नक्सलियों ने छिनी शिरिन-शरमिन की खुशियां

वामपंथी विचारधारा से शुरू हुआ नक्सलवाद अब लगता है, तृणमूल कांग्रेसी विचारों का समर्थक हो गया है। वामपंथी तीस से अधिक वर्षों से बंगाल में काबिज हैं। ममता को राज करने का कोई भी मौका नहीं मिला। अब वह किसी भी कीमत पर यह सत्ता हासिल करना चाहती है। साम-दाम-दंड-भेद हर कारगर तरीके को आजमाना चाहती हैं। पिछले दिनों पश्चिमी मिदनापुर जिले में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस में जो हादसा हुआ, कोई पहला नक्सली हादसा नहीं था। हालांकि किसने ट्रेन को निशाना बनाया यह विवाद चल ही रहा है। पर हकीकत सबको मालूम है। खैर, हमले के एक दिन बाद कहीं पर इससे संबंधितएक रिपोर्ट पर नजर पड़ी। देख-पढ़कर सन्न रह गया। स्तब्ध रह गया मैं।
हादसे वाली ट्रेन ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस से दो नन्हीं जुड़वां बच्चियां भी अपने अम्मी-अब्बू के साथ मुंबई जा रही थीं। शिरिन और शरमिन। उन्हें शायद यह भी पता नहीं था, माओवादी कौन होते हैं और न ही यह कि नक्सलियों न उनके ट्रेन को क्यों निशाना बनाया? शिरिन और शरिमन की यह पहली छुट्टियां थी। उस रात आंखों में मुंबई देखने का सुनहरा सपना लिए दोनों बहनें एक-दूसरे को गले लगाकर सोई थीं। और, इसी तरह उन्होंने दुनिया को भी अलविदा बोला। शुक्रवार सुबह जब सीआरपीएफ के कठोर दिल जवानों ने जब शिरिन-शरमिन को एस-4 डिब्बे से बाहर निकाला तो उनकी आंखों से भी आंसू छलक पड़े। उनके माता-पिता सैय्यद जावेद आलम-साबिया स्कूल टीचर थे। अपनी जुड़वा बेटियों को सात दिनों की खुशी देने के लिए इन्होंने वर्षों तक इंतजार किया था। वह भी इस हादसे में मौत के शिकार हो गए। बचाव दल ने पहले जावेद और साबिया शव ही बाहर निकाला था। फिर अचानक उनकी नजर छोटी-छोटी अंगुलियों, गाल और गहरे भूरे रंग से गूंथी बालों पर पड़ी। सीआरपीएफ के बचाव अभियान ने तेजी पकड़ ली, लेकिन उनका यह पहला बचाव कार्य जल्द ही मातम में बदल गया। शिरिन और शरमिन को एस-4 से बाहर निकाला तो दोनों बहनें उस कुचले हुए बर्थ पर पड़ी हुई थीं। एक-दूसरे को जोर से पकड़े हुए थीं, एक का सिर दूसरे के सीने में धंसा था। शिरिन और शरमिन एक जैसी ही फ्रॉक पहने हुए थीं। एक के फ्रॉक का रंग हरा तो दूसरे का पीला था। ऐसा लगता था, मानों दोनों अभी भी सोई हैं। पर...उनके चेहरे पर खून का थक्का जमा था। दोनों बहनों को एक-दूसरे से अलग करने में जवानों को काफी मेहनत-मशक्कत करनी पड़ी। मानों वे किसी दो गुथ्थम-गुत्थे शव को अलग नहीं, बल्कि दो बहनों को हमेशा के लिए एक-दूसरे जुदा कर रहे हों। ट्रेन पर चढ़ने से पहले, शिरिन-शरमिन की अम्मी साबिया बेहद खुश और उत्साहित नजर आ रही थी। वह खुश थी कि उनकी बेटियां मुबंई देखेगी। वह ट्रेन के सफर के दौरान कई चीजों को देख सकेगी, लेकिन उनका सफर चंद घंटों में ही हमेशा के लिए खत्म हो गया। भला किस्मत किसी के साथ इतना क्रूर कैसे हो सकता है? शिरिन और शरमिन का क्या कसूर था? वे तो दो नन्नी परियां थीं। जिन चीजों से दूर-दूर तक वास्ता नहीं था, उसने शिरिन-शरमिन और उनकी अम्मी-अब्बू से छीन लिया।

कांग्रेस और आज़ादी के फ़साने

भारतीय इतिहास में मुस्लिम लीग और कांग्रेस दोनों का नाम सिक्के के दो पहलू की तरह है। आजादी की लड़ाई में दोनों कई मोर्चों पर साथ रहे। कई मोर्चों पर बिल्कुल विपरीत। लीग को कांग्रेस से शिकायत थी कि वह उसे अहम ओहदे और सत्ता में भागीदारी देने के लिए तैयार नहीं है। कांग्रेस का आरोप से मुकरना और कहना, वह गलत मांग उठा रहा है। यह कहना कि कांग्रेस में जो भी लोग पदों पर काबिज हैं, वह जनतांत्रिक तरीके से आए हैं। यह बात लीग हजम नहीं कर पाया। बात सही भी थी। आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली कांग्रेस में उस वक्त भी सबकुछ ठीक नहीं चल रहा था, जैसा कि आज भी नहीं चल रहा है। बंकिम चंद्र चटर्जी की रचना ‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रगीत का दर्जा हासिल है। उन्होंने उस वक्त कहा था, कांग्रेस के लोग पदों के भूखे हैं। क्या यह बात आज भी सही नहीं है? खैर, भारतीय इतिहास में 1857 की क्रांति को इतिहासकार कई नजरिए से देखते हैं। कुछ के मुतिबक, यह सैनिक विद्रोह है तो टी आर होम्स जैसे विद्वानों ने इसे सभ्यता और बर्बरता का संघर्ष बताया है। इस क्रांति को भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम वीर सावरकर ने दिया। वही वीर सावरकर जिन्होंने अभिनव भारत की बुनियाद रखी थी। अभिनव भारत, जिसका नाम आजकल हिंदू आतंकवाद को पनाह देने वाले संगठन के तौर पर लिया जाने लगा है। सावरकर की मूर्ति की स्थापना के नाम पर ही कांग्रेसी मंत्री मणिशंकर अय्यर भिड़ पड़े थे। शायद उनके हिसाब से भारत गांधी खानदान की विरासत है। हर जगह उनका ही नाम होना चाहिए। गांधी से मतलब महात्मा गांधी से नहीं, नेहरू परिवार से है। इसे भी छोड़िए। हां तो, अभिनव भारत उसी साल बना जिस वर्ष मुस्लिम लीग अस्तित्व में आया यानी 1906 में। यहां सबसे अहम सवाल यह उठता है कि जब पूरा देश कांग्रेस के पीछे आंख मूंदे भाग रहा था, तो भला मुस्लिम लीग जैसे संगठनों को बनाने की लोगों ने क्यों ठानी? क्योंकि इन संगठनों के संस्थापकों का ताल्लुक किसी न किसी स्तर पर शुरुआती समय में कांग्रेस से संबंध रहा है। फिर कांग्रेस से अलग होने का फैसला क्यों? कुछ जानकारों की मानें तो आज़ादी की लडाई गांधीजी के नेतृत्व में लड़ी जा रही थी, पर नाम कांग्रेस के शीर्ष पदों पर काबिज लोगों का भी हो रहा था। इससे आपत्ति किसी को नहीं हो सकती। पर कुछ ऐसे लोग भी थे जों बगैर कुछ किए सबकुछ हासिल कर रहे थे। वहीं कुछ ऐसे भी लोग थे, जो सबकुछ कुर्बान करने के बावजूद आजादी की लड़ाई के परिदृश्य में कहीं नजर नहीं आ रहे थे। यदि मुस्लिम लीग जैसे संगठनों के इतिहास पर नजर डालें तो अपनी उपेक्षा से आजिज आकर इनके लोगों ने अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ी। जैसा कि ये लोग कहते आ रहे थे, हमें हमारी उपयोगिता साबित करनी पड़ेगी। नतीजतन इन्होंने कांग्रेस के जवाब में मुस्लिम लीग बनाई। ऐसे में बंकिम चंद्र की बात सौ फीसदी सही साबित होती है।

बांग्लादेश बनने की त्रासद कहानी

हामिद मीर के लेख का दूसरा हिस्सा...
मेरे एक वरिष्ठ साथी अभी भी जीवित हैं। उनका नाम अफजल खान है। वह 73 बरस के हैं। वह असोसिएट प्रेस ऑफ पाकिस्तान के लिया काम कर चुके हैं। वह 1980 से 1985 तक पाकिस्तान फेडरल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स के महासचिव रहे। बांग्लादेश में सेना के ऑपरेशन कवरेज के लिए अफजल खान को 28 मार्च 1971 को ढाका भेजा गया था। उन्होंने मुझसे कई दफा कहा, हां मुक्ति-वाहिनी ने बहुत से बेगुनाहों का कत्ल किया। पर जो पाकिस्तानी आर्मी ने किया वह किसी लिहाज से एक राष्ट्रीय सेना का काम नहीं हो सकता था। एकबार वह तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के खुलना स्तिथ रेस्ट हाउस में ठहरे थे। तब पाकिस्तानी सेना के एक मेजर ने उन्हें एक लड़की के साथ रात गुजारने का ऑफर दिया। जब अफजल खान ने पूछा कि वह लड़की कौन है, तो मेजर ने बताया, वह स्थानीय पुलिस अधिकारी की बेटी है और उसे यहां बंदूक की नोक पर लाया जा सकता है। इस घटना के बाद अफजल खान लाहौर लौट आए। वह कहते हैं, जिन लोगों ने बांग्लादेशियों के साथ बलात्कार और उनका नरसंहार किया, उन्हें पाकिस्तान में कभी इज्जत नहीं मिली। जनरल याहया खान का नाम पाकिस्तान में अबभी गाली के तौर पर इस्तेमाल होता है। उसके बेटे अली याहया खान ने हमेशा लोगों से छुपने की कोशिश की। जनरल टिक्का खान को भी बंगाली कसाई के तौर पर याद किया किया जाता है। जनरल एएके नियाज़ी टाईगर ऑफ बंगाल बनना चाहते थे, लेकिन जैकॉल ऑफ बंगाल यानी बंगाल का शैतान के तौर पर जाने जाते हैं। पाकिस्तान का बहुसंख्यक तबका उन सभी से नफरत करता है, जिन्होंने उनके बांग्लादेशी भाइयों का नरसंहार किया। यही वजह है कि इन आर्मी ऑफीसर के परिवार वाले सार्वजनिक तौर पर यह भी जाहिर नहीं करते कि उनके पिता कौन थे। इसके बावजूद कुछ लोग हैं, जो इन भयंकर भूल को कबूलने के लिए तैयार नहीं हैं। हालांकि ये लोग बहुत कम संख्या में हैं, लेकिन शक्तिशाली हैं। मैं इन सभी को उस पाकिस्तान का दुश्मन समझता हूं, जिसके लिए मेरी मां ने अपने परिवार की कुर्बानी दे दी। भला हमें क्यों इन दुश्मनों का बचाव करना चाहिए? हमारी लोकतांत्रिक सरकार क्यों नहीं बंगालियों से आधिकारित तौर पर माफी मांगती है? इस माफी से पाकिस्तान कतई कमजोर नहीं होगा, बल्कि वह मजबूत और सशक्त बनेगा। मैं आश्वस्त हूं कि पाकिस्तान तेजी से बदल रहा है। वह दिन बहुत जल्द आएगा, जब पाकिस्तानी सरकार आधिकारिक तौर पर बांग्लादेशियों से माफी मांगेगी। फिर 26 मार्च का दिन देशभक्त पाकिस्तानियों के लिए माफी दिवस बनेगा। मैं यह माफी इसलिए चाहता हूं, क्योंकि बंगालियों ने ही पाकिस्तान बनाया। मैं यह माफी इसलिए चाहता हूं, क्योंकि बंगालियों ने जनरल अयूब खान के खिलाफ जिन्ना की बहन का समर्थन अपनी आखिरी सांस तक किया। मैं यह माफी चाहता हूं, क्योंकि मैं सबकुछ भूलकर बांग्लादेश के साथ एक नए संबंध की शुरुआत चाहता हूं। मैं अपने गंदे अतीत में नहीं जीना चाहता। मैं साफ-सुथरे भविष्य में जीना चाहता हूं। मैं एक उज्जवल भविष्य न सिर्फ पाकिस्तान, बल्कि बांग्लादेश के लिए भी चाहता हूं। मैं यह माफी इसलिए चाहता हूं, क्योंकि मैं पाकिस्तान से मोहब्बत करता हूं। मैं बांग्लादेश से मोहब्बत करता हूं।
-हामिद मीर, कार्यकारी संपादक, जीओ टीवी (पाकिस्तान)।

26 मार्च और पाकिस्तान

दोस्तों यह लेख पकिस्तान के जीओ टीवी के कार्यकारी सम्पादक हामिद मीर की रचना है। मैंने बस उसे हिंदी में तर्जुमा किया है। मीर साहब से मैंने इसकी इजाज़त नहीं ली। इसकी वजह मेरे पास उनका कोई कॉन्टैक्ट नंबर या पता नहीं था। फिर भी मै इसे उन्ही के नाम से यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ। बारह सौ शब्दों का है इसलिए दो भागों में यहाँ आपके सामने पेश करूँगा। भूल चूक लेनी-देनी...

26 मार्च पाकिस्तान के लिए क्यों माफी दिवस होना चाहिए?
पाकिस्तान के मशहूर टीवी पत्रकार हामिद मीर के मुतिबक, मार्च 1971 में बांग्लादेश में नरसंहार की वारदात को अंजाम देने की वजह से पाकिस्तान सरकार को बांग्लादेश की आवाम से माफी मांगनी चाहिए। 26 मार्च को माफी दिवस के तौर पर मनाया जाना चाहिए। मीर ने कहा कि पाकिस्तान में कुछ लोग मुझसे बेहद नफरत करते हैं। वह मुझसे नफरत करते हैं, क्योंकि दो बरस पहले, मैंने पाकिस्तानी 1971 में सेना की क्रूरता के लिए बांग्लादेशियों से इस्लामाबाद प्रेस क्लब में माफी मांगी थी। वे मुझसे नफरत करते हैं क्योंकि मैंने 1971 में बांग्लादेशियों के साथ सेना की निर्मम और क्रूर कार्रवाई के लिए पाकिस्तान सरकार से भी आधिकारिक तौर पर माफी मांगने की मांग की थी। वे कहते हैं कि मुझे कुछ मालूम नहीं है। वे कहते हैं, मैं एक पाक पाकिस्तानी नहीं है। उनके मुतिबक, 1971 में मैं बहुत छोटा था और मैं हक़ीक़तों से वाक़िफ नहीं हूं। हां, यह सच है कि तब मैं एक छोटा स्कूली बच्चा था, लेकिन मैंने उस नरसंहार के बारे में काफी कुछ सुना और पढ़ा है। भला मैं अपने अब्बा, जो एक प्रोफेसर थे और उन्होंने अक्टूबर 1971 में पंजाब विश्वविद्यालय के छात्रों के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ ढाका गए थे, उनकी बातों को कैसे नकार सकता हूं? मेरे अब्बा लाहौर के पंजाब विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के शिक्षक थे। विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनसे छात्रों के प्रतिनिधिमंडल के साथ तुर्की जाने की तैयारी करने को कहा था, लेकिन उन्होंने अपनी इच्छा के मुताबिक लड़कों को ढाका ले गए। वे जानना चाहेत थे कि आखिर ढाका में क्या चल रहा था। मुझे अब भी याद है, ढाका से लौटने के बाद वह कई दिनों तक रोए थे। उन्होंने हमें उस खूनी वारदात की कहानियां बताई थीं। वे कहानियां मेरी मां की कहानी से बिल्कुल मिलती जुलती थी। 1947 में जम्मू से पाकिस्तान में माइग्रेशन के दौरान मेरी मां ने अपने पूरे परिवार को गंवा दिया। उनकी आंखों के सामने हिंदू और सिखों ने उनके भाइयों की हत्या कर दी। उनकी मां का अपहरण कर लिया गया। अपने संबंधियों के शवों के नीचे छिपकर उन्होंने अपनी जान बचाई। मुझे याद है कि मेरी अम्मी खूब रोई थीं, जब अब्बा ने उन्हें बताया कि पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों ने कई बंगाली महिलाओं के साथ बलात्कार किया। मेरी अम्मी ने कहा था, हमने अपने सम्मान के लिए कुर्बानियां दीं, लेकिन क्यों हम एक-दूसरे की इज्जत से खिलवाड़ कर रहे हैं? मेरे अब्बा हमेशा कहा करते थे कि बंगालियों ने पाकिस्तान बनाया और पंजाबियों ने उसे तोड़ा। एकबार उन्होंने कहा कि 23 मार्च को हम पाकिस्तान दिवस के तौर मनाते हैं, 26 मार्च को माफी दिवस हना चाहिए और 16 दिसंबर जिम्मेदारी दिवस के तौर पर मनाया जाना चाहिए। जब 1987 में, मैं पत्रकार बना तो अपने मैंने अपने मरहूम अब्बा के विचारों को समझना शुरू किया।
जब मैंने पहली बार हमूदुर रहमान आयोग की रिपोर्ट पढ़ी तो मुझे शर्मिंदगी का एहसास हुआ। इस पाकिस्तानी की आयोग की रिपोर्ट में बांग्लादेशियों की हत्या और बलात्कार की बात कबूली गई थी। पर इस कागजी सबूत के बावजूद पाकिस्तान में अब भी कई लोग हक़ीक़त को झुठलाते रहे हैं और वे स्टेट ऑफ डिनायल में जी रहे हैं। वे कहते हैं कि शेख मुजीब-उर-रहमान एक देशद्रोही थे, जिन्होंने भारत की मदद से मुक्तिवाहिनी सेना बनाई ओर कई निर्दोष पंजाबियों और बिहारियों को मौत के घाट उतारा। मैं कहता हूं शेख मुजीब पाकिस्तान मूवमेंट के कार्यकर्ता थे। 1966 तक वह मुहम्मद अली जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना के समर्थक थे। उन्होंने महज कुछ प्रांतीय स्वायत्ता मांगी थी, लेकिन सैन्य शासकों ने उन्हें देशद्रोही घोषित कर दिया। दरअसल, ये सैन्य शासक ही देसद्रोही थे, क्योंकि इन सैन्य शासकों की सेना ने उनकी अपनी मां और बहन का बलात्कार किया। कुछ पाकिस्तानी कहते हैं कि मैं झूठा और पाकिस्तान का दुश्मन हूं। भला मैं पाकिस्तान का दुश्मन का कैसे हो सकता हूं? मेपी मां ने पाकिस्तान के लिए ही अपने पूरे परिवार की कुर्बानी दी। मेरी समस्या यह है कि मैं हक़ीक़त को नहीं झुठला सकता। उसे नहीं नकार सकता।

मीर का कबूलनामा और भारत-पाकिस्तान का मीडिया

हामिद मीर पाकिस्तानी हैं। वह एक पत्रकार हैं। उनका मुल्क या मजहब भले ही क्या है हमें उससे कोई मतलब नहीं। पर पत्रकारिता के पेशे में वह दुनिया के कई धुरंधर और कई दिग्गजों से कहीं बेहतर हैं। पूरे दक्षिण एशिया में उनसे बेहतरीन टीवी पत्रकार का मिलना मुश्किल है। आज भारत में ही कई ऐसे नामी-गिरामी और नामचीन पत्रकार हैं, जिनकी ताकत के आगे सत्ता भी नतमस्तक है। लेकिन इन सबमें वह बात नहीं जो हामिद मीर में है। हमारे भारतीय पत्रकार अपनी उठा-पटक में लगे रहते हैं। अब पत्रकारिता की दुनिया की यह कड़वी हकीकत हो चुकी है। पर मीच में सच को कबूलने का माद्दा है। उन्होंने 26 मार्च के अवसर पर एक लेख लिखा। 26 मार्च क महत्व क्या है? क्यों पाकिस्तान को इसे माफी दिवस के तौर पर मनाना चाहिए? आज पकिस्तान में सेना की अहमियत को कोई नहीं झूठला सकता। 1971 के जंग में बांग्लादेश में उनकी वहशी हरकत और क्रूरता के बारे में आज के दौर में मीर ने ही कुव्वत जुटाई है। आज जबकि भारत में पत्रकारिता सानिया मिर्जा की शादी होने से पहले तोड़ने में लगी थी, आम आदमी की बात करने के बजाय उसे बेचने के बात कर रही है, देश के दो बड़े मीडिया दिग्गज पर एक मंत्री को संचार मंत्रालय दिलाने के लिए लॉबी करने का आरोप लग रहा है, हम भूत-प्रेत से आगे निकल नहीं पा रहे हैं, सरकार से साठगांठ करके उसके पक्ष में खबरे दिखा रहे हैं, आम आदमी से जुड़ी, उसके हितों की खबरों को भांड़ में रखकर पत्रकारिता के पेशे को ठेंगा दिखा रहे हैं, ऐसे में हमें पाकिस्तान के इस पत्रकार से सीखने की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि भारत में ऐसी सच्ची पत्रकारिता नहीं है। है, लेकिन जब वह सच्चाई का साथ देते हैं। आम आदमी की बात करते हैं तो सरकार की ओर से उन्हें सजा झेलनी पड़ती है, वह भी बेवजह। जब बीजेपी सत्ता में थी, तो तहलका के स्टिंग ने सत्ता की चूल हिला कर रख दी थी। फिर उसके संपादक का जो हाल इन भाजपाइयों ने किया, वह न याद किया जाए तो ही बेहतर। यही आजकल पाकिस्तान में भी मीर शायद को सच बोलने की सजा दी जा रही है। उन्हें एक टेप के आधार पर तालिबान का समर्थक बताया जा रहा है। पर यह सरकार की कार्रवाई की अपेक्षा बदले की कार्रवाई ज्यादा नजर आ रही है। फिलहाल मैं आपको हामिद मीर के उस लेख से वाकिफ करना चाहता हूं, जिसे उन्होंने 26 मार्च के सिलसिले में लिखा। अपना सच कबूला। पाकिस्तान का सच कबूला। अंग्रेजी का यह लेख खुद मैंने अनुवाद किया, सो थोड़ी-बहुत भाषाई छूट मैंने लेने की कोशिश की। उनसे अनुमति नहीं ली, फिर भी उनका साभार अदा करता हूं। अगले पोस्ट में उनकी बातों को रखूँगा।

लोकतंत्र की शानदार जिन्दगी

आज हम अपनी उस दुनिया से बेगाने होते जा रहे हैं, जिसमें रहकर हम दुनियावालों की दुनिया में अपनापन महसूस करते थे। वह हमारी खास दुनिया या तो नकली उदासीनता या खोखली दिलचस्पी से कमोबेश छिन्न-भिन्न हो चली है। यदि कोई चीज उसे संभाले हुए है तो वह यह जिद की हमारी भी एक अपनी दुनिया होगी। पर हमें पहले उस दूसरी दुनिया को देखें, जिसमें हमें पहले से ज्यादा रहना पड़ रहा है। जबिक इस दुनिया से न हमें लगाव है और न ही विलगाव। लोकतंत्र ने हमें शानदार जिंदगी और कुत्ते की मौत के बीच पतली दीवार में दबा रखा है। ऐसी हालत में सबसे आसान यही लगता है कि अपनी व्यक्तिगत आजादी की अभी तक बची-खुची सुविधा का फायदा उठाकर अपने लिए कुछ रियायत ले सकूं। वरना मेरे दोस्त तो यहां तक कहते हैं कि मैं जिस रफ्तार से जिंदगी जी रहा हूं, वह कछुए की चाल से भी धीमी है। खरगोश तेंदुआ से भी तेज दौड़ लगा रहा है। अक्सर उनकी बातों पर ध्यान नहीं देता हूं। पर कई मर्तबा सोचता हूं, तो लगता है वह सही हैं। मेरी आदत दस कदम चलकर दूरी को नापने की है। जबिक बाकियों की आदत हर बाधा दौड़ के बाद अगले दौड़ की तैयारी की है। ऐसे में इस दुनिया में बने रहने के लिए मेरे पास एक ही विकल्प बचता है। वह यह कि मैं सब सेनाओं में लड़ूं। किसी में ढाल के साथ तो किसी में बगैर कवच के। क्योंकि आज ऐसा लगता है कि दुनिया की इस अंधी दौड़ और भीड़ को समाज में तब्दील करने का सिर्फ एक ही साधन है। वह है उस सत्ता का उपयोग जो हरेक व्यक्ति अलग-अलग फैसलों से कुछ हाथों में देता है।
रघुवीर सहाय की कविताओं से उधार लेकर कुछ पंक्तियां कहूं तो,
आज हम
बात कम, काम ज्यादा करना चाहते हैं
इसी क्षण
मारना या मरना चाहते हैं
और एक बहुत बड़ी आकांक्षा से डरना चाहते हैं
ज़िलाधीशों से नहीं।
कुछ भी लिखने से पहले हंसता और निराश
होता हूं मैं
कि जो लिखूंगा वैसा नहीं दिखूंगा।
बहुत दिन हुए तब मैंने कहा था लिखूंगा नहीं
किसी के आदेश से।
एक मेरी मुश्किल है जनता
जिससे मुझे नफरत है सच्ची और निस्संग
जिस पर कि मेरा क्रोध बार-बार न्योछावर होता है।

कौन है आम आदमी का पैसाखोर

आजकल हो क्या रहा है तो बस राजनीति के नाम पर तमाशा। दरअसल हकीकत है कि आजकल सरकार का खर्च दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। इसलिए वह खुद पर खर्च के पैसा जुटाने की कवायद के तहत कभी टैक्स बढ़ाती है तो कभी चीजों की कीमत बढ़ाती है। उन्हीं चीजों की कीमत बढ़ाती है, जिसका असर देश के बड़े तबके पर पड़ता है। हाल में झारखंड में मधु कोड़ा 50, 000 करोड़ रुपया निगल गया, जांच जारी है। है किसी सरकार या नेता या जांच अधिकारी की मजाल जनता का यह पैसा वापस उसकी झोली में लौटा सके नहीं। ठीक इसी तरह बरसों पहले लालू यादव जानवरों के चारा के नाम हजारों करोड़ डकार गए। बाद में उन्हें इसके इनाम के तौर पर रेल मंत्री बनाया गया। अब कांग्रेस समर्थन के नाम पर लालू को ब्लैक मेल करती है। आईपीएल में बेइंतरा ब्लैक पैसा लगा है, पर किसी की मजाल की उसे उसके सही हकदार तक पहुंचा सके। नहीं। स्विस बैंक का किस्सा भूल ही जाइए। तमाम मलाईदार पदों पर नेता बैठे हैं, वहां खजाना खाली करके ही वह हटते हैं। जब हटते हैं तो दूसरे के लिए कुछ नहीं बचता। मार पड़ती है आम आदमी पर। कभी टैक्स बढ़ोतरी के तौर पर तो कभी महंगाई के नाम पर बस किराया, आटा-चावल-दाल-गेहूं की कीमत में वृद्धि के तौर पर। अब मेरी समस्या इन सामानों की कीमत में बढ़ोतरी से नहीं है। मेरा कहना है कि इसी अनुपात में सभी की सैलरी, इनकम का स्रोत और रोजगार भी तो बढ़ाइए। नहीं तो नक्सली कभी खत्म नहीं होंगे। चाहे सोनिया गांधी ही यह क्यों न कहे कि नक्सल प्रभावित वाले इलाकों तक विकास का न पहुंचना ही मूल समस्या है। पर वह यह कहने के अलावा कर क्या रही हैं। कुछ नहीं। मुझे कांग्रेस की वंशवादी परंपरा से भी कोई परेशानी नहीं है। परेशानी इस बात से है कि राहुल के पिता राजीव गांधी भी कहते थे कि आम आदमी तक एक रुपया में से पंद्रह पैसा भी नहीं पहुंचता है। आज राहुल गांधी भी वहीं बात कह रहे हैं कांग्रेस के इस युवराज ने तो वह पैसा और भी कम कर दिया। मैं कहता हूं यह पैसा आम आदमी तक पहुंचाने वाला कौन है, जो बीच में ही सारा पैसा गबन कर जा रहा है? और भला पैसा न पहुंचने की जानकारी इन शख्सियतों को है तो इन्हें यह भी पता होगा कि पहले कौन पैसा नहीं पहुंचाता था और आज भी जनता के उस पैसे को कौन अपने बाप की दौलत समझ रहा है। लेकिन उसकी बात भला ये लोग क्यों करने लगे। चार कुर्सियों वाली सरकार की एक टांग जो टूट जाएगी। किस्सा हाल ही का है। यूपी में कांग्रेस और मायावती की जंग जगजाहिर है। राहुल दलितों के घर ठहरकर मायावती को अक्सर चिढ़ाते रहते हैं. लेकिन जब पिछले दिनों संसद में उनकी समर्थन की जरूरत पड़ी तो कुछ दिनों पहले तक मायावती की मूर्तियों की आलोचना करने वाले उसे सही ठहराने लगे। मायावती की समर्थन के बगैर कांग्रेस की सरकार बचने वाली नहीं थी। यह सभी जानते हैं। पर हाल में मीडिया में देखा, राहुल जी कह रहे हैं, मायावती से कभी कोई करार नहीं हुआ और न कभी भविष्य में होगा। कहां तो राहुल से नई सोच और राजनीति की नई अवधारणा की अपेक्षा थी, और कहां वह भी पुराने ढर्रे पर चल पड़े। यह हाल कांग्रेस और राहुल के युवा बिग्रेड के सभी नेताओ की ही है। नवीन जिंदल खाप पंचायत के समर्थन में आ गए हैं। हत्यारी पंचायत के सामने दंडवत हो गए।

अमीरों की आमदनी की तरह बढ़ती मंगाई

महंगाई की मार झेल रही जनता के लिए एक और मुसीबत आने वाली है। हालात अब भारत में बगावती होने वाले हैं। यदि ऐसा नहीं है तो होना जरूर चाहिए। जिस तरह हररोज अमीर की आमदनी दिन दोगुना और रात चौगुनी बढ़ रही है, उसी तरह दाल-चावल-गेहूं-नमक-तेल की कीमत क्यों बढ़नी चाहिए। बिजली, बस किराया, ऑटो किराया गरीबों की aamdanee तरह कम क्यों नहीं होनी चाहिए। क्या दुनिया में सिर्फ हर चीज की बढ़ोतरी होती है। फिर देश के 77 फीसदी लोगों की आमदनी क्यों नहीं बढ़ रही है? जनवरी महीने में ही दिल्ली सरकार ने बसों का किराया दोगुना कर दिया। डीटीसी के घाटे की भरपाई के लिए। किराया बढ़ाने से मुनाफा तो नहीं हुआ, पहले से और अधिक घाटा बढ़ गया। एक फिर चार महीने बाद इन बसों समेत निजी बस वाले भी किराया बढ़ाने वाले हैं। वजह यह है कि दिल्ली में सीएनजी पर चलने वाली बसें और ऑटो की कीमत प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली कमेटी ने बढ़ाने का फैसला लिया है। इसकी कीमत बढ़ाने से जनता पर सरकार की महंगाई का हंटर आम आदमी पर बरसने वाला है। भारत सरकार के ऊर्जा मंत्री सुशील शिंदे ने तो बिजली की कीमत एक रुपया प्रति यूनिट बढ़ाने की घोषणा भी कर दी है। सुशील शिंदे को सरकार का मंत्री इसलिए कहा क्योंकि वह आम जनता की नहीं सरकार के हितों को ध्यान रखकर यह फैसला लिया है। इन सबके के लिए यदि कोई जिम्मेदार है तो वह हम ही हैं। यानी भारत का आम आदमी। बेवकूफों की तरह सरकार के सभी फैसलों पर घोड़े की तरह हिनहिनाते रहते हैं। जरा सोचिए रिछले दिनों में कितने ऐसे फैसले लिए गए जो आम आदमी को राहत देने वाली रही हो। बात कर रहे हैं नक्सलियों के हमले की। उनका हमला जायज नहीं है। सौ फीसदी गलत है। लेकिन उनके मकसद के बारे में यही नहीं कह सकते। विकास के नाम पर हररोज दैनिक जरूरतों की कीमत बढ़ाई जाएगी तो क्या होगा। मैं यह ठोक कर कह सकता हूं कि नक्सलियों के बड़े मेता भले ही थोड़े बहुत साक्षर या पढ़े लिखे हों। लेकिन जो नक्सली लड़ाके का काम करते हैं वह दीन-हीन हैं और बंदूक चलाने के अलावा रोजी रोटी का कोई दूसरा हुनर उन्हें नहीं पता है।

मुलाकातों का इंतज़ार

जाने कहां बिछड़ गए वो दिन,

जब दिल में एक तमन्ना होती था,

किसी से मिलने को बेताब रहता था,

चंद पलों के दीदार से खुशियों की रौनक होती थी,

और होती थी हरएक बात उनकी,

बातें अब भी बाकी हैं,

मुलाकातों का इंतजार अब भी है,

पर ना अब वो हैं, ना ही वह वक्त।

उनकी यादें जब सताती है तो,

आंखों से आंसू नहीं बहता है,

कई बार सोचा, वह क्यों आती है यादों में,

जब प्यार नहीं है तो भूला क्यों नहीं देते,

पर हर बार भूलने की असफल कोशिश,

हरबार भूलकर उसी को याद करना,

यादों में उसकी धुंधली छवि,

लटों का धीरे से उठाकर पलकें झुकाना,

अब वो यादें गईं, वक्त के साथ मोहब्बत गई,

और साथ जीने की तमन्ना।

विकली ऑफ और अतिथि

तीन घंटे सोने के बाद आपका दिमाग क्या कहता होगा? सभी को जवाब मालूम है। रात के साढ़े तीन बजे सोने के बाद वीकली ऑफ वाले दिन यानी संडे को सुबह साढ़े ग्यारह बजे उठा। एक दिन पहले सिर्फ तीन घंटा ही सोया था। वजह कुछ सामान्य सी बात। कमरा बदलना था। यह काम मुझे हमेशा से बकवास लगता रहा है। जब दसवीं की के बाद अपने पास के शहर (गांव में लोग शहर उसे कहते हैं, जहां दो-तीन सिनेमा हॉल, कुछ छोटे से होटल और लोगों के इधर-उधर की जरूरत की चीजें मिल जाया करती हैं।) में आगे की पढ़ाई के लिए गया तो वहां भी भैया ने रेंट पर कमरा ढूंढ के दिया। उसके बाद कभी-कभी पापा आते देखने तो ढंग से कमरा साफ करते थे। हालांकि सफाई मैं भी रोज करता था। क्योंकि गंदगी से नफरत मुझे भी थी। फिर भी जब पापा सफाई करते तो पता नहीं कहां से ढेर सारी गंदगी निकल आती थी। यह है पापा का नजरिया, जो अपने बेटे की हर बात से वाकिफ होते हैं। उन्हें पता होता है कि मेरा बेटा क्या कर सकता है और क्या नहीं। हाल में एक फिल्म आई थी अतिथि तुम कब जाओगे? कभी-कभी लगता है, वाकई ऐसा लगता है कि पुछूं अतिथि तुम कब जाओगे। यदि तुम नहीं जाना चाहते तो अब आप ही मेरे घर में रहो, मैं ही जाता हूं। यही कुछ वाकया इस छुट्टी वाले दिन भी हुआ। मैंने सोचा इस वीकली ऑफ पर तबियत से आराम करूंगा, लेकिन मेरी यह तमन्ना धरी की धरी रह गई। पिछले तीन सप्ताह से ऐसा ही हो रहा है। बहुत गुस्सा आता है। क्या अतिथि के पास दिमाग नहीं होता है। क्या वह दूसरों की समस्या के बारे में नहीं सोचता है। मानों वह दूसरो के घरों पर ही दिमाग पर भी कब्जा कर लेता है। अतिथि से शिकायत नहीं है, परेशानी उसकी बातों और व्यवहारों से है।

मेरी छोटी-सी कहानी

जब भी मैं अपनी किसी कमजोरी पर काबू पाने की कोशिश में होता हूं तो अच्छा लगता है। दिन-ब-दिन गुजरने के बाद यह एहसास होता है कि चलो आज एक दिन और अपनी बुराई से दूर रहा। फिर यह सिलसिला लगभग महीने तक चलता है। पिछले 5 से 7 वर्षों से यह सिलसिला कायम है। शुरू के 10 से 15 दिन तक सबकुछ सही चलता है। पर हर 30 दिन के बाद मैं अपनी बुरी आदत से छुटकारा पाने का वादा तोड़ देता हूं। मैं मजबूर होता हूं ऐसा करने के लिए। लाख कोशिशें की, फिर भी उससे निजात नहीं मिल सका। अब फिर एक बार इसी जद्दोजहद में लगा हूं। पर समस्या यह है कि हर बार दृढ़ प्रतिज्ञ होने के बावजूद इस बार भी मुझे अपने मकसद में नाकामी हासिल होगी। अभी तक के अतीत को देखते हुए तो यही लगता है। पर मैं अपने विश्वास पर कायम हूं। कोशिश सौ फीसदी से अधिक होगी। दरअसल समस्या यह है कि कुछ दिनों तक जब मैं अपनी उस बुरी आदत से दूर रहता हूं तो मानसिक एकांतवास में चला जाता हूं। कुछ ऐसी यादें हैं, जो परेशान करने लगती है। फिर उससे से उबरने के लिए, खुद को कुठित जिंदगी में धकेलने के लिए उसका शिकार हो जाता हूं। इस तरह मुझे वह याद परेशान नहीं करती है। यानी एक आदत से छुटकारा के लिए दूसरी आदत का सहारा। मेरी यादें मुझे अच्छी लगती हैं। वह महज यादें न होकर किसी परिकथा से कम नहीं है. जिस तरह मां जब बचपन में परिकथा सुनाती थी तो परियों की कहानी अपनी लगती थी. खैर, एक बार फिर वहीं दौर मेरे साथ शुरू हो चुका है। तक़रीबन 15 दिनों से अपनी आदत से महरूम हूं, पर वह याद अब सताने लगी है। इतना परेशान करती है कि अंदर से छटपटाहट और बेचैनी का एहसास तोड़ देती है। लगता है कहीं कोई अपना नहीं। दुनिया में जिधर देखों इंसानों की शक्ल नजर आती है. पर कौन सी शक्ल मेरी है या मुझे अपनापन का एहसास दिलाने के लिए है, पता ही नहीं चलता। हालांकि यह कहानी सिर्फ मेरे लिए ही नहीं है। फिर भी लगता है क्या अजीब दुनिया है. सभी चले जा रहे हैं, भागे जा रहे हैं। पर पता नहीं किसे कहां जाना है। बस सब को आगे जाने है। पर मुझे अपनी चाल से चलना प्यारा है। लेकिन ऐसे में जमाने से कदमताल न करने का खामियाजा भी मुझे उठाना पड़ता है।

शादी भी नेशनल फेस्टिवल से कम नहीं

अगले महीने बहन की शादी है। घर में बहुत ही उल्लास और हंसी-खुशी का माहौल होगा। मैं थोड़ी देर से घर पहुंचने वाला हूं। वजह नौकरी। पर इन बातों को छोड़िए। शादी के गीतों को सुनकर एक अजीब सा रोमांच मन में पैदा हो रहा है। आज शारदा सिन्हा की आवाज में भोजपुरी विवाह गीत सुन रहा था।किस तरह शादी के तमाम रस्मों और रीति रिवाजों को एक गाने में समा दिया गया है, देखकर बेहद ताज्जुब होता है। मन बिल्कुल भावुक हो उठा। हल्दी और तमाम रिवाजों को देखते-सुनते हुए मन भावनाओं के समंदर में गोते लगाने लगा। शादी महीने भर बाद होनी है। पर सारा दृश्य आंखों सामने घूम गया। हमारे यहां शादी किसी नेशनल फेस्टिवल से कम नहीं होता। वैसे भी भारत को त्योहारों का देश कहा गया है। यहां शादी के पहले मड़वा मटकोर का रस्म होता है। यह शादी के ठीक एक दिन पहले होता है। माड़ो यानी घर के आंगन में एक छप्पर बनाया जाता है। इसमें बांस के आठ और आम का एक खंभा होता है। शादी के एक दिन पहले इसी में हल्दी और उससे जुड़ी रिवाजों को पंडित जी शास्त्रों के मुतिबक करवाते नजर आते हैं। दुनिया बदल गया। ग्लोबलाइजेशन की भनक गांवों तक पहुंच गई। काफी कुछ वहां भी बदल गया। लेकिन नहीं बदली तो हमारी वहीं संस्कृति-परंपराएँ। अब शादी की बात चल ही पड़ी है तो हरियाणा में एक ही गोत्र में शादी पर उठे बवंडर से सभी वाकिफ होंगे। मैं इस मामले में ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहूंगा बस इतना कि खाप पंचायतें एक ही गोत्र में शादी को सामाजिक तौर पर गलत और पाप मान रहे हैं। उन्हें लगता है कि समान गोत्र में शादी से वंशावली पर प्रतिकूल असर पड़ता है। पर जरा सोचिए जब दुनिया की उत्पत्ति हुई थी तो कितने लोग जीवित थे। जैसा कहा जाता है। सिर्फ दो। मनु और श्रद्धा या एडम और ईव। उन दोनों से ही आज पूरी दुनिया की आबादी अपने संक्रमण या विकास की अवस्था से आगे बढ़ती हुई अरबों तक पहुंच चुकी है। सोचने की बहात यह है कि गोत्र पर विवाद खड़ा करने से पहले हमें सोचना चाहिए हम कहां से चले थे और कहां तक आ गए हैं। यानी सबका वंशज एक है। शादी एक बंधन है लोग कहते ते, पर इनकी फैसलों को देखकर वाकई लगता है, बंधन है। जब आप अपनी जिंदगी का फैसला नहीं कर पा रहे हैं तो यह क्या है?

पाकिस्तानी मीडिया में हिन्दू

भारत में बमुश्किल ही नामचीन उर्दू अख़बारों के बारे में किसी को जानकारी होगी। मुझे भी बहुत कम उर्दू अखबारों के नाम मालूम हैं। आज के समय में यह सौ फीसदी सच है, यदि किसी को अपनी आवाज़ उठानी हो तो उसे अपना माध्यम चाहिए। शायद यही वजह है कि वक़्त-वक़्त पर मुसलमान अपने लिए अलग राजनीतिक दल और मीडिया की मांग करते हैं। ताकि सत्ता के शीर्ष तक उनकी बात भी पहुँच सके। ताकि वह अपनी बात ज़ोरदार तरीके से सभी के सामने रख सकें।

हम सभी जानते हैं, पकिस्तान एक मज़हबी मुल्क है। एक इस्लामिक मुल्क है। वहा हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचारों से हमारे मीडिया की खबरें अटी-पड़ी होती है, लेकिन हालात बिलकुल ऐसे भी नहीं। ज़रा पाकिस्तान की यह खबर पढ़िए और खुद ही फैसला कीजिये। पाकिस्तान के सिंध से हिंदू समुदाय के लिए एक समाचार पत्र निकलता है। सिंध के हैदाराबाद से निकलने वाले इस साप्ताहिक समाचार पत्र का नाम 'संदेश' है। अख़बार के संपादक हरजी लाल जी हैं। हरजी लाल ने इसे शुरू किया तो बताया कि जब सिंध में कोई हिंदू लड़की का बलात्कार होता है तो सिंधी अख़बार खबरों के नाम पर महज खानापूर्ति खानापूरी करते हैं और उसे भूल जाते हैं। यह भी नहीं बताते कि गुनहगार पकड़ा गया या नहीं। वह कहते हैं, पिछले साल दिसंबर में कस्तूरी कोहली नामक एक लड़की का बलात्कार हुआ तो मीडिया में यह खबर तो थी लेकिन, अनमने ढंग से खबर छपी और मामला रफा-दफा। इसी तरह कुछ महीने पहले सिंध में ही जब एक हिंदू परिवार ने अपनी तीन बेटियों के साथ ख़ुदकुशी की तो मीडिया ने इस पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन संदेश ने इस ख़बर को बढ़ते अंधविश्वास के रुप में अच्छी खासी जगह दी. यह खबर भारतीय मीडिया में भी छाई रही यानी आपके पास माध्यम हो तो हरकोई आपकी बात सुनाने को मजबूर होता है। नहीं तो सभी आपको गूंगा समझते रहते हैं। रही बात पाकिस्तान की तो, यहाँ लगभग 20 लाख हिंदू हैं। इनमें 12 लाख से अधिक सिंध प्रांत में रहते हैं। इनकी समस्याएं भी गंभीर हैं। मुसलमान भी इन अखबारों को शक की नज़र से देखते हैं। हिन्दू समुदाय के लिए शुरू इस अखबार के लोग कहते हैं कि जब से पाकिस्तान बना है कभी कोई दलित हिंदू देश के खिलाफ़ किसी कार्रवाई में शामिल नहीं रहा है। फिर भी हिंदुओं को ग़द्दार समझा जाता है। बाबरी मस्जिद भारत में गिरती है पर इसका मलबा पाकिस्तानी हिंदुओं पर गिरता है। इस तरह यह अखबार सही मायनों में पत्रकारिता का कम कर रही है। वह महज मजहब या किसी की बदनीयती को आधार बनाकर नहीं, बल्कि मुद्दों के आधार पर अपने काम में मशगूल है।

चलते-चलते यही कि समाचार पत्र आर्थिक ज़रूरतों के अभाव में अपनी आखिरी सांसे गिन रहा है।

पाकिस्तान के ज़ख्मों की कहानी

मामला आतंकवाद से जुड़ा है. आतंकवाद का नाम आते ही पता नहीं क्यों सभी की जुबां पर पाकिस्तान का नाम चढ़ जाता है. नया नाम पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी नागरिक फैसल शहजाद का है. कहा जाता है कि उसके माता-पिता पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्नाह के आधुनिक ख्यालातों से बेहद प्रभावित थे. जिन्नाह कि नज़रों में पाकिस्तान मुसलामानों का मुल्क होता, लेकिन वह मुस्लिम मुल्क नहीं होता. जिस मुल्क पर नौकरशाहों और सेना ने लम्बे अरसे तक शासन किया और इन्होंने ही यहाँ की तहजीब और संस्कृति की दशा और दिशा तय की. पाक में एक ऐसा वर्ग है जो हर तरह से हर जगह हावी है। पर इनकी तादाद बहुत कम है। यहाँ हमेशा से बहुसंख्यक अपनी जिन्दगी का फैसला दूसरों पर छोड़ते रहे हैं या कहें तो उन्हें ऐसा करने पर मजबूर होना पड़ता है। अब यही देख लीजिये कि फैसल की गिरफ्तारी के बाद पाकिस्तान की आवाम को न चाहते हुए भी बदनामी झेलना पड़ेगा। पाकिस्तान के गृह मंत्री रहमान मलिक का भी कहना है इससे उनके मुल्क की इज्ज़त को बट्टा लगा है और बदनामी हुयी सो अलग। रहमान का कहना है कि आतंकवादी पाकिस्तान को नाकाम रियासत साबित करना चाहते हैं। इस तरह देखें तो हर तरफ यही लगता है किसभी पाकिस्तान को बदनाम करने कि फिराक में लगे हैं। पर ज़रा सोचिये अपनी इस कोशिश में हम न जाने कितने बेगुनाह पाकिस्तानियों के ऊपर भी बदनामी का ठप्पा लगा देते हैं। इसे हम भारत के ही एक उदहारण से समझ सकते हैं। यहाँ बिहार के लोगों को दुसरे राज्य वाले बिहारी के नाम से पुकारते हैं। यानी बिहार राज्य का रहने वाला बिहारी हुआ, ठीक उसी तरह जैसे, बंगाल का रहने वाला बंगाली, पंजाब का पंजाबी पर बिहार वालों के साथ ऐसा नहीं है। अतीत में कुछ लीगों कि गलत कारगुजारियों की वजह से आज बिहारी एक गाली के सामान इश्तेमाल होता है। पर अधिकांश बिहारवासियों कि शिकायत होती है कि दूसरों या कुछ लोगों की सजा भला उन्हें क्यों मिलना चाहिए। इसी जुमले को हम पकिस्तान के सन्दर्भ में भी प्रयोग कर सकते हैं। यह सच है वहां कुछ लोग गलत या नापाक रास्तों कि और बढ़ चुके हैं। लेकिन कुछ लोगों कि वजह से हम सभी को तो आतंकवादी करार नहीं दे सकते न। यदि ऐसा करते हैं तो हर मुल्मे इस तरह के चरमपंथी मौजूद हैं और हर मुल्क आतंकी मुल्क है।

दिल उदास और लब खामोश

दिल उदास है, लब खामोश
जिंदगी में कहीं उम्मीद अभी बाकी है,
अब अपनी गुस्ताखियों पर भी ऐतराज़ होता है,

छोड़कर सभी मुझे बेगाना समझने लगे,
ज़रा कोई बताये तो हमारी खता,
कि बरसों चाहने का सिला क्या होता है,
क्या होता है जब उनकी याद आती है
और मन मसोसकर रह जाता है
छोड़कर दुनिया खुद को भुला नहीं सकता,
शायद ऐसी बदनामी से जीना उनकों नहीं पसंद,
हर पल गिरतें है पत्तें साख से,

मझदार में छोड़ने के लिए।

हर बार अधूरा रहता है सफ़र जिंदगी का,

कभी तो सहारा मिले उस कश्ती को,

जिसे हमेशा तलाश है किनारे की।

बॉलीवुड की जुलिया रॉबर्ट्स

प्रीति जिंटा की तारीफों में आजकल उलझा हुआ हूँ। इसलिए बातें उनकी खूबसूरती की ही करूँगा। उनकी आँखें, जुल्फों और डिंपल वाली मुल्कान की तारीफ की जा सकती है। पर वह पारंपरिक तारीफ की श्रेणी में आएगा। कुछ इस तरह जैसे, हिंदी साहित्य के रीति काल में मंझन और जायसी की रचनाओं में नायिकाओं का नख-शिख का वर्णन। लेकिन प्रीति जिंटा इन सबसे अलग मुकाम पर है। उनमें आधुनिक नारी के संस्कार हैं, तो पारंपरिक स्त्री का चरित्र भी। बदलते समय के मुतिबक, बदलते नारी की छवि की झलक हमें प्रीति जिंटा में देखने को मिलती है। पहले उन्होंने फिल्मों की बदौलत पुरुषों की गुलाम दुनिया में अपनी उनमुक्तता साबित की। उसके बाद आईपीएल जैसे क्रिकेट टूर्नामेंट में, जहां कई टीमों के मालिक दुनिया के अग्रणी धनकुबेर हैं, वहीं पंजाब की टीम की सह मालकिन होना यह साबित करता है कि महिलाएं किसी भी मायनें में पुरुषों से पीछे नहीं है। उनमें स्वाभिमान भी, आत्मसम्मान भी और आत्मविश्वास भी। मुश्किल परिस्थितियों से लड़ने का जज्बा भी। तभी तो उनकी टीम हारती रही, हार का मलाल हर किसी को होता है, पर हार की हताशा प्रीति के चेहरे पर कभी नजर नहीं आई। आजादी के बाद भी भारत में महिलाओं को जिस तरह पुरुषों ने गुड़िया समझना जारी रखा। उस एक छलावे की दीवार को राजनीति में इंदिरा गांधी ने तोड़ा। उनके राजनीतिक सहयोगियों ने गूंगी गुड़िया कहकर सिर्फ इंदिरा ही नहीं, बल्कि एक सहनशील और मर्यादित महिला को कमजोर आंकने की भूल की। बाद में वहीं सारे पारंपरिक मिथकों को तोड़ती नजर आई। हालांकि इतनी तारीफ प्रीति जिंटा की नहीं करुंगा पर हां, इतना जरूर है कि वह जहां भी हैं, अपनी इन्हीं खूबियों की बदौलत है, जो उन्हें दूसरों से बाकी अलग साबित करता है। सबसे जुदा और सबसे अनूठा। प्रीति जिंटा के बारे में कहने को तो बहुत कुछ कहा जाता है। पर उसे बताने के लिए अगली बार कुछ ज्यादा मेहनत करूंगा। इसलिए अंत में यही कहना चाहूंगा कि मैं शार्षक अलग नहीं सोच सका। यह काफी दिनों से मेरे जेहन में घर कर गई थी। अगली बार कोशिश करूंगा थोड़ी खोजबीन करूं। ताकि प्रीति के लिए कुछ अलग और नया कह सकूं। साहित्यिक अंदाज में कहूं तो प्रीति के लिए नए प्रतिमानों की तलाश कर सकूं।

प्रीति जिंटा : बॉलीवुड की जुलिया रॉबर्ट्स

अद्भुत, अदम्य और साहस। प्रीति जिंटा। जी हां, कई महीनों से सोच रहा था कि प्रीति जिंटा के बारे में लिखूं। पर बहुत असमंजस में था। आखिर शुरुआत कहां से करूं। क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि सिर्फ लिखने के लिए लिखूं। किसी से तुलना भी नहीं करना चाहता था। हालांकि आज के आधुनिक समय में सारी चीजें किसी की तुलना पर ही टिकीं हैं। यदि आप बॉलीवुड में शाहरुख खान को महान बनाना चाहते हैं तो उनकी तुलना अमिताभ बच्चन से कर दीजिए या उनसे भी बढ़ा-चढ़ा कर गुणगान कर दीजिए। मतलब फंडा यह है किसी की यदि तारीफ करनी है तो उसकी तुलना उस क्षेत्र के दिग्गज से कर दीजिए। कंप्यूटर फील्ड में आप किसी को महान बताना चाहते हैं तो बस बिल गेट्स हमारी जुबान पर चढ़ जाते हैं। इसी तरह साहित्य के क्षेत्र में टैगोर या हरेक का अपना पंसदीदा नाम। इसी तरह सभी के लिए कोई न कोई तुलनात्मक नाम होगा। चूंकि वह एक एक्ट्रेस हैं तो जाहिर है खूबसूरती की बात भी होनी चाहिए। पर मैं उसे अपनी इस लेख की थीम नहीं बनउंगा। पर इसमें कोई शक नहीं कि वह बेहत खूबसूरत हैं। बॉलीवुड में उन्हें हॉलीवुड की जुलिया रॉबर्टस माना जाता है। जुलिया के बारे में हाल में खबर आई कि आज भी वह सुंदरता के मामले में लोगों की फेवरेट पसंद हैं। आज जुलिया 40 साल की हो चुकी हैं। उनके बच्चे भी हैं। शायद दो। फिर भी वह पूरी दुनिया में खूबसूरती और पर्सनिलटी क मामले में आज की कई तेजतर्रार और मिस वर्ल्ड से लेकर युनिवर्स भी उनकी अद्भुत सुंदरता के सामने फीकी नजर आती हैं। यही कहानी भारत में प्रीति जिंटा की है। यह उनकी तुलना नहीं बल्कि कुछ लोगों के लिए छोटा सा परिचय है। क्योंकि प्रीति की अभी शादी नहीं हुई। तो बच्चे की बात करना बेमानी ही है। खैर यह मजाक था। अब अपनी शुरुआत की बात कहूं तो मुझे कोई दूसरा शब्द नहीं मिल रहा था प्रीति के लिए। इसलिए मैंने शुरुआत बहुत संक्षिप्त और उनके नाम से ही की। शायद एक वजह यह है कि कोई भी बात शुरू करने में उसके इंप्रेशन को लेकर मैं हमेशा कॉन्शस रहा हूं। इस चक्कर में हमेशा शुरुआत गड़बड़ हो जाती है। यहां भी हुई। मुझे खुद अजीब लगा रहा है कि जिसके बारे में मैं इतना कुछ लिखना चाहता हूं, उसके लिए शब्दों को नहीं जुटा पा रहा हूं।

भारत भ्रष्ट महान

आजादी के पहले तक या उससे 4-5 साल बाद तक भ्रष्टाचार की बात पिछड़ी नहीं लगती थी। वह चौंकाती थी। उस पर गुस्सा आता था। पर आज तो इसकी बात करने पर लोग कहेंगे यह तो अभी भी एक मुद्दे पर अटका हुआ है। पिछड़ा हुआ है। कभी तरक्की नहीं करेगा। हमारे देश में एक नई बात है। अफसर को भ्रष्टाचारी कौन बनाता है? व्यापारी! और व्यापारी को भ्रष्टाचार करने की छूट कौन देता है? अफसर! एक पवित्र कार्य में दोनों लगे हैं। इनमें लड़ाई होना वैसे ही है, जैसे पहले अमेरिका-रूस और अब अमेरिका-चीन के बीच हथियारों का जखीरा जमा करने का झगड़ा। इससे भी एक कदम बढ़कर बात करे तो इन दोनों की लड़ाई, जैसे प्रभु के दो भक्तों की लड़ाई। प्रभु के चरणामृत को लेकर झगड़ा है यह। तूने ज्यादा चरणामृत ले लिया, तूने भोग में से ज्यादा मिठाई ले ली। उसके बाद आजकल बड़े-बड़े अफसरों और नेताओं की संपत्ति की सीबीआई जांच का चलन बन पड़ा है। सीबीआई जांच किस तरह होती है, यह सभी जानते हं। उत्तरप्रदेश में मायावती से छत्तीस का आंकड़ा होने के बावजूद मायावती ने संसद में कांग्रेस सरकार बचाने के लिए उसके पक्ष में वोट डाला। फिर लालू जी विरोध कांग्रेस का करते रहे, पर उसके खिलाफ वोट डालने के बजाय संसद से बाहर चले गए। यही हाल मुलायम सिंह यादव का रहा। इन तीनों में एक समानता है कि तीनों पर आय से अधिक संपत्ति का मामला चल रहा है। इनमें से किसी ने कांग्रेस के विरोध में वोट डालने की जुर्रत की होती तो अब तक इन पर सीबीआई स्वरूपी सांढ़ छोड़ दिया गया होता। फिर सवाल यह भी है कि जांच कौन करे? अफसर अकेला तो खाता नहीं है। वह नीचे भी खिलाता है और ऊपर भई खिलाता है। ऊपर जो जांच करने वाला है, वह भी तो खाता होगा।

भारत भ्रष्ट महान- भ्रष्टाचार भी एक कला है।

अपनी इच्छा से किसी चीज को चुनना वरदान से कम नहीं होता। सुख का मतलब है कि हम अपना चुनाव खुद कर सकें। लेकिन चुनना एक बात है, आदी हो सकना बिल्कुल दूसरी बात। हम एक जिंदगी से दूसरी जिंदगी में हमेशा गोता लगाना चाहते हैं। कभी इधर, कभी उधर, कहीं का भी नहीं, न कहीं से आता हुआ, न कहीं पहुंचता हुआ। ऐसी निराशा का नतीजा तो त्रासदी और अंधेरे परिवेश में ही हो सकती है। यहां यही हुआ भी है। एक शुरुआत गलत हो गई। भ्रष्टाचार की बात करना अब वैसा ही है, जैसे सत्यवादी हरिश्चंद्र की कथा सुनाना। सत्यवादी हरिश्चंद्र की कथा जितनी पुरानी है, उतनी ही पुरानी है इस देश के भ्रष्टाचार की कथा। पढ़ाई के शुरुआती दिनों में जब हरिश्चंद्र की कथा पढ़ाई जाती है, तब वह नई लगती है और चौंकाती है। वाह, कितना सत्यवादी राजा था। सपने में जिसे दान दे दिया, जागने पर उसकी खोज कराके उसे राज दे देता है। खुद चांडाल के यहां नौकरी करता है और अपने बेटे के कफन के टैक्स के रूप में अपनी पत्नी से उसकी दी साड़ी मांगता है। पर यही कथा जब बी।ए. में पढ़ाई जाए, तो छात्र कहते हैं कि कितने पिछड़े प्रोफेसर हैं। अरे यह कथा तो हम प्राइमरी में पढ़ चुके हैं। साल दर साल दोहराते हैं। जरा इस कथा को इस तरह बनाते हैं। हरिश्चंद्र ने सपने में एक ब्राह्मण को राज्य दान में दे दिया। सुबह उन्होंने अपने सपने को याद किया। सोचा, यह सपने वाला ब्राह्मण है, जिसकी नजर मेरे राज पर लगी है। यह कभी भी आकर भीख में राज्य मांग सकता है। यह किसी राजा को उकसाकर मेरे राज्य पर हनला करवा सकता है। उन्होंने मंत्री को हुक्म दिया- जाओ पता लगाओ इस शक्ल-सूरत के ब्राह्मण का और उसे मेरे सामने हाजिर करो। वह ब्राह्मण राजा के सामने लाया जाता है। राजा उससे कहता है- क्यों रे उधम, स्वपन में मुजे बेखबर जानकर मेरा राज्य दान मे लेता है। राजा सिपाही को आदेश देता है- इस बम्हन का सिर काट लो! सत्यवादी की कथा इस तरह एक नई कथा बन जाती है। ऐसा नहीं कि वही बरसों पुरानी कहानी दोहराते चले आ रहे हैं। ईमानदारी इस देश में विलुप्त चीज हो गई है। बेईमानी इतनी पुरानी बात हो गई है कि कोई बेईमानी की बात करे तो लगता है, बड़ा पिछड़ा हुआ आदमी है। अब कौन सी बातें हमें चौंकाती हैं। जैसे- अखबारों में कभी-कभी छपता है- ईमानदार अभी भी जिंदा है! मिसाल होती है- एक रिक्शावाला सवारी को छोड़कर लौटा, तो उसने देखा कि रिक्शे में नोटों से भरा एक बटुआ पड़ा हुआ है। वह तुरंत उस सज्जन के घर गया, जिन्हें उसने अभी छोड़ी था। फिर उनका बटुआ वापस किया। इस जमाने में ईमानदार जिंदा हैं। यह समाचार कभी नहीं छपता कि एक सज्जन ने 20 रुपए में रिक्शा ठहराया, मगर सिर्फ 10 रुपया देकर निकल लिए। उसने दस रुपए और मांगे तो उसे पीटकर भगा दिया।

इस लेख को मैं परसाई जी की रचना को आधार बनाकर और उससे उधार ले कर लिख रहा हूँ,

निरुपमा का ट्रायल ना हो

कहते हैं, बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। पर कुछ बातें जहाँ से शुरू होती हैं, वहीँ ख़त्म हो जाती हैं। आगे बढती है तो गलत दिशा अख्तियार कर लेती है। यही बात निरुपमा की मौत के मामले में कही जा सकती है। कहाँ तो सभी मीडिया ट्रायल की कोशिशों तक पहुँच चुके थे, उसकी मां को गिरफ्तार भी किया गया है। आरोप निरुपमा के परिवार वालों पर इतना संगीन है कि इसे राजस्थान और हरयाणा कि खाप पंचायतों से जोड़ा गया। निरुपमा की मौत का भी मीडिया ने तमाशा बनाना शुरू कर दिया था। आरुषी की तरह इसे भी एक बड़ा मामला बनाने की कवायद नज़र आयी, पर गनीमत है उतना बड़ा बखेड़ा खड़ा नहीं हुआ। यह सही है की निरुपमा को न्याय मिलनी चाहिए। पर क्या इसकी कोई कीमत होनी चाहिए। इसके लिए बिना कोई जाँच पड़ताल किये ही सब कुछ पहले ही तय कर देना जायज है। क्या कोर्ट के पहले ही फैसला सुना दिया जाना चाहिए। यदि नहीं तो इस तरह के मामलों को लेकर हमारी अंधी कोशिश बंद होनी चाहिए।

मुबारक हो तुम्हारा समाज- निरुपमा

निरुपमा की मौत हमारे सभ्य समाज के चहरे पर कालिख पोत गया है। वह एक पत्रकार थी। जिसका मकसद होता है, दुनिया और समाज की बुराइयों को मिटाना। खुद फैसले लेकर निष्पक्ष रहना। पर उसने एक फैसला किया और वही उसकी मौत की वजह बन गयी। हर रोज हमारे देश में ऐसी कई निरुपमा मौत की नींद सो रही है। पर उसे जगाने वाला कोई नहीं है। चंद पलों के लिए हम जागते भी हैं तो फिर कुम्भकर्ण की नींद में तब तक सो जाते हैं जब तक कोई दूसरी निरुपमा की मौत की खबर हमारे सामने नहीं आती। हम आज चाँद पर पहुँचाने की बात करते हैं। महिलों के लिए अन्तराष्ट्रीय दिवस मानते हैं। महिलाओं की तरक्की की बात करते हैं। पर जब बात उनके घर की बहू बेटिओं की आती है तो किसी पाषाणकाल के आदिमानव से कम नजर नहीं आते। निरुपमा का परिवार भी पढ़ा-लिखा था। उसके माता-पिटा जानते थे किबेटी को परदेस पढने के लिए भेज रहे हैं। जमाना बदल रहा है। लड़कों कि तरह उनकी बेटी भी अपने लिए कुछ फैसले ले सकती है। हालाँकि मुझे नहीं मालूम कि निरुपमा कि मौत कैसे हुई। मेरे पास इसके पक्का सबूत नहीं हैं। पर सवाल उठ रहे हैं, उससे शक कि सुई उसके माता-पिता पर ही जा रहा है। सुना है उनको हिरासत में भी लिया गया है। पर मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है कि यदि निरुपमा कि हत्या उसके माता-पिता ने कि है तो क्या यही कोशिश वह अपने बेटे के लिए करते। जब निरुपमा का भाई अपनी पसंद से कोई लड़की चुनता। उससे शादी करने का फैसला करता तो क्या उसका हश्र भी निरुपमा कि तरह होता। मुझे लगता है यह सवाल जितना मेरे लिए अहम् है उतना ही आप सभी के लिए भी। मैं सौ फीसदी विश्वास से कह सकता हूँ कि यदि कोई लड़का आज शादी करके भी अपने माता-पिता के पास जाये तो उसके माता-पिता थोड़ी देर के लिए भले ही गुस्सा करें पर ऐसी हिमाकत वह अपने सपने में भी करने कि नहीं सोच सकते। लेकिन निरुपमा ने तो बाकायदा अपने माता-पिता का मान रखते हुए उनसे इज़ाज़त लेने गयी थी। वह नहीं चाहती थी कि उसके किसी फैसले में उसके माता-पिता सहभागी न बनें। पर यह सिला मिलेगा। इस बात को सोचने के लिए भी आज इस दुनिया में मौजूद नहीं है। हम सोच सकते हैं हमारा समाज कितना तरक्की कर रहा है। हम कितना विकसित हो रहें हैं। मैं निरुपमा को नहीं जनता। फिर भी शायद इसलिए लिख रहा हूँ कहीं न कहीं मेरा नाता इस समाज से है। निरुपमा भी इसी समाज की थी। इस तरह सम्बन्ध तो बनता ही है। पर मेरे ही समाज ने, उसकी अंध परम्परों ने उसकी जान ले ली। इसका मुझे मलाल नहीं, न ही अफसोस है और न ही मैं अफ़सोस जताऊंगा। मेरा मानना है इस मातम को कबूलने से कुछ नहीं होने वाला। बस मैं यही सोचता हूँ आज समाज ने अपनी बेटी की आहुति दी है। उसका बलिदान लिया है। उसके रक्त से अपने दमन को लाल किया। खुश रहो समाज के रखवालों। यदि तुम्हे अपने अस्तित्व और सम्मान की यही कीमत चाहिए तो मुबारक हो तुम्हे यह तुमहरा सभ्य समाज।

जीने से पहले मरना

आज जीवन जीने वाला,
कितनी बार मरता है,
हर पल जीने से पहले,
वह कई मर्तबा मरता है
मरने की सोचना आज नियति है,
जीना बस एक झूठा सपना है,
हर सपना रात के अँधेरे में,
एक नयी उम्मीद जगाता है,
सुबह सपना भी टूट जाता है,
टूटना सपने की नियति है,
ठीक उसी तरह जैसे,
जीने के बीच मरना नियति है।
इसी उधेड़बुन में हमारी जिंदगी,
कहीं पीछे छूट जाती है।