कभी यूं भी

दूसरों की बातें करते-करते,
खुद को कितना पीछे छोड़ देते हैं,
जब दुःख का एहसास होता है,
तो चुपके से रजाई में रो लेते हैं,
रोने के लिए भी रात का वक़्त चुनते हैं,
कि कहीं बगल में सोया दोस्त न जग जाये,
अगर वह पूछा तो क्या कहूँगा,
कि बिना बात के रोये जा रहा हूँ,
या कहूँगा बीमार हूँ,
उसे नहीं बताऊंगा कि मैं
अब वो नहीं जो कभी था...
जब सोचता हूँ इस बारे में,
तो डूबने लगता हूँ भवंर जाल में,
बहार निकलने की जद्दोजहद
और खुद को समझने की उलझन
आजकल यही मेरे दो सवाल हैं,
सवाल जिन्दगी के हैं,
और जवाब उलझनों में हैं...
सवाल अकेलेपन का है,
तो जवाब अपनों से विलगाव का...

भ्रष्टाचार भैया की जय

भ्रष्टाचार को लेकर देश में कोई कुलबुलाहट हो या न हो पर सरकार और विपक्ष में ज़रूर है. राष्ट्रमंडल खेल से लेकर टू-जी स्पेक्ट्रम तक दलाली और घोटालों को लेकर कई नए खुलासे हुए. अरब नहीं खरबों रुपये का चुना लगा. इतना हंगामा अब किया जा रहा है. संसद को विपक्ष ने चलने नहीं दिया. यह सब हंगामा बेकार ही जायेगा. सरकार जेपीसी बनाने पर राज़ी नहीं है. मेरा तो सवाल ये है कि कोई जाँच कर ले नतीजा कुछ नहीं आने वाला है. हमें यह सच कबूल लेना चहिये कि हमारा मुल्क एक भ्रष्टाचार प्रधान देश है. यहाँ कानून का पालन करने वाले को सजा और घोटाला करने वालों को इनाम मिलता है. मधु कोड़ा से लेकर ए राजा तक. जिस मुल्क के प्रधानमंत्री पर घोटाले का आरोप लगा हो (बोफोर्स) उसके बारे में इन सब मसलों पर क्या बात की जाये. आजादी के बाद से लेकर देश को विकसित बनाने तक इन सबके नाम न जाने कितने घोटाले हुए होंगे किसी को सही आंकड़ा भी पता नहीं होगा. दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं होता. अमूमन हाशिए पर वे ही धकेले जाते हैं, जहां से प्रतिरोध की आशंका कम होती है. तकरीबन तमाम देशों की सरकारें कॉरपोरेट जगत एवं ऊंचे तबके पर बैठे लोगों को नाराज करने की स्थिति में नहीं होतीं लेकिन आम जनता को ठगना आसान होता है. मसलन, भारत सरकार यहां के उद्योग जगत को लाखों करोड़ रुपये की रियायत चुटकी में दे देती है, जिसका जिक्र शायद ही कहीं होता है. टू जी स्पेक्ट्रम के मामले में भी यही हुआ. पहले तो मनमोहन सिंह ने अपनी मर्जी के खिलाफ राजा को मंत्री बनाया और अब वही राजा मनमोहन की प्रजा के लिए एक नासूर बन गए हैं. फिर भी हिम्मत की दाद तो दीजिये कि कोई ज़िम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है. भारत में एक सबसे अनूठी बात यह है कि किसी भी स्तर पर...चाहे कोई मंत्री हो या मामूली सा अर्दली अगर कोई अच्छा काम होता है तो सभी क्रेडिट लेना चाहते है. भले ही वह काम उन्होंने नहीं किया पर क्रेडिट लेने से चूकते नहीं. पर, कोई गलत काम भले ही उन्होंने ही किया पर उसकी हांडी वह दूसरो पर ही फोड़ते हैं. भारत चलता है सिंड्रोम से ग्रस्त हैं. अब राष्ट्रमंडल खेल का मामला ही ले लीजिये कितना हो हल्ला हुआ था, लेकिन जब खेल ख़त्म हुआ तो सब कुछ हल्ला भी कहीं दब के रह गया. यदि हमारे राजनीतिज्ञ और देश के उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों सहित हम स्वयं अपनी जिम्मेदारियों को समझें और उनका पालन ईमानदारी पूर्वक करे तो इस देश को महाशक्ति बनने से कोई भी नहीं रोक सकता है. लेकिन यहाँ तो मामला ही उलट है सभी को बस एक अवसर की तलाश होती है. मौका मिला नहीं कि बस सब कुछ हसोथ के रख लिए. कलमाड़ी को बलि का बकरा बनाना ठीक नहीं है. सब कुछ पीएमओ और दस जनपथ की नाक के नीचे हो रहा था. इसके पीछे कलमाड़ी जी का हाथ नहीं है और भी कई लोग इसके पीछे हैं. परदा उठना जरूरी है. और यह सच्चाई सामने आनी चाहिए. किसी भी कीमत पर, लेकिन मेरा यकीं मानिये अभी तक जितनी जाँच चल रही है सब पूरे मामले की लीपापोती करने की कवायद है. चाहे वह राष्ट्रमंडल खेल का हो या टू जी.

मीडिया के मतवाले महायोद्धा


यह  मीडिया में अवसाद का युग है। दूसरों को सवालों से परेशान करने वाला मीडिया आजकल ख़ुद सवालों से परेशान है। बात आप सभी जानते हैं। कौन से मसले और बहस खबरें बन रही हैं, यह भी सब समझ रहे हैं। ऐसे में खुद को संभालने वाला, मीडिया को बचाने वाला कोई नजर नहीं आ रहा। सभी प्रोफेशनलिज्म का हवाला देकर अपना पल्ला छुड़ा रहे हैं। पहले बहस होती थी कि अब तो अखबारों और टीवी चैनलों को मालिक चैनल चला रहे हैं। मतलब यह कि मालिक संपादक बन गए और संपादक मालिक बन गए। तो ऐसे में मजबूर पत्रकार मजदूरी करने के सिवा कुछ नहीं कर सकता। यह रोना कई दिग्गज रो चुके हैं। पर, उन सभी घड़ियाली आंसू ही बहाए। दरअसल, जो अब तक पत्रकिरता के नाम पर कोलाहल मचाए हुए थे, उनका कच्चा-चिट्ठा सामने आ रहा है। जिनका नहीं आया है, वक्त-बेवक्त उनका कारनामा भी सामने आएगा। पर, बात ज़रा इससे अलग करूंगा। हम सभी या जो कोई भी पत्रकारिता के खत्म होने या उसके नैतिक पतन का रट्टा लगाते रहते हैं, तो मेरा सवाल यह है कि हम इसके अलावा क्या करते हैं। हमें भी मौक़ा मिलता है और चूकना हमारी फितरत है नहीं। जिन्हें अवसर नहीं मिलता, वह हाथ मलते रहते हैं और जब तक उन्हें कोई मौक़ा नहीं मिलता वह पत्रकारिता के क़ब्र तक पहुंचने का रोना लगाए और धरना-प्रदर्शन करते रहते हैं। इसमें वह भी शामिल हैं, जिनका ज़मीर कभी-कभी कब्र से जाग उठता है। और एक हुंकार भरकर फिर अपने ठिकाने की आगोश में चला जाता है।
दूसरी बात, यह कि पैसा सभी को चाहिए। सभी को अच्छी ज़िंदगी जीनी है। कोई त्याग और कुर्बानी शब्द तक का इस्तेमाल नहीं करता। करता भी है तो बस वीओ और ख़बरों में। पत्रकारिता की दुनिया में अगर लोगों को ऐशो-आराम भी चाहिए और नैतिकता भी, तो ऐसा अब होना बेहद मुश्किल है। ठीक उसी तरह जैसे ठाकुर और गब्बर को साथ-साथ रखना। यदि ठाकुर की आन-शान को रखना चाहते हैं तो जय को कुर्बानी देनी पड़ेगी। लेकिन, यहां जय भी अब आग पैदा करने के लिए गब्बर बन रहा है। तो चीजें बेहद आसानी से समझी जा सकती है। फिर भी निराशा की ज़िदगी हमें नहीं जीना है। हिंदुस्तानी तहज़ीब हमें मुसीबतों में रास्ता दिखाती है। तूफान में भी कस्ती को किनारा मिल ही जाता है। पर, यह है कि बस तूफान के थमने का इंतज़ार करिए बस। नहीं तो जो समंदर पर भी बांध बना सके वह आगे आए और भारतीय मीडिया को मझधार और भवंर से निकाले। फिलहाल न तो वासुदेव हैं जो कृष्ण को काली रात में नन्द के पास यमुना पार गोकुल छोड़ने जाए और न ही नल-नील हैं जो समुद्र पर सेतु बनाएँ। पत्रकारिता के बारे में बस एक बात और जो मेरे एक काबिल मित्र ने कभी कही थी वह यह कि वह यह पेशा पसंद करता है, क्योंकि उसे इसका काम और नेचर पसंद है। उसे खबरें लिखना पसंद है। वह इस दुनिया को पसंद करता है, क्योंकि इस दुनिया में जो कुछ भी करना पड़ता है उसे करने मेरे मित्र को मजा आता है। उसे खुशी मिलती है और एक बात यह कि वह इस दुनिया की चीजों को दूसरों से अलग करता है या कोशिश करता है। अब वह कहां तक सही है या गलत या फिर उसकी नैतिकता क्या बनती है? यह सब आप पर छोड़ता हूं।

झूठ का उदाहरणशास्त्र

बात अब उदाहरणों की. पिछले लेख में मैंने झूठ का तर्क-कुतर्क लिखा. लोग क्यों झूठ बोलते हैं और उनका इरादा क्या होता है? मेरे एक मित्र ने कहा, आपने जो लिखा वह तो सही था लेकिन उदहारण से समझा देते तो सोने में सुहागा वाली कहावत साबित हो जाती. मैंने उसे बताया, यदि मैं ऐसे करता हूँ तो मेरा संबंध कई लोगों से पटरी से उतर सकता है. फिर भी, मैंने सोचा अगर अभी से ही संबंधों के बारे में सोचने लगूं तो हुआ. यह उम्र की युवा अवस्था है. और मुझे याद आ रही है एक कविता जो बचपन में हमें पढ़ाई जाती थी. 'झूठ का तर्क-कुतर्क' पर उदहारण लिखने से पहले मैं उससे आपको वाकिफ कराना चाहता हूँ.
हवा हूँ हवा मैं, बसंती हवा हूँ,
सुनो बात मेरी, अनोखी हवा हूँ,
बड़ी बावली हूँ, बड़ी मस्त मौला,
नहीं कुछ फिकर है, बड़ी ही निडर हूँ...
अब बात शुरू करते हैं, दरअसल एक बार हुआ यह कि मैं अपने ऑफिस जल्दी पहुँच गया था. वजह मुझे जल्दी आने को कहा गया, क्योंकि हमारे एक साथी अवकाश पर थे. इसके दो दिन पहले तक मैंने भी छुट्टी ली थी. मेरे साथी अकेले पड़ गए. तो उस दिन मैं जब पहुंचा तो काफी खबरें मैंने बनाई. वो भाई साहब अपना व्यक्तिगत काम करते रहे. जब पेज पर खबर लगाने की बरी आयी तो. मुझे भी खबर की ज़रुरत पड़ी. मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने कहा मैंने 'यह' खबर बनाई है तुम लगा लो. मैंने लगा तो लिया लेकिन जिस खबर की बात हो रही थी, वह उनकी नहीं बल्कि, मेरी ही बनाई थी. इन भाई साहब को समस्या यह है कि इन्हें काम का क्रेडिट लेने की बीमारी है. इस चक्कर में यह भूल गए कि, झूठ भी बोलूँ तो किसके सामने. खैर मैंने उनसे कुछ नहीं कहा, नहीं तो उन्हें शर्मिंदगी उठानी पड़ती. वैसे भी उस वक़्त मेरा थोडा बुरा समय भी चल रहा था. तो कहना यह यह कि कुछ लोग दूसरों का हक मरने के लिए भी झूठ बोलते हैं. 
एक झूठ यह भी कि किसी को अपनी गलती की ज़िम्मेदारी लेने की लत नहीं होतो. हाँ, यह लत ही तो है. खैर, तो अपनी खामी को उस शक्श पर थोप देते हैं जो काम तो बहुत ईमानदारी से करता है, लेकिन थोड़ा दब्बू हो और किसी तरह के तिकरम में पड़ना नहीं चाहता हो. मुझे लगता मुझे लगता है यह एक उदहारण काफी है. एक बार में यदि एक ही पर पर कुल्हाड़ी मारी जाये तो ठीक है. दूसरे पर मरने से पहले पहले का घाव भरना भी तो चाहिए. नहीं तो अपंग को कोई नहीं पूछता और इस दुनिया में इंसान खुद पर जब तक निर्भर है तब तक वह सब की आँखों का चहेता है. जैसे ही वह पर निर्भर की रह पर चला उसे धकियाने वालों की संख्या भी बढ़ती जाएगी. चलते-चलते यह कि मैं भी झूठ बोलता हूँ. मैं कोई हरिश्चंद्र नहीं. लेकिन कोशिश होती है, उससे किसी का नुकसान न हो. कभी-कभी मकसद लोगों के चहरे पर मुस्कराहट देखना होता है. मैं भी इन्सान हूँ तो कभी कभी झूठ बोलने का मकसद मानवीय प्रकृति भी होती है.

झूठ का तर्क-कुतर्क

हम झूठ क्यों बोलते हैं? सभी जानते हैं कि यह हमारी फितरत कभी नहीं रही है. इसके बावजूद झूठ बोलने का हमारा सिलसिला बदस्तूर जारी है. मुझे लगता है झूठ इंसान दो वजहों से बोलता है. एक, खुद का बचाव करने के लिए और दूसरी वजह है यह कि  दूसरों पर इलज़ाम या आरोप लगाने के लिए. इसके अलावा भी और कई वजहें हैं, जो लोगों को झूठ बोलने के लिए उकसाते हैं. पहले वाले दो वजह में मकसद किसी गलती से अपना पल्ला छुड़ाना होता है या नुकसान पहुंचाना, वहीं बाकी मामलों में झूठ हम आदतन बोलते हैं. अपनी तारीफ सुनने-सुनाने के लिए और दूसरों की चापलूसी करने के लिए. ये चार तरह के जो झूठ हैं, भारतीय समाज या मोटामोटी कह सकते हैं किसी भी समाज में आपको देखने को मिल जायेंगे. झूठ  के और भी कर प्रकार हो सकते हैं. ज़रुरत है शोध की. फ़िलहाल दो और पराकारों की बात मैं कर सकता हूँ. एक- जो किसी को नुकसान पहुँचाने के लिए बोले जाते हैं और दूसरा, जिसके बोलने से किसी का कोई अहित नहीं होता है. कुछ लोग इसलिए भी झूठ बोलते हैं कि वह कुछ कहना चाहते हैं. बस कहना चाहते है और चुप रहना उनकी आदत नहीं. उदहारण के तौर पर, इसे कुछ इस तरह से समझा जा सकता है. मै आजकल इम्तिहान दे रहा हूँ. तो इम्तिहान शुरू होने से पहले हम कुछ दोस्त इकट्ठा होते हैं और चंद सवालों पर चर्चा करते हैं. मेरे पास कहने को कुछ खास नहीं होता है फिर मैं चाहता हूँ कि बेवक़ूफ़ न समझा जा सकूं तो उनके बीच मैं भी कुछ कहना शुरू कर देता हूँ. हालाँकि, अगर मैं कुछ न भी कहूं तो भी काम चल जाता, लेकिन मैं बोलता हूँ.
झूठ का विभाजन यदि हम आधिकारिक तौर पर करें तो, इसमें पहला झूठ होगा, कार्यालयी या दफ्तरी झूठ. यह दफ्तर में बॉस को या अपने से वरिष्ठ अधिकारी को तेल लगाने के लिए बोला जाता है. अपना नंबर बढ़ाने के लिए. तेल संप्रदाय का चलन जेएनयू से चला है, जहाँ लोगों को एक दूसरे से चिपकने की आदत होती है, उन्हें इस सम्प्रदाय में रखा जाता है. हालाँकि, यह एक अलग ही प्रजाति या सम्प्रदाय है, जिसके बारें में फिर कभी बात विस्तार से की जा सकती है. झूठ के बारें में इतना कुछ लिखने के बाद कह सकता हूँ कि अभी भी मेरा ज्ञान इस विषय में बहुत काम है. शोध और खोज की बेहद ज़रुरत है. इसके लिए वक़्त की ज़रुरत है. कह सकता हूँ कि वक़्त का रोना रो कर जो मैं बहाना बना रहा हूँ, यह भी एक तरह का झूठ है. मेरा यह झूठ इसलिए है कि मुझे लगता है मैंने इस लेख को तरह से धारदार नहीं बनाया जिसकी कामना मैंने की थी.  पर, इतनी बात ईमानदारी से कह सकता हूँ कि अगली बार पूरी तैयारी से अपने काम को अंजाम दूंगा. बगैर हथियार (शोध) के मैदान में कभी नहीं कदम रखूंगा.

कथनी करनी में अंतर न हो

नीरा राडिया टेप कांड पर मीडिया के कई धुरंधर जो अब तक चुप्पी बरते हुए थे, वो भी बिल से निकल आये हैं. उनकी नैतिकता भी अब उन्हें धिक्कारने लगी है. अब तक कहाँ थे तुम. आईबीएन सेवन के मैनेजिंग एडिटर के लेख का कुछ अंश आपके सामने पेश कर रहा हूँ. आशुतोष अपने लेख में कहते हैं, इन टेपों में पैसे के लेन-देन का जिक्र नहीं है। इसमें किसी को मंत्री बनाने के लिये लॉबिंग की जा रही है। पूरी बातचीत इशारा करती है- एक, किस तरह से बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घराने सरकार की नीतियों को प्रभावित करते हैं? दो, किस तरह से नेता इन कॉर्पोरेट घरानों का इस्तेमाल मंत्री बनने के लिये करते हैं? तीन, किस तरह से पत्रकार कॉर्पोरेट घराने और नेता के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाते हैं? चार, किस तरह से इन तीनों का कॉकटेल सत्ता में फैले भ्रष्टाचार को आगे बढा़ता है? पत्रकार ये कह सकते हैं कि उसे खबरें पाने के लिये नेताओं और बिजनेस घरानों से बात करनी होती है। उन्हें अपना सोर्स बनाने के लिये नेताओं और विजनेस घरानों से उनके मन लायक बात भी करनी होती है। ये बात सही है लेकिन ये कहां तक जायज है कि पत्रकार बिजनेस हाउस से डिक्टेशन ले और जैसा बिजनेस हाउस कहे वैसा लिखे? या नेता को मंत्री बनाने के लिये उसकी तरफदारी करे? हाई प्रोफाइल पंच-संस्कृति अंग्रेजी की पत्रकारिता में इसे भले ही लॉबिंग कहा जाता हो या फिर खबर के लिये नेटवर्किंग लेकिन खाटी हिंदी मे इसे 'दल्लागिरी' कहते हैं और ऐसा करने वालों को 'दल्ला'। और मुझे ये कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि हम पत्रकारों को ये पता है कि हमारे बीच कौन पत्रकार 'दल्ला' है और कौन 'दल्लागिरी' कर रहा है। 
यहाँ मेरा एक सवाल यह है कि राजदीप सरदेसाई और आईबीएन सेवन ने जो रुख मनमोहन सिंह की सरकार बचाने के लिए संसद में नोट फॉर वोट कांड मामले में किया था उसके बारे में उनकी राय भी मेरे हिसाब से दल्ला वाली ही होगी. मुझे मालूम है मीडिया में होने के नाते मुझे एक दिन हो सकता है उनके यहाँ नौकरी मांगने जाना पड़े. चाहता हूँ वो वक़्त कभी न, पर मीडिया की दुनिया छोटी है सो इसकी सम्भावनाओं के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है. लेकिन मेरा सिर्फ इतना कहना है कि जितनी मुखरता से वह लेख लिखते हैं, उतनी हकीक़त उनके कारनामे में  तो होनी ही चाहिए. पर इसमें ज़मीन आसमान का अंतर भले ही न हो पर फासला तो है ही. यह फासला वह अपने लेखों से पाटने कि कोशिश करते हैं, बेहतर हो कारनामों से करें. यह किसी व्यक्ति विशेष के बारे में मैं नहीं कहना चाहता हूँ, एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार भी अब फसबुक पे बकबक करते नहीं दिख रहे. हाँ, अजित अंजुम के बारे में यह नहीं कह सकता उनके बारे में जितनी खरूश बातें सुनी वह सारी सही थीं, मतलब वह गुस्से वाले स्वाभाव के हैं, लेकिन काम के मामले में वह कोताही कभी नहीं बरतते. कहने का मतलब यह कि जो लोग नैतिकता की दुहाई देते नहीं थकते थे, वह सब दम दबाकर किसी बिल में छुप गए हैं. मतलब साफ़ है बात हो तो कथनी करनी में अंतर न हो नहीं तो कोई बात ही मत कीजिये.

मीडिया का महासमर

कृष्ण ब्रेक के बाद एक बार फिर आपके सामने हैं. वह पत्रकार से कॉरपोरेट मालिक हो गए हैं. उन्हें इस महा मीडिया समर का योद्धा माना जाता था. लेकिन सरकार बचाने के लिए उन्होंने जो कारनामे किये उसने उनका विश्वास कम कर दिया है. अब छद्म नामों को छोड़कर बात सीढ़ी कि जाये तो बेहतर. बात करने में भी मुझे आसानी होगी और आपको समझने में भी. कृष्ण हैं एक टीवी चैनल के मालिक जो दूसरे चैनल में कम कर चुके हैं. अब एक अंग्रेजी चैनल और हिंदी चैनल के करता धता के तौर पर कम कर रहे हैं. उनकी पत्नी भी उसी अंग्रेजी चैनल में काम करती हैं. खैर, यह कोई बहस का मुद्दा नहीं होना चाहिए. और मेरे लिए है भी नहीं. द्रौपदी की कहानी भी कुछ कम नहीं है. एक रिपोर्टर से करियर शुरू करने वाली यह महिला एडिटर-इन-चीफ़ बन चुकी हैं और उनका उस चैनल में कुछ मालिकाना शेयर भी है. यानी कृष्ण और द्रौपदी एक ही पेशे में हैं, लेकिन कृष्ण को तो द्रौपदी के बचाव में आना ही था. पेशेवर मजबूरी की वजह से वह आये भी, लेकिन भाई साहब आते-आते बड़ी देर कर दी. कुछ कहा और सुना भी. यहाँ मुझे नरेन्द्र कोहली की रचना महासमर की याद आ रही है. 
द्रोण ने अपनी पलकें उठाकर अश्वत्थामा की ओर देखा तो लगा कि उन्हें उस प्रकार पलकें उठाना भी जैसे भारी पड़ रहा है। लेकिन यहाँ मीडिया में राडिया कांड के कर्म योद्धाओं को किसी तरह का अफ़सोस या मलाल नहीं. वो आँखों में आँखें डाल कर बातें कर रहे है, जैसे गलती जनता की है. अश्वात्थामा ने पूछा, ‘‘आप सहज प्रसन्न नहीं दीखते ?’’ द्रोण की दृष्टि में अश्वात्थामा के लिए भर्सना थी। क्या वह इतनी-सी भी बात नहीं समझता ? पर अपनी उस दृष्टि का अश्वात्थमा पर कोई प्रभाव न देखकर बोले, ‘‘भीष्म धराशायी हो चुके हैं।’’यहाँ भीष्म प्रभाष जोशी जैसे पत्रकार को मान सकते हैं तो हरिवंश जी जैसे पत्रकारों को उनका प्रतिनिधि. श्रवण गर्ग भी उस मानक पत्रकारिता के आखिरी स्तम्भ के तौर पर ही जाने जायेंगे.  
अब एक बात और यहाँ गुरु द्रोण अश्वत्थामासे बताते हैं मैं तो अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर भी नहीं मानता. यहाँ भी कोई पत्रकार किसी को बेहतर नहीं मानता बस तंग खिचाई में लगा रहता है. अश्वत्थामा पिता से पूछता है, तो आप उसे संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी नहीं मानते थे ? नहीं ! मैं उसे श्रेष्ठ धनुर्धारी ही मानता था. तो आपने एकलव्य का अँगूठा क्यों लिया ? अर्जुन को संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी बनाए रखने के लिए नहीं ? मुमकिन है यहाँ भी एकलव्य रुपी कई लोगों से कई द्रोणों ने कुर्बानियां मांगी  है. उनसे दलाली करवाई है और न जाने कैसे कैसे कुकर्म करवाए हैं. इसी तरह यदि पत्रकारों के निजी जीवन को खंगाला जाये तो कालिख उन सभी के चेहरों पर नज़र आएगी, जो अब तक नैतिकता का पाठ पढ़ते और पढ़ाते आ रहे हैं. उनमें खबर वही जो सच दिखाने वाले से लेकर डंके की चोट पर बात करने वाले भी शामिल हैं, क्योंकि यही भाई लोग नैतिकता की बात ज्यादा करते है और इन्होंने ही नैतिकता का ज्यादा कबाड़ा किया है.

मीडिया का महाभारत

मीडिया में तांडव मचा हुआ है. सारे दिग्गज मंथन में लगे हैं. यह जो दाग लगे हैं वो अच्छे नहीं हैं. इसलिए कि इसे कोई ऋण सुप्रीम भी नहीं धो सकता. एक तरफ धृतराष्ट्र को आँखें मिल गयी हैं, संजय ने उन्हें अपनी आँखें दान में दे दी. फिर भी धृतराष्ट्र अंधे होने का ढोंग कर रहे हैं. ठीक उसी तरह जैसे दुर्योधन के मामले में उन्होंने किया था. मीडिया भी अपनी साख और विश्वसनीयता खो रहा है. विदुर समझा रहे हैं महाराज आप पुत्र प्रेम में कहीं आप दुर्योधन की जान ही न ले लें. लेकिन धृतराष्ट्र कहते हैं विदुर माना तुम मेरे सलाहकार हो, लेकिन अब मैं अँधा नहीं रहा और तुम पांडवों की लौबी करना छोड़ दो. विदुर इस अपमान को बर्दाश्त नहीं कर पाए और दरबार से कल्टी मार लिए. शायद उन्हें आभास हो गया कि अब द्रौपदी नहीं बचने वाली है. मीडिया का चीरहरण हो रहा है. पर यहाँ तो कुछ और ही नज़ारा है कृष्ण भी दुर्योधन के खेमे में जा बैठे हैं. अपनी सेना पांडवों को दे दी है.  मामा शकुनी के कहने पर कृष्ण को कौरवों का प्रमुख लौबीकार बना दिया गया है. पांडवों के खेमें में अच्छी पैठ होने के चलते कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं. अर्जुन को संचार मंत्री बनाने का लालच दिया जा रहा है. अर्जुन कह रहे रहें हे देविकीनंदन फिर बड़े भैया का क्या होगा. मेरे अलावा पांडवों कोई चक्रव्यूह भेदना जनता भी नहीं. कृष्ण अर्जुन को यहीं गीता का ज्ञान देते हैं. देखो मीडिया में कोई किसी का भाई-बंधु नहीं होता. अगर कुछ है तो वह है प्रतिद्वंद्विता. तुम्हे यह भेद समझना होगा. अर्जुन कन्फ्यूज हो जाता है. अभी तो आप मुझे संचार मंत्री बना रहे थे और अभी मीडिया कहाँ से आ गया. कृष्ण कहते हैं, देखो अर्जुन ज्यादा उतावले मत हो. तुम बगैर मीडिया लौबी के मंत्री नहीं बन सकते और इस बारें में तुम्हे घबराने की ज़रुरत नहीं है. सारी बातें हो चुकी है. बस मंत्री बनाते ही तुम्हे इतना करना है कि मीरा माडिया के कहने पर तुम्हे कुछ काम करने पड़ेंगे. माडिया ये कौन है कहीं आप नाम तो गलत नहीं बता रहे मुझे कृष्ण. वो तो नीरा है न. नहीं अर्जुन तुम्हें जितना कहा जाये उतना ही करो. ये सब अन्दर कि बातें है. नाम का खुलासा तुम मत करो. अर्जुन की दुविधा शांत नहीं होती है. वह फिर सवाल करता है, देविकीनंदन आप ज़रा विस्तार से समझाएं. देखो मीडिया में हमारे कई लोग हैं जो हमसे पैकेज लेते हैं और हमारे मुताबिक खबरों को छपते है या दिखाते हैं. ये सभी शीर्ष पदों पर है और हमसे मेहनताना पाते हैं. इनमें एक अंग्रेजी अखबार की बड़ी हस्ती है तो दूसरी एक अंग्रेजी चैनल की संपादक है. इन पर कीचड़ न उछलना चाहिए, इनका काम विश्वास का है. और विश्वास नहीं टूटना चाहिए. इतना कहते ही कृष्ण ब्रेक लेते हैं और कहते हैं हम अगली बात आपको अगले अंक में बताएँगे अर्जुन...

मेरी बात

बीमार रिश्तों को तोड़ देने में ही भलाई है. उन्हें जिंदगी भर ढोने से परेशानियों के अल्वा कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है. यह बात अगर जल्दी समझ में आ जाये तो बेहतर, नहीं तो तैयार हो जाइये एक गंभीर चुनौती का सामना करने के लिए. इस चुनौती में आपको अवसर भी मिल सकता है और जिंदगी का अंत भी. ये सब लिखने का मकसद कुछ और नहीं, बल्कि आजकल खुद की चुनौती है. मुझे मालूम है कुछ फैसले मैं ग़लत ले रहा हूँ. उसका अंजाम क्या होगा, पता भी है और नहीं भी. खैर, तो क्या ग़लत फैसले लेना ज़िंदगी का हिस्सा नहीं हैं? आज बात फ़ैसलों की नहीं और न ही उसके असर की. बस बात दिल की. कुछ दिनों से बहुत ही अजीब लग रहा है. क्यों लग रहा है पता नहीं? बस इतना कह सकता हूँ कि जिंदगी में कई चीज़ों की कमी महसूस होती है. इसकी वजह अतीत का माहौल और कुछ लोगों की ग़ैर जवाबदेही ज़िम्मेदार है. इन ग़ैर जवाबदेह लोगों के बीच कुछ ऐसे भी मिले जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पे काफी मदद किया. खास अहमियत अप्रत्यक्ष मददगारों की है. उन्हें पता भी नहीं की किस तरह एक  हतास, निरास और परेशान इन्सान की मदद की. पर जब आप इस तरह के अदृश्य मददगारों से काफी लम्बे अरसे या कभी भी नहीं मिल पते हैं हैं तो उनकी वो जादुई प्रेरणा बेअसर होने लगती है. तब ऐसे में आपको खुद से प्रेरणा लेने की दरकार होती वरना अंजाम का अंदाज़ा लगाना मुश्किल होता है. उसके नतीजों को सोच कर ही डर लगता है. बातें और भी कई सारी हैं, उन्हें खुल कर बात करने से हालत और भी बिगड़ जाने का अंदेशा होता है. इसलिए ऐसा नहीं कर आखिर रहा हूँ. बस हाँ, दिल की तसल्ली के लिए आप सभी से साझा कर रहा हूँ. वजह यह की मैं कृत्रिम दोस्तों और बनावटी अपनापन दिखाने वालों से कुछ बातें साझा करने में यकीन नहीं करता हूँ. बस परेशानी का आलम इतना है कि पिछले कुछ दिनों से बेहद खुश हूँ परीक्षा सर पर है एक दिसम्बर से और तैयारी कुछ भी नहीं. बाकी बात खुलासे के साथ फिर कभी.

एक संपादक की सोच और इत्तेफाक

लेख की शुरुआत एक खबर से।  पटना से दिल्ली आ रहा था। मगध एक्सप्रेस से। रास्ते में टाइम पास करने के लिए एक अखबार खरीद लिया। प्रभात खबर खरीदा। सोचा हरिवंशजी का कुछ बेहतरीन पढ़ने को मिलेगा। मैं निराश नहीं हुआ। जापान के बारे में उन्होंने लिखा था। लेख में बताया गया था कि किस तरह एक जीर्ण-शीर्ण सा देश विकसित बना। प्रभात खबर के संपादक हरिवंशजी ने जापानियों की जीवटता का बेहतरीन जिक्र किया। एक किस्सा कुछ यूं था कि वहां ट्रेनें डॉट में चलती हैं मतलब सेकेंड्स पर. मसलन, 10 बजकर 20 मिनट 15 सेकेंड पर खुलेगी तो वह इसी टाइम पर खुलेगी। एक बार कुछ तकनीकी खराबी की वजह से एक ट्रेन 11 से 12 मिनट लेट हो गई। देशव्यापी मुद्दा बन गया। हमारे यहां भ्रष्टाचार भी देशव्यापी मुद्दा नहीं बन पाता। खैर, ट्रेन लेट होने की वजह की सफाई मंत्री समेत रेल बोर्ड के अधिकारियों को देना पड़ा। वह खुद राष्ट्रीय चैनल पर आए और इस देरी के लिए देश से माफी मांगी और जिम्मेदारी लेते हुए सभी ने इस्तीफा दे दिया। यह है जापानी जनता, नेता और अधिकारियों का अनुशासन। इसी अनुशासन ने जापान को जापान बनाया। अब बात खुद की यात्रा की। जब मैं घर से चला था तो मेरी गाड़ी 6 बजकर दस मिनट पर थी। बमुशि्कल से 10 मिनट पहले मैं स्टेशन पहुंचा। हालांकि, घर से तीन घंटा पहले चला था। मुझे काफी देर भी होती तो तकरीबन 5.30 तक पहुंच जाना चाहिए था। लेकिन नहीं। दरअसल, लालगंज से हाजीपुर और हाजीपुर से पटना के बीच उम्मीद से अधिक ट्रैफिक का सामना करना पड़ा। उस वक्त मैं घबरा तो बिल्कुल नहीं, रहा था कि गाड़ी छुट जाएगी। पर हां, यह जरूर सोच रहा था कि बिहार में वाकई काफी पैसा आया है। पिछले दिनों धनतेरस के मौके पर रिकॉर्ड गाड़ियों की खरीदारी हुई थी। तो ट्रैफिक तो बढ़ना ही था। खुशी इस बात से हुई कि अफरा-तफरी भरे ट्रैफिक को संभालने के लिए पुलिस लगी थी जो पहले नहीं होता था। पहले मंजर यह होता कि हर कोई अपनी मर्जी से चला जा रहा है। कोई किसी को रोकने वाला नहीं है। इससे बहुत बड़ा कोओस हो जाता था। नौबत तो मारपीट तक की आ जाती थी। पर, अब ऐसा नहीं है। इसके लिए आप बदलते बिहार को शुक्रिया कह सकते हैं, साथ में सीएम नीतीशजी को भी। हां तो काफी मशक्कत से पटना स्टेशन पहुंचा। जल्दबाजी में इधर-उधर भागता हुआ पहुंचा तो पता चला जिस ट्रेन से जाना है वह 10-15 मिनट नहीं, दो घंटे देर से खुलेगी। यह सोचकर काफी झुंझलाहट हो रही थी कि अब इतना वक्त मैं कैसे बिताऊंगा। तभी यह अखबार खरीदा-प्रभात खबर। उसमें हरिवंशजी ने एक देश के महान बनने की कहानी का उदाहरण भी ट्रेन के समय से दिया था। जहां एक तरफ ट्रेनों का लेट होना बेहद मामूली बात है तो दूसरी ओर इसकी वजह से मंत्री तक को इस्तीफा देना पड़ता है। यहां तो अरबों का घोटाला करने वाले मंत्री भी इस्तीफा देने से पहले सरकार गिराने की धमकी देते हैं और गठबंधन धर्म के नाम पर प्रधानमंत्री खामोश रहते हैं। यह है अंतर। बताता चलूं कि मेरी ट्रेन 4 घंटा 12 मिनट देर से खुली। और जिसे दिल्ली सुबह 11.30 तक पहुंचाना था तो वह शाम 6.30 सात घंटा देर से पहुंची। जय हिंद।

कुछ सवालों के जवाब ही सवाल हैं

कैसे भूल जाता हूँ अपने सवालों को,
बिना जवाब तलाशे,
उन सवालों को जो अक्सर परेशान करते हैं,
फिर सोचता हूँ क्या होगा उन जवाबों को जानकर,
क्या होगा दर-दर कि ठोकर खाकर जीने वालों का,
क्या होगा सर्द रातों में फूटपाथ पर सोने वालों का,
अक्सर इनका जवाब एक सवाल को जन्म देता है,
फिर क्या करूँगा मैं इनका जवाब जानकर,
बहुतेरे सवाल हैं, जिनके जवाब ही सवाल हैं,
कोई दिल से परेशान है, किसी को दवा की दरकार है,
मुझे मेरा प्यार चाहिए तो उनको पीने का पानी,
सबकी समस्या खास है,
इस जहाँ में आम कोई नहीं रहना चाहता,
कहते हैं नाखुशी से अमीर के साथ रहना बेहतर,
लेकिन ग़रीब के साथ ख़ुशी से रहना खतरनाक,
सवालों का यह सिलसिला थमता नज़र नहीं आता,
मुझे मेरे जवाब का अब भी इंतजार है...

राहुल की अटपटी बातें

21 अक्टूबर को गुरुवार था. गुरुवार को मेरा साप्ताहिक अवकाश होता है. इसलिए मैं अपने लौ क्लास में देर तक ठहर सका. नहीं तो बाकी दिनों में क्लास ख़त्म होने के साथ ही ऑफिस के लिए फटाफट निकल जाता था. इस कारण क्लास में मेरी किसी से खास घनिष्ठता नहीं हो पाई. हालाँकि, बातचीत और संबंध सबसे बढ़िया हैं. तो 21 अक्टूबर को हुआ कुछ यूं कि डीयू के नॉर्थ कैम्पस के बुद्धा गार्डन में टहल रहा था. मेरा एक दोस्त ज़बरन मुझे वहां ले गया, उसे योगा करना था. मेरे पास भी वक़्त था सो चला गया. वहां एक अजीब इंसान मुझे नजर आया. वह खुद से बातें कर रहा था. और बहुत गंभीर तरह की बातें. दो तीन मसलों पर उन्होंने  खुद से बातें की. एक यह था, 'लोगों को मैं कह रहा हूँ राहुल (गाँधी) को प्रधानमंत्री बना दो, पर किसी को अक्ल ही नहीं है. उसको कहाँ-कहाँ घुमा रहे हैं लोग, ऊर्जा को बर्बाद करवा रहे हैं उसकी. उसने शादी नहीं की, ताकि देश की सेवा कर सके. वह तो बोलेगा ही कि मुझे प्रधानमंत्री नहीं बनना, लेकिन इनको (बाकी कांग्रेसी) तो समझना चाहिए. देश में राहुल का दर्द समझने वाला कोई नहीं है.' उन अधेड़ उम्र के जनाब की ये बातें सुनकर मुझे हंसी भी आ रही थी, तो कभी गंभीर भी हो जाता था,कहीं उन्हें यह आभास न हो जाये कि मै उन्हें गौर कर रहा हूँ. हालाँकि, इससे उनको कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था. मुझे मेरे मित्र ने बताया था कि वह आपको रोज़ शाम ऐसी बातें करते मिल जायेंगे और उनको इससे फर्क नहीं पड़ता कि कोई उन्हें गौर कर रहा है. दूसरी बात मेरी अपनी कि राहुल जब राजनीति में आये तो मुझे ज़रा भी पसंद नहीं आये. वजह शायद उनका नेहरू-गाँधी खानदान से होना ही था. बाद में, उनकी कुछ सक्रिय राजनीतिक सेवा भी ढोंग लगी. मसलन, कलावती के घर जाना, दलितों के यहाँ खाना, सर पर मिट्टी ढोना. बाद में, लगा कि नहीं कुछ तो बात है. तभी तो राहुल का जादू सर पे बोल रहा है. वह कुछ भी बोलते हैं तो लोग सुनते हैं, खासकर युवा. हालाँकि, उनके विरोधी उनके भाषण देने के अंदाज़ पर सवाल उठाते हैं. हाल में, शरद यादव ने उनको गंगा में फेंकने की बात कही, क्योंकि वह नेहरू खानदान के हैं. शरद यादव का कोई बेटा या बेटी है या नहीं मुझे नहीं पता और है तो वो राजनीति में आना चाहते हैं या नहीं यह भी नहीं पता. अगर आते हैं तो उनका क्या करना चाहिए?     
अब तीसरी बात, राहुल लगता है थोड़े थक गए हैं या फिर उनके बुड्ढे सलाहकार सोच से भी बुड्ढा बनाते जा रहे हैं. नज़ीर है, सुना कि बिहार में चुनावी प्रचार के दौरान मिथिलांचल में उन्होंने कहा, अगर देश का विकास करना है तो पहले गुजरात को बदलना होगा. इस पर लोग भड़क गए. वजह यह कि वह तो पहले विकसित है. बाद में राहुल ने मामले की गंभीरता को देखते हुए खा, मेरी जुबां फिसल गयी. दरअसल मै कहना चाहता था कि बिहार को बदलना होगा. फिर भी लोग नहीं माने. राहुल को जाना पड़ा. इसके अलावा, राहुल भी आजकल आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति करने लगे हैं. हाल में उन्होंने कहा, बिहार के नेताओं ने प्रदेश को गलत रास्ते पर डाल दिया है। यही कारण है कि बिहारी तो चमक रहा है, लेकिन बिहार नहीं। तो इतने सालों से बिहार या अन्य जगहों पर जो दशकों तक उनकी पार्टी की सरकार थी उसने क्या किया. इस पर बात करने की ज़रुरत नहीं. मतलब ये कि राहुल घिसीपिटी बातें न कहें, इस युवा देश को उनसे अलग उम्मीद है.

बिहार में विकास -आधी हकीक़त आधा फ़साना

बिहार में चुनावी सरगर्मियां शबाब पर हैं. तीसरे चरण का चुनाव हो चुका है. बाकी तीन होने हैं. मैं दिल्ली में हूँ और बिहार का बाशिंदा हूँ. मेरे पास पहचान पत्र यानी वोटर आई डी कार्ड भी दिल्ली का ही है, बिहार का नहीं. वहां से 12 वीं करने के बाद दिल्ली आया और तब से आगे की पढ़ाई यहीं की और फ़िलहाल नौकरी के साथ-साथ पढाई जारी है. लगभग 6  साल हो गए दिल्ली आये हुए तो और लगभग इतना ही वक़्त हुआ बिहार में सत्ता परिवर्तन हुए.  राज्य का निवासी और बाहरी दोनों की भूमिका में हूँ मै. नतीजतन जो बदलाव और विकास के की बात हो रही है, उसे समझने में कोई परेशानी या उलझन या दुविधा की स्थिति में कतई नहीं हूँ. मीडिया के मुताबिक, बिहार में सत्ता की लड़ाई का स्वरुप भी बदल गया है. अब कितना बदला है यह 24  नवम्बर को ही पता चलेगा. लेकिन विकास कहाँ तक हुआ इसका ज़रा उदहारण दे दूं, जब मैं पटना से गाँधी सेतु पुल से गुजरता हूँ, तो आज भी उतना ही डर लगता है जितना नीतीश के मुख्यमंत्री बनने से पहले लगता था. यानी यह सेतु ज़र्ज़र हालत में है और कभी भी टीवी चैनलों पर एक दिन की खबर बन सकता है. हादसों की वजह से. अखबारों के पहले पन्ने पर सुर्ख़ियों में . इसमें कोई शक नहीं कि इस बार बिहार चुनाव में विकास की बातें खूब हो रही है. विकास हुए भी हैं. सच है कि नीतीश सरकार के राज में सड़कें बनी हैं, पुल बने हैं लेकिन कुछ मोर्चों पर विफलता काफी हावी रही है. कुछ विधायकों की अकर्मण्यता और कुछ सरकार की उदासीनता भी कमजोर कड़ी साबित हुई है जो नीतीश के हक में नहीं जाती हैं. पिछड़े वर्ग का मतदाता भी नाराज ही दिख रहा है, बीबीसी के मुताबिक, 'हम इस सरकार को बदलना चाहते हैं क्योंकि विकास-उकास सब फोकसबाज़ी है, सड़क-बिजली का बुरा हाल है और हमलोग इस राज में त्राहि-त्राहि कर रहे है.' यह कहना था पिछड़े वर्ग के एक मतदाता का. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक योगेन्द्र यादव विकास अभी दूर की ही कौड़ी है. लेकिन हाँ, आप इसे विकास नहीं तो उसकी आस कह सकते हैं.  बेहतर ढंग से चुनावी मसलों को कवर नहीं कर पाया, अगली बार कोशिश करूँगा फोकस रहने की.

कुछ अजीब ख़बरें अमेरिका से

ई अमेरिका भी अजबे देश है. हम भारत के बारे में यानी अपने देश के बारे में सोचते रहते हैं कि न जाने किस तरह के लोग हैं हम. हमारे बारे में अमेरिका और दोसर देश के लोग का सोचते होंगे. इंहा कोर्ट वगैरह न हो तो सरकार आम आदमी की जान खा जाये. और उस पर जाँच बईठा  दे. जैसे कि अभी आज की ही बात लीजिये सुप्रीम कोर्ट पूछा है कि ई 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जाँच कब तक करवाओगे भइया. आपको हंसी आ रही है भारत में जाँच को लेकर ऐसी बातें पढ़कर. लेकिन ई अमेरिका जो है वहां तो और भयानक भयानक मामला सामने आता है. बात ई है कि उंहा एगो आदमी के मौत के सजा सुनावल गेल. आ एक बात और कि अमेरिका में मौत के सजा खातिर फांसी पर न चढ़ा के जहर वाला इंजेक्शन दिया जाता है. ये पर उ कैदी केस कर दिया अगर इंजेक्शन से हम नहीं मरे तो बहुत दर्द होगा. निचली अदालत उसकी फांसी की सजा रोक दी. बाद में मामला शीर्ष अदालत में गया तो जज ने कहा ये सब क्या बकवासबाजी है, अब मरेगा तो दर्द होगा ही फांसी दीजिये उसको और मामला रफा दफा कीजिये. है न अजीब मामला और अजीब अमेरिकी. लेकिन यह खबर सौ फीसदी सच्ची है.
दूसरी बात यह कि, अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा भारत आ रहे हैं हैं. वह नयी दिल्ली न आकर मुम्बई उतड़ेंगे. मुझे शायद याद नहीं या फिर ऐसा हुआ नहीं कि कोई राष्ट्राध्यक्ष राजनीतिक राजधानी न आकर पहले आर्थिक राजधानी आया हो. यह कोई मसला भी नहीं है. पर ओबामा की अगुआनी कौन करेगा? शायद दिल्ली से पीएम वहां जायेंगे या प्रेसिडेंट जायेंगी. या ये दोनों ओबामा का स्वागत दिल्ली में ही करेंगे.
एक खबर यह है कि बराक ओबामा अब अमेरिका के सबसे प्रभावशाली शख्स नहीं रहे. मशहूर टीवी कलाकार और कॉमेडी सेंट्रल जैसे कार्यक्रम करने वाले जॉन स्टेवार्ट सबसे प्रभावशाली शख्स हैं. ओबामा जो कि राष्ट्रपति बनने से पहले नम्बर एक पर थे अब 21 वें पायदान पर हैं. मेरा फेवरेट एक्टर जॉर्ज क्लूनी 18 वें पर है. सबसे अजीब यह कि अब अमेरिका में ओबामा के 'वी कैन' को बेहद भद्दा मजाक कहा जा रहा है.  

कश्मीर एक अंतहीन समस्या

कश्मीर. तब और अब यानी आजादी के पहले और आज़ादी के बाद  हमेशा से एक अहम मसला रहा है. अब यह मसला नहीं उलझा और सबसे अधिक विवादास्पद मुद्दा है. मुझे लगता है आगे भी रहेगा. इसकी वजह भी है. मेरा मानना है कि इस समस्या का समाधान बहुत पहले ही हो जाता. उसी समय जब यह सामने आया था. लेकिन हमारे नेताओं ने अपने निकम्मेपन से इसे तिल का ताड़ बना दिया. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पास ही यह मौका था कि वह आनेवाली पीढ़ी को इस मुसीबत से बचा सकते थे. हजारों लोगों को कश्मीर के नाम पर मरने से बचा सकते थे. लेकिन यह उनकी अदूरदर्शिता थी या क्या नहीं पता, पर गलती तो कर ही गए. शेख अब्दुल्ला और पंडितजी  कभी  दोस्ती के नाम पर तो कभी लोकतंत्र और स्वयत्ता के नाम पर खेल खेलते रहे. वह इस खेल में माहिर भी थे. इनका दाँव कोई समझ भी नहीं पाया. और हम भी समस्या से जूझ रहे हैं. आसानी से हल होने वाला मसला आज मिसाइल बनकर हमारे सामने है. हम कुछ भी न कर पाने कि हालत में हैं सिवाय लोगों को बेवकूफ बनाने के. कश्मीरी आवाम को तो आर्थिक लालच देकर और भी धोखे में रखने की कोशिश की जा रही है. आर्थिक दिलासा जितना दिया जाता है या इसके जरिये कश्मीरियों को फुसलाने की जितनी कोशिश की जाती है, आग की लपटें उतनी ही तेज़ हो जाती हैं. इसका सबसे नकारात्मक असर यह होता है कि गैर कश्मीरी की सोच कश्मीर विरोधी नहीं कश्मीरी जनता विरोधी हो जाती है. यह सबसे खतरनाक है. मेरा मानना है कि हमें कश्मीर का मुस्तकबिल वहां के लोगों पर छोड़ देना चाहिए. अगर वहां की जनता अपना फैसला खुद करना चाहती है तो हमें क्या आपत्ति होनी चाहिए? हमें भला अपने फैसलोंनु को उन पर क्यों थोपना चाहिए. आज अरुंधती राय ने जो कहा है मै उनसे उन अर्थो में सहमत नहीं हूँ, लेकिन हाँ कुछ हद तक सहमत हूँ. हम अरबों रूपये उस जगह फूंक रहे हैं, जहाँ से हमें परेशानी के अलावा कुछ नहीं मिल रहा है. अगर नयी आर्थिक नीतियों को लागू करने वाले तब के वित्त मंत्री और अब हमारे प्यारे प्रधानमंत्री इस आर्थिक पहलू को नज़रंदाज़ करते हैं तो उन्हें क्या कहा जाये? क्या वह लंगड़े घोड़े पर बेट नहीं लगा रहे? इस पहलू पर सोचने कि ज़रुरत है.  गैर कश्मीरी आवाम के टैक्स को कश्मीरी जनता पर खर्च किया जा रहा है यही कुछ तर्क लगभग साल या डेढ़ साल पहले हिंदुस्तान टाइम्स के वीर सांघवी ने दिया था. अब एक दूसरा तर्क चर्चित समाजसेवी अरुंधती ने दिया है. उधर, कश्मीर के लिए नियुक्त वार्ताकार दिलीप पढगावंकर ने भी इसे सुलझाने के लिए पाकिस्तान को शामिल करने की बात कही है. ये सभी बातें व्यावहारिक हैं, जो भारत सरकार को कतई मंजूर नहीं होगा. मतलब यह कि वह कश्मीर समस्या का समाधान करने को लेकर संजीदा नहीं है. यही बात कश्मीरियों को सालती है और वो कभी पत्थरबाजी तो कभी भारत विरोधी नारे लगते हैं. हमें व्यावहारिक रास्ता अपनाने की ज़रुरत है.

मात खाने का मलाल नहीं

काम का सिलसिला जब काफी वक़्त तक चलता है तो इंसान मशीन बन जाता है. फिर मशीन के अन्दर न तो सोचने की ताकत होती है और न ही महसूस करने की.  आजकल कुछ ऐसा ही है. काम में दोहराव और  बेवजह बेकार की बातों पर बवाल. पिछले कुछ समय से काफी जद्दोजेहद में था. कई बार सोचा आखिर इसकी वजह क्या है? पर, समझ में नहीं आया. इसका जवाब लगभग 2 से ३ महीने बाद मुझे आज मिला. वह भी सवाल के शक्ल में. यानी उलझनों का जवाब एक सवाल है. दरअसल, साल भर से नौकरी कर रहा हूँ. पहले मै अपने काम को पत्रकारिता कहा करता था. वजह यह कि पढ़ाई पत्रकारिता की ही की थी. नतीज़तन, सोचता था जब पढ़ाई पत्रकारिता की करी है मैंने तो जो नौकरी कर रहा हूँ वह भी पत्रकारिता की ही है. बाद में यह भ्रम भी टूट गया. इस वजह से कि क्लास की आदर्शवादी बातों और फील्ड की दुनियावी बातों में काफी फर्क होता है. इस फर्क को सही ढंग से न समझ पाने की वजह से थोड़ा मै मात खा गया. खैर, मुझे मात खाने का मलाल नहीं है. मलाल इस बात का है कि सपने और विश्वास दोनों चकनाचूर हो गए. अभी हाल में इसका एहसास, एक दर्द बन के आया और मै अपनी कुंठा आपके सामने निकाल रहा हूँ. हालाँकि मै मूल बात फिलहाल आप सभी को नहीं बता सकता, क्योंकि इसको लेकर विवादों का सिलसिला जारी है. जब तक यह अपने अंजाम तक न पहुँच जाये, आधा अधूरा कुछ भी कहना मुनासिब नहीं होगा. ऐसा मेरा मानना है. मै सही नहीं भी हो सकता हूँ. पर मेरा यही फैसला  है और सोचने का नजरिया भी. पर, बहुत दुःख होता है और मैं ही अकेला इस कतार में नहीं हूँ. कई हैं जिनका सपना टूटा है. अब एक बात यह भी बता दूं कि मै अपने काम को मैं नौकरी क्यों कहता हूँ? दरअसल तीन से चार महीने पहले एक मुख्यधारा के चैनल के बहुत ही बेहतर पत्रकार से बात हुई. वह भी फेसबुक के जरिये. उनसे जब इस मसले पर छोटी सी चर्चा हुई तो उन्होंने ही कहा. पत्रकारिता तो कब का ख़त्म हो गयी, हम सब नौकरी कर रहे हैं. यदि आप इसमें कुछ बदलाव या क्रांति की तरह कुछ करना चाहते हैं तो यह पूरी तरह आपका फैसला होगा. तभी से मै समझ गया...हम पत्रकारिता नहीं नौकरी कर रहे हैं चेहरों पर नकाब लगा कर.

केशव की तान पर कलमाडी का खेल

पांच दिनों बाद लिख रहा हूँ. राष्ट्रमंडल खेलों के बारे में ही लिख रहा हूँ. उद्घाटन समारोह बेहद शानदार रहा. एक दिन पहले तक जो दुनिया खेलगांव को गन्दा और बकवास करार दे रही थी, उसके अखबारों और चैनलों में वाहवाही का आलम था. कल तक जो ऑस्ट्रेलिया समेत कई देशों के दल प्रमुख आलोचना करते अघाते नहीं थे, वही आज तैयारियों और इंतजामों से मुत्तासिर हैं. या तो वो पहले झूठे थे या अब. लेकिन इन सब बातों को भी छोड़ दें तो उदघाटन समारोह वाकई भव्य और अनूठा रहा. न इसमें बॉलीवुड का तड़का था और न ही कोई तमाशा. इससे कुछ लोगों का यह गुमान टूटा कि बगैर बॉलीवुड के कोई समारोह सफल नहीं हो सकता. भारत की मूल संस्कृति ने जो रंग जमाया उसकी जगह कोई नहीं ले सकता था. इस समारोह में था तो बस भारतीय संस्कृति और विविधता में एकता का सबसे बड़ा सबूत. दुनिया देख कर दंग और हैरान थी. शायद अब तक जो भारतीय मीडिया खेलों में गंदे धंधे का पर्दाफाश कर रहा था, उसने भी थम कर सोचा और भारत की तहजीब पर बट्टा नहीं लगने दिया. उद्घाटन समारोह की बात कहूं तो केशव की तान ने अभिभूत कर दिया. कलमाडी के सारे कुकर्मों पर पर्दा डाल दिया. उसकी मुस्कान को देख कर ही सभी के चहरे खिल गए होंगे. महज सात साल की उम्र में कोई बच्चा इतनी मस्ती में तबला बजाये यह तो अद्भुत है. मेरी भतीजी ने मुझे फ़ोन किया और कहा...'चाचू आपने उस छोटे बच्चे को देखा, हालाँकि मेरे भतीजी भी सात साल की ही है, फिर भी उसे वह भी बच्चा ही कह रही थी., उसने कहा, उसका नाम केशव है और वह कितना बढ़िया से मुस्कुरा रहा था. ' केशव उस छोटे से समय के प्रदर्शन में सबों का चहेता बन चुका था. उसका नाम सभी के लबों पर था. खेलों के गुनहगार की खोज फिर खेलों के बाद की जायेगी. अभी तो वक़्त है भारतीयता दिखाने का. कल जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम गया. एथलेटिक्स का मुकाबला था. भारत की और से चुनिन्दा खिलाड़ी ही इन स्पर्धाओं में शिरकत कर रहे थे. जाने माने चेहरों में सौ गुना चार मीटर दौड़ में मंजीत कौर और मंदीप कौर  सेमीफाइनल में थीं. इनमें से मंदीप कौर अब फाइनल में खेलेंगी. सौरभ विज भी शौट पुट में थे. यानी गिनती के भारतीय खिलाड़ी. बावजूद इसके लोगों की तादाद कम नहीं थी.  हैरत तो इस बात से हुई और गर्व भी कि जब ऑस्ट्रलियन महिला एथलीट ने सौ मीटर दौर में गोल्ड जीती तो पूरे मैदान के चक्कर लगाये. उस वक़्त लोगों के तालियों की आवाज़ से पूरा स्टेडियम गूँज उठा. यानी सच्ची भारतीयता की झलक सभी सामने थी. यह देखकर मुझे उतना ही मज़ा आया, जितना सभी को आना चाहिए. मुझे लगा यूं ही कोई बात कहने से उसे परख लेना बेहतर होता है. आखिर वही सच्चाई होती है. भारतीयता पर जो लोग सवाल उठाते हैं उन्हें भी ये चीज़ें देख लेनी चाहिए बजाय कोरा विश्लेषण करने के.

असभ्यता का अभिशाप है आरक्षण

आरक्षण असभ्य समाज की पहचान है. हम आरक्षण किसे देते हैं? इस पर सबका जवाब होगा उसे जो समाज में विकास की होड़ में बहुत ही पीछे छूट गया है. यानी समाज में एक तबका, एक बड़ा वर्ग समझदार है, पढ़ा लिखा है, उसे अच्छे-गलत की समझ भी है. वह खुद को सिविल यानी सभ्य समझता है. फिर उसी में से कुछ खड़े होते हैं और जो विकास की अंधी दौड़ में पीछे  छूट गए, उन्हें दौड़ाने लायक न सही तो चलने लायक बनाने की कोशिश करते है. उनकी मंशा पर मै सवाल नहीं उठा सकता. भला मैं कौन होता हूँ? हाँ, कम से कम मैं अपनी बात तो रख ही सकता हूँ. अब करते हैं सीधी बात नो बकवास. 
जैसा कि मैंने कहा, सभ्य समाज के लोग अपनी सभ्यता का सबूत देते हुए, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और शारीरिक तौर पे पिछड़े लोगों को आगे बढ़ने, समाज के बाकी लोगों के साथ कदम से कदम और कन्धा से कन्धा मिलाकर चलने का अतिरिक्त अवसर मुहैया करते हैं. इसका मतलब यह है कि हमने जो खुद का विकास किया है वह उनके सर पर लात रख कर यानी उनके अधिकारों को कुचलते हुए ही आगे बढे हैं. नहीं तो, जितना संसाधान हमारे हिस्से में था उससे ज्यादा  हमारे पास कभी नहीं होता. आज आरक्षण की बात कौन लोग कर रहें हैं. इसे समझने के लिए हमें अपने समाज के दो चेहरों को समझना पड़ेगा. एक वर्ग वह है, जो पूरी तरह पूंजीवादी है, उसे इस तामझाम से कुछ नहीं लेना देना. दूसरा वर्ग वह है जो पहले वाले वर्ग में जाने के लिए जी तोड़ मेहनत और जद्दोजेहद कर रहा है. यही वह तबका है जो हो हल्ला और हंगामा कर रहा है.लेकिन उन्हें पता है कि पहले वाले वर्ग में शामिल होने के लिए उन्हें सबको कुचलना होगा. जो कि अब उस हद तक मुमकिन नहीं है.  उन्हें पूंजीवादी भी बनना है और गुड बॉय भी कहलाना है. वह जोखिम नहीं लेना चाहता.  सबसे बड़ी सच्चाई यह है कि अगर हमारे समाज में कोई तरक्की करता है तो वह बगैर किसी के अधिकारों का शोषण किये, गरीबो का खून चूसे, या आदिवासियों की ज़मीन हड़पे ऐसा नहीं कर सकता. यदि हम गरीबों के अधिकारों का शोषण न करें, बेसहारों और मजलूमों को शिक्षा से वंचित न करें, आदिवासियों की ज़मीन न हड्पें तो उन्हें आरक्षण देने की नौबत ही नहीं आयेगी. वह भी सभी की  तरह समाज के बराबर के सदस्य होंगे. लेकिन ऐसा होगा नहीं. हम पहले अपनी सोचते हैं. घर में तमाम अय्यासी का साजो-सामान इकठ्ठा करके दूसरों के संसाधनों ,उनकी कमजोरी का फायदा उठा कर अपने घर सजाते हैं. फिर उनके लिए लड़ते हैं. बेचारे को क्या पता उसका हितैषी ही उसका कातिल  है.  इस तरह देखा जाये तो हम आरक्षण की बात करते हैं. हमें उनके लिए आरक्षण नहीं, बल्कि उनकी अपनी ही चीज़ों को लौटाना है, जो हमने उनसे छीन लिए हैं. एक समाज जो अपने भाइयों का शोषण करके, उसे उसके ही अधिकारों से वंचित करके लोभ, लालच, छल, प्रपंच से अपना विकास करता है, उसके सर पर लात रखकर अपना विकास करता है फिर उसके लिए आरक्षण की बात करता है, यह एक असभ्य समाज की पहचान नहीं तो और क्या है. लेकिन, अफ़सोस वाही आज सबसे बड़ा दोस्त है जिसने दुश्मनी के बीज बोये हैं.
हो सकता है मैं इस लेख के बाद आरक्षणविरोधी या फिर अविकासशील मानसिकता का समझा जाऊं. लेकिन जोखिम तो लेना ही पड़ता है. और मैं यही कर रहा हूँ. 

अब असर नहीं होता

दिल्ली की सडकों पर गाड़ियाँ बहुत हैं. राष्ट्रमंडल खेलों के मद्देनज़र काफी काम भी हुआ है. निर्माण से लेकर साज-सज्जा तक. अब तो ब्लू लाइन बसों को भी हटा दिया गया है. वह भी बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था के. आम लोग किस कदर परेशान होंगे इसकी फिक्र किसी को नहीं. दिल्ली की सड़कों से ब्लू लाइन बसों को हटाने की खबर अख़बारों में भी छपी और  चैनलों ने भी मामले को उठाया. लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात. मैं जहाँ काम करता हूँ, उस अखबार में भी यह खबर हम लोगों ने पहले पन्ने पर छापी थी. लेकिन इसका असर कुछ नहीं हुआ. हमारा अखबार भारत का सबसे बड़ा अखबार समूह है. पर इन बातों का क्या, सब कुछ बेअसर. हम लाख कुत्तों की तरह भूंकते रहें, हमारी आवाज़ गुम हो जाती है. कभी-कभी लगता है फिर यह स्यापा किसलिए. हम भी काम करते हैं और बस काम समझ कर करते जाते हैं. बहुत तमन्ना थी की पत्रकार बनूँ. लेकिन अब लगता है...खैर, दिल्ली की समस्याओं की बात करें तो यह सब कोई जनता है कि राष्ट्रमंडल की तैयारियों से दिक्कतें बढ़ी ही हैं. मैं अपनी बात करूँ तो जब से ब्लू लाइन बसों को बंद किया गया है, मेरा दो से तीन  घंटे का वक़्त बसों  के इंतज़ार में बर्बाद हो जाता है. अब मै समय बर्बाद करने के अलावा कुछ कर नहीं सकता. मेरे पास न तो अपनी गाडी है और न ही अभी लेने की हालत में हूँ. मैं अपनी समस्या यानी समय की बर्बादी का ज़िम्मेदार अपने पत्रकार भाइयों को ही कसूरवार ठहरता हूँ. उन्होंने अपने पेशे को प्रोफेशनल बनाने के बजाय बेकार का कबाड़ बना दिया. वैसे कबाड़ बेकार ही होता है. लेकिन बेकार इसलिए कि अनुप्रास का बेहतरीन संयोग बन जाये. हमारे पत्रकार बन्धु भी तो यही कर रहे हैं. अनुप्रासों की छठा में हेडिंग और तमाम बात कहने की कला पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं. खैर, इसे भी छोड़ें. अपनी मूल बात पर लौटें तो, पहले यदि कोई बात अख़बारों में छपती थी या फिर चैनलों पर चलता था तो हडकंप मच जाता था. सत्ता का इन्द्रासन हिल जाता और बदलाव की बयार न सहीं पर चीज़े दुरुस्त हो जाती थीं. अब तो आठ घंटे जी तोड़ मेहनत करते हैं और महीनवें दिन अगर तनख्वाह आ जाये तो उसका इंतज़ार करते हैं. कहते हैं, बदलाव प्रकृति का नियम है. जों होता है वह अच्छे के लिए ही होता है. लेकिन आजकल जों बदलाव हो रहा है और लोग हम इसे अच्छा मान रहें हैं तो मैं कहता हूँ हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है. बेहतर की आस में टकटकी लगाये बैठा हूँ. मेरी तरह कई आस में बैठे है अपंग. सिर्फ सोचते रहते है. दूसरों से बदलाव का अगुआ बनाने की करते हैं.

मैं सोच रहा हूँ

आजकल बहुत परेशान हूँ,
पता नहीं किन बातों से हैरान हूँ,
कभी-कभी ऐसा भी होता है,
हमें हमारी परेशानियाँ पता नहीं होती,
ऐसे में हम सोचते हैं,
आखिर मर्ज़ क्या है ये,
मैं भी सिर्फ सोच ही रहा हूँ,
सोचने का सिलसिला बदस्तूर जारी है,
यही सोच कर ज़रा हैरान हूँ.
मैं क्या चाहता हूँ?
मेरी मंजिल क्या है?
सोच कर हैरान हूँ,
शिकायतों से सबकुछ हासिल नहीं होता,
सोचने से कुछ नहीं होता,
कुछ करना पड़ेगा,
फ़िलहाल मैं सोच रहा हूँ.
जब सोचना बंद करूँगा,
तो कुछ ज़रूर करूँगा.
फ़िलहाल मैं सोच रहा हूँ,
और क्या सोच रहा हूँ,
ये मत पूछए, क्योंकि
आजकल हर कोई सोच रहा है,
अंतर इतना है कुछ को पता है,
मुझे अभी पता करना है,
कि मै क्या सोच रहा हूँ?

गिल साहब फोटो खिंचाना छोड़िए, ज़रा कॉमनवेल्थ की सुध लीजिए

भारत में हर कोई अपनी मर्जी का मालिक है. यह बात हमारे मत्री साहब से लेकर आम जनता तक पर लागू होती है. इस हिसाब से चलें तो एम एस गिल खेलों के खुदा हैं. वह हमारे कहल मत्री हैं. उनकी ज़िम्मेदारी है खेलों को बढ़ावा देना. खेलों की सभ्यता कायम करना है. लेकिन भारतीय खेलों के खुदा ने जों हरक़त मंगलवार को की है, उसे कभी नहीं भूला जा सकता है. आप सभी इस बात से वाकिफ होंगे ही कि हमारे खेलों के खुदा ने क्या किया है. सुशील कुमार मास्को से कुश्ती का गोल्ड मेडल जीत कर लौटे थे. सुशील के चाहने वालों के अलावा मीडिया भी उनका स्वागत में आँखें बिछाए था. साथ में खेल मंत्री गिल भी आ पहुंचे सुशील को बढ़ायी देने. यहाँ तक तो बात ठीक थी, लेकिन खुद सुशील के साथ फोटो खिंचाने के चक्कर में गिल ने सुशील के गुरु सतपाल का अपमान कर दिया. शायद उन्हें इस बात का एहसास नहीं था कि सतपाल से ज्यादा अहमियत वह सुशील के लिए नहीं रखते हैं. आज सतपाल की वजह से ही सुशील शीर्ष पर हैं. उन्हें भी पता था कि खेल मत्री ने उनके गुरु के साथ ठीक नहीं किया.उन्होंने यह बात कही भी. पर खेल मंत्री के भेजे में यह बात शायद घुसी नहीं. शायद खेल मत्री या दूसरे नेताओं को खुद पहले सभ्यता सिखाने की ज़रुरत है. उन्हें ज्यादा ज़रुरत है. मुझे एक वाकया याद आ रहा है. बात चैम्पियंस ट्रॉफी की है. ऑस्ट्रेलिया की टीम विजेता बनी थी. उस वक़्त शरद पवार बीसीसीआई के कर्ता-धर्ता थे. उस समय कंगारू कप्तान रिकी पोंटिंग अपने बाकी साथियों के साथ कप लेकर जश्न माना रहे थे. बीच में पवार आ गए.  उन्हें धक्का देते हुए पोंटिंग ने हटाया कि आप बीच से हट जाइये. इस पर भारत में हल्ला मच गया, पोंटिंग बदतमीज़ है. मीडिया भी यही बता रहा था. इसकी प्रासंगिकता यह है कि यहाँ सुशील के मामले बिलकुल ऐसा न हुआ हो. पर जों भी हुआ बहुत बुरा हुआ. खेल मंत्री को खुद को समझाना चाहिए, वह बार-बार अख़बारों के अगले पन्ने पर चाप सकते हैं. चैनलों में दिख सकते हैं. पर इन खिलाडियों के पास बहुत काम मौका होता है और उनके गुरु को तो और भी कम. एक तो वह रिटायर नौकरशाह हैं. उसके बाद मनमोहन सिंह की कृपा से चोर दरवाजे से राजनीति में घुसे हैं. आपको बता दें कि उन पर पहले भारत में चुनाव करवाने का ज़िम्मा था मतलब यह कि वह निर्वाचन आयुक्त थे. अब समझ सकते हैं कि वह कांग्रेस की सरकार में मंत्री कैसे बने. बस मैं यही कहना चाहता हूँ कि गिल साहब फोटो खिचाना छोडिये ज़रा राष्ट्रमंडल का हालचाल लीजिये. वैसे भी काफी किरकिरी हो चुकी है. भ्रष्ट्राचार कि तो बात ही नहीं कर रहा, उसका हिसाब तो भाई लोग खेलों के बाद करेंगे. दिल्ली में वैसे भी बारिश रोज़ हो रही है, देखिये कहीं किसी स्टेडियम की छत तो नहीं टपक रही है.

सल्लू से चाहिए माफीनामा


भारत का सबसे तेज़ चैनल देख रहा था. भाई लोग कह रहे थे कि सलमान खान को देश से माफ़ी मंगनी चाहिए. मुझे समझ में नहीं आया कि सल्लू भाई साहब ने अब क्या कर दिया. थोड़ी देर तक मैंने अपनी निगाहें चैनल पर टिकाई रखी. ऐसा मुमकिन है, क्योंकि अब तक तक सल्लू भाई के इतिहास को देखते हुए इससे बिलकुल इनकार नहीं किया जा सकता है. वैसे भी चैनल वाले तभी चिल्लाते हैं जब बात उनपर आती है. या फिर उनके पास कोई ढंग की खबर न हो. खबरों का अकाल होने पर हमारे मीडिया बंधु कुछ भी करने पर उतारू हो जाते हैं. खैर, तो सबसे तेज़ चैनल सल्लू भाई पर देश से माफी मांगने के लिए दबाव बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाह रहे थे.  मुझे तो इसमे से साजिश की बू आ रही है. मुझे क्या लगता है कि शाहरुख़ खान कि फिल्म काफी दिनों से आयी नहीं. और इधर सलमान की दबंगई थोड़ी बढ़ गयी है, तो सरे हैरान परेशान नज़र आ रहे हैं. उन से परेशान लोगों ने खबरिया भाइयों को खूब खिलाया पिलाया, ताकि सल्लू की दबंगई कम की जाये. खैर, ये मेरी काल्पनिक सोच है. पर यह बात अब ता समझ में नहीं आ रही थी कि सल्लू से माफ़ी क्यों मंगवाई जा रही थी. थोड़ी देर बाद खुलासा हुआ कि सलमान खान ने मुंबई पर आतंकी हमले के बारे में एक पाकिस्तानी चैनल को साक्षात्कार दिया, वाही विवाद कि वजह है. दरअसल चैनल वाले भाई बता रहे थे कि सल्लू ने कहा कि मुंबई पर हमला देश पर नहीं, भारत के संभ्रांत तबके पर हमला था. नतीज़तन नेताओं और और संभ्रांत लोगो ने एक ऐसी मुहिम शुरू कि जो निर्णायक हो. अब निर्णायक कितना साबित हुआ, यह तो सभी जानते हैं. पर मुझे क्या लगता है कि बगैर आप जनता की भागीदारी के कोई भी जंग अपने अंजाम तक नहीं पहुँच सकता है. पर सल्लू का विवाद मसाला बन गया. कल तक जो यमुना को संकट बता रहे थे, अब सलमान के बयान को बकवास बताते हुए उनसे माफी मांगने को कह रहे थे. भाई लोग कह रहे थे कि यह अब तक का देश का सबसे बड़ा अपमान है. शायद उन्हें यह नहीं पता कि उनका कुछ बोलना भी अपमान ही था. एक बात और कि, इस देश में चैनल वाले भाइयों को लगता है कि जो कुछ भी हो रहा है, वह सब कुछ विशाल और बड़ा ही है. हालाँकि, सबसे बड़ा और पहला का टैग लाइन एक अन्य भारतीय चैनल का है. लगता है तेज़ चैनल, टीआरपी में उससे पिछड़ने के बाद उसके पीछे पड़ गया है. अब फिर मुद्दे पे आते हैं. पहले मुझे लगा कि तेज़ चैनल का सलमान के खिलाफ मुहिम कोई कॉमेडी प्रोग्राम है. इस चैनल पर ज्यादा वक़्त यही सब चलता रहता है. पर बाद में कुछ और माज़रा था. मुझे लगा भाई सलमान तो मुन्नी डार्लिंग के लिए बदनाम था, अब उसे क्या हुआ...फिर समझा ये तो सलमान का माफीनामा चाहते थे. वह भी ऐसे मसले पर जिस पर सलमान ने शायद सौ फीसदी सही बात कही थी. उन्होंने कहा था कि इस देश में पहले भी आतंके हमले हो चुके थे, हजारों बेगुनाहों ने अपनी जान गवाईं, पर सरकार कुछ करने के नाम पर खानापूर्ति करती रही. इस बार हमला इलीट पर था तो सब जगे. यह हमारी सुरक्षा की नाकामी थे.

भारत कथा

सोचता हूं, जिस देश में एकदम से इतने साधु हों, उस जनता की अंदरूनी हालत क्या है? वह क्यों भला चमत्कार पर इतनी मुग्ध है? वह जो गैस सिलिंडरों, राशन के लिए लाइन लगाती है और राशन नहीं मिलता है, वह लाइन छोड़कर साधु की शरण में चली जाती है। मुझे लगता है 63 सालों में देश की जनता की मानसिकता है ऐसी हो गई है कि वह जादू देखो और ताली पीटो। बाकी हम पर छोड़ो। भारत-पाक युद्ध इसी तरह का जादू था। मुंबई पर जो हमला हुआ, इस मामले में जादू थोड़ा बड़े स्केल पर दिखाया गया और जा रहा है। जनता अभी तक ताली पीट रही है। उधर, राशन की दुकान की लाइन बढ़ती जा रही है। देशभक्तों से मैं क्षमा चाहता हूं, पर मुझे लगता है शिमला या आगरा शिखर वार्ता टाइप की एक और बैठक होगी। हाल में हमारे विदेशमंत्री पाक गए थे, गरिया के भेज दिए गए, अब हम उनके विदेशमंत्री कुरैशी को भारत बुला रहे हैं, लेकिन कुरैशी ने भांप लिया कि मेरी भी बेइज्जती भारत बुलाकर होगी, इसलिए उन्होंने भारत आने से पहले शर्त रख दी। अब भारत पसोपेश में है कि क्या करे? कैसे बेइज्जती और भारतीय जनता के लिए चमत्कार की तरकीब निकाली जाए।
हर तरफ भारत का ही नाक कटने को तैयार है। हम खामोश हैं। देश परेशान है। लोग मस्त हैं। राष्ट्र हैरान है। राष्ट्रमंडल खेलों को लेकर जो देशभक्त तमाम तैयारियां करवा रहे हैं, उन्ही पर भारत के चीरहरण का आरोप लग रहा है। यह आरोप से बढ़कर है। भारत में आजकल यह होने लगा है कि कोई भी अवसर पैसा कमाने का जरिया समझा जाने लगा है। यह नई प्रवृत्ति चंद लोगों को बहुत भाने लगा है। हालांकि, अधिकांश लोग भी उसकी ओर जाने की सोचने लगा हैं। उन्हें तकलीफ इस बात की है कि ज़िंदगी भर ईमानदारी और आदर्श का लबादा ओढ़ने से कुछ नहीं, बस गरीबी और घुटन की मौत मिलने वाली है। नतीजतन वह भी अपना रास्ता बदलने लगे हैं या बदलने की सोच रहे हैं। एक तरह आज हम सभी संक्रमण की दौर से गुजर रहे हैं। यह संक्रमण कहां तक ले जाता है, इसा कुछ अता-पता नहीं हैं। मंजिल लोगों को मालूम नहीं, पर रास्ते तैयार हैं। लोग चल रहे हैं, चलते जा रहे हैं। जाना कहां है, मालूम नहीं। ऐसे में अंजाम की परवाह कोई करने को भी तैयार नहीं। कोई रुकना नहीं चाहता। उसे पिछड़ जाने का भय है।
यह लेख कुछ दिन पहले का है, पर पता नहीं मुझे लगा कि आपसे मुझे साझा करना चाहिए.

पाकिस्तान और फिक्सिंग की फांस

क्रिकेट में मैच फिक्सिंग कोई नयी बात नहीं है. पहले भी यह होता रहा है. शुरुआती दौर में जहाँ यह नैतिकता का लबादा ओढ़े हुए था. धीरे-धीरे इसकी शक्लो शुरात बदलती गयी. पकिस्तान के खिलाडियों के फिक्सिंग में फंसने की भी कहानी भी कोई नयी नहीं है. साथ ही, इसके आरोपों से मुकरने का रिश्ता भी पुराना है. अब तीन पाकिस्तानी खिलाड़ियों- सलमान बट्ट, मोहम्मद आसिफ़ और मोहम्मद आमिर के ख़िलाफ़ आरोप लगे थे कि सट्टेबाज़ी के संबंध में उन्होंने तय समय पर लॉर्ड्स टेस्ट में तीन नो बॉल फेंके. अब इस मामले की पुलिस और आईसीसी जांच कर रही है. बकौल बीबीसी के रिपोर्टर अब्दुर्रशीद शकूर पाकिस्तानी क्रिकेट में पहली बार सट्टेबाज़ी या नाजायज़ तरीक़े से पैसा बनाने की बात पाकिस्तानी तेज़ गेंदबाज़ सरफ़राज़ नवाज़ की ज़ुबानी सुनने को आई थी.उन्होंने 1979-80 में भारत का दौरा करने वाली पाकिस्तानी टीम के कप्तान आसिफ़ इक़बाल की तरफ़ उंगली उठाई थी कि भारतीय कप्तान के साथ उन्होंने जो टॉस किया था उनके अनुसार वह टॉस संदिग्ध था.इसके बाद ताज़ा मामला बहुत कुछ कहता है. लेकिन सबसे हैरत की बात पकिस्तान का रवैया है.पाकिस्तान हर बात पर डिनायल मोड पर रहता है उसकी यही सबसे बड़ी समस्या है. भारत में मुम्बई पर हमला मामले में भी उसने यही रवैया अपनाया और अब भी वह यही कर रहा है.
लंदन में पाकिस्तान के उच्चायुक्त वाजिद शम्शुल हसन ने बिना किसी जांच के तीनों क्रिकेटरों को निर्दोष करार दिया और रहमान मलिक ने साजिश का अंदेशा जताया। पर यह भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि 1983-84 में पाकिस्तानी टीम में शामिल क़ासिम उमर भी आरोप लगे. 1995 में सलीम मलिक पर मैच फ़िक्सिंग का इल्ज़ाम लगा. एलन बोर्डर ने 1993 में पूर्व पाकिस्तानी खिलाड़ी मुश्ताक़ मोहम्मद पर इसी तरह का इल्ज़ाम लगाया था.कहानी बस पाकिस्तानी क्रिकेट तक ही सीमित नहीं है. सटोरियों और क्रिकटरों का नापाक रिश्ता काफी पुराना रहा है.शायद वह साल २०००-०१ का वक़्त था, जब हैंसी क्रोनिए ने मैच फिक्स करने के लिए सटोरियों से रिश्वत लेने की बात क़बूल की थी.आईसीसी ने भ्रष्टाचार से निबटने के लिए एक विशेष इकाई बनाई है, लेकिन 'स्प्रेड बेटिंग' के कारण इस समस्या पर काबू कर पाना मुश्किल हो रहा है. कुल मिलकर यह कहा जा सकता है कि मैच फिक्सिंग में दामन तो कमोबेश सभी देशों के खिलाडियों का हुआ है. पर सबसे अधिक पाकिस्तान का. इस वजह से उस पर सबसे अधिक नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह डिनायल मोड से निकल कर डूइंग मोड में आये और अपने पाक दामन को नापाक होने से बचाए.

छात्रसंघ चुनाव की सड़ांध

चुनावी राजनीति में जीत ही सब कुछ है. हारने वालों के लिए यहाँ कोई जगह नहीं है. चाहे चुनाव लोकसभा का हो, राज्यों का हो या फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ का ही क्यों न हो? हर जगह जीत ही पूजी जाती है हारने वालों को सांत्वना भी कोई नहीं देता, मिलता है तो बस चमचों का साथ. यह तो बिलकुल जाहिर हो चूका है की छत्र संघ का चुनाव किस तरह अहम होता जा रहा है. लोकतान्त्रिक सुधर के लिहाज से नहीं, बल्कि देश की राजनीति में जगह बनाने के लिए. रास्ता यहीं से निकलता है. रास्ता यहीं से निकलता है, नतीजतन इसके साफ़ और स्वच्छ होने की उम्मीद लगाई जाती है. पर, ऐसा होता कभी नहीं है. आज देश की दो बड़ी पार्टियों में शीर्ष के नेताओं में शुमार होने वाले भी इन्हीं यूनिवर्सिटी से निकले हैं. चाहे अरुण जेटली हो या अजय माकन. माकन आज मंत्री हैं तो जेटली राज्यसभा में विपक्ष के नेता. जहाँ उनके बगैर सरकार कोई भी बिल पास नहीं करा सकती है. मतलब साफ़ है, छात्र संघ से निकले नेता आज देश का भविष्य तय कर रहे हैं. हालाँकि, कैसी तस्वीर वो बना रहे हैं, यह अलग मसला है. एक सवाल जो बार-बार परेशां करता है, वह यह कि जब छात्र नेता से जनता के नेता ये लोग बन जाते हैं, तो किस तरह से इनकी सोच में बदलाव आ जाता है. इनकी चुनावी रणनीति कैसे बदल जाती है. किस तरह विकास या जनता से जुड़े मुद्दों को दफ़न कर जाति, मजहब, क्षेत्र और गोत्र के नाम पर गंदी खेल खेलने लगते है. यहाँ सवाल उठ सकता है कि छात्र जीवन में तो इस तरह कि गंदी राजनीति नहीं होती, फिर अचानक से यह बदलाव कैसे आ जाता है. अगर मै कहूं कि उनके नेचर में बदलाव कभी आता ही नहीं, तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? मुमकिन है, आपमें कई मेरी बातों से सहमत हो सकते हैं तो कइयों को कड़ा ऐतराज़ भी होगा. पर, आपको बता दूं यह सौ फीसदी सच है. आज नेताओं की जो पौध आ रही है, वह अपने शुरुआत से ही भ्रष्ट है. छात्र संघ चुनाव में अगर आपकी दिलचस्पी है तो ज़रा इसे करीब से देखें. दिल्ली विश्विद्यालय इसका बेहतरीन उदहारण है. यहाँ का छात्र संघ चुनाव बड़े ही व्यापक तौर पर होता है. लगभग ७० से अधिक कॉलेज और डूसू का अलग. भले ही छात्र नेता आपसे खुलेआम न पूछे कि आप किस राज्य से हैं या फिर आपकी जाति क्या है? लेकिन यह तय है कि वो आपसे ऐसे सवाल करेंगे ज़रूर. और इसका मकसद क्या होगा आप समझ सकते है. यदि आप अपनी जानकारी देते है तो अपना अजेंडा बताना आपको शुरू कर देते हैं. वो यह भी आपको बताएगा कि उसके कई सारे दोस्त आपके ही राज्य का निवासी है. कहानी लंबी है, बाकी अगले अंक में, तब तक डूसू के नतीजे भी आ जायेंगे...

पांच बरस बीत गए

ख़त्म होती जा रही है संवेदनशीलता,
दूरियां क्या रिश्तों को भी
कमजोर कर देती है,
पांच बरस रहा अपनों से दूर,
खूब घूम-घूम और विघ्नों को चूम,
जब दिक्कत थी, तो दुनिया भी थी,
जब सपने थे, तो अपने भी थे,
पांच बरस कैसे बीते, सोचने पर पछताता हूँ,
पर बीती बातों को सोचने से क्या होता है,
आगे बढ़ने से नहीं होगा हासिल कुछ,
रिश्ते तो बिखर गए न,
जिनमे यकीं बाकी हैं,
वो भी दरकने लगे हैं.
बीत गए पांच बरस बिरह में,
टूट गयी आस अब मिलन की,
न दर्द रहा न उसका अहसास,
बाकी है तो बस यादों की चंद घरियाँ,
जिनमें अब भी गुज़रती है,
मेरी सबसे अच्छी शाम.
पांच बरस बीत गए,
बिना किसी को भूले,
यादों को सजोने में थोडा वक़्त लगता है,
उनमें भी अच्छी और बुरी यादें भी,
बुरी यादों का भी भाव बढ़ने लगा है,
उसे याद कर रोने वाले,
और छुप कर पीने वाले,
गले लगाने लगे हैं.

चलो ज़ख्म को ज़रा याद करें

कुछ दिनों से कई बातें मन में चल रही हैं. काफी उहापोह का माहौल बना हुआ है. एक साथ कई बातों के घुल मिल जाने से सर फटा जा रहा है. बात कहाँ से शुरू करूं, समझ में नहीं आ रहा है. दरअसल आजकल एक अलग तरह का जुनून स्वर है सर पर. वह आखिर है क्या मुझे भी समझ नहीं आ रहा है. पिछले कुछ दिनों से अपने अस्तित्व को लेकर एक अजीब सी उलझन में फंसा हुआ हूँ. यह उलझन कहाँ तक ले जाती है, पता नहीं. पर मुझे मालूम है या तो कुछ अच्छा होगा नहीं तो बुरा. जब तक हिम्मत है खुद से लड़ने का ज़ज्बा है तब तक कुछ बुरा होने की उम्मीद नहीं है. जिस दिन मेरे और मेरे मन के बीच यह जंग ख़त्म होगी, तब तक उम्मीद बाकी है. यह जंग कब ख़त्म होगी इसका इंतज़ार मुझे भी बड़ी बेसब्री से है. मै बस कर्ता की तरह कर्म किये जा रहा हूँ. क्यों किये जा रहा हूँ, पता नहीं. बस आजकल तो यही है, कि जीना है तो कुछ करना होगा. जीने के लिए काम के अलावा कुछ निजी वक़्त भी निकाल ले रहा हूँ. शुरू वक़्त खूब होता था, पर करना क्या है, इस पर उलझता रहता था. जो करना चाहता था वह नहीं कर पाया, तो आज वह सब करना चाहता हूँ, जो जी में आता है. इसके लिए कभी हंसी का पत्र बनना पड़ता है तो कभी, जोश में बहुत म्हणत करने का मन करता है, ताकि कोई मेरी कमजोरी पर हँसे नहीं. हाँ, यह गनीमत है कि अभी तक मैंने हार नहीं मानी है. जिस हार मान लूँगा, उस दिन मेरा वक़्त ख़त्म हो जायेगा. इसलिए जब तक ज़ज्बा है, तब तक जीत कि आस है. क्योंकि हर हार के बाद यही सोचता हूँ कि यदि मै सफल नहीं हो पाया तो, यह मेरी नहीं मेरे द्वारा चुने गए रास्ते की असफलता थी. हार मेरी नहीं मेरे तरकीबों की होती है.  आजकल फिर किसी मकसद को पूरा करने मेंलगा हूँ. सफल होता हूँ या नहीं, इसका डर नहीं है. बस थोड़ा भटक जाने का खतरा है. पहले से ही दलदल में फंसा हूँ, एक और ज़ख्म और खेल ख़त्म तो नहीं, लेकिन अंजाम का पता नहीं.....

DUSU's ELECTION: MORTIFYING OR MOTIVATING

It's election time. Ravish kumar is reporting from bihar and me from university of delhi. Just kidding, but facts are very true. so, don't take it lightly. bihar is more than two months away for it's poll and university of delhi is just two weeks. Ravish kumar has started his work on it, but still i have to. IN Bihar, incumbent government chief Nitish kumar is shaking hand with whom, those have muscle and money power. like Anant singh, Anand Mohan. same alphabet, perhaps nitish thinks alphabets are going to change his fate. It's a wellkonown saying or proverb which is as follows power corrupts politician. Here nitish is not corrupt, but allegations are made on him, which is true or not i can't say, not because of my nature, but situation. ok... much things have been discussed about it. Here in university students leaders will ask you which state do you belong, the after they started to tell you many of mine friends are from there. if you have any problem just come to me. first time it's look cool and nice, but these are the things which is going on everyday. sometimes what does happen, withinn two to three hours same candidate comes to you, shakes his hand and ask your name, about your permanent living place, then start to tell his purpose, that why did he come to you. He says, he needs your help as he is the candidate of for president, vp, js and so on...But, you know it makes me fraustrate and my fraustration irritate me a lot. What i think, which could be the suggestion for them, is that they shoud not mortifying the sutdends by their routine and cumbersome behaviour, they should motivate in stead of mortify. I think it's enough for now, later we'll have a lot for discussion as campaign is getting full fledeg coverrage by local newspaper and channels. So, I'm wraping up my this little chit-chat with you, so that i could proceed with my other work.

अच्छा मानसून या सफल कॉमनवेल्थ

दिल्ली पर इन्द्र भगवान कुछ ज्यादा ही मेहरबान हैं. वैसे भी सुना था, दिल्ली कि सर्दी बहुत तरसाती और तड़पाती है. पर इस बार यह काम बारिश कर रही है. महंगाई और कॉमनवेल्थ गेम्स में भ्रष्टाचार की गर्मी से तपती दिल्ली के लिए बारिश रहत लेकर आयी है. हो सकता है यह बारिश खेलों के लिए खलनायक बने. बहुत सारा काम बाकी है. बारिश इसमें अडंगा डाल सकती  नहीं, बल्कि डाल रही है. इससे पहले दिल्ली में इतनी बारिश नहीं देखी थी. अबकी देखकर लगता है, भगवान् आम आदमी के साथ हैं और इन खेलों के खलनायक का मुंह काला करना चाहते हैं. पिछले दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया में एमजे अकबर का लेख पढ़ा. उसमें उन्होंने दिल्ली वालों से पूछा कि आप क्या चाहते हैं? एक अच्छा मानसून या सफल कॉमनवेल्थ खेल, जों भ्रष्ट्राचार की बुनियाद पर खड़ा है. पिछले ५-७ दिनों में दिल्लीन में बेहतरीन बारिश हुयी इससे लगता है कि दिल्ली वालों ने अपना फैसला सुना दिया है. उन्हें क्या चाहिए अब यह सवाल सामने न ही आये तो अच्छा है. सुरेश कलमाडी के नेतृत्व वाली राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति पर कई सवाल उठ रहे हैं. वैसे भी बिना आग के कहीं धुआं नहीं उठता है. मतलब साफ़ है. आयोजन समिति ने राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के लिए कंस्लटेंसी यानी सलाहकार सेवाओं के लिए टेंडर खोले और आख़िरकार ये टेंडर उस कंपनी को मिले जिसने अपनी सेवाओं के लिए दूसरों से कहीं ज़्यादा पैसे माँगे थे. इसका अर्थ ये निकाला जा सकता है कि जहाँ पर आयोजन समिति करोड़ों रुपए ख़र्च होने से बचा सकती थी. लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. अब क्यों नहीं किया इसे समझने में ज्यादा परेशानी नहीं होनी चाहिए.
कल हम आज़ादी कि चौसठ्वीं सालगिरह मनाएंगे. पर, आज भी हम उन्हीं समस्यायों से जूझ रहे हैं, जों ४० साल पहले हमारे सामने थे. मसलन गरीबी, बेकारी, भ्रष्ट्राचार, घोटाला, महंगाई कई चीज़ें हैं. बेशक हमने तरक्की की है. लेकिन इसकी कीमत भी हम ही चुका रहे हैं. यह तरक्की भी एकतरफा है.  

स्वतंत्रता दिवस- चाहिए साधु और मंत्री

१५ अगस्त जल्द आने वाला है. राष्ट्रमंडल खेल भी. ऐसे में मुझे मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई याद आ रहे हैं. वो हमेशा इन अवसरों पर उदास रहते थे.वजह नीचे है..इसे उनकी रचना के आधार पर आपके सामने लेकर हाज़िर हूँ...
हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को मैं सोचता हूं कि साल भर में कितना बढ़े हम। एकबार फिर 2009 के बाद 15 अगस्त 2010 आ गया। यह स्वतंत्रता दिवस है। पर, स्व और तंत्र की हालत क्या है, यह मत पूछिए। स्व कोई रहा नहीं, सारे के सारे पर में बदल रहे हैं। तंत्र नाम की कोई चीज रह नहीं गई। पहले गणतंत्र हुआ करता था। वह भी गनतंत्र हो गया। इस पूरे साल मैंने दो चीजें देखीं। दो तरह के लगो बढ़े- साधु और मंत्री। सोचता था आम आदमी के जीवन में इससे तरक्की आएगी। उसकी समस्याएं कम होंगी, पर नहीं। बढ़े तो साधु और मंत्री। मेरा अंदाजा था, इससे आम आदमी की मुश्किलें कम होंगी-मगर नहीं। बढ़े तो ये ही दोनों। दोनों हमजोली हो गए। कभी-कभी सोचता हूं कि क्या साधु और मंत्री गरीबी हटाओ प्रोग्राम के तहत ही आ रहे हैं। क्या इसमें कोई योजना है। रोज अखबार उठाकर देखिए तो सामने आएगा, वैद्य रहमानी के पास आइए, सारे कष्ट दूर भगाइए। बीवी से लड़ाई हो, प्रेमिका से बन आई हो, या प्रेमिका को करना हो वश में या फिर दोस्त बन गया हो दुश्मन, ये विज्ञापन अटे पड़े होते हैं। हमारे पास आइए समस्या का समाधान पाइए। साधु हर तरह की समस्याओ को दूर कर रहा है। क्यों न फिर भारत के शीर्ष पद पर बैठा दिया जाए. आम आदमी की समस्याएं आसानी से खत्म हो जाएंगी। इधर, सुना भी है कि अगले लोकसभा चुनाव में साधु सबकी समस्या दूर करेंगे। वह खुद चुनावी दंगल में कूदेंगे। सारे बाबा लोग एक से एक तरकीब सुना रहे हैं। एक बाबा के आश्रम में बच्चों की मौत लगातार होती रही है। सुना उनके आश्रम में काला जादू होता है। बाबा रिद्धि-सिद्धि करते हैं। शायद जादू-टोना इसलिए कि देश को सभी समस्याओं से मुक्ति दिला सकें। एक बाबा योग के जरिए राजनीति में घुसपैठ करना चाहते हैं। वह लोगों को तरह-तरह के योग सिखाते हैं, ताकि वे स्वस्थ रहें, कभी लौकी का जूस तो कभी करैला का। लौकी से कोई मर जाता है तो वह बचाव में सामने आ बैठते हैं। एक बाबा क आश्रम में प्रसाद बटने के दौरान भगदड़ मचती है, सैंकड़ों काल के गाल में समा जाते हैं. बाबा कहते हैं यह ऊपर की कृपा है, उसने अपने भक्तों को बुला लिया, तो मेरा क्या कसूर।
जारी...

कोई वजह तो हो

वो सचमुच बेहद खूबसूरत है। बिल्कुल गंगा की तरह निर्मल और उनमुक्त। जी चाहता है उसे कभी खुद से दूर न जाने दूं। उसकी आंखों में मदहोशी और जुल्फों में काली घटा। बोलती है तो मानो मोती गिर रहे हों। चलती है तो मन का मयूर नाचने लगता है। उसका मुस्कुराना, दिल पर कहर बनकर गिरता है। जब वो झुकी नजरों से देखती है तो दिल मचल उठता है। उससे बातें करने का तो जी बहुत चाहता है, पर बेबसी सामने जाती है। कुछ न कह पाने की बेबसी। इंसान जब जन्म लेता है तो उसमें जो तमाम खुबियां या खामियां आती हैं, वह उसके परिवेश और जिस तरह से उसका पालन पोषण होता है, उसी आधार पर आती है। ज़िदगी के हर मोड़ पर मैं असफल रहा हूं। यदि आप अपनी मर्जी से ज़िदंगी नहीं जी रहे हैं तो गुलामी की ज़िदगी जी रहे हैं। जन्म लेने के बाद से ही हमे गुलाम बना दिया जाता है। पहचान के नाम हमारा नामाकरण किया जाता है। इंसान बहुत ही स्वार्थी है। वह हर चीज के लिए जस्टीफिकेशन ढूंढ लेता है। यदि वह गलत भी करता है तो तरह-तरह के तर्को से खुद को समझाता है कि नहीं तुमने जो किया है वह सही है। तुमने सबसे अलग काम किया। तुमने वह काम किया है जो कोई नहीं कर सकता। ऐसी बहुत सी बातें या तर्क हैं जो गलत करने पर हम खुद सही साबित करने के लिए देते हैं। कितना झूठा दिलासा अपने दिल को हम देते हैं। दुनिया की तहजीब ही यही है। यहां कोई भी आपके दर्द या आपकी बातों को समझना नहीं चाहता। समझे भी क्यों, सभी के पास अपनी-अपनी समस्या है। मुझे समस्या है कि मैं एक गांव से दिल्ली में आया। मेरी पढ़ाई-लिखाई बेहद ही लो-प्रोफाइल स्कूल,जिसे हम सब गांव का स्कूल कहते हैं में हुई। उसके बाद यहां यानी दिल्ली आया तो हिंदी में ग्रैजुएशन किया। साला इस देश की मातृभाषा हिंदी है, इसकी कद्र कोई नहीं करता। अंग्रेज चले गे, लिकन अभी भी हमें गुलाम बनाए हुए हैं। हम अपने आप को महान समझते हैं। भारत महान देश। पर सच मानिए यहां महनता के लायक कुछ भी नहीं है। आजादी की 63वीं वर्षगांठ हम मनाने जा रहे हैं, लेकिन हम बात क्या कर रहे हैं, खेलों में घोटाले की। यहां एसे हरामी नेता पड़े हैं, जो हर इवेंट को अपनी झोली भरने का मौका मानते हैं। माफ करना दोस्तों कहां से शुरू किया और कहां पहुंच गया। पर, क्या करूं कभी किसी को मुकम्मल जहां, जो नहीं मिलता। मुझे मेरी ज़िंदगी चाहिए, लेकिन मेरी ज़िंदगी कहीं और कैद है। उसे मेरे होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। अब मैं क्या करूं। इस बात की तकलीफ तो बहुत है, लेकिन क्या कर सकता हूं। हां, वो ज़िंदगी भी मांगे तो कुर्बान करने को तैयार हूं। लेकिन इसकी भी किसी को कहां फिक्र है?

‘वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई’ यानी मौत गरीबों के मसीहा की

‘वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई’ बहुत दिनों बाद 70 के दशक की याद आई। जब फिल्मों का नायक गरीबी में बचपन गुजारने के बाद जवानी अमीरी में मौत और जीवन की खतरनाक खेल की बीच गुजारता है। जीत मौत की होती है। अफसोस हर किसी को होता है। जब इंसान अपराध की दुनिया छोड़ अच्छी राह बनाने की सोचता है, मौत ही उसे गले लगाती है। इसकी तुलना मैं अमिताभ बच्चन के फिल्मों से कतई नहीं करूंगा। अजय देवगन का एक अलग अंदाज है। उनमें अमिताभ जैसी बात न हो, शाहरूख जैसी फैन फॉलोइंड भले ही न हो, लेकिन आज के नायकों में वह बिल्कुल जुदा नजर आते हैं। रील लाइफ को रियल एहसास कराने का माद्दा उनमें ही दखता है। एक मोड़ पर वह इन सबसे बेहतर नजर आते हैं। ‘वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई’ यही साबित करती है। लोग कह रहे हैं, यह फिल्म मशहूर (?) डॉन हाजी मस्तान, अजय देवगन का चरित्र (मस्तान) और इमरान हाशमी का दाउद इब्राहिम से प्रेरित है। मस्तान को मशहूर इसलिए कहा क्योंकि जब गरीबी छाई हो और पेट अन्न के दानों के बिना चिपटा जा रहा हो, दो रोटी देने वाला ही खुदा होता है। आजादी की वर्षगांठ एकबार फिर हम इस महीने की 15 तारीख को मनाने जा रहे हैं। यह 63वीं वर्षगांठ होगी यानी हमें आजाद हुए तिरेसठ बरस बीत गए, लेकिन आज भी बहुसंख्यक आबादी दो वक्त की रोटी की खातिर जान गंवा रहा है। कुछ नक्सली के नाम पर ढेर किए जा रहे हैं तो कुछ किसी और के नाम पर। सच्चाई तो वाकई यही है कि सन् 47 के पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे और उसके बाद गरीबी के। पहले हमें दूसरों ने लूटा अब अपने नोच- खसोट रहे हैं। इस फिल्म को देखकर हम अपनी गरीबी के मसीहा को पाते हैं। सुल्तान मिर्जा का किरदार यदि मस्तान से प्रभावित है तो वाकई वह उन लोगों के लिए खुदा था, जिसकी उसने मदद की। सरकार के खिलाफ उसने बेशक काम किए, क्योंकि सरकार जिस काम की इजाजत नहीं देती, वह वहीं काम करता था। वह काम वह कभी नहीं करता था, जिसकी इजाजत जमीर नहीं देता। इसकी तर्ज पर कहूं तो सरकार हर उस काम को नहीं करती या करने देती, जो उसके खिलाफ और जनता के हित में हो। इंसान का जमीर सरकार से बड़ी चीज है। सरकार गोली तो दे सकती है, पर रोटी नहीं। नक्सलियों को मार तो सकती है, लेकिन नक्सली बनने की वजह को नहीं मार सकती। लिखना तो फिल्म के बारे में ही चाहता था, लेकिन फिल्म दिल के इतना छू गई कि क्या कहूं मन का गुबार सामने आ गया। ‘वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई’ के नायक अजय देवगन हकीकत में नायक नजर आने लगते हैं। वह हर उस शख्स की आंखों में उम्मीदों नजर आते हैं, जिसकी जिंदगी गरीबी में बीती है। इसे एहसास करने का दावा वही कर सकता है, जिसने गरीबी को जिया है। फिल्म में जब तक अजय देवगन जीवित रहते हैं, गरीबों का मसीहा, जिंदा रहता है। पर, उनके मरते ही, गरीब फिर से मनहूस जीवन को मजबूर हो जाते हैं। कड़वी सच्चाई यह है कि असल जिंदगी का फलसफा भी यही है। यहां गरीबों का परवाह करने वाला, उसके हक की लड़ाई करने वाला ज्यादा वक्त तक जिंदा नहीं रहता या रहने नहीं दिया जाता। यानी अमीरी ही हमेशा जिंदा रहती है तो मौत गरीबों के लिए। मेरे जेहन में यह सवाल बार-बार उठ रहा है, आखिर मौत हमेशा बदलते वक्त की क्यों होती है। बदलाव शायद सिर्फ संपन्न और सक्षम लोगों के लिए ही है।

शर्मिंदा हूं ऐसी मर्दानगी पर

पुरुषों को जब भी मौका मिलता है, सबसे पहले वह अपनी मर्दानगी दिखाना शुरू कर देता है। उसकी मर्दानगी यह होती है शोषण। यह बात सभी पर लागू नहीं होती है, पर पिछले कुछ वक्त में इस तरह के मामले काफी बढ़े हैं। मामले कम उम्र की लड़कियों के शोषण के, उनके साथ गलत संबंध बनाने। उन्हें बहला-फुसलाकर, डरा-धमकाकर वह कुकृत्य को अंजाम देने से बाज नहीं आते। हालिया, हैदराबाद के पार्कवुड स्कूल का है। स्कूल के प्रिंसिपल पर बेहद ही संगीन आरोप लगाए गए हैं। उसने ग्यारहवीं क्लास की एक छात्रा के साथ बलात्कार किए। एक नहीं कई बार। यह कोई पहली बार नहीं है, जब इस तरह के मामले सामने आए हैं। वह स्कूल के मामले। शिक्षकों ने जब अपनी छात्रा के साथ ही इस तरह की अमानवीय हरकत की हो। 22 जुलाई को हैदराबाद के स्कूल के प्रिसिंपल को ग्यारहवीं की छात्रा के साथ बलात्कार करने आरोप में गिरफ्तार किया गया। छात्रा के गर्भवती होने के बाद यह मामला सामने आया। मुंबई में 1 जुलाई को एक टीचर को 13 साल की छात्रा के यौन-शोषण के आरोप में पकड़ा गया। फरवरी में दिल्ली में ही 24 साल के एक शख्स ने दो साल की मासूम को पहले किडनैप किया, फिर उसके बलात्कार किया। दिसंबर 2009 में मुंबई के स्कूल प्रिंसिपल को पांचवीं क्लास की छात्रा का यौन शोषण के आरोप में गिरफ्तार किया गया। 7 नवंबर 2009 को दिल्ली के एक म्यूजिक टीचर को कोर्ट ने साल भर कैद की सजा सुनाई। उस पर पांच साल पहले नाबालिग बच्ची के शोषण का आरोप था। जनवरी 2006 में चेंबुर के 35 वर्षीय शख्स को महज 10 महीने की बच्ची के साथ कुकृत्य के आरोप में गिरफ्तार किया गया। ऐसे एक नहीं कई मामले हैं, गिनाने से समस्या का समाधान नहीं होगा। बस दिल में एक टीस उठी खबर को पढ़कर रुह कांप गया। दिल से तो गाली निकलती है, उससे ज्यादा कुछ न कर पाने की बेबसी झलकती है। मन कहता है बूते की बात होती है तो ऐसे लोगों से जीने का अधिकार मैं छीन लेता है। शर्म आती है ऐसी मर्दानगी और पुरुषार्थ पर। हालांकि, मेरा मानना है कि इस तरह की कलंकित हरकतों को करने वाले मानव नहीं, दानव नहीं हैं। चंद कुंठित लोगों की वजह से मानवता कलंकित हो रही है। गुरू जैसा मर्यादित और पाक ओहदा नापाक हो रहा है। कहीं न कहीं हमारा समाज, हमारी तहजीब खोखली साबित हो रही है। ऐसा इसलिए कि हमारा कानून कागजों पर बुलंद, सशक्त, मजबूत और शक्तिशाली है। असलियत में इसकी औकात रास्ते के पत्थर की तरह है जिसे कोई भी ठोकर मारकर आगे बढ़ता जाता है। इससे निजात पाने का जो मुझे रास्ता नजर आता है, वह यह कि हम अपने नैतिक मूल्यों को भूलते जा रहे हैं, हमारे आचरण में आधुनिकता के नाम पर बेवजह का बदलाव आ रहा है।

योग्यता बढ़ाने की वजह

अपनी योग्यता बढ़ाने के लिए मैंने इसबार लॉ में दाखिला लिया है। दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस फैकल्टी ऑफ लॉ। अगर सब टीवी पर दिखाए जाने वाले शरद जोशी कहानियों का पता- लापतागंज वाले स्टाइल में कहूं तो बिजी इन डूइंग लॉ लाइक बिजी पांडे। तीन साल का कोर्स है। ज्यादा नहीं है, बस तीन ही तो है। हां, जब हमारे देश की सरकारों को आम आदमी का विकास करने में पांच साल भी कम लगते हैं, तो मुझे तो ये तीन साल और भी कम लगने चाहिए। हां, भई देखते नहीं हैं, जब-जब चुनाव का मौसम आता है, सरकारें लोक कल्याणकारी योजनाओं की बौछार कर देती हैं। उनका दावा होता है कि जो भी राज्य में इस दौरान काम हुआ वह उनकी ही देन है। हालांकि कुछ नहीं हुआ होता है। पर गिनाने को तो वह आजाद हैं। चूंकि हुआ नहीं होता है तो उनको लगता है वक्त कम पड़ गया। जनता के बीच जाते हैं और कहते हैं इस बार उन सभी कामों को करना है। यानी पांच साल कम है, इसलिए जनता उन्हें फिर पांच साल दे। जनता देती भी है। फिर भी कुछ नहीं होता, वह एकबार फिर अधूरे कामों का रोना लेकर जनता की अदालत में पांच साल के भीख मांगने हाजिर हो जाते हं। यानी निष्कर्ष यही निकला कि नेताओं के पास वक्त की कमी होती है। हालांकि, मुझे लॉ कितने साल में पूरा करना है इस पर मैं बाद में विचार करूंगा। पर, मुझे इसके लिए किसी के पास जाने और न ही कुछ कहने की जरूरत है। मेरा कुछ न करना ही मेरे लॉ के तीन साल के कोर्स की अवधि को बढ़ाने के लिए काफी है। खैर, इसकों भी छोड़ते हैं। दरअसल, मैं लॉ कैंपस से इन दो चार दिनों की कुछ सुनहरी बातें आपसे साझा करना चाहता था। पर, उसे अगली बार आपके साथ साझा करूंगा। अभी थोड़ा डोज ज्यादा हो गया। लिखने की शुरुआत उन्हीं बातों से की थी। पर, अचानक से विचारों की तन्मयता टूटी। विचार दूसरी जगह गोते लगाने लगे। इस तरह जाना था जापान और पहुंच गए चीन की तरह मेरा यह लेख बन गया। एक बात और कहते चलूं, ताकि अगली बार वही बात कहूं जो आप से इस बार कहना चाहता था। बात यह है इस बार जब घर गया तो कुछ अच्छे पढ़े-लिखे और ऊंचे ओहदेदार लोगों के घर शादी में जाना हुआ। वहां लड़के के भाव की चर्चा ज्यादा थी यानी दहेज की। हाल में मेरे चचेरे भाई की नौकरी एयरफोर्स में हुई है। इससे उसका रेट भी बढ़ गया है। पहले लोग उसकी शादी के लिए अगुअई के लिए आते तो हजार में ही दाम लगाकर निकल लेते थे। अब मेरे सरकारी नौकरीशुदा भाई की कीमत लाखों में लगाई जाने लगी है। घर वाले भी खुश हैं। इस बीच मुझे शर्मिंदगी महसूस हो रही थी। मैं एक अखबार में काम करता हूं, सब एडिटर हूं। घर जाता हूं तो रुआब झाड़ने के लिए खुद को पत्रकार बतलाता हूं। हां तो मैं अपने मामा के लड़के की शादी में गया था। वहां मामाजी ने जब अपने समधि से परिचय कराया, पत्रकार के तौर पर। मामाजी के समधि ने कहा, हां वो तो ठीक है पर तनख्वाह कम है। उस वक्त तो कसम से दिल को बहुत बुरा लगा। वजह यह कि सैलरी तो सभी को हमेश कम ही लगती है। मुझे भी लगती है। पर अभी मैंने छह महीने पहले कैरियर की शुरुआत की है तो भाई लोग ठीक-ठाक दे देते हैं। पर उनकी बातों से लगा, पत्रकार लोगों का मार्केट डाउन है। उनकी कीमत बाजार में कम ही लगती है। सो मैंने अपनी योग्यता बढ़ाने की ठानी पहले तो सोचा आईएएस बनूंगा, सीधे करोड़ों में अपने आप को बेचूंगा। पर, यहां आकर शुरुआत लॉ से की है। इसलिए मैंने शुरू में लिखा भी है, योग्यता बढ़ाने के लिए मैंने लॉ में दाखिला ले लिया है। मकसद आपको बता दिया। इसकी एक सच्चाई बाद में, जो सबसे अहम है। 

ख़बरों को बेचिए, पर ज़रा संभल के...

मीडिया में अनुप्रास युग बढ़-चढ़ कर बोल रहा है। अनुप्रास के आलोचक भी इसके कायल हैं। पहले इसका इस्तेमाल करते हैं, फिर उसे गरियाते हैं। एक तरह से जिस ताली में खाओ उसी थाली में छेद करने की परंपरा भी तेजी से बढ़ रही है। कुछ तो यहां तक कहते हैं कि इसका कोई विकल्प नहीं है। हम सड़क छाप उपन्यासों के नामों के खबरों में धड़ल्ले इस्तेमाल करते जा रहे हैं। फिर मेरे भाई इस तरह का ड्रामा क्यों? यही हालत पत्रकारिता की है. पत्रकाल लोग अपनी पूरी प्रतिभा दिखा रहे हैं। लेकिन यह प्रतिभा उनके पेशे की पवित्रता को बचाने के लिए नहीं, बल्कि अपनी साख बनाने के लिए होती है। सही भी है, लोकतंत्र में हरकिसी को अपनी तरह से जीने का हक है। पर, लोग वही रास्ता क्यों अख्तियार कर रहे हैं, जो सबसे आसान और विध्वंसक है। समस्या तो और भी गंभीर बनती जा रही है, क्योंकि इनके बारे में इतना लिखा जा चुका है कि अब सब बेअसर ही रहता है। तो क्या विकल्प हमारे पास बेहद ही कम बचे हैं या फिर वह भी नहीं बचा है। आज देखें तो तमाम तथाकथित बड़े पत्रकार बड़े-बड़े ओहदों पर विराजमान हैं। जब वे हमारी उम्र के थे या जब उन्होंने पत्रकारिता शुरू की थी तो उनकी बातें भी बड़ी-बड़ी हुआ करती थीं। हम उनकी लेखों को पढ़कर उन्हें सम्मान की नजर से देखते थे। पत्रकारिता में गलत चीजों के घुसपैठ पर चर्चा तो उस वक्त भी हुआ करती थी। लेकिन यह चर्चा पत्रकार के सत्ता से समझौता करने की होती थी। आपातकाल इसका उदाहरण है। लेकिन अब तो हालत और भी खतरनाक है। सत्ता से समझौता करने वालो का विरोध करने वाले भी चुप रहने लगे हैं। यदि वो बोलते भी हैं तो उनकी आवाज में वह बात नहीं जिसका असर हो। अब यह है कि हर कोई दलाल नजर आ रहा है। पहले खबरों को लेकर अखबारों और टीवी चैनलों में ठन जाती थी। चैनल वालो की खिंचाई में अखबार वाले भाई हमेशा लगे रहते। पर, अब उनको क्या हुआ?  वक्त के साथ समझौता किया। वक्त नहीं अपने ईमान, पाठक और पाक पेशे से समझौता किया। एक तरह से लोग समझौतावादी हो गए। खबरों को छोड़ खुद इसे गढ़ने लगे हैं। मनगढ़ंत खबरें आज कुछ और चलती हैं तो कल ठीक उसके उलट वाली खबर चलती हैं। वह भी उसी चैनल या अखबार में। हाल में, सचिन तेंदुलकर के बायोग्राफी का उदाहरण। रुछ दिनों तक खुलेआम चलता रहा कि इसमें सचिन का खून है। सब भाइयों ने चलाया, क्या अखबार वाले क्या चैनल वाले। चंद दिनों बाद सचिन सामने आए और कहा इसमें मेरा कोई खून वगैरह नहीं है। कहने का मतलब कि भाई जिसकी खबर चला रहे हो, उससे कम से कम कंफर्म तो कर लो। यह भी जहमत उठाने की किसी ने कोशिश तक नहीं की। यह हो गया है खबर का स्तर उसकी सच्चाई से किसी को कोई लेना-देना नहीं है। बस खबरों को बेचो...

गऊ होता है उंगलीबाज

आजकल एक विचित्र तरह का प्रचलन बन-चल पड़ा है। विरोध के नाम पर विरोध करना। मुद्दों के आधार पर नहीं, बल्कि वह कुछ भी कहे, मुझे उसकी हर बात काटनी है। मसला चाहे कोई भी हो, उसकी हर बात में  उंगली करनी है। कुछ दिनों पहले कहीं ब्लॉग पर ही पढ़ा था, इस तरह के लोगों को उंगलीबाज कहते हैं। ब्लॉगर भाई साहब इस तरह के प्राणी का बहुत ही मनोरम वर्णन किया था। काफी दिनों बाद मुझे उनकी याद आई और उससे अधिक उनके उंगलीबाज। इस तरह के लोग बात-बात में मिनमेख निकालकार उसका फलूदा निकालते हैं। इस तरह के लोगों से बचने की बहुत ज्यादा जरूरत होती है। वजह यह कि भाई लोग बड़े ही शातिर और तिलिस्मी प्रतिभा से भरे होते हैं। इनकी विद्वता का लोहा हर कोई मानता है, ज्ञान का नगारा चौतरफा सुनाई पड़ता है। हालांकि, आम लोग इन्हें सुपिरियरिटी कॉम्प्लेक्स से ग्रसित भी बताते हैं। इनकी इस बीमारी का स्तर उनके कुंठित होने के पैमाने से मापा जाता है। यह जितना अधिक होगा, उंगलीबाज की हरकतें भी उतनी ज्यादा बढ़ती जाती है। वह बेतरतीब सा अपनी ही दुनिया में मगन रहता है। लेकिन इनको झेलना उतना ही मुश्किल होता है, जितना मरखाह गाय को खूंटे से बांधना। मतलब समझ ही गए होंगे। वैसे गाय सबसे मासूम जीव है, ऐसा लोग कहते हैं, तो मैं भी मान लेता हूं। उसके जैसा सीधा-साधा और भोला-भाला जीव कोई नहीं। पर, यह भई लोग कहते हैं कि सीधा-साधा और भोला-भाला अपने रंग में रंगता है तो वह सांड़ से भी खतरनाक बन जाता है। इसलिए उसे लोग मरखाह गाय भी कह देते हैं। दूसरी बात यह कि अक्सर कामकाजी महिलाओं को भी गऊ यानी गाय मान लिया जाता है, क्योंकि वह सारा काम बिना कुछ पूछे-रुठे या फिर बिना विरोध के चुपचाप कर लेती है। यहां तक कि अपनी गलती न होने पर पति का मार भी खा लेती है। हालांकि, कुछ कहानी इसके ठीक उलट भी होती है। पर, ऐसा कम ही होता है। अपवाद की तरह। लेकिन, उंगलीबाज के बारे में कोई अपवाद काम नहीं करता है। वह आपको  इतना परेशान करता है कि आप अक्सर तनाव में रहने लगते हैं। उसकी संगति से आप इन चीजों से लाभान्वित होते हैं। मसलन ब्लडप्रेशर, तनाव, क्रोध, खीझ, चिड़चिड़ापन आदि। आत्ममुग्ध इस महामानव की एक खासियत यह भी होती है कि वह आपको बार-बार एहसास दिलाता रहता है कि आर कितने निकम्मे हैं और वह काबिल। उसे अपनी मार्केटिंग भी अच्छी तरह से करने आती है। वह जहां जाता है या तो सबकी आंखों का तारा बन जाता है या आंखों की किरकिरी। सबसे जरूरी सूचना यह कि इन्हें पहचानना जितना आसान है, उतना मुश्किल भी। बस अनुभवी और पारखी नजर वाले ही इस तरह के विभूतियों को पहचान पाने में सक्षम होते हैं। इसलिए, बंधु आपको इस तरह के चरित्र वाले कुछ अद्भुत प्राणी मिलें तो क्या करना है यह आप खुद तय कीजिए....क्योंकि वक्त के साथ-साथ ये अपना चाल-चिरत्र-चेहरा और चिंतन बदलते रहते हैं।