राहुल की अटपटी बातें

21 अक्टूबर को गुरुवार था. गुरुवार को मेरा साप्ताहिक अवकाश होता है. इसलिए मैं अपने लौ क्लास में देर तक ठहर सका. नहीं तो बाकी दिनों में क्लास ख़त्म होने के साथ ही ऑफिस के लिए फटाफट निकल जाता था. इस कारण क्लास में मेरी किसी से खास घनिष्ठता नहीं हो पाई. हालाँकि, बातचीत और संबंध सबसे बढ़िया हैं. तो 21 अक्टूबर को हुआ कुछ यूं कि डीयू के नॉर्थ कैम्पस के बुद्धा गार्डन में टहल रहा था. मेरा एक दोस्त ज़बरन मुझे वहां ले गया, उसे योगा करना था. मेरे पास भी वक़्त था सो चला गया. वहां एक अजीब इंसान मुझे नजर आया. वह खुद से बातें कर रहा था. और बहुत गंभीर तरह की बातें. दो तीन मसलों पर उन्होंने  खुद से बातें की. एक यह था, 'लोगों को मैं कह रहा हूँ राहुल (गाँधी) को प्रधानमंत्री बना दो, पर किसी को अक्ल ही नहीं है. उसको कहाँ-कहाँ घुमा रहे हैं लोग, ऊर्जा को बर्बाद करवा रहे हैं उसकी. उसने शादी नहीं की, ताकि देश की सेवा कर सके. वह तो बोलेगा ही कि मुझे प्रधानमंत्री नहीं बनना, लेकिन इनको (बाकी कांग्रेसी) तो समझना चाहिए. देश में राहुल का दर्द समझने वाला कोई नहीं है.' उन अधेड़ उम्र के जनाब की ये बातें सुनकर मुझे हंसी भी आ रही थी, तो कभी गंभीर भी हो जाता था,कहीं उन्हें यह आभास न हो जाये कि मै उन्हें गौर कर रहा हूँ. हालाँकि, इससे उनको कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था. मुझे मेरे मित्र ने बताया था कि वह आपको रोज़ शाम ऐसी बातें करते मिल जायेंगे और उनको इससे फर्क नहीं पड़ता कि कोई उन्हें गौर कर रहा है. दूसरी बात मेरी अपनी कि राहुल जब राजनीति में आये तो मुझे ज़रा भी पसंद नहीं आये. वजह शायद उनका नेहरू-गाँधी खानदान से होना ही था. बाद में, उनकी कुछ सक्रिय राजनीतिक सेवा भी ढोंग लगी. मसलन, कलावती के घर जाना, दलितों के यहाँ खाना, सर पर मिट्टी ढोना. बाद में, लगा कि नहीं कुछ तो बात है. तभी तो राहुल का जादू सर पे बोल रहा है. वह कुछ भी बोलते हैं तो लोग सुनते हैं, खासकर युवा. हालाँकि, उनके विरोधी उनके भाषण देने के अंदाज़ पर सवाल उठाते हैं. हाल में, शरद यादव ने उनको गंगा में फेंकने की बात कही, क्योंकि वह नेहरू खानदान के हैं. शरद यादव का कोई बेटा या बेटी है या नहीं मुझे नहीं पता और है तो वो राजनीति में आना चाहते हैं या नहीं यह भी नहीं पता. अगर आते हैं तो उनका क्या करना चाहिए?     
अब तीसरी बात, राहुल लगता है थोड़े थक गए हैं या फिर उनके बुड्ढे सलाहकार सोच से भी बुड्ढा बनाते जा रहे हैं. नज़ीर है, सुना कि बिहार में चुनावी प्रचार के दौरान मिथिलांचल में उन्होंने कहा, अगर देश का विकास करना है तो पहले गुजरात को बदलना होगा. इस पर लोग भड़क गए. वजह यह कि वह तो पहले विकसित है. बाद में राहुल ने मामले की गंभीरता को देखते हुए खा, मेरी जुबां फिसल गयी. दरअसल मै कहना चाहता था कि बिहार को बदलना होगा. फिर भी लोग नहीं माने. राहुल को जाना पड़ा. इसके अलावा, राहुल भी आजकल आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति करने लगे हैं. हाल में उन्होंने कहा, बिहार के नेताओं ने प्रदेश को गलत रास्ते पर डाल दिया है। यही कारण है कि बिहारी तो चमक रहा है, लेकिन बिहार नहीं। तो इतने सालों से बिहार या अन्य जगहों पर जो दशकों तक उनकी पार्टी की सरकार थी उसने क्या किया. इस पर बात करने की ज़रुरत नहीं. मतलब ये कि राहुल घिसीपिटी बातें न कहें, इस युवा देश को उनसे अलग उम्मीद है.

बिहार में विकास -आधी हकीक़त आधा फ़साना

बिहार में चुनावी सरगर्मियां शबाब पर हैं. तीसरे चरण का चुनाव हो चुका है. बाकी तीन होने हैं. मैं दिल्ली में हूँ और बिहार का बाशिंदा हूँ. मेरे पास पहचान पत्र यानी वोटर आई डी कार्ड भी दिल्ली का ही है, बिहार का नहीं. वहां से 12 वीं करने के बाद दिल्ली आया और तब से आगे की पढ़ाई यहीं की और फ़िलहाल नौकरी के साथ-साथ पढाई जारी है. लगभग 6  साल हो गए दिल्ली आये हुए तो और लगभग इतना ही वक़्त हुआ बिहार में सत्ता परिवर्तन हुए.  राज्य का निवासी और बाहरी दोनों की भूमिका में हूँ मै. नतीजतन जो बदलाव और विकास के की बात हो रही है, उसे समझने में कोई परेशानी या उलझन या दुविधा की स्थिति में कतई नहीं हूँ. मीडिया के मुताबिक, बिहार में सत्ता की लड़ाई का स्वरुप भी बदल गया है. अब कितना बदला है यह 24  नवम्बर को ही पता चलेगा. लेकिन विकास कहाँ तक हुआ इसका ज़रा उदहारण दे दूं, जब मैं पटना से गाँधी सेतु पुल से गुजरता हूँ, तो आज भी उतना ही डर लगता है जितना नीतीश के मुख्यमंत्री बनने से पहले लगता था. यानी यह सेतु ज़र्ज़र हालत में है और कभी भी टीवी चैनलों पर एक दिन की खबर बन सकता है. हादसों की वजह से. अखबारों के पहले पन्ने पर सुर्ख़ियों में . इसमें कोई शक नहीं कि इस बार बिहार चुनाव में विकास की बातें खूब हो रही है. विकास हुए भी हैं. सच है कि नीतीश सरकार के राज में सड़कें बनी हैं, पुल बने हैं लेकिन कुछ मोर्चों पर विफलता काफी हावी रही है. कुछ विधायकों की अकर्मण्यता और कुछ सरकार की उदासीनता भी कमजोर कड़ी साबित हुई है जो नीतीश के हक में नहीं जाती हैं. पिछड़े वर्ग का मतदाता भी नाराज ही दिख रहा है, बीबीसी के मुताबिक, 'हम इस सरकार को बदलना चाहते हैं क्योंकि विकास-उकास सब फोकसबाज़ी है, सड़क-बिजली का बुरा हाल है और हमलोग इस राज में त्राहि-त्राहि कर रहे है.' यह कहना था पिछड़े वर्ग के एक मतदाता का. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक योगेन्द्र यादव विकास अभी दूर की ही कौड़ी है. लेकिन हाँ, आप इसे विकास नहीं तो उसकी आस कह सकते हैं.  बेहतर ढंग से चुनावी मसलों को कवर नहीं कर पाया, अगली बार कोशिश करूँगा फोकस रहने की.

कुछ अजीब ख़बरें अमेरिका से

ई अमेरिका भी अजबे देश है. हम भारत के बारे में यानी अपने देश के बारे में सोचते रहते हैं कि न जाने किस तरह के लोग हैं हम. हमारे बारे में अमेरिका और दोसर देश के लोग का सोचते होंगे. इंहा कोर्ट वगैरह न हो तो सरकार आम आदमी की जान खा जाये. और उस पर जाँच बईठा  दे. जैसे कि अभी आज की ही बात लीजिये सुप्रीम कोर्ट पूछा है कि ई 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जाँच कब तक करवाओगे भइया. आपको हंसी आ रही है भारत में जाँच को लेकर ऐसी बातें पढ़कर. लेकिन ई अमेरिका जो है वहां तो और भयानक भयानक मामला सामने आता है. बात ई है कि उंहा एगो आदमी के मौत के सजा सुनावल गेल. आ एक बात और कि अमेरिका में मौत के सजा खातिर फांसी पर न चढ़ा के जहर वाला इंजेक्शन दिया जाता है. ये पर उ कैदी केस कर दिया अगर इंजेक्शन से हम नहीं मरे तो बहुत दर्द होगा. निचली अदालत उसकी फांसी की सजा रोक दी. बाद में मामला शीर्ष अदालत में गया तो जज ने कहा ये सब क्या बकवासबाजी है, अब मरेगा तो दर्द होगा ही फांसी दीजिये उसको और मामला रफा दफा कीजिये. है न अजीब मामला और अजीब अमेरिकी. लेकिन यह खबर सौ फीसदी सच्ची है.
दूसरी बात यह कि, अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा भारत आ रहे हैं हैं. वह नयी दिल्ली न आकर मुम्बई उतड़ेंगे. मुझे शायद याद नहीं या फिर ऐसा हुआ नहीं कि कोई राष्ट्राध्यक्ष राजनीतिक राजधानी न आकर पहले आर्थिक राजधानी आया हो. यह कोई मसला भी नहीं है. पर ओबामा की अगुआनी कौन करेगा? शायद दिल्ली से पीएम वहां जायेंगे या प्रेसिडेंट जायेंगी. या ये दोनों ओबामा का स्वागत दिल्ली में ही करेंगे.
एक खबर यह है कि बराक ओबामा अब अमेरिका के सबसे प्रभावशाली शख्स नहीं रहे. मशहूर टीवी कलाकार और कॉमेडी सेंट्रल जैसे कार्यक्रम करने वाले जॉन स्टेवार्ट सबसे प्रभावशाली शख्स हैं. ओबामा जो कि राष्ट्रपति बनने से पहले नम्बर एक पर थे अब 21 वें पायदान पर हैं. मेरा फेवरेट एक्टर जॉर्ज क्लूनी 18 वें पर है. सबसे अजीब यह कि अब अमेरिका में ओबामा के 'वी कैन' को बेहद भद्दा मजाक कहा जा रहा है.  

कश्मीर एक अंतहीन समस्या

कश्मीर. तब और अब यानी आजादी के पहले और आज़ादी के बाद  हमेशा से एक अहम मसला रहा है. अब यह मसला नहीं उलझा और सबसे अधिक विवादास्पद मुद्दा है. मुझे लगता है आगे भी रहेगा. इसकी वजह भी है. मेरा मानना है कि इस समस्या का समाधान बहुत पहले ही हो जाता. उसी समय जब यह सामने आया था. लेकिन हमारे नेताओं ने अपने निकम्मेपन से इसे तिल का ताड़ बना दिया. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पास ही यह मौका था कि वह आनेवाली पीढ़ी को इस मुसीबत से बचा सकते थे. हजारों लोगों को कश्मीर के नाम पर मरने से बचा सकते थे. लेकिन यह उनकी अदूरदर्शिता थी या क्या नहीं पता, पर गलती तो कर ही गए. शेख अब्दुल्ला और पंडितजी  कभी  दोस्ती के नाम पर तो कभी लोकतंत्र और स्वयत्ता के नाम पर खेल खेलते रहे. वह इस खेल में माहिर भी थे. इनका दाँव कोई समझ भी नहीं पाया. और हम भी समस्या से जूझ रहे हैं. आसानी से हल होने वाला मसला आज मिसाइल बनकर हमारे सामने है. हम कुछ भी न कर पाने कि हालत में हैं सिवाय लोगों को बेवकूफ बनाने के. कश्मीरी आवाम को तो आर्थिक लालच देकर और भी धोखे में रखने की कोशिश की जा रही है. आर्थिक दिलासा जितना दिया जाता है या इसके जरिये कश्मीरियों को फुसलाने की जितनी कोशिश की जाती है, आग की लपटें उतनी ही तेज़ हो जाती हैं. इसका सबसे नकारात्मक असर यह होता है कि गैर कश्मीरी की सोच कश्मीर विरोधी नहीं कश्मीरी जनता विरोधी हो जाती है. यह सबसे खतरनाक है. मेरा मानना है कि हमें कश्मीर का मुस्तकबिल वहां के लोगों पर छोड़ देना चाहिए. अगर वहां की जनता अपना फैसला खुद करना चाहती है तो हमें क्या आपत्ति होनी चाहिए? हमें भला अपने फैसलोंनु को उन पर क्यों थोपना चाहिए. आज अरुंधती राय ने जो कहा है मै उनसे उन अर्थो में सहमत नहीं हूँ, लेकिन हाँ कुछ हद तक सहमत हूँ. हम अरबों रूपये उस जगह फूंक रहे हैं, जहाँ से हमें परेशानी के अलावा कुछ नहीं मिल रहा है. अगर नयी आर्थिक नीतियों को लागू करने वाले तब के वित्त मंत्री और अब हमारे प्यारे प्रधानमंत्री इस आर्थिक पहलू को नज़रंदाज़ करते हैं तो उन्हें क्या कहा जाये? क्या वह लंगड़े घोड़े पर बेट नहीं लगा रहे? इस पहलू पर सोचने कि ज़रुरत है.  गैर कश्मीरी आवाम के टैक्स को कश्मीरी जनता पर खर्च किया जा रहा है यही कुछ तर्क लगभग साल या डेढ़ साल पहले हिंदुस्तान टाइम्स के वीर सांघवी ने दिया था. अब एक दूसरा तर्क चर्चित समाजसेवी अरुंधती ने दिया है. उधर, कश्मीर के लिए नियुक्त वार्ताकार दिलीप पढगावंकर ने भी इसे सुलझाने के लिए पाकिस्तान को शामिल करने की बात कही है. ये सभी बातें व्यावहारिक हैं, जो भारत सरकार को कतई मंजूर नहीं होगा. मतलब यह कि वह कश्मीर समस्या का समाधान करने को लेकर संजीदा नहीं है. यही बात कश्मीरियों को सालती है और वो कभी पत्थरबाजी तो कभी भारत विरोधी नारे लगते हैं. हमें व्यावहारिक रास्ता अपनाने की ज़रुरत है.

मात खाने का मलाल नहीं

काम का सिलसिला जब काफी वक़्त तक चलता है तो इंसान मशीन बन जाता है. फिर मशीन के अन्दर न तो सोचने की ताकत होती है और न ही महसूस करने की.  आजकल कुछ ऐसा ही है. काम में दोहराव और  बेवजह बेकार की बातों पर बवाल. पिछले कुछ समय से काफी जद्दोजेहद में था. कई बार सोचा आखिर इसकी वजह क्या है? पर, समझ में नहीं आया. इसका जवाब लगभग 2 से ३ महीने बाद मुझे आज मिला. वह भी सवाल के शक्ल में. यानी उलझनों का जवाब एक सवाल है. दरअसल, साल भर से नौकरी कर रहा हूँ. पहले मै अपने काम को पत्रकारिता कहा करता था. वजह यह कि पढ़ाई पत्रकारिता की ही की थी. नतीज़तन, सोचता था जब पढ़ाई पत्रकारिता की करी है मैंने तो जो नौकरी कर रहा हूँ वह भी पत्रकारिता की ही है. बाद में यह भ्रम भी टूट गया. इस वजह से कि क्लास की आदर्शवादी बातों और फील्ड की दुनियावी बातों में काफी फर्क होता है. इस फर्क को सही ढंग से न समझ पाने की वजह से थोड़ा मै मात खा गया. खैर, मुझे मात खाने का मलाल नहीं है. मलाल इस बात का है कि सपने और विश्वास दोनों चकनाचूर हो गए. अभी हाल में इसका एहसास, एक दर्द बन के आया और मै अपनी कुंठा आपके सामने निकाल रहा हूँ. हालाँकि मै मूल बात फिलहाल आप सभी को नहीं बता सकता, क्योंकि इसको लेकर विवादों का सिलसिला जारी है. जब तक यह अपने अंजाम तक न पहुँच जाये, आधा अधूरा कुछ भी कहना मुनासिब नहीं होगा. ऐसा मेरा मानना है. मै सही नहीं भी हो सकता हूँ. पर मेरा यही फैसला  है और सोचने का नजरिया भी. पर, बहुत दुःख होता है और मैं ही अकेला इस कतार में नहीं हूँ. कई हैं जिनका सपना टूटा है. अब एक बात यह भी बता दूं कि मै अपने काम को मैं नौकरी क्यों कहता हूँ? दरअसल तीन से चार महीने पहले एक मुख्यधारा के चैनल के बहुत ही बेहतर पत्रकार से बात हुई. वह भी फेसबुक के जरिये. उनसे जब इस मसले पर छोटी सी चर्चा हुई तो उन्होंने ही कहा. पत्रकारिता तो कब का ख़त्म हो गयी, हम सब नौकरी कर रहे हैं. यदि आप इसमें कुछ बदलाव या क्रांति की तरह कुछ करना चाहते हैं तो यह पूरी तरह आपका फैसला होगा. तभी से मै समझ गया...हम पत्रकारिता नहीं नौकरी कर रहे हैं चेहरों पर नकाब लगा कर.

केशव की तान पर कलमाडी का खेल

पांच दिनों बाद लिख रहा हूँ. राष्ट्रमंडल खेलों के बारे में ही लिख रहा हूँ. उद्घाटन समारोह बेहद शानदार रहा. एक दिन पहले तक जो दुनिया खेलगांव को गन्दा और बकवास करार दे रही थी, उसके अखबारों और चैनलों में वाहवाही का आलम था. कल तक जो ऑस्ट्रेलिया समेत कई देशों के दल प्रमुख आलोचना करते अघाते नहीं थे, वही आज तैयारियों और इंतजामों से मुत्तासिर हैं. या तो वो पहले झूठे थे या अब. लेकिन इन सब बातों को भी छोड़ दें तो उदघाटन समारोह वाकई भव्य और अनूठा रहा. न इसमें बॉलीवुड का तड़का था और न ही कोई तमाशा. इससे कुछ लोगों का यह गुमान टूटा कि बगैर बॉलीवुड के कोई समारोह सफल नहीं हो सकता. भारत की मूल संस्कृति ने जो रंग जमाया उसकी जगह कोई नहीं ले सकता था. इस समारोह में था तो बस भारतीय संस्कृति और विविधता में एकता का सबसे बड़ा सबूत. दुनिया देख कर दंग और हैरान थी. शायद अब तक जो भारतीय मीडिया खेलों में गंदे धंधे का पर्दाफाश कर रहा था, उसने भी थम कर सोचा और भारत की तहजीब पर बट्टा नहीं लगने दिया. उद्घाटन समारोह की बात कहूं तो केशव की तान ने अभिभूत कर दिया. कलमाडी के सारे कुकर्मों पर पर्दा डाल दिया. उसकी मुस्कान को देख कर ही सभी के चहरे खिल गए होंगे. महज सात साल की उम्र में कोई बच्चा इतनी मस्ती में तबला बजाये यह तो अद्भुत है. मेरी भतीजी ने मुझे फ़ोन किया और कहा...'चाचू आपने उस छोटे बच्चे को देखा, हालाँकि मेरे भतीजी भी सात साल की ही है, फिर भी उसे वह भी बच्चा ही कह रही थी., उसने कहा, उसका नाम केशव है और वह कितना बढ़िया से मुस्कुरा रहा था. ' केशव उस छोटे से समय के प्रदर्शन में सबों का चहेता बन चुका था. उसका नाम सभी के लबों पर था. खेलों के गुनहगार की खोज फिर खेलों के बाद की जायेगी. अभी तो वक़्त है भारतीयता दिखाने का. कल जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम गया. एथलेटिक्स का मुकाबला था. भारत की और से चुनिन्दा खिलाड़ी ही इन स्पर्धाओं में शिरकत कर रहे थे. जाने माने चेहरों में सौ गुना चार मीटर दौड़ में मंजीत कौर और मंदीप कौर  सेमीफाइनल में थीं. इनमें से मंदीप कौर अब फाइनल में खेलेंगी. सौरभ विज भी शौट पुट में थे. यानी गिनती के भारतीय खिलाड़ी. बावजूद इसके लोगों की तादाद कम नहीं थी.  हैरत तो इस बात से हुई और गर्व भी कि जब ऑस्ट्रलियन महिला एथलीट ने सौ मीटर दौर में गोल्ड जीती तो पूरे मैदान के चक्कर लगाये. उस वक़्त लोगों के तालियों की आवाज़ से पूरा स्टेडियम गूँज उठा. यानी सच्ची भारतीयता की झलक सभी सामने थी. यह देखकर मुझे उतना ही मज़ा आया, जितना सभी को आना चाहिए. मुझे लगा यूं ही कोई बात कहने से उसे परख लेना बेहतर होता है. आखिर वही सच्चाई होती है. भारतीयता पर जो लोग सवाल उठाते हैं उन्हें भी ये चीज़ें देख लेनी चाहिए बजाय कोरा विश्लेषण करने के.

असभ्यता का अभिशाप है आरक्षण

आरक्षण असभ्य समाज की पहचान है. हम आरक्षण किसे देते हैं? इस पर सबका जवाब होगा उसे जो समाज में विकास की होड़ में बहुत ही पीछे छूट गया है. यानी समाज में एक तबका, एक बड़ा वर्ग समझदार है, पढ़ा लिखा है, उसे अच्छे-गलत की समझ भी है. वह खुद को सिविल यानी सभ्य समझता है. फिर उसी में से कुछ खड़े होते हैं और जो विकास की अंधी दौड़ में पीछे  छूट गए, उन्हें दौड़ाने लायक न सही तो चलने लायक बनाने की कोशिश करते है. उनकी मंशा पर मै सवाल नहीं उठा सकता. भला मैं कौन होता हूँ? हाँ, कम से कम मैं अपनी बात तो रख ही सकता हूँ. अब करते हैं सीधी बात नो बकवास. 
जैसा कि मैंने कहा, सभ्य समाज के लोग अपनी सभ्यता का सबूत देते हुए, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और शारीरिक तौर पे पिछड़े लोगों को आगे बढ़ने, समाज के बाकी लोगों के साथ कदम से कदम और कन्धा से कन्धा मिलाकर चलने का अतिरिक्त अवसर मुहैया करते हैं. इसका मतलब यह है कि हमने जो खुद का विकास किया है वह उनके सर पर लात रख कर यानी उनके अधिकारों को कुचलते हुए ही आगे बढे हैं. नहीं तो, जितना संसाधान हमारे हिस्से में था उससे ज्यादा  हमारे पास कभी नहीं होता. आज आरक्षण की बात कौन लोग कर रहें हैं. इसे समझने के लिए हमें अपने समाज के दो चेहरों को समझना पड़ेगा. एक वर्ग वह है, जो पूरी तरह पूंजीवादी है, उसे इस तामझाम से कुछ नहीं लेना देना. दूसरा वर्ग वह है जो पहले वाले वर्ग में जाने के लिए जी तोड़ मेहनत और जद्दोजेहद कर रहा है. यही वह तबका है जो हो हल्ला और हंगामा कर रहा है.लेकिन उन्हें पता है कि पहले वाले वर्ग में शामिल होने के लिए उन्हें सबको कुचलना होगा. जो कि अब उस हद तक मुमकिन नहीं है.  उन्हें पूंजीवादी भी बनना है और गुड बॉय भी कहलाना है. वह जोखिम नहीं लेना चाहता.  सबसे बड़ी सच्चाई यह है कि अगर हमारे समाज में कोई तरक्की करता है तो वह बगैर किसी के अधिकारों का शोषण किये, गरीबो का खून चूसे, या आदिवासियों की ज़मीन हड़पे ऐसा नहीं कर सकता. यदि हम गरीबों के अधिकारों का शोषण न करें, बेसहारों और मजलूमों को शिक्षा से वंचित न करें, आदिवासियों की ज़मीन न हड्पें तो उन्हें आरक्षण देने की नौबत ही नहीं आयेगी. वह भी सभी की  तरह समाज के बराबर के सदस्य होंगे. लेकिन ऐसा होगा नहीं. हम पहले अपनी सोचते हैं. घर में तमाम अय्यासी का साजो-सामान इकठ्ठा करके दूसरों के संसाधनों ,उनकी कमजोरी का फायदा उठा कर अपने घर सजाते हैं. फिर उनके लिए लड़ते हैं. बेचारे को क्या पता उसका हितैषी ही उसका कातिल  है.  इस तरह देखा जाये तो हम आरक्षण की बात करते हैं. हमें उनके लिए आरक्षण नहीं, बल्कि उनकी अपनी ही चीज़ों को लौटाना है, जो हमने उनसे छीन लिए हैं. एक समाज जो अपने भाइयों का शोषण करके, उसे उसके ही अधिकारों से वंचित करके लोभ, लालच, छल, प्रपंच से अपना विकास करता है, उसके सर पर लात रखकर अपना विकास करता है फिर उसके लिए आरक्षण की बात करता है, यह एक असभ्य समाज की पहचान नहीं तो और क्या है. लेकिन, अफ़सोस वाही आज सबसे बड़ा दोस्त है जिसने दुश्मनी के बीज बोये हैं.
हो सकता है मैं इस लेख के बाद आरक्षणविरोधी या फिर अविकासशील मानसिकता का समझा जाऊं. लेकिन जोखिम तो लेना ही पड़ता है. और मैं यही कर रहा हूँ.