मीडिया का महाभारत

मीडिया में तांडव मचा हुआ है. सारे दिग्गज मंथन में लगे हैं. यह जो दाग लगे हैं वो अच्छे नहीं हैं. इसलिए कि इसे कोई ऋण सुप्रीम भी नहीं धो सकता. एक तरफ धृतराष्ट्र को आँखें मिल गयी हैं, संजय ने उन्हें अपनी आँखें दान में दे दी. फिर भी धृतराष्ट्र अंधे होने का ढोंग कर रहे हैं. ठीक उसी तरह जैसे दुर्योधन के मामले में उन्होंने किया था. मीडिया भी अपनी साख और विश्वसनीयता खो रहा है. विदुर समझा रहे हैं महाराज आप पुत्र प्रेम में कहीं आप दुर्योधन की जान ही न ले लें. लेकिन धृतराष्ट्र कहते हैं विदुर माना तुम मेरे सलाहकार हो, लेकिन अब मैं अँधा नहीं रहा और तुम पांडवों की लौबी करना छोड़ दो. विदुर इस अपमान को बर्दाश्त नहीं कर पाए और दरबार से कल्टी मार लिए. शायद उन्हें आभास हो गया कि अब द्रौपदी नहीं बचने वाली है. मीडिया का चीरहरण हो रहा है. पर यहाँ तो कुछ और ही नज़ारा है कृष्ण भी दुर्योधन के खेमे में जा बैठे हैं. अपनी सेना पांडवों को दे दी है.  मामा शकुनी के कहने पर कृष्ण को कौरवों का प्रमुख लौबीकार बना दिया गया है. पांडवों के खेमें में अच्छी पैठ होने के चलते कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं. अर्जुन को संचार मंत्री बनाने का लालच दिया जा रहा है. अर्जुन कह रहे रहें हे देविकीनंदन फिर बड़े भैया का क्या होगा. मेरे अलावा पांडवों कोई चक्रव्यूह भेदना जनता भी नहीं. कृष्ण अर्जुन को यहीं गीता का ज्ञान देते हैं. देखो मीडिया में कोई किसी का भाई-बंधु नहीं होता. अगर कुछ है तो वह है प्रतिद्वंद्विता. तुम्हे यह भेद समझना होगा. अर्जुन कन्फ्यूज हो जाता है. अभी तो आप मुझे संचार मंत्री बना रहे थे और अभी मीडिया कहाँ से आ गया. कृष्ण कहते हैं, देखो अर्जुन ज्यादा उतावले मत हो. तुम बगैर मीडिया लौबी के मंत्री नहीं बन सकते और इस बारें में तुम्हे घबराने की ज़रुरत नहीं है. सारी बातें हो चुकी है. बस मंत्री बनाते ही तुम्हे इतना करना है कि मीरा माडिया के कहने पर तुम्हे कुछ काम करने पड़ेंगे. माडिया ये कौन है कहीं आप नाम तो गलत नहीं बता रहे मुझे कृष्ण. वो तो नीरा है न. नहीं अर्जुन तुम्हें जितना कहा जाये उतना ही करो. ये सब अन्दर कि बातें है. नाम का खुलासा तुम मत करो. अर्जुन की दुविधा शांत नहीं होती है. वह फिर सवाल करता है, देविकीनंदन आप ज़रा विस्तार से समझाएं. देखो मीडिया में हमारे कई लोग हैं जो हमसे पैकेज लेते हैं और हमारे मुताबिक खबरों को छपते है या दिखाते हैं. ये सभी शीर्ष पदों पर है और हमसे मेहनताना पाते हैं. इनमें एक अंग्रेजी अखबार की बड़ी हस्ती है तो दूसरी एक अंग्रेजी चैनल की संपादक है. इन पर कीचड़ न उछलना चाहिए, इनका काम विश्वास का है. और विश्वास नहीं टूटना चाहिए. इतना कहते ही कृष्ण ब्रेक लेते हैं और कहते हैं हम अगली बात आपको अगले अंक में बताएँगे अर्जुन...

मेरी बात

बीमार रिश्तों को तोड़ देने में ही भलाई है. उन्हें जिंदगी भर ढोने से परेशानियों के अल्वा कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है. यह बात अगर जल्दी समझ में आ जाये तो बेहतर, नहीं तो तैयार हो जाइये एक गंभीर चुनौती का सामना करने के लिए. इस चुनौती में आपको अवसर भी मिल सकता है और जिंदगी का अंत भी. ये सब लिखने का मकसद कुछ और नहीं, बल्कि आजकल खुद की चुनौती है. मुझे मालूम है कुछ फैसले मैं ग़लत ले रहा हूँ. उसका अंजाम क्या होगा, पता भी है और नहीं भी. खैर, तो क्या ग़लत फैसले लेना ज़िंदगी का हिस्सा नहीं हैं? आज बात फ़ैसलों की नहीं और न ही उसके असर की. बस बात दिल की. कुछ दिनों से बहुत ही अजीब लग रहा है. क्यों लग रहा है पता नहीं? बस इतना कह सकता हूँ कि जिंदगी में कई चीज़ों की कमी महसूस होती है. इसकी वजह अतीत का माहौल और कुछ लोगों की ग़ैर जवाबदेही ज़िम्मेदार है. इन ग़ैर जवाबदेह लोगों के बीच कुछ ऐसे भी मिले जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पे काफी मदद किया. खास अहमियत अप्रत्यक्ष मददगारों की है. उन्हें पता भी नहीं की किस तरह एक  हतास, निरास और परेशान इन्सान की मदद की. पर जब आप इस तरह के अदृश्य मददगारों से काफी लम्बे अरसे या कभी भी नहीं मिल पते हैं हैं तो उनकी वो जादुई प्रेरणा बेअसर होने लगती है. तब ऐसे में आपको खुद से प्रेरणा लेने की दरकार होती वरना अंजाम का अंदाज़ा लगाना मुश्किल होता है. उसके नतीजों को सोच कर ही डर लगता है. बातें और भी कई सारी हैं, उन्हें खुल कर बात करने से हालत और भी बिगड़ जाने का अंदेशा होता है. इसलिए ऐसा नहीं कर आखिर रहा हूँ. बस हाँ, दिल की तसल्ली के लिए आप सभी से साझा कर रहा हूँ. वजह यह की मैं कृत्रिम दोस्तों और बनावटी अपनापन दिखाने वालों से कुछ बातें साझा करने में यकीन नहीं करता हूँ. बस परेशानी का आलम इतना है कि पिछले कुछ दिनों से बेहद खुश हूँ परीक्षा सर पर है एक दिसम्बर से और तैयारी कुछ भी नहीं. बाकी बात खुलासे के साथ फिर कभी.

एक संपादक की सोच और इत्तेफाक

लेख की शुरुआत एक खबर से।  पटना से दिल्ली आ रहा था। मगध एक्सप्रेस से। रास्ते में टाइम पास करने के लिए एक अखबार खरीद लिया। प्रभात खबर खरीदा। सोचा हरिवंशजी का कुछ बेहतरीन पढ़ने को मिलेगा। मैं निराश नहीं हुआ। जापान के बारे में उन्होंने लिखा था। लेख में बताया गया था कि किस तरह एक जीर्ण-शीर्ण सा देश विकसित बना। प्रभात खबर के संपादक हरिवंशजी ने जापानियों की जीवटता का बेहतरीन जिक्र किया। एक किस्सा कुछ यूं था कि वहां ट्रेनें डॉट में चलती हैं मतलब सेकेंड्स पर. मसलन, 10 बजकर 20 मिनट 15 सेकेंड पर खुलेगी तो वह इसी टाइम पर खुलेगी। एक बार कुछ तकनीकी खराबी की वजह से एक ट्रेन 11 से 12 मिनट लेट हो गई। देशव्यापी मुद्दा बन गया। हमारे यहां भ्रष्टाचार भी देशव्यापी मुद्दा नहीं बन पाता। खैर, ट्रेन लेट होने की वजह की सफाई मंत्री समेत रेल बोर्ड के अधिकारियों को देना पड़ा। वह खुद राष्ट्रीय चैनल पर आए और इस देरी के लिए देश से माफी मांगी और जिम्मेदारी लेते हुए सभी ने इस्तीफा दे दिया। यह है जापानी जनता, नेता और अधिकारियों का अनुशासन। इसी अनुशासन ने जापान को जापान बनाया। अब बात खुद की यात्रा की। जब मैं घर से चला था तो मेरी गाड़ी 6 बजकर दस मिनट पर थी। बमुशि्कल से 10 मिनट पहले मैं स्टेशन पहुंचा। हालांकि, घर से तीन घंटा पहले चला था। मुझे काफी देर भी होती तो तकरीबन 5.30 तक पहुंच जाना चाहिए था। लेकिन नहीं। दरअसल, लालगंज से हाजीपुर और हाजीपुर से पटना के बीच उम्मीद से अधिक ट्रैफिक का सामना करना पड़ा। उस वक्त मैं घबरा तो बिल्कुल नहीं, रहा था कि गाड़ी छुट जाएगी। पर हां, यह जरूर सोच रहा था कि बिहार में वाकई काफी पैसा आया है। पिछले दिनों धनतेरस के मौके पर रिकॉर्ड गाड़ियों की खरीदारी हुई थी। तो ट्रैफिक तो बढ़ना ही था। खुशी इस बात से हुई कि अफरा-तफरी भरे ट्रैफिक को संभालने के लिए पुलिस लगी थी जो पहले नहीं होता था। पहले मंजर यह होता कि हर कोई अपनी मर्जी से चला जा रहा है। कोई किसी को रोकने वाला नहीं है। इससे बहुत बड़ा कोओस हो जाता था। नौबत तो मारपीट तक की आ जाती थी। पर, अब ऐसा नहीं है। इसके लिए आप बदलते बिहार को शुक्रिया कह सकते हैं, साथ में सीएम नीतीशजी को भी। हां तो काफी मशक्कत से पटना स्टेशन पहुंचा। जल्दबाजी में इधर-उधर भागता हुआ पहुंचा तो पता चला जिस ट्रेन से जाना है वह 10-15 मिनट नहीं, दो घंटे देर से खुलेगी। यह सोचकर काफी झुंझलाहट हो रही थी कि अब इतना वक्त मैं कैसे बिताऊंगा। तभी यह अखबार खरीदा-प्रभात खबर। उसमें हरिवंशजी ने एक देश के महान बनने की कहानी का उदाहरण भी ट्रेन के समय से दिया था। जहां एक तरफ ट्रेनों का लेट होना बेहद मामूली बात है तो दूसरी ओर इसकी वजह से मंत्री तक को इस्तीफा देना पड़ता है। यहां तो अरबों का घोटाला करने वाले मंत्री भी इस्तीफा देने से पहले सरकार गिराने की धमकी देते हैं और गठबंधन धर्म के नाम पर प्रधानमंत्री खामोश रहते हैं। यह है अंतर। बताता चलूं कि मेरी ट्रेन 4 घंटा 12 मिनट देर से खुली। और जिसे दिल्ली सुबह 11.30 तक पहुंचाना था तो वह शाम 6.30 सात घंटा देर से पहुंची। जय हिंद।

कुछ सवालों के जवाब ही सवाल हैं

कैसे भूल जाता हूँ अपने सवालों को,
बिना जवाब तलाशे,
उन सवालों को जो अक्सर परेशान करते हैं,
फिर सोचता हूँ क्या होगा उन जवाबों को जानकर,
क्या होगा दर-दर कि ठोकर खाकर जीने वालों का,
क्या होगा सर्द रातों में फूटपाथ पर सोने वालों का,
अक्सर इनका जवाब एक सवाल को जन्म देता है,
फिर क्या करूँगा मैं इनका जवाब जानकर,
बहुतेरे सवाल हैं, जिनके जवाब ही सवाल हैं,
कोई दिल से परेशान है, किसी को दवा की दरकार है,
मुझे मेरा प्यार चाहिए तो उनको पीने का पानी,
सबकी समस्या खास है,
इस जहाँ में आम कोई नहीं रहना चाहता,
कहते हैं नाखुशी से अमीर के साथ रहना बेहतर,
लेकिन ग़रीब के साथ ख़ुशी से रहना खतरनाक,
सवालों का यह सिलसिला थमता नज़र नहीं आता,
मुझे मेरे जवाब का अब भी इंतजार है...