कभी यूं भी

दूसरों की बातें करते-करते,
खुद को कितना पीछे छोड़ देते हैं,
जब दुःख का एहसास होता है,
तो चुपके से रजाई में रो लेते हैं,
रोने के लिए भी रात का वक़्त चुनते हैं,
कि कहीं बगल में सोया दोस्त न जग जाये,
अगर वह पूछा तो क्या कहूँगा,
कि बिना बात के रोये जा रहा हूँ,
या कहूँगा बीमार हूँ,
उसे नहीं बताऊंगा कि मैं
अब वो नहीं जो कभी था...
जब सोचता हूँ इस बारे में,
तो डूबने लगता हूँ भवंर जाल में,
बहार निकलने की जद्दोजहद
और खुद को समझने की उलझन
आजकल यही मेरे दो सवाल हैं,
सवाल जिन्दगी के हैं,
और जवाब उलझनों में हैं...
सवाल अकेलेपन का है,
तो जवाब अपनों से विलगाव का...

भ्रष्टाचार भैया की जय

भ्रष्टाचार को लेकर देश में कोई कुलबुलाहट हो या न हो पर सरकार और विपक्ष में ज़रूर है. राष्ट्रमंडल खेल से लेकर टू-जी स्पेक्ट्रम तक दलाली और घोटालों को लेकर कई नए खुलासे हुए. अरब नहीं खरबों रुपये का चुना लगा. इतना हंगामा अब किया जा रहा है. संसद को विपक्ष ने चलने नहीं दिया. यह सब हंगामा बेकार ही जायेगा. सरकार जेपीसी बनाने पर राज़ी नहीं है. मेरा तो सवाल ये है कि कोई जाँच कर ले नतीजा कुछ नहीं आने वाला है. हमें यह सच कबूल लेना चहिये कि हमारा मुल्क एक भ्रष्टाचार प्रधान देश है. यहाँ कानून का पालन करने वाले को सजा और घोटाला करने वालों को इनाम मिलता है. मधु कोड़ा से लेकर ए राजा तक. जिस मुल्क के प्रधानमंत्री पर घोटाले का आरोप लगा हो (बोफोर्स) उसके बारे में इन सब मसलों पर क्या बात की जाये. आजादी के बाद से लेकर देश को विकसित बनाने तक इन सबके नाम न जाने कितने घोटाले हुए होंगे किसी को सही आंकड़ा भी पता नहीं होगा. दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं होता. अमूमन हाशिए पर वे ही धकेले जाते हैं, जहां से प्रतिरोध की आशंका कम होती है. तकरीबन तमाम देशों की सरकारें कॉरपोरेट जगत एवं ऊंचे तबके पर बैठे लोगों को नाराज करने की स्थिति में नहीं होतीं लेकिन आम जनता को ठगना आसान होता है. मसलन, भारत सरकार यहां के उद्योग जगत को लाखों करोड़ रुपये की रियायत चुटकी में दे देती है, जिसका जिक्र शायद ही कहीं होता है. टू जी स्पेक्ट्रम के मामले में भी यही हुआ. पहले तो मनमोहन सिंह ने अपनी मर्जी के खिलाफ राजा को मंत्री बनाया और अब वही राजा मनमोहन की प्रजा के लिए एक नासूर बन गए हैं. फिर भी हिम्मत की दाद तो दीजिये कि कोई ज़िम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है. भारत में एक सबसे अनूठी बात यह है कि किसी भी स्तर पर...चाहे कोई मंत्री हो या मामूली सा अर्दली अगर कोई अच्छा काम होता है तो सभी क्रेडिट लेना चाहते है. भले ही वह काम उन्होंने नहीं किया पर क्रेडिट लेने से चूकते नहीं. पर, कोई गलत काम भले ही उन्होंने ही किया पर उसकी हांडी वह दूसरो पर ही फोड़ते हैं. भारत चलता है सिंड्रोम से ग्रस्त हैं. अब राष्ट्रमंडल खेल का मामला ही ले लीजिये कितना हो हल्ला हुआ था, लेकिन जब खेल ख़त्म हुआ तो सब कुछ हल्ला भी कहीं दब के रह गया. यदि हमारे राजनीतिज्ञ और देश के उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों सहित हम स्वयं अपनी जिम्मेदारियों को समझें और उनका पालन ईमानदारी पूर्वक करे तो इस देश को महाशक्ति बनने से कोई भी नहीं रोक सकता है. लेकिन यहाँ तो मामला ही उलट है सभी को बस एक अवसर की तलाश होती है. मौका मिला नहीं कि बस सब कुछ हसोथ के रख लिए. कलमाड़ी को बलि का बकरा बनाना ठीक नहीं है. सब कुछ पीएमओ और दस जनपथ की नाक के नीचे हो रहा था. इसके पीछे कलमाड़ी जी का हाथ नहीं है और भी कई लोग इसके पीछे हैं. परदा उठना जरूरी है. और यह सच्चाई सामने आनी चाहिए. किसी भी कीमत पर, लेकिन मेरा यकीं मानिये अभी तक जितनी जाँच चल रही है सब पूरे मामले की लीपापोती करने की कवायद है. चाहे वह राष्ट्रमंडल खेल का हो या टू जी.

मीडिया के मतवाले महायोद्धा


यह  मीडिया में अवसाद का युग है। दूसरों को सवालों से परेशान करने वाला मीडिया आजकल ख़ुद सवालों से परेशान है। बात आप सभी जानते हैं। कौन से मसले और बहस खबरें बन रही हैं, यह भी सब समझ रहे हैं। ऐसे में खुद को संभालने वाला, मीडिया को बचाने वाला कोई नजर नहीं आ रहा। सभी प्रोफेशनलिज्म का हवाला देकर अपना पल्ला छुड़ा रहे हैं। पहले बहस होती थी कि अब तो अखबारों और टीवी चैनलों को मालिक चैनल चला रहे हैं। मतलब यह कि मालिक संपादक बन गए और संपादक मालिक बन गए। तो ऐसे में मजबूर पत्रकार मजदूरी करने के सिवा कुछ नहीं कर सकता। यह रोना कई दिग्गज रो चुके हैं। पर, उन सभी घड़ियाली आंसू ही बहाए। दरअसल, जो अब तक पत्रकिरता के नाम पर कोलाहल मचाए हुए थे, उनका कच्चा-चिट्ठा सामने आ रहा है। जिनका नहीं आया है, वक्त-बेवक्त उनका कारनामा भी सामने आएगा। पर, बात ज़रा इससे अलग करूंगा। हम सभी या जो कोई भी पत्रकारिता के खत्म होने या उसके नैतिक पतन का रट्टा लगाते रहते हैं, तो मेरा सवाल यह है कि हम इसके अलावा क्या करते हैं। हमें भी मौक़ा मिलता है और चूकना हमारी फितरत है नहीं। जिन्हें अवसर नहीं मिलता, वह हाथ मलते रहते हैं और जब तक उन्हें कोई मौक़ा नहीं मिलता वह पत्रकारिता के क़ब्र तक पहुंचने का रोना लगाए और धरना-प्रदर्शन करते रहते हैं। इसमें वह भी शामिल हैं, जिनका ज़मीर कभी-कभी कब्र से जाग उठता है। और एक हुंकार भरकर फिर अपने ठिकाने की आगोश में चला जाता है।
दूसरी बात, यह कि पैसा सभी को चाहिए। सभी को अच्छी ज़िंदगी जीनी है। कोई त्याग और कुर्बानी शब्द तक का इस्तेमाल नहीं करता। करता भी है तो बस वीओ और ख़बरों में। पत्रकारिता की दुनिया में अगर लोगों को ऐशो-आराम भी चाहिए और नैतिकता भी, तो ऐसा अब होना बेहद मुश्किल है। ठीक उसी तरह जैसे ठाकुर और गब्बर को साथ-साथ रखना। यदि ठाकुर की आन-शान को रखना चाहते हैं तो जय को कुर्बानी देनी पड़ेगी। लेकिन, यहां जय भी अब आग पैदा करने के लिए गब्बर बन रहा है। तो चीजें बेहद आसानी से समझी जा सकती है। फिर भी निराशा की ज़िदगी हमें नहीं जीना है। हिंदुस्तानी तहज़ीब हमें मुसीबतों में रास्ता दिखाती है। तूफान में भी कस्ती को किनारा मिल ही जाता है। पर, यह है कि बस तूफान के थमने का इंतज़ार करिए बस। नहीं तो जो समंदर पर भी बांध बना सके वह आगे आए और भारतीय मीडिया को मझधार और भवंर से निकाले। फिलहाल न तो वासुदेव हैं जो कृष्ण को काली रात में नन्द के पास यमुना पार गोकुल छोड़ने जाए और न ही नल-नील हैं जो समुद्र पर सेतु बनाएँ। पत्रकारिता के बारे में बस एक बात और जो मेरे एक काबिल मित्र ने कभी कही थी वह यह कि वह यह पेशा पसंद करता है, क्योंकि उसे इसका काम और नेचर पसंद है। उसे खबरें लिखना पसंद है। वह इस दुनिया को पसंद करता है, क्योंकि इस दुनिया में जो कुछ भी करना पड़ता है उसे करने मेरे मित्र को मजा आता है। उसे खुशी मिलती है और एक बात यह कि वह इस दुनिया की चीजों को दूसरों से अलग करता है या कोशिश करता है। अब वह कहां तक सही है या गलत या फिर उसकी नैतिकता क्या बनती है? यह सब आप पर छोड़ता हूं।

झूठ का उदाहरणशास्त्र

बात अब उदाहरणों की. पिछले लेख में मैंने झूठ का तर्क-कुतर्क लिखा. लोग क्यों झूठ बोलते हैं और उनका इरादा क्या होता है? मेरे एक मित्र ने कहा, आपने जो लिखा वह तो सही था लेकिन उदहारण से समझा देते तो सोने में सुहागा वाली कहावत साबित हो जाती. मैंने उसे बताया, यदि मैं ऐसे करता हूँ तो मेरा संबंध कई लोगों से पटरी से उतर सकता है. फिर भी, मैंने सोचा अगर अभी से ही संबंधों के बारे में सोचने लगूं तो हुआ. यह उम्र की युवा अवस्था है. और मुझे याद आ रही है एक कविता जो बचपन में हमें पढ़ाई जाती थी. 'झूठ का तर्क-कुतर्क' पर उदहारण लिखने से पहले मैं उससे आपको वाकिफ कराना चाहता हूँ.
हवा हूँ हवा मैं, बसंती हवा हूँ,
सुनो बात मेरी, अनोखी हवा हूँ,
बड़ी बावली हूँ, बड़ी मस्त मौला,
नहीं कुछ फिकर है, बड़ी ही निडर हूँ...
अब बात शुरू करते हैं, दरअसल एक बार हुआ यह कि मैं अपने ऑफिस जल्दी पहुँच गया था. वजह मुझे जल्दी आने को कहा गया, क्योंकि हमारे एक साथी अवकाश पर थे. इसके दो दिन पहले तक मैंने भी छुट्टी ली थी. मेरे साथी अकेले पड़ गए. तो उस दिन मैं जब पहुंचा तो काफी खबरें मैंने बनाई. वो भाई साहब अपना व्यक्तिगत काम करते रहे. जब पेज पर खबर लगाने की बरी आयी तो. मुझे भी खबर की ज़रुरत पड़ी. मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने कहा मैंने 'यह' खबर बनाई है तुम लगा लो. मैंने लगा तो लिया लेकिन जिस खबर की बात हो रही थी, वह उनकी नहीं बल्कि, मेरी ही बनाई थी. इन भाई साहब को समस्या यह है कि इन्हें काम का क्रेडिट लेने की बीमारी है. इस चक्कर में यह भूल गए कि, झूठ भी बोलूँ तो किसके सामने. खैर मैंने उनसे कुछ नहीं कहा, नहीं तो उन्हें शर्मिंदगी उठानी पड़ती. वैसे भी उस वक़्त मेरा थोडा बुरा समय भी चल रहा था. तो कहना यह यह कि कुछ लोग दूसरों का हक मरने के लिए भी झूठ बोलते हैं. 
एक झूठ यह भी कि किसी को अपनी गलती की ज़िम्मेदारी लेने की लत नहीं होतो. हाँ, यह लत ही तो है. खैर, तो अपनी खामी को उस शक्श पर थोप देते हैं जो काम तो बहुत ईमानदारी से करता है, लेकिन थोड़ा दब्बू हो और किसी तरह के तिकरम में पड़ना नहीं चाहता हो. मुझे लगता मुझे लगता है यह एक उदहारण काफी है. एक बार में यदि एक ही पर पर कुल्हाड़ी मारी जाये तो ठीक है. दूसरे पर मरने से पहले पहले का घाव भरना भी तो चाहिए. नहीं तो अपंग को कोई नहीं पूछता और इस दुनिया में इंसान खुद पर जब तक निर्भर है तब तक वह सब की आँखों का चहेता है. जैसे ही वह पर निर्भर की रह पर चला उसे धकियाने वालों की संख्या भी बढ़ती जाएगी. चलते-चलते यह कि मैं भी झूठ बोलता हूँ. मैं कोई हरिश्चंद्र नहीं. लेकिन कोशिश होती है, उससे किसी का नुकसान न हो. कभी-कभी मकसद लोगों के चहरे पर मुस्कराहट देखना होता है. मैं भी इन्सान हूँ तो कभी कभी झूठ बोलने का मकसद मानवीय प्रकृति भी होती है.

झूठ का तर्क-कुतर्क

हम झूठ क्यों बोलते हैं? सभी जानते हैं कि यह हमारी फितरत कभी नहीं रही है. इसके बावजूद झूठ बोलने का हमारा सिलसिला बदस्तूर जारी है. मुझे लगता है झूठ इंसान दो वजहों से बोलता है. एक, खुद का बचाव करने के लिए और दूसरी वजह है यह कि  दूसरों पर इलज़ाम या आरोप लगाने के लिए. इसके अलावा भी और कई वजहें हैं, जो लोगों को झूठ बोलने के लिए उकसाते हैं. पहले वाले दो वजह में मकसद किसी गलती से अपना पल्ला छुड़ाना होता है या नुकसान पहुंचाना, वहीं बाकी मामलों में झूठ हम आदतन बोलते हैं. अपनी तारीफ सुनने-सुनाने के लिए और दूसरों की चापलूसी करने के लिए. ये चार तरह के जो झूठ हैं, भारतीय समाज या मोटामोटी कह सकते हैं किसी भी समाज में आपको देखने को मिल जायेंगे. झूठ  के और भी कर प्रकार हो सकते हैं. ज़रुरत है शोध की. फ़िलहाल दो और पराकारों की बात मैं कर सकता हूँ. एक- जो किसी को नुकसान पहुँचाने के लिए बोले जाते हैं और दूसरा, जिसके बोलने से किसी का कोई अहित नहीं होता है. कुछ लोग इसलिए भी झूठ बोलते हैं कि वह कुछ कहना चाहते हैं. बस कहना चाहते है और चुप रहना उनकी आदत नहीं. उदहारण के तौर पर, इसे कुछ इस तरह से समझा जा सकता है. मै आजकल इम्तिहान दे रहा हूँ. तो इम्तिहान शुरू होने से पहले हम कुछ दोस्त इकट्ठा होते हैं और चंद सवालों पर चर्चा करते हैं. मेरे पास कहने को कुछ खास नहीं होता है फिर मैं चाहता हूँ कि बेवक़ूफ़ न समझा जा सकूं तो उनके बीच मैं भी कुछ कहना शुरू कर देता हूँ. हालाँकि, अगर मैं कुछ न भी कहूं तो भी काम चल जाता, लेकिन मैं बोलता हूँ.
झूठ का विभाजन यदि हम आधिकारिक तौर पर करें तो, इसमें पहला झूठ होगा, कार्यालयी या दफ्तरी झूठ. यह दफ्तर में बॉस को या अपने से वरिष्ठ अधिकारी को तेल लगाने के लिए बोला जाता है. अपना नंबर बढ़ाने के लिए. तेल संप्रदाय का चलन जेएनयू से चला है, जहाँ लोगों को एक दूसरे से चिपकने की आदत होती है, उन्हें इस सम्प्रदाय में रखा जाता है. हालाँकि, यह एक अलग ही प्रजाति या सम्प्रदाय है, जिसके बारें में फिर कभी बात विस्तार से की जा सकती है. झूठ के बारें में इतना कुछ लिखने के बाद कह सकता हूँ कि अभी भी मेरा ज्ञान इस विषय में बहुत काम है. शोध और खोज की बेहद ज़रुरत है. इसके लिए वक़्त की ज़रुरत है. कह सकता हूँ कि वक़्त का रोना रो कर जो मैं बहाना बना रहा हूँ, यह भी एक तरह का झूठ है. मेरा यह झूठ इसलिए है कि मुझे लगता है मैंने इस लेख को तरह से धारदार नहीं बनाया जिसकी कामना मैंने की थी.  पर, इतनी बात ईमानदारी से कह सकता हूँ कि अगली बार पूरी तैयारी से अपने काम को अंजाम दूंगा. बगैर हथियार (शोध) के मैदान में कभी नहीं कदम रखूंगा.

कथनी करनी में अंतर न हो

नीरा राडिया टेप कांड पर मीडिया के कई धुरंधर जो अब तक चुप्पी बरते हुए थे, वो भी बिल से निकल आये हैं. उनकी नैतिकता भी अब उन्हें धिक्कारने लगी है. अब तक कहाँ थे तुम. आईबीएन सेवन के मैनेजिंग एडिटर के लेख का कुछ अंश आपके सामने पेश कर रहा हूँ. आशुतोष अपने लेख में कहते हैं, इन टेपों में पैसे के लेन-देन का जिक्र नहीं है। इसमें किसी को मंत्री बनाने के लिये लॉबिंग की जा रही है। पूरी बातचीत इशारा करती है- एक, किस तरह से बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घराने सरकार की नीतियों को प्रभावित करते हैं? दो, किस तरह से नेता इन कॉर्पोरेट घरानों का इस्तेमाल मंत्री बनने के लिये करते हैं? तीन, किस तरह से पत्रकार कॉर्पोरेट घराने और नेता के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाते हैं? चार, किस तरह से इन तीनों का कॉकटेल सत्ता में फैले भ्रष्टाचार को आगे बढा़ता है? पत्रकार ये कह सकते हैं कि उसे खबरें पाने के लिये नेताओं और बिजनेस घरानों से बात करनी होती है। उन्हें अपना सोर्स बनाने के लिये नेताओं और विजनेस घरानों से उनके मन लायक बात भी करनी होती है। ये बात सही है लेकिन ये कहां तक जायज है कि पत्रकार बिजनेस हाउस से डिक्टेशन ले और जैसा बिजनेस हाउस कहे वैसा लिखे? या नेता को मंत्री बनाने के लिये उसकी तरफदारी करे? हाई प्रोफाइल पंच-संस्कृति अंग्रेजी की पत्रकारिता में इसे भले ही लॉबिंग कहा जाता हो या फिर खबर के लिये नेटवर्किंग लेकिन खाटी हिंदी मे इसे 'दल्लागिरी' कहते हैं और ऐसा करने वालों को 'दल्ला'। और मुझे ये कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि हम पत्रकारों को ये पता है कि हमारे बीच कौन पत्रकार 'दल्ला' है और कौन 'दल्लागिरी' कर रहा है। 
यहाँ मेरा एक सवाल यह है कि राजदीप सरदेसाई और आईबीएन सेवन ने जो रुख मनमोहन सिंह की सरकार बचाने के लिए संसद में नोट फॉर वोट कांड मामले में किया था उसके बारे में उनकी राय भी मेरे हिसाब से दल्ला वाली ही होगी. मुझे मालूम है मीडिया में होने के नाते मुझे एक दिन हो सकता है उनके यहाँ नौकरी मांगने जाना पड़े. चाहता हूँ वो वक़्त कभी न, पर मीडिया की दुनिया छोटी है सो इसकी सम्भावनाओं के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है. लेकिन मेरा सिर्फ इतना कहना है कि जितनी मुखरता से वह लेख लिखते हैं, उतनी हकीक़त उनके कारनामे में  तो होनी ही चाहिए. पर इसमें ज़मीन आसमान का अंतर भले ही न हो पर फासला तो है ही. यह फासला वह अपने लेखों से पाटने कि कोशिश करते हैं, बेहतर हो कारनामों से करें. यह किसी व्यक्ति विशेष के बारे में मैं नहीं कहना चाहता हूँ, एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार भी अब फसबुक पे बकबक करते नहीं दिख रहे. हाँ, अजित अंजुम के बारे में यह नहीं कह सकता उनके बारे में जितनी खरूश बातें सुनी वह सारी सही थीं, मतलब वह गुस्से वाले स्वाभाव के हैं, लेकिन काम के मामले में वह कोताही कभी नहीं बरतते. कहने का मतलब यह कि जो लोग नैतिकता की दुहाई देते नहीं थकते थे, वह सब दम दबाकर किसी बिल में छुप गए हैं. मतलब साफ़ है बात हो तो कथनी करनी में अंतर न हो नहीं तो कोई बात ही मत कीजिये.

मीडिया का महासमर

कृष्ण ब्रेक के बाद एक बार फिर आपके सामने हैं. वह पत्रकार से कॉरपोरेट मालिक हो गए हैं. उन्हें इस महा मीडिया समर का योद्धा माना जाता था. लेकिन सरकार बचाने के लिए उन्होंने जो कारनामे किये उसने उनका विश्वास कम कर दिया है. अब छद्म नामों को छोड़कर बात सीढ़ी कि जाये तो बेहतर. बात करने में भी मुझे आसानी होगी और आपको समझने में भी. कृष्ण हैं एक टीवी चैनल के मालिक जो दूसरे चैनल में कम कर चुके हैं. अब एक अंग्रेजी चैनल और हिंदी चैनल के करता धता के तौर पर कम कर रहे हैं. उनकी पत्नी भी उसी अंग्रेजी चैनल में काम करती हैं. खैर, यह कोई बहस का मुद्दा नहीं होना चाहिए. और मेरे लिए है भी नहीं. द्रौपदी की कहानी भी कुछ कम नहीं है. एक रिपोर्टर से करियर शुरू करने वाली यह महिला एडिटर-इन-चीफ़ बन चुकी हैं और उनका उस चैनल में कुछ मालिकाना शेयर भी है. यानी कृष्ण और द्रौपदी एक ही पेशे में हैं, लेकिन कृष्ण को तो द्रौपदी के बचाव में आना ही था. पेशेवर मजबूरी की वजह से वह आये भी, लेकिन भाई साहब आते-आते बड़ी देर कर दी. कुछ कहा और सुना भी. यहाँ मुझे नरेन्द्र कोहली की रचना महासमर की याद आ रही है. 
द्रोण ने अपनी पलकें उठाकर अश्वत्थामा की ओर देखा तो लगा कि उन्हें उस प्रकार पलकें उठाना भी जैसे भारी पड़ रहा है। लेकिन यहाँ मीडिया में राडिया कांड के कर्म योद्धाओं को किसी तरह का अफ़सोस या मलाल नहीं. वो आँखों में आँखें डाल कर बातें कर रहे है, जैसे गलती जनता की है. अश्वात्थामा ने पूछा, ‘‘आप सहज प्रसन्न नहीं दीखते ?’’ द्रोण की दृष्टि में अश्वात्थामा के लिए भर्सना थी। क्या वह इतनी-सी भी बात नहीं समझता ? पर अपनी उस दृष्टि का अश्वात्थमा पर कोई प्रभाव न देखकर बोले, ‘‘भीष्म धराशायी हो चुके हैं।’’यहाँ भीष्म प्रभाष जोशी जैसे पत्रकार को मान सकते हैं तो हरिवंश जी जैसे पत्रकारों को उनका प्रतिनिधि. श्रवण गर्ग भी उस मानक पत्रकारिता के आखिरी स्तम्भ के तौर पर ही जाने जायेंगे.  
अब एक बात और यहाँ गुरु द्रोण अश्वत्थामासे बताते हैं मैं तो अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर भी नहीं मानता. यहाँ भी कोई पत्रकार किसी को बेहतर नहीं मानता बस तंग खिचाई में लगा रहता है. अश्वत्थामा पिता से पूछता है, तो आप उसे संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी नहीं मानते थे ? नहीं ! मैं उसे श्रेष्ठ धनुर्धारी ही मानता था. तो आपने एकलव्य का अँगूठा क्यों लिया ? अर्जुन को संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी बनाए रखने के लिए नहीं ? मुमकिन है यहाँ भी एकलव्य रुपी कई लोगों से कई द्रोणों ने कुर्बानियां मांगी  है. उनसे दलाली करवाई है और न जाने कैसे कैसे कुकर्म करवाए हैं. इसी तरह यदि पत्रकारों के निजी जीवन को खंगाला जाये तो कालिख उन सभी के चेहरों पर नज़र आएगी, जो अब तक नैतिकता का पाठ पढ़ते और पढ़ाते आ रहे हैं. उनमें खबर वही जो सच दिखाने वाले से लेकर डंके की चोट पर बात करने वाले भी शामिल हैं, क्योंकि यही भाई लोग नैतिकता की बात ज्यादा करते है और इन्होंने ही नैतिकता का ज्यादा कबाड़ा किया है.