो काफी कुछ मसला समझ में आ सकता है कि आज पत्रकारिता कहां और किस स्थिति में है। इस क्षेत्र में कई लोग ऐसे हैं जो जानते और समझते हैं कि टीआरपी और कंटेट के मसले पर जो खेल चल रहा है वो बदलना चाहिए तो कुछ सोचते हैं कि बाज़ार का ज़माना है और हमें उससे तालमेल या कहें तो उसी के मुताबिक़ ख़ुद को ढालना पड़ेगा नहीं तो चैनल के बंद होने की गुंजाईश सौ फीसदी होगी।

लेकिन ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि हम कितना समझौता कर सकते हैं, बाज़ार के दबाव में किस हद तक काम कर सकते हैं। एक हद तक ही नहीं तो जिस तरह की बातें कपिल सिब्बल करते हैं कि आप कुछ भी हमारे बारे में लिखते बोलते रहिए हमें कुछ फ़र्क नहीं पड़ता, मतलब ये कि सीधे हमारी विश्वसनीयता पर ही सवाल उठाए जाने लगते हैं। हालांकि मैं ख़ुद आशुतोष और पंकज पचौरी की बातों से इत्तेफाक रखता हूं, एक तो यह कि आज हम बाज़ार की ताक़त को नकार नहीं सकते और दूसरी ये अगर हमें अच्छा टीवी चाहिए तो हमें आगे आना पड़ेगा, हमें पैसा लगाना पड़ेगा, जैसा कि ब्रिटेन में होता है। वहां पब्लिक पैसा देती है और बदले में उसे अच्छा टीवी मिलता है। बीबीसी के ही कई चैनल हैं, मसलन न्यूज़, डॉक्यूमेंट्री आदि जिस पर एक से बढ़कर एक कार्यक्रम दिखाए जाते हैं, जिसे देखकर हम कहते हैं कि हमारे यहां ऐसा क्यों नहीं है?

अगर मोटामोटी बात कहें तो ये कि आज पब्लिक और पत्रकार दोनों को सोचने की जरूरत है, आख़िर आरोप-प्रत्यारोप का दौर कब तक चलता रहेगा?

वैलेन्टान डे १४ फरवरी, करगिल मालूम नहीं..

आज विजय दिवस है। करगिल फतह का दिन। हमारे सैकड़ों जवानों ने अपनी कुर्बानी से हमें महफूज किया। लेकिन हम शायद उनके बलिदान की अहमियत को समझने की कोशिश भी नहीं करते। कहते हैं, आज ग्लोब्लाइजेशन का जमाना है। कोई भी चीज हमारी पहुंच से दूर नहीं है। पूरी दुनिया ने एक गांव की शक्ल अख़्तियार कर ली है। इस मायने में कि कोई भी सूचना, जानकारी हमारी अंगुलियों पर घूमती है। लेकिन, आज हम यूथ अपनी आज़ादी के नाम पर कुछ भी करने की छूट तो मांगते हैं, एक गांव, ग़रीब का नौजवान सेना में भर्ती होकर अपनी जान गंवा कर हमारी रक्षा तो करता है, लेकिन बदले में हम उसे याद भी नहीं रखना चाहते।
कुछ इसी तरह का वाक्या आज मुझे देखने को मिला। करगिल विजय के दस साल पूरे होने की खुशी में आज हम विजय दिवस कुछ ख़ास अंदाज़ में मना रहे हैं। ऐसे में एक टीवी चैनल पर काफी युवाओं से इसके बारे में पूछा गया तो वो दिन में ही तारे गिनने लगे। उनसे पूछ गया कि- आप करगिल के बारे में क्या जानते हैं तो उन्हें कुछ नहीं सूझा, फिर पूछा गया कब और क्यों मनाते हैं, तो जवाब में सर पर हाथ रख कर दांत दिखाते हुए जवाब मिला, अ...आ....अ... मालूम नहीं। उन्हीं से एक और सवाल किया गया वैलेल्टाइन डे कब मनाते हैं हम तो जवाब तपाक से मिला- चौदह फरवरी।

बाक़ी आप ख़ुद सोचिए.....मुझे तो भई कुछ नहीं कहना !!!!!!

सोच रहा हूं मैं....


आजकल सोच रहा हूं मैं,
ज़िंदगी कैसे बीत रही है,
क्या कुछ कर रहा हूं मैं,
मैं कुछ करता क्यों नहीं?
आजकल सिर्फ सोच रहा हूं मैं।

ज़िंदगी को बेहद क़रीब से देख रहा हूं
ख़ुद के होने पर पछता रहा हूं मैं,
किसी की तलाश और इंतजार में
बस अपना समय गंवा रहा हूं मैं,
आजकल सोच रहा हूं मैं।

बाबूजी कहते हैं, क्या सोचना भी कोई काम है,
यही सोचकर परेशान हूं,
बस, आजकल सोच रहा हूं मैं।

मन बोले राधा-राधा ना......

पैरों में पायल, हाथों में चूड़ियां, गले में मंगलसूत्र और मांग में सिंदूर और तिस पर लाल रंग की साड़ी। एक पुरूष ऐसे रूप को अख़्तियार कर सरे बाज़ार निकलने की सोच भी सकता है, यकीन नहीं होता। लेकिन जब कोई कृष्ण की दीवानी बनने की ठान ही ले तो सबकुछ मुमकिन है।कृष्ण के प्रेम ने इन्हें इस कदर व्याकुल कर दिया कि ये कहते हैं, "मैं पुरूष तो तन से हूं, मन तो पूरी तरह कृष्ण में रम चुका है। अब तो बस उनकी गोपी बनकर जीने की तमन्ना है।"

ये हैं सरकारी नौकरी (अध्यापक) से सेवानिवृत, अब राधा सखी, कैलाशनाथ त्रिपाठी। इन्हें देखकर आपको एक और राधा आईजी पांडा की याद आ सकती है। जो पब्लिक की सेवा छोड़ कृष्ण की सेवा में रम गए। इस हिसाब से ये दूसरी राधा का ख़िताब पाने के वाजिब हक़दार हैं, लेकिन ये अपनी तुलना किसी से नहीं करना चाहते, कहते हैं... मैं तो बस कृष्ण की दीवानी हूं और उन्हीं की आराधना सेवा में अपनी जिंदगी बिताना चाहती हूं, तो इसमें बुराई क्या है ? अपने इस रूप को पब्लिसिटी-स्टंट कहे जाने पर बिफर पड़ते हैं...मैं कभी मीडिया के पास नहीं जाती, लोग मेरे पास आते हैं।

जी जनाब, तो ये हैं हमारे पांडा साहब के बाद की दूसरी राधा। कृष्ण की दीवानी राधा। कृष्ण के प्रेम में पागल राधा। कृष्ण के लिए सबकुछ कुर्बान करने वाली राधा। ये है राधा का देसी अंदाज़।



सहयोग....शुक्रवार

हरकत पुरानी, पैंतरा नया....


एकबार फिर सुर्ख़ियों मे शीला दीक्षित हैं...उनका कहना है कि दिल्ली में आए दिन बिपासा, जी बिजली, पानी और सड़क की समस्याओं के लिए जिम्मेदार हैं, ट्रेन से भर-भर कर आनेवाले बिहारी और यूपी के लोग। शायद उनका कहना ये है कि इनका बोझ दिल्ली नहीं उठा सकती, जिसका खामियाजा यहां के मूल बाशिंदे को उठाना पड़ता है। उन्हे हररोज़ समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है, इन ट्रेन में भर-भर कर आने वालों की वजह से। लब्बोलुआब ये कि बाहरी लोग ही समस्या की जड़ हैं। तो क्या वाकई ऐसा ही है? वैसे देखा जाए तो वो ख़ुद बाहरी हैं, यूपी की। और अपनी नाकामयाबी का घड़ा किसी और के मत्थे फोड़ना चाहती हैं। लगातार दस से पंद्रह सालों तक शासन करने के बाद भी जब लोगों की मूलभूत समस्याओं को दूर नहीं कर पा रहीं हैं तो उसका ठीकरा किसी और पर फोड़ना चाहती हैं। सबसे बड़ी बात कि हर नेता जब नाकाबिल हो जाता है तो लोगों के सेंटीमेंट्स से खिलवाड़ करना शुरू कर देते हैं। तरह-तरह के पैंतरों से आम लोगों का ध्यान मूल मुद्दों से हटा कर अपना उल्लू सीधा करने लगते हैं।
और लगता है कांग्रेस कभी दूसरों के कंधों पर तो कभी ख़ुद के कंधों पर से गोली चलाने के इस खेल में माहिर हो गई है। तभी तो महाराष्ट्र में जब आम लोगों की जरूरतों को पूरा करने में वहां की कांग्रेसी सरकार विफल रही तो अपना पुराना दाव जो कभी भिंडरावाले के साथ पंजाब में खेला था, महाराष्ट्र में भी खेलने लगी। इस बार प्यादे के तौर पर इस्तेमाल किया राज ठाकरे को। जिसमें वह लगभग सफल भी रही। वहां के लोग अपनी समस्याओं को भूलकर पीटने लगे बिहारियों और नॉर्थ इंडियन्स को। लेकिन क्या इससे उनकी जो पहले की प्रॉब्लम्स थी, वो दूर हो गईं। नहीं, बिल्कुल नहीं। पॉलिटिसियन्स ने अपना पासा फेंका और पब्लिक पागलों की तरह हरकत करती रही बिना सोचे -समझे की आख़िर मूल समस्या है क्या?

वही खेल अब दिल्ली में भी शीला सरकार खेलना चाहती है। वजह बहुत सारे हैं। न तो लोगों को बिजली और न ही पानी मिल पा रहा है, नतीजतन लोगों में गुस्सा फैल रहा है और सरकार कोई ठोस उपाय करने बजाय पब्लिक सेंटीमेंट्स से खेल कर इसे कुछ और रूप देना चाहती है कि समस्याओं के लिए बाहरी लोग ही ज़िम्मेदार है। दरअसल शीला दीक्षित हतासा और निराशा में ऐसी बातें कोई पहली बार नहीं कह रही हैं। दिल्ली में दो हज़ार दस में कॉमनवेल्थ गेम्स होने हैं, लेकिन उसकी तैयारियां अभी काफी बाक़ी हैं और लगता नहीं कि वो समय पर पूरी हो भी पाएंगीं, जल-प्रबंधन, बिजली समस्या इन सब पर काबू पाने में नाकामी ही उनके इस तरह के बयानों का नतीजा है, लेकिन लोग अब इस तरह के झासें में नहीं आने वाले । पब्लिक अब असलियत समझने लगी है, तो जरूरत है सरकार और नेताओं को भी सही रास्ते पर आने की नहीं तो पब्लिक सही रास्ते पर लाना भी जानती है, जैसा कि मुंबई धमाकों के बाद जो गुस्सा और रोष नेताओं के प्रति पब्लिक में था वो सबकुछ जाहिर कर ही चुका है....

तस्वीर बिहार की


लोग कहते नहीं थक रहे कि अब बिहार में बदलाव आने लगा है। तरक्की यहां भी होने लगी है। अपराध कम हुआ है। जगह-जगह सड़कें बन रही हैं। मतलब हर जगह कुछ न कुछ हो रहा है, जिसे तरक्की का संकेत माना जा रहा है। तो आइए देखते हैं आख़िर कितना कुछ बदला है बिहार में इन दिनों में....

बदलाव का बयार ऐसा बहा है कि यहां अभी भी तकरीबन सवा करोड़ लोग ग़रीबी रेखा के नीचे जीने को मज़बूर हैं...लगभग दो दशमलव सात फीसदी लोग ग़रीबी और भूखमरी के शिकार हैं...सिर्फ पच्चीस फीसदी आबादी को ही सार्वजनिक स्वास्थ्य और शौचालय की सुविधा मिल पाती है...राष्ट्रीय औसत केवल एक दशमलव नौ फीसदी ही है...प्रति व्यक्ति सलाना आय की बात करें तो बिहार में महज दस हज़ार पांच सौ सत्तर रू ही है जबकि यही हरियाणा में अड़तालीस हज़ार तो गोवा में पच्चासी हज़ार रू प्रति व्यक्ति है । और बिहार में राष्ट्रीय औसत चौतीस हज़ार की अपेक्षा भी काफी कम है।

और बदलाव अगर कुछ हिस्से में आया है तो बस नीतिश सरकार के दौरान दो हज़ार करोड़ के निवेश का भरोसा, आख़िर भरोसे पर ही तो दुनिया कायम है...सरकार के कामकाज में सुधार, मज़दूरों के पलायन में कमी, कृषि और रियल स्टेट क्षेत्रों में बढ़ोतरी ये कुछ उम्मीदें। इसके सिवाय ठनठन गोपाल। कहते हैं अपराध पर काफी कुछ लगाम लग चुका है, लेकिन हाल की तस्वीर तो कुछ और ही बयां करती है...मसलन सत्येंद्र सिंह हत्याकांड जिसमें ख़ुद नेताजी विजय कृष्णन बेटे के साथ फरार हैं, इंजीनियर योगेंद्र पांडे आत्महत्या गुत्थी जिसमें ज़िला प्रशासन पर (एसपी)अंगुलियां साफ उठ रही हैं, तो देश के टॉप टेन ट्रांसपोर्टरों में चौथे स्थान पर शुमार संतोष टेकरीवाल की हत्या...ये तो बस महज कुछ ट्रेलर हैं। इससे तो यही लगता है एकबार फिर जंगलराज दस्तक देने लगा है और सुशासन बाबू के राज में दु:शासन सिर उठाने लगे हैं।

तमाशा दुनिया का


हररोज़ सरे बाज़ार होता तमाशा
भले ही चोर नज़रों से पर,
देखता तमाशा दुनिया का...
हररोज़ होता बेरोजगार नौजवान
जेब भरते नेता, किसान करते आत्महत्या,
फिर भी हम करते भारत-निर्माण.....
संसद से सड़क तक, जन से जनपथ तक,
कहां खो गया इंसान,
चलो ढूंढें अपना स्वाभिमान....
ख़ून-पसीने के दम पर खड़ा होता
अपना नया हिंदूस्तान,
फिर भी ख़ून का ही क्यों प्यासा है इंसान...
जाति, मजहब, क्षेत्र सब बंटा है
नहीं बंटा तो बस हमारी चाह,
जो है हमारी एक अटूट पहचान.....

एक खाब अधूरा-सा

आज दिल उदास क्यों है ,
हर चीज़ तो है पास पर किसी की तलाश क्यों है ?
न जाने किसकी तलाश में निकला था
वो दूर है हमसे, पर उसका एहसास हरपाल साथ क्यों है ?
फासला ज़मीन और आसमां के बीच है,
फ़िर भी आसमां ज़मीं की प्यास बुझाता क्यों है ?
शिद्दत से इंतजार करता हूँ ऐसा कह नहीं सकता
पर ये भी सच है बिना तेरी यादों की एक पल भी नहीं गुजरता ।
लेकिन अब लगता है वो रिश्ता भी कमजोर हो रहा है,
बिना तेरे ये दिल जीने को मजबूर हो रहा है ।
कब तक करे कोई इंतजार उस पल का
जब न हो बाकी कोई अरमां उसके हबीब का ।

बदलाव की बयार बिहार में

किन आंखों से देखूं बदलाव ! बस दिलासा और ढाढस की जिन्दगी । क्या सचमुच पलायन रूका है बिहारियों का बिहार से । किसी को ऐसा लग सकता है, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता । रेलवे स्टेशनों पर वही लम्बी-लम्बी कतारें । मुंबई में मार खाने के बावजूद वहीं जाने की मजबूरी । अब तो दूसरे शहरों में भी पीटने लगे हैं । एक बार ऐसे ही मैं बात कर रहा था एक बिहारी स्टुडेंट से, उसका क्या कहना था ऑस्ट्रेलिया में पीटने वाले भारतीयों के बारे में शायद आप अनुमान लगा सकते हैं । फिर भी मैं आपको बता दूँ, जिस तरह हम बिहारवासियों को भारत में बिहारी एक गाली के शब्द के तौर पर इस्तेमाल करके बुलाया जाता है, ठीक उसी तरह यही हाल भारतीयों का विदेशों में है । खैर ये बात तो किसी तरह जायज़ नहीं ठहराई जा सकती , लेकिन इससे मानसिकता पता चल जाता है । हम बात कर रहे थे बिहार में सुशासन की , तो इसका दावा कितना मज़बूत हुआ है, इन वर्षों में इसका अंदाजा इसीसे लगाया जा सकता है कि हररोज़ राजधानी पटना में हत्या और लूटमार की घटनाएँ मानों आम बात हो गयी हो । यहाँ के किसी भी अखबार का पन्ना पलटिये आप इस हकीक़त से रू-बा-रू हो जायेंगे । ये तो मैंने महज़ चंदनमूने ही बताये, यदि सही तरीके से तफ्तीश की जाए तो आपके होश गुम हो जायेंगे । ये मैं कोई ऐसे ही नहीं कह रहा हूँ दरअसल ये हकीक़त है, आज भी यहाँ कई ऐसे गाँव हैं जो सही तौर पर सड़को से नहीं जुड़ पायें हैं । हालाँकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ -न- कुछ काम तरक्की के हो ज़रूर रहे हैं लेकिन मेरी समझ में ये नहीं आता कि इतना हल्ला क्यों हो रहा है जबकि काफी कुछ काम किया जाना बाकी है । सबसे पहले तो जो सुधार कायदे- कानून के क्षेत्र में होना चाहिए वो नहीं हो पाया है, बस टीवी और पेपर में पढ़ कर ये अनुमान लगा लेना गलतफहमी ही होगी कि अब सब कुछ सही ढर्रे पे आ गया है . सबसे बड़ी बात ये कि यहाँ भी लोग अब जागरूक होने लगे है यह जान कर दिल को तसल्ली होती हैऔर मुझे यकीं भी है कि बिहार अपना पुराना गौरव भी एक दिन ज़रूर हासिल करेगा और वो दिन ज़्यादा दूर नहीं है .

बदहाल शिक्षा बिहार में

एक तरफ जहाँ बिहार के छात्र हिंदुस्तान और हिंदुस्तान के बाहर तरक्की के नए झंडे गाड़ रहे हैं, वहीं उनके राज्य में ही शिक्षा की हालत खस्ता बनी हुई है। और फिलहाल इसके सुधरने की भी कोई गुंजाईश दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रही है। शिक्षा एक ऐसा क्षेत्र था जो कभी इस राज्य की तूती बोलती थी कभी पूरे हिंदुस्तान में, लेकिन अब तमाम इन्फ्रास्त्रक्चरके ध्वस्त होने और लगातार उपेक्षा से इसकी हालत बद से बदतर होती जा रही है। और लगता है नीतिश सरकार में इस क्षेत्र में सुधार सिर्फ़ कागज़ पर ही रह गए है। कुछ फैसले लिए भी गए तो इसकी गुणवत्ता को और नेगेटिव करने वाला ही माना जाएगा । मसलन यूनिवर्सिटी के शिक्षकों की रितायरामेन्त की सीमा बासठ से बढाकर पैंसठ करना, ऐसा नहीं लगता है की सरकार अभी भी इस दिशा में कोई सार्थक सुधर के लिए सजग है । जहाँ रिटायर्मेंट की सीमा बढ़ने के बजाय खाली पदों को भरने का काम किया जाता तो एक तरफ बेरोज़गारी दूर होती तो दूसरी तरफ शिक्षा के क्षेत्र में क्वालिटी की भी उम्मीद की जा सकती थी। लेकिन ऐसा होना दूर की ही कौडी लगता है वजह शिक्षा के नाम पर किया जाने वाला खिलवाड़ है। जहाँ आज भी बिहार में चोरी से पास करने वाले छात्रो की कोई कमी नही है वहीं शिकशोंका ढुलमुल रवैया और पढानेके नाम पर मजाक इसे और भी बुरी तरह प्रभावित कर रही है। ज़रूरत है अपने इतिहास से सबक लेने की और ख़ुद को साबित करने नहीं तो दुर्दशा निश्चित है। और बदहाली, बेकारी और गरीबी भी कहीं नहीं जाने वाली है वजह शिक्षा ही किसी समाज को शिक्षित कर उसे सही ढर्रे पर ला सकती है।