मज़बूत पीएम इन वेटिंग बनाम कमज़ोर एक्टिव पीएम



पामुलपति वेंकट नरसिम्हा राव के बाद मनमोहन सिंह ऐसे दूसरे प्रधानमंत्री हैं, जो नेहरू-गांधी परिवार के न होते हुए भी प्रधानमंत्री पद के पाँच साल पूरे किए। लेकिन मनमोहन सिंह यूपीए या कहें तो कांग्रेस को दोबारा सत्ता में लेकर आए। इस हिसाब से इनकी हैसियत और महत्ता भी बढ जाती है। इस बार का चुनाव अगर देखा जाए तो मज़बूत पीएम इन वेटिंग और कमजोर एक्टीव पीएम के बीच खुल कर लड़ा गया। और कमजोर मनमोहन सिंह तभी तक कमजोर बने रहे जबतक कि वो संशय में थे। एक बार जब तय हुआ यूपीए के दावेदार मनमोहन ही रहेंगे तो बाज़ी ऐसी पलटी कि पीएम इन वेटिंग को अपनी ज़ुबान यह कह कर बंद करनी पड़ी कि वो पीएम के बयानों से काफी आहत हुए हैं। जबकि ये सिलसिला पीएम इन वेटिंग की तरफ से ही शुरू किया गया था। लेकिन एक बात सोचने वाली है कि आख़िर वो कौन सी वजहें रहीं जो एनडीए यूपीए के जबड़े से जीत को छीन कर लाने का दावा करते-करते उसने हार को छीन लिया। अगर देखा जाए तो इन चुनावों से जो अहम बात निकल कर आती है, वो ये कि इस बार कांग्रेस अपने संदेश को या कहें तो वह आम आदमी तक अपनी बात पहुँचाने में काफी हद तक कामयाब रही है। जो पहले उसकी बहुत बड़ी कमजोड़ी हुआ करती थी। दूसरी बात ये कि राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी योजना, राइट-टू- इंफॉर्मेशन, जैसी योजनाओं ने भी उसकी जीत में काफी मदद पहुँचाई है। उदाहरण के तौर पर जिन जगहों पर नरेगा स्कीम लागू की गई, वहाँ कांग्रेस का प्रदर्शन काफी बेहतर रहा है। साथ ही राहुल का यूथ फैक्टर भी काफी कारगर रहा है। इन दोनों का परिणाम रहा कि कांग्रेस यूपी में दोबारा अपने पैरों पर खड़ा हो पाई है। वहीं आंध्र-प्रदेश में ज़बरदस्त परफॉर्मेंस तो तमिलनाडु में डीएमके गठबंधन के साथ बेहतर तालमेल ने भी काफी हम भूमिका निभाया। दिल्ली, उत्तराखंड में क्लीन स्वीप और हरियाणा में भी लगभग क्लीन स्वीप तो पंजाब, केरल में भी इसने अपने विरोधियों के सूपड़े साफ कर दिए। वेस्ट बंगाल में टीएम के साथ वाम मोर्चा का सफाया किया, १९८४ के बाद ये वाम मोर्चा के लिए सबसे बड़ा झटका है। तो बीजेपी का नकारात्मक कैंपेन सबसे अधिक नुकसानदायक रहा। आडवाणी की अपनी छवि, वो जिन्ना वाले बयान के समय से ही वाजपेयी बनने की कोशिश करते रहे लेकिन उनकी पार्टी उन्हें बनने नहीं दिया। बीच-बीच में कई प्रधानमंत्रियों का उभर आना भी एक समस्या बना रहा। वहीं इस पूरे टर्म में एनडीए में बिखराव बना रहा और साथ ही वो एक कमज़ोर विपक्ष भी साबित हुआ। हालांकि बिखराव तो यूपीए में भी हुआ, लेकिन कांग्रेस ने अपने बलबूते पर जो कर दिखाया वो करिश्मा बीजेपी नहीं कर पाई। इसके अलावा बीजेपी में कोई मास फेस का न होना भी उसके लिए घाटे का सौदा रहा। इन सबके अलावा जो बात सामने आई वह ये कि छोटे दलों का सफाया हो गया जिससे ब्लैकमेलिंग की राजनीति से काफी हद तक छुटकारा मिलेगा। एक-एक और दो एमपी वाले दल जो मंत्री बनते और सरकार को ब्लैकमेल करते इस से निजात मिलना भी एक अहम जनादेश रहा वोटरों का। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस बार सही मायनों में एक स्टेबल सरकार देखने को मिलेगी लेकिन साथ ही ग़रीबी इकतालीस फीसदी से कितना कम होती है, बीस रूपये से भी कम पर हररोज़ गुजारा करने वाले सतहत्तर प्रतिशत से कितना कम होता है ये भी देखने वाली बात होगी और साथ ही सौ में से दस पैसे से भी कम आम लोगों तक पहुँचता है ये हक़ीक़त बताने वाले और यही कह कर लोगों से वोट माँगने वाले राहुल गांधी अब उन लोगों के लिए क्या करते हैं, ये भी देखने वाली बात होगी? मतलब यूपीए ले जनता से जनादेश माँगा, लोगों ने अपना विश्वास उनमें जताया है अब वक्त है उन विश्वासों पर खड़ा उतरने का। जो अक्सर राजनीतिक दल इन मामलों में जनता से दगाबाजी कर जाते हैं।.........

आरंभ है प्रचंड


तो लोकसभा चुनाव के पाँचों चरण कुल मिलाकर सही तरीके संपन्न हो ही गया। कहीं नक्सली हमला हुआ, कहीं दूसरी वजहों से भी हिंसा हुए। कुछ प्रदेश चुनाव के समय में हिंसा के पर्याय बन जाते हैं, वहाँ इस बार चौंकाने वाले परिणाम देखने को मिला। मतलब काफी बदलाव नज़र आया। जो कि निश्चित तौर पर बदलाव का सूचक है। मसलन बिहार इसका जीता जागता उदाहरण है, जहाँ संगीनें के साये में मतदान होते थे। आप बूथ पर वोट देने जाते और आपको पता चलता था कि आपका तो मत पर चुका है, ऐसे प्रदेश में अगर अब लोग बुलेट का जवाब बैलेट से दे रहे हैं तो मेरे हिसाब से यकीनन एक बदलाव की बयार बह चुकी है और सबसे बड़ी बात आम जनता चीज़ों को काफी हद तक समझने लगी है। सभी राजनीतिक दल अब चुनाव बाद की जोड़-तोड़ की राजनीति में जुट चुके हैं। कोई मिशन इंपॉसिबल में लगा है तो कोई भानुमति का कुनबा जुटाने में लगा है।

अब बिछ चुकी है बिसात राजनीति की। दाव पर लगा है पीएम का पद। एक तरफ कौरवों की भीड़ है तो दूसरी तरफ पांडवो का नीड़ है। धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, ग़ैर-भाजपा और ग़ैर-कांग्रेस का समागम है। कौन कहाँ जाएगा किसी को कुछ नहीं मालूम। क्योंकि इनके दरवाजे सभी के लिए खुले हैं। लेकिन दावेदार भी यही हैं। पहले काउंटिंग उसके बाद इनकमिंग और आउट-गोइंग एक्टिवेट हागा। आदर्शों की बात करने वाले अपनी बोली अरबो में लगाएंगे, किसी का रेल ट्रैक से डाइवर्ट होगा तो कोई किसानों की बदहाली पर आँसू बहाएगा। कहीं साइकिल पंक्चर तो कहीं आवास का डिमोलीशन होगा।

ख़ैर, इन्हें छोड़िए.......हम और आप इतना दिमाग क्यों लगा रहे हैं। ये तो काम अभी हमारे नेताओं को करना है तो उनके जिम्मे ही ये काम फिलहाल रहने दीजिए....हम अपना फैसला तो सोलह को ही सुनाएंगे..........तो तब तक आप भी देखते रहिए इस ग्रेट इंडियन पॉलिटिकल ड्रमा को।

वो पल भी कुछ अजीब था..............


वो पल भी, क्या पल था
जब हर वक्त डूबा रहता था
तुम्हारी यादों में....
तुम्हारा वो पलकें झुकाना
उन आखों में हया के रंग...
याद आ रहा है वो दिन,
जब मिली थी तुम मुझे उस मोड़ पर
हुई थी मुलाक़ात तुमसे वो पल कुछ अजीब था,
मगर हसीं था............
दो नज़रो का मिलना,
वो तेरा शर्म से पलकें झुका लेना
आज भी सोचता हूँ, खुशनसीब हूं
जो बख़्शी है ख़ुदा ने मुझे दो आखें...
जिसने किया दीदार उस पल का
जो बन गई है अब मेरी जिंदगी......
सोचता हूं कि अब न सोचू कुछ भी,
बस तुम्हें सोच कर......................
गुजरता नहीं एक पल, न एक लम्हा,
डूबा रहता है हरदम, उन ख़्वाबों-ख़्यालो में
जिसमें दिखती है जीने की राह,
एक सुकून, एक एहसास....

मीडिया है या मंडी

शुरू में मेरा ख्वाब इस फील्ड में आने का नहीं था और ना ही कोई ऐसी तमन्ना थी। लेकिन जब फैसला किया तो उम्मीदें बहुत थी। सोचता था एक ऐसे फील्ड मे जा रहा हूँ जहाँ कुछ करने को मिलेगा। लाख लोग कहते कि आपकी सारी तमन्नाएं धरी की धरी रह जाएंगी, चाह कर भी आप वो नहीं कर सकते जो करना चाहते हैं। मैं यकीन नहीं करता इन बातों पर। लेकिन जब रू-ब-रू हुआ इस फील्ड से तो मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गया। अगर मैं इसकी ख़ूबियों को बताना चाहूँ तो यकीन मानिए आप भी कह उठेंगे मीडिया है या मंडी.........सबसे पहले शुरू करता हूँ निचले दर्जे से।

इंटर्न जो बॉस की हर बात पर टर्न करे। ट्रेनी रिपोर्टर जो रपट दे कि कहाँ उसकी रात गुजर सकती है। दरअसल यहाँ रिपोर्टर वो होता है जो अपने बॉस के लिए शराब के साथ शबाब की भी रिपोर्ट दे, चाहे किसी न्यूज़-स्टोरी की रिपोर्ट दे या न दे। अब बात एंकर की तो एक बार कहीं पढ़ा था, वेस्टर्न कंट्री में कुछ दिनों तक ये चला था कि एंकर हरेक न्यूज़ के साथ-साथ अपना एक-एक कपड़ा भी उतारती थी, ज्यादा व्यूरशिप के लिए। हालाँकि बाद में इसकी काफी आलोचना हुई और ये बंद हुआ। लेकिन हमारे यहाँ ये चलता है, बस थोड़ा पैटर्न बदल गया है। यहाँ कपड़ा बिग-बॉस के बेड पर उतरता है। तभी रातों-रात एक बकवास-सी न्यूज़ पढ़ने वाली महिला एंकर हर रोज टी वी स्क्रीन पर दिखती है। न कोई न्यूज़ सेंस न ही नॉलेज फिर भी मेरिट वालों से सौ मिल आगे। क्योंकि काम नहीं "काम" बोलता है। रही बात ख़बर की तो हम सोचते हैं ये न्यूज़ चैनल हैं तो जनाब ग़लतफ़हमी में रहना छोड़ दीजिए....हमारा ये भ्रम है। दरअसल विज्ञापन के लिए न्यूज़ चलती है न कि न्यूज़ के लिए विज्ञापन। आप पैसा दीजिए जैसी न्यूज़ चाहेंगे वैसी चलेगी....
यहाँ हर वो बात होती है, सिवाय उसके जो मीडिया का लक्ष्य है। हालाँकि कुछ अपवाद ज़रूर हैं।

अगले अंक में.......जारी