जब भारी पड़ा जूनियर पत्रकार

ऑफिस आने के 5 मिनट बाद ही आपका जूनियर आपके पास आता है। उसकी हाथों में अंग्रेज़ी में एक लेटर है। जिसका हिंदी अनुवाद करना है। यह काम जूनियर के ज़िम्मे ही है। वह कोशिश करता है। लेकिन असफल रहता है। पूरी तरह नहीं, लेकिन सटीक और ठीक-ठाक भी नहीं। उसके बाद वह आपके पास आता है। आपसे कुछ पूछता है। आप उसे टाल-मटोल अंदाज़ में बताते हैं। ताकि आप थोड़ी देर आराम कर लें। लेकिन बाहर की गर्मी झलने के बाद अब आपको उसकी भी तैश झेलनी पड़ती है। कैसा लगेगा आपको ? एक तो आप थोड़ी देर पहले ऑफिस आए, उसके बाद यदि आपके जूनियर को जिस काम के लिए रखा गया है, वह काम भी ढंग से नहीं कर पा रहा है। बात-बात में पूछने चला आता है। पूछना कोई ग़लत बात नहीं है। लेकिन, हर काम के लिए पूछने जाते हैं, तो आप यहां अय्यासी करने आए हैं. मीडिया की यही कहानी है. रिश्तेदारी, जान-पहचान और जुगाड़ के ज़रिए ये लोग घुसपैठ कर जाते हैं, मीडिया में? जब काम करने की बारी आती है तो दिन में तारे नज़र आने लगते हैं। फिर वही होता है, जो मंजूरे बॉस होता है। आपका जूनियर एक छोटा-सा लेटर अनुवाद नहीं कर पाता. जबकि आपने उसे इसी काम के लिए रखा है. आप चंद समय पहले ऑफिस आते हैं, अपनी जगह पर बैठते हैं, आपका जूनियर आपके पास आता है, फिर पूछता है. इसका अनुवाद कैसे होगा ? आप थोड़ी देर के लिए समाचार पत्र पढ़ते हुए रिलैक्स हो रहे होते हैं। जूनियर को कुछ बताते हैं, कुछ इग्नोर करते हैं. इस पर आपका जूनियर आप पर पिल पड़ता है. आपको घमंडी, दंभी, घटिया क़िस्म का इंसान कहता है. तुम क्या सोचते हो, सब कुछ तुम्हें ही पता है ? अपने आपको तीस मारखां समझते हो, मैंने भी कॉलेज में पढ़ाई की है। तुम्हारा कलीग हूं, तुम्हें बतानी चाहिए , यदि मैं तुमसे कछ डिसकस करता हूं तो तुमको मदद करनी चाहिए (फिर तुम यहां किसलिए हो, रामनाम माला जप कर सैलरी लेने के लिए), समझ लीजिए आपको इतनी श्लोक सुना देता है, जितना आप अपने बॉस से भी नहीं सुनते। वजह यह कि बॉस को आपका काम नज़र आता है। काम भले ही नज़र न आए लेकिन आपके काम की ख़बर तो उसे रहता ही है। लेकिन ज़रा सोचिए, आपको जब जूनियर से ही इस तरह की करारी बातें सुनने को मिले तो आपका मिजाज़ तो दुरूस्त हो ही जाएगा। दुरूस्त ना भी हो तो ठिकाने पर आना लाज़िमी है। लेकिन एक बात तो सोचने वाली है, आख़िर वजह क्या है? एक जूनियर की यह हिम्मत कहां से आई, यह ज़्यादा सोचने की बात नहीं। मीडिया है, तो पूरा मैदान ही साफ़ है।

कास्त्रो की कहानी

हैं तो ये क्यूबा के महान नेता. जिन्होंने क्यूबा को दुनिया के विकसित और अमेरिकी चुंगल से पूरी तरह महफूज रखने में अहम किरदार ही नहीं निभाया, बल्कि इसमें सफलता भी हासिल की. कई बार अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियों के निशाने पर आने के बावजूद उन्हें मात देने में सफल रहे. फिदेल कास्त्रो, जी हां, हम बात कर रहे हैं महान क्यूबाई नेता फिदेल कास्त्रो की. जिसने पूंजीवाद की फसल को यहां कभी जड़े जमाने का मौक़ा ही नहीं दिया. लेकिन हैरान करने वाली बात है कि यही कास्त्रो अपनी निजी ज़िंदगी में काफी दिलफेंक क़िस्म के इंसान रहे हैं. अभी हैं या नहीं कुछ कह नहीं सकता, लेकिन जो इंसान अपने युवा दौर में अय्यास हो, और उसकी आदत छूट जाए. शायद ही ऐसा मुमकिन है. बररलुस्कुनी का उदाहरण आपके सामने हैं. देश के शासक होने के बावजूद कमसिन बालाओं की शौक़ रखते हैं. फिदेल का लैटिन अर्थ होता है, विश्वासी. लेकिन फिदेल कास्त्रो की अपने इस नाम के बिल्कुल उलट अर्थ को चरितार्थ करते है. एक किताब में उनके निजी ज़िंदगी में जो दावे किए गए हैं, कम से कम उससे तो यही लगता है. अपनी जवानी के दिनों उन्होंने कई महिलाओं से संबंध बनाए और यहां तक कि इन सभी से कम से कम १० बच्चे भी हुए. हालांकि, किताब के इन दावों में कितनी हक़ीक़त है, यह बहस का विषय हो सकता है. क्योंकि कास्त्रो की ज़िंदगी के बारे में बहुत कम बातें ही लोगों को पता है, इसकी वजह यह है कि क्यूबा में मीडिया सरकारी नीतियों के मुताबिक़ काम करती है. ऐसें में किसी भी बात का बाहर आना बहुत ही मुश्किल है. ऐसे में कास्त्रो की निजी ज़िंदगी के बारे में कुछ भी आम जनता तक पहुंचना असंभव ही है. लेकिन एक खोजी पत्रकार ने इन सबका ख़ुलासा अपनी एक किताब में किया है. इसमें फिदेल और उनके भाई राउल कास्त्रो की कई अहम बातें भी बताई गई हैं. इस तरह की किताबें सामने आती रहती हैं. जिसमें विवादास्पद और बड़ी हस्तियों की निजी ज़िंदगी से जुड़ी कई ख़ुफ़िया और गुप्त बातों को सामने लाने का दावा किया जाता है. हालांकि, कई मर्तबा यह एक पब्लिसिटी स्टंट के अलावा कुछ भी नहीं होता. यह किताब एक वामपंथी देश के महान क्रांतिकारी के विवादास्पद जीवन को उजागर करती है तो साज़िश भी हो सकती है, उन्हें इतिहास में बदनाम शख्स बनाने की. लेकिन इसमें कोई सक़ नहीं कि वो क्यबा के एक महान क्रांतिकारी नेता हैं और रहेंगे.

सिक्सर किंग हुए आउट

चैंपियंस ट्रॉफी में अभी भारत का आग़ाज़ भी नहीं हुआ था कि भारतीय टीम नंबर एक पर क़ाबिज़ हो गई। हालांकि, इसके पहले भी वह श्रीलंका के साथ सीरिज़ में चोटी पर पहुंची थी। लेकिन यहां से लुढ़कने में भी उसे एक दिन से अधिक नहीं लगे। वजह प्रदर्शन में निरंतरता की कमी। फिर यहां तो भारत बिना खेले ही किंग बन गया। लेकिन सबसे बड़ी चुनौती तो अब उसके सामने होगी। किस तरह धोनी के रण बांकुड़ें अपनी लाज बचाने में क़ामयाब होते हैं। साउथ अफ़्रीका में ही २०-२० का विश्व चैंपियन जीतने का कारनामा धोनी की सेना ने किया था। लेकिन उस बार के सिक्सर किंग युवराज सिंह चोटिल होकर टीम को मंझधार में छोड़ चुके हैं। शायद गुरु गैरी के सेक्स ज्ञान से टीम इंडिया को कुछ फ़ायदा हो जाए। हालांकि एक बात सोचने वाली है कि पुराने खिलाड़ियों को दोबारा क्यों शामिल किया गया। कहीं ऐसा तो नहीं कि अफ्रीका की तेज़ पीचों पर भारतीय टीम के ताश की पत्तों की तरह भरभरा कर गिरने का डर तो चयनकर्ताओं को नहीं सता रहा था। यही सोचकर उन्होंने द्रविड़ को शामिल तो नहीं किया। हालांकि इसकी संभावना अधिक और आशंका कम है। यदि आप सोच रहे हैं कि पिछली बार की तरह यह यूथ टीम भी कारनामा कर दिखाएगी तो नाहक ही यह खाब मत पालिए। वो २०-२० था यह ५०-५० है। वेस्टइंडीज में २०-२० का हाल तो आपको पता ही है। कहीं हस्र वही तो नहीं होने वाला। एक हिंदुस्तानी होने के नाते मैं तो चाहूंगा कि टीम इंडिया जीत हासिल कतरे। लेकिन डर तो रहता ही है। टीम इंडिया है इसका कोई भरोसा नहीं। युवराज जो खेवनहार हो सकते थे, कलाई की चोट ने भारत की मानों कमर तोड़ दिए। हालांकि सचिन अभी भी जब तक टीम हैं हिम्मत तो नहीं ही हारा जा सकता है। फिर टीम इंडिया के पास तो अब गुरू गैरी का कामसूत्र भी है। कहीं यह ही भारत का बेड़ा पार लगा दे। वैसे भी बॉलिंग में आशीष नेहरा को छोड़ कोई भी गेंदबाज़ फॉर्म में नज़र भी नहीं आ रहा है। कुल मिलाकर भारत का भरोसा चैंपियंस ट्रॉफी में पुराने खिलाड़ियो, सचिन, द्रविड़ और नेहरा के अलावा गुरू गैरी की सेक्सरसाइज पर ही टिकी है.

कॉस्टकटिंग के कारनामें

स्वर्ण शताब्दी एक्सप्रेस से राहुल गांधी सफ़र कर रहे थे। मामला था आमलोगों का पैसा बचाने का. हवाईजहाज की जगह ट्रेन से सफ़र के ज़रिए. हां भई इसे मामला ही कहेंगे, इसलिए कि यह अब मामला ही बन गया है...पत्थरबाज़ी के बाद. कहीं राजशेखर रेड्डी का ख़ौफ़ तो नहीं. ख़ैर, नहीं ही होगा. कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने दिल्ली से लुधियाना और फिर वापसी का सफ़र शताब्दी ट्रेन से तय किया. उनके रेल कोच में भी कई सीटें सुरक्षा की दृष्टि से या खाली रहीं या फिर सुरक्षाकर्मियों के हवाले कर दी गईं। लेकिन एक बात तो है, राहुल सही में भविष्य के बहुत बड़े खिलाड़ी के रूप में सामने आने की पुरजोर कोशिश में लगे हैं। उनकी यह मेहनत रंग भी ला रही है। लेकिन आपने कभी इस बात पर ध्यान दिया कि जितना पैसा राहुल ने ट्रेन के ज़रिए सफ़र करके बचाया, कहीं ज़्यादा बहस उनके सुरक्षा और ट्रेन पर हुए पत्थरबाज़ी में निकल गए. इस तरह के मामले आए दिन देखने और सुनने को मिलते रहते हैं. हमारे या हम जैसे कई लोगों के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है. यहां तक कि ट्रेन से यात्रियों के फेंकने का भी मामला आए दिन होते ही रहता है. जिसमें अधिकांश में आरपीएफ और आर्मी वाले शामिल होते हैं. फिर भी कोई हो-हल्ला नहीं मचता. ख़ैर यहां मसला वीवीआईपी से जुड़ा हुआ है, मसलन बहस तो होनी ही चाहिए. जांच इन्क्वाइरी भी बैठा दी गई है. दो-तीन को इतनी जल्दी पकड़ भी लिया गया है. जब मामला इतनी बड़ी शख्सियत से जुड़ा हो तो कार्रवाई जल्दी कैसे न हो. लेकिन इसके पहले जो मैंने मामले गिनाए उनमें कार्रवाई में इतनी जल्दबाज़ी नज़र नहीं आती. शायद इसलिए कि शशि थरूर के शब्दों में हम भी कैटल क्लास वाले ही हैं. लेकिन इन सबके बीच यह बात देखने वाली होगी कि इस तरह से कॉस्ट कटिंग की मुहिम कब तक चलने वाली है. वक़्त-वक़्त पर ऐसी मुहिम सरकार चलाती रहती है, जिसे कुछ नेता पसंद करते हैं तो कुछ को इन सब बातों का कोई असर नहीं पड़ता. सबसे बड़ी बात क्या आपको लगता है कि सरकार और ये तथाकथित नेता कॉस्ट कटिंग के नाम पर जो तामझाम कर रहे हैं, उसका सही में फ़ायदा आम लोगों तक पहुंच पाएगा. और ऐसा करके ये कितना बचत कर रहे हैं, ग़ौरतलब है कि राहुल ने ट्रेन से सफ़र कर तक़रीबन पांच सौ रुपए के आसपास बचाए. मतलब उंट के मुंह में जीरा. जितना काम सरकार कर नहीं रही है, उससे अधिक ढिंढोरा पीट रही है और हम उसके धुन पर भरतनाट्यम कर रहे हैं. क्योंकि ये ढोल हमारे सामने नहीं बज रहे और कहते हैं न दूर के ढोल सुहावने होते हैं.
ग़ौरतलब है कि सोनिया गांधी ने भी इकॉनमी क्लास में मुंबई तक सफर किया, लेकिन यह जानना भी दिलचस्प है कि उस १२२ सीटों वाले एयर इंडिया के प्लेन में महज़ ७२ लोगों को टिकट मिल पाई, क्यों अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं. इससे कितना नुकसान एयर इंडिया को हुआ, इस पर एयर इंडिया कह रहा होगा मैडम आप पहले जैस लावलश्कर से चलती थीं, वैसे ही चलिए. एक तो मंदी का टाइम उस पर कॉस्ट कटिंग के नाम पर कम से कम हमारा कॉस्ट तो मत बढ़ाइए.

दो ज़िदगी का अंतर

एक ज़िंदगी आपके सामने तस्वीरों में है...दूसरी आपकी जेहन में शशि थरूर और एस एम कृषणा की...जो सरकारी आवासों मे न रहकर होटलों में रह रहे थे। मतलब सरकार द्वारा दी गई व्यवस्था से वह भी संतुष्ट नहीं थे। जब एक मंत्री ही ख़ुश नहीं तो जनता की बात न ही की जाए तो बेहतर फिर भी ज़िदगियों की तुलना देख लीजिए आप....ख़ैर अचानक से ख़र्च कटौती की मुहिम सी चल पड़ी है, सरकार द्वारा। इसलिए रहा नहीं गया। सोचा चलिए हर तरफ़ चर्चा-ए-आम यही है, तो कुछ बहस मैं भी कर लूं। ताकि उन सभ्य और कम ख़र्चीले मंत्रियों की भीड़ में कम से कम मैं भी समझदार तो लगूं। ख़र्च कम भले ही न करूं तो कम से कम उस पर बहस तो कर ही सकता हूं। मुझे मालूम है कि शशि थरूर और एस एम कृष्णा जैसी हैसियत नहीं है, मेरी कि उनकी जैसी जिंदगी जीने की सोचूं भी। जनाब को सरकार द्वारा दिया गया गेस्ट हाउस पसंद नहीं आया। यहां तो कई जिंदगियां फुटपाथ पर बीत जाती हैं। यक़ीन न हो तो अपने आसपास ही देख लीजिए, ज़्यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। शशि थरूर इन्होंने जितना समय विदेशों मे गुजारा है, शायद उसी को ध्यान में रखते हुए उन्हें इसकी ज़िम्मेदारी सौंपी गई है। लेकिन सरकार शायद यह भूल गई कि विदेशों में मंत्रियों का रहन सहन शानो-शौकत वाला होता है। जिसका इंतजाम वह नहीं कर सकी। मसलन, सरलता, सादगी और कमख़र्च का दंभ भरनेवाली सरकार के दो मंत्रियो को क़रीब तीन माह तक दिल्ली के सबसे महंगे पांच सितारा होटल में रहना पड़ा। हालांकि वो दोनों कहते हैं कि अपने ख़र्चे पर होटल में रह रहे थे...लेकिन इसका यक़ीन कैसे हो, ये भी वही तय करते हैं। ख़ैर ये भी सही है कि वो कुछ भी करें हमेशा हमें उनके पीछे नहीं पड़ना चाहिए। आख़िर उनकी भी निजी ज़िंदगी है। लेकिन हमें यह भी याद रखने की जरूरत है कि ऐसे ही निजी ज़िंदगीं के नाम पर ये नेता न जाने कितने लोगों की निजी ज़िदगी से खिलवाड़ करते हैं, दरअसल हक़ीक़त यह है कि ग़रीबों के वोटों से बनी सरकार अमीरों की अमीरी बढ़ाने का काम करती है और इसे देश की तरक़्क़ी बताने से फूले नहीं समाती। ख़ैर चिंता की बात नहीं है अब वित्त मंत्री प्रणव दा की झिड़की के बाद सारे नेताओं में कॉस्ट कटिंग और सादा जीवन, उच्च विचार अपनाने की होड़ सी मच गई है। हालांकि यह तात्कालिक है, यह सभी जानते हैं। और तात्कालिक क्यों है, इसकी भी असलियत मालूम है। महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों को इसका सारा क्रेडिट दिया जाना चाहिए। किसी ने सही ही कहा कि, यदि भारत की जनता वोटर नहीं होती और चुनाव के मौसम नहीं होते तो जनता की खोज ख़बर भी लेने वाला कोई नहीं होता। जनता भी वैसे ही नाचने लगती है जैसे नेता नचाने लगता है। अब ये जुमला भी बड़े ज़ोर शोर से उठने लगा है कि वह क्या करे उसे तो सबसे बुरे में से कम बुरे को चुनना है। अरे भाई ऐसा क्यों ? कौन बनता है नेता, बनाता कौन है, किसके बीच से चुन के आता है, तो यह सब बहाना अब पुराना हो चुका। दरअसल यह सारा जुमला अल्पसंख्यक बुद्धिजीवी वर्ग के द्वारा सामने लाया जाता है। उन्हें भी डर लगता है, यदि जनता सही में जागरूक हो जाए तो उनकी अय्यास ज़िदगी का क्या होगा। इसी वजह से ये सब इस तरह का माहौल क्रियेट करते हैं कि असली और जनता के मुद्दे को हाईजैक ही कर लेते हैं और उसे अपने हिसाब से सामने लाते हैं। ज़रूरत है इन सबको सबक सीखाने की, नहीं तो ज़िदगी इसी तरह कीड़ों की माफिक चलती रहेगी। इसके कसूरवार भी हम ही होंगे।

न्यूज़-चैनलों ने बर्बाद कर दिया मीडिया

प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों ही मीडिया के रूप हैं। दोनों में फ़र्क़ भी बिल्कुल साफ है। इस क्षेत्र की जहां अपनी सीमाएं हैं, तो वहीं इलेक्ट्रॉनिक के लिए यह बात नहीं कही जा सकती। लेकिन एक हक़ीक़त यह भी है कि दोनों का एक दूसरे पर विश्वास भी नहीं के बराबर ही है। आख़िर इसकी वदह क्या हो सकती है, इस पर लंबी बस चली है और आगे भी चलती रहेगी। इसमें कोई अचरज की बात नहीं है। इनमें एक दो बातें बिल्कुल सामान्य सी है, जो सभी को सीधे तौर पर समझ में आती भी हैं। यह कि जिस तरह से पल-पल की ख़बरसे हम इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से लोगों तक पहुंचाते हैं, ऐसा कर पाना प्रिंट के लिए नामुमकिन है। और कितनी भी बड़ी ख़बर क्यों न हो, वह कल सुबह तक ही आप तक पहुंचेगी। तबतक टीवी वेले उसकी इतनी कचूमर निकाल चुके होते हैं, कि शायद पाठक उस चीज़ के प्रति उतनी उत्सुकता नहीं लेते जितनी उन्हें किसी घटना के बारे में टीवी से तत्काल मिलती है। इस तरह कई और बातें हैं, जिसका प्रत्यक्ष फ़ायदा टीवी के लोगों को मिलता है। लेकिन आज जिस तरह से न्यूज़-चैनलों की विश्वसनीयता गिरी है, इस मामले में अख़बार वाले (प्रिंट) चैनलों से बाजी मारते नज़र ही नहीं आते, बल्कि उनसे कोसों आगे हैं। और आज के समय में इसके मामने में कोई बदलाव भी नज़र आता नहीं दिखता। इसकी भी साफ वजह है। बाज़ार आज इस क़दर हावी हो चुका है कि चैनलों पर कि उन्हें टीआरपी के अलावा कुछ भी नहीं दिखता। उनकी विश्वसनीयता का आलम यह है कि हाल ही में आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री का हवाईजहाज गुम हो गया, इस दौरान पता नहीं इंडिया टीवी के मैनेजिंग एडीटर विनोद कापड़ी को कहां से ख़बर मिल गई, जहाज का पता चल गया है और मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी सही सलामत हैं। इस ख़बर को सहारा समय ने भी चलाया। जो कि बाद में कोड़ी कल्पना साबित हुई। ख़ैर इंडिया टीवी तो ऐसी कल्पना लोक में विचरता रहता है। लेकिन बात अहम यह है कि टीवी चैनलों ने ख़बर के नाम पर जो खिलवाड़ दिखाना शुरू किय़ा है, उसने तो मीडियी की विश्वसनीयता की ऐसा-तैसी कर दी है। इस मामले में अख़बारों की हालत थोड़ी ठीक ठाक ही है, हालांकि यहां भी ख़बरें पैसे देकर छापने जैसी बातें होती रहती हैं। यक़ीन का लेवल इस क़दर गिरा है कि पत्रकारों के सम्मेलन में एक केंद्रीय मंत्री ने तो यहां तक कह दिया कि मीडिया वाले चाहे जो कुछ भी दिखाते या छापते रहें, हमें कुछ नहीं फ़र्क़ पड़ता। तो ये हालत है मीडिया के विश्वनीयता की। लोग कह रहे हैं, आजकल मीडिया में बहुत बुरा दौर चल रहा है, मैं समझता हूं, वाक़ई। लेकिन यह आर्थिक मंदी का नहीं, बुरा दौर है इसकी पहचान और विश्वसनीयता की मंदी का.

दलालों की दुनिया है, मीडिया !

यहां किसी का टैलेंट काम नहीं देता। न ही आपकी शिक्षा। यह दुनिया है दलालों की, काम आती है तो बस दलाली। कोई चीज़ दूर से जितनी प्यारी लगती है, ज़रूरी नहीं कि उसकी असलियत भी वैसी ही हो। यही हालत मीडिया की है। इस फील्ड में ऐसे कई कलम के दलाल हैं, जिनकी रोजी-रोटी इसी से चलती है। काफी सारे लोग हैं, जो यहां किस तरह टिके हुए हैं, यह शायद बताने की ज़रूरत नहीं। दिन-रात जिस अपराध को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाते हैं और अपराधियों के लिए ख़तरे की घंटी बने रहते हैं, दरअसल इनकी पोल-पट्टी खुल जाए तो इन्हीं के गले में वह घंटी बंधी नज़र आएगी। ऐसे कई नाम हैं, जिनसे मैं भी वाकिफ़ हूं, लेकिन नाम न बताने की मज़बूरी है। सबसे बड़ी बात मैं इस सिस्टम से लड़ भी नही सकता, बदलने की कोशिश करूंगा भी तो ख़ुद बदल दिया जाउंगा। कई दफ़ा पत्रकारिता का विद्यार्थी होने के नाते सोचता हूं, क्या सचमुच में इसी को पत्रकारिता कहते हैं। टीवी और प्रिंट के तमाम दिग्गज भारतीय राजनीति में वंशवाद को पानी पी-पीकर कोसते नज़र आते हैं, लेकिन असलियत तो यह है कि उससे भी कहीं ज़्यादा वंश और भाई-भतीजवाद मीडिया में हावी है। फिर ये लोग अपनी गिरेबां में झांकने की जहमत क्यों नहीं उठाते। इनकी न्यूज़ सेंस भी देखिए, ये हर उस चीज को ही दिखाते हैं, जो बिके, उसके अलावा कुछ नहीं। ऐसे में ये एक बनिया से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। हक़ीक़त तो यह है कि यह लालच, ठगी, स्वार्थ और लूटखसोट से अधिक कुछ भी नहीं।हम हर बात में अमेरिका और यूरोप की मीडिया का हवाला देते नहीं थकते कि वहां कि पत्रकारिता कैसी है, सच्चाई यह है कि वह तो ठीक ही हैं, लेकिन हमें अपनी मंडियों में तब्दील कर दिया। आज विदेशी निवेश से कई सारे मीडिया हाउस खुल रहे हैं जिनका मक़सद सत्ता को प्रभावित करना और मुनाफ़ा कमाना ही होता है। पत्रकारों की स्थिति वैसी ही है कि वो इस पाक प्रोफेशन में तो आ गए, कुछ इस तरह कि,
मस्जिद तो बना ली दम भर में,
ईमा के हरारत वालों ने,
मन अपना पुराना पापी था,
बरसों में नमाजी बन न सका।
इसी तरह वर्षों के अनुभवी कई पत्रकारों की हालत ऐसी ही है। लेकिन हम बाज़ार या विदेशी निवेश को भी क्यों कसूरवार ठहराएं, पैसे के बग़ैर तो कोई व्यवसाय चल भी नहीं सकता। लेकिन वंश और भाई-भतीजावाद, क्षेत्रीयता का जो दीमक इसे दिन-ब-दिन खोखला करती जा रही, उसके बारें क्या कह सकते हैं। इसका कीड़ा तो हमारे ही अंदर है। इसका इलाज कौन करेगा। हम तो अपनी ही भूलभुलैया में घिरे हैं,
दुष्यंत ने ठीक ही कहा है,
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुंचा जाता,
हम घर में भटके हैं, कैसे ठौर-ठिकाने आएंगे।

आप भी ख़बर बन सकते हैं !

आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री का इस दुनिया से जाना वाकई एक दुखद और संवेदनशील घटना है। लेकिन इसे भी मीडिया ने तमाशा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ा। सबसे पहले तो इंडिया टीवी, सोच सकते हैं आप जिसके मैनेजिंग एडीटर किसी ख़बर पर बात करते हैं, उस ख़बर के कंफर्म करते हैं, वही ग़लत निकल जाती है। कुछ दिनों पहले रजत शर्मा को शायद इसीलिए बेस्ट एंटरप्रेन्योर का अवार्ड दिया गया था। आप अनुमान लगा सकते हैं, जिसके शीर्ष अधिकारी पत्रकार की ऐसी समझ है, वहां बाक़ियों की क्या हालत होगी राम जाने। उस पर सहारा समय का साथ देना और भी मज़ेदार है। ये सब यह साबित करते हैं कि आजकल किस तरह के पत्रकार तैयार हो रहे हैं। जी हां, पहले पत्रकारिता उनके रगों में होती थी अब कैसे होगी जब ख़ून ही नकली हो। ख़ैर हर बार की तरह इसबार भी मुझे माफ़ कीजिएगा। पहले सोचा करते थे, पत्रकारिता के क्षेत्र में आकर कुछ करेंगे। लेकिन धंधा बन चुकी इस पेशे में अब करने को कुछ रह नहीं गया। जितना मिर्च मसाला डालेंगे, स्वाद बढ़ता जाएगा। लेकिन ख़तरा यह भी है कि कहीं हाजमा ही न ख़राब हो जाए। ख़बरों के इस दौर में यदि कुछ करने की कोशिश भी करते हैं तो सावधान रहिएगा, ख़तरा है कहीं आप भी एक ख़बर न बन जाए।

एनडीटीवी इंडिया....चला इंडिया टीवी की राह !

लगता है ये कुछ ज़्यादा ही मैंने कह दिया। मुझे इतनी भी बेरूख़ी से इस तरह की बातें नहीं कहनी चाहिए। हो सकता है एनडीटीवी वाले मुझ पर मानहानि का दावा कर दें। लेकिन क्या करूं, लगता है जिन्ना का जिन्न मेरे अंदर भी समा गया है। दिन-रात सपने में आकर अपने वजूद का एहसास दिलाते रहते हैं, क़ायदे साहब। इसलिए जो दिलोदिमाग़ में इस क़दर घर चुका है, उन्हें शब्दों में उकेरने के लिए मज़बूर हूं। इसके लिए मुझे माफ़ कीजिएगा, मैं मज़बूर हूं...ख़ैर, आपने ये पंक्तियां तो सुनी ही होंगी॥
कौन कहता है, आसमान में सुराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो, यारो ! एनडीटीवी वालों ने सही में पत्थर उछाला भी था, उनका मिजाज भी शायद दुरूस्त ही था, लेकिन एक ग़लती कर बैठे पत्थर किचड़ में दे मारा। फिर होना क्या था, इस हमाम में वह भी नंगे हो गए। कल तक पब्लिक और दूसरे चैनल वालों को सबक सिखा रहे थे, आज ख़ुद ककहरा भी भूल बैठे। क्या ज़रूरत थी लोगों को सीख देने की जब एक दिन वही सब करना था।हाल में, एनडीटीवी के कई पत्रकारों को अवार्ड मिला लेकिन शायद वे सारे अपनी झोली में बटोरना चाहते थे, रजत शर्मा से बेस्ट एंटरप्रेन्योर का अवार्ड भी छीनना चाहते थे। कोई बात नहीं यह मंशा भी अगले साल पूरी हो ही जाएगी। अब बात कीजिए उनके नए फॉरमेट की जिससे एनडीटीवी का कायाकल्प हुआ है...कभी ६-७ के बीच रहने वाली उनकी टीआरपी दो अंकों में पहुंच गई। कोई बुरी बात नहीं। बधाई हो। लेकिन कैसे ? कभी इंडिया टीवी को यू-ट्यूब चैनल कहते थे, शायद अभी भी। लेकिन यह चैनल भी अब अजब-ग़जब में फंस गया है। ख़बर बिना ब्रेक के रात नौ बजे ज़्यादातर पेज-थ्री की ख़बरें, फिलहाल तीन-चार दिनों से नहीं देख रहा एनडीटीवी तो बदलाव और भी मुमकिन है-पोजिटीव और निगेटिव भी। कभी स्पेशल रिपोर्ट जो कि जान थी वाकई स्पेशल हो चुकी है। मेरे एक मित्र ने बताया अब तो ब्रेकिंग न्यूज़ भी इस पर माशा-अल्ला आने लगे हैं- अगर ज़्यादा ज़रूरी न हो तो घर से न निकलें। ठीक है साहब नहीं निकलेंगे। अपने फेसबुक पर एकबार फिर रवीश कुमार ने आप सभी से राय मांगी है कि आप रात १० बजे किस तरह की ख़बरें देखना पसंद करते हैं, तो बता दीजिएगा मेरी तरफ से भी शायद उनकी अदालत में हमारी फरियादों की सुनवाई हो जाए।
एक बार फिर कहूंगा, कुछ ज़्यादा ही परेशान हो रहा हूं मैं एनडीटीवी इंडिया के लिए। क्या करूं आख़िर जिन्ना साहब मेरा पीछा भी तो नहीं छोड़ रहे। क़ायदे साहब रवीश के सपने में आए, मेरे सपने में भी आए और कहा उस रवीश को समझाते क्यों नहीं, कि जो शीशे के घरों में रहते हैं, वो दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं मारते।

बदल रहा है.....एनडीटीवी----इंडिया.

ख़ुद को बाक़ी चैनलों से अलग बताने वाला न्यूज़ चैनल, एनडीटीवी-इंडिया अब वाक़ई उन सभी से अलग बन चुका है। जिस भी सेमीनार में इसके महान पत्रकार पंकज पचौरी जाते दूसरों पर व्यंग्य करने का एक भी मौक़ा नहीं गंवाते। अब क्या हुआ उनको ? टीआरपी ने कहीं उनका भी मिजाज तो नहीं ख़राब कर दिया। संवेदनशील पत्रकार रवीश कुमार को जिन्होंने कभी स्पेशल रिपोर्ट की शुरूआत करते हुए, न्यूज़ चैनलों में कंटेट को लेकर आंसू बहाते नज़र आते थे। आज भी याद है मुझे रवीश की वो स्पेशल रिपोर्ट जिसमें उन्होंने दूसरे चैनलों को यह कहकर दुत्कारा था कि इनका काम बस पब्लिक को बेवकूफ़ बनाना है, तालिबान और दाउद देखकर आपके जीवन पर क्या फर्क पड़ेगा। प्राइम टाइम में हंसी के फुहारे और राखी को देखकर आप क्या सीख लेना चाहते हैं। ऐसी कई तमाम ज्ञान भरे उपदेश रवीश कुमार ने दिया, जिसे वो ख़ुद समझ भी रहे होंगे, लेकिन राखी का स्वयंवर लगातार कई दिनों तक लोगों को दिखाना उनके लिए क्या साबित करता है। भाई मेरा तो मानना है कि दूसरों को बदलने की जगह आप ख़ुद को दुरूस्त रखिए ना॥तभी तो हम कुछ सीख लेंगे। एक बात आपको बता दूं, रवीश के उस स्पेशल रिपोर्ट के बाद हमारे फ्रेंड सर्किल में इसे लेकर काफी बहस भी हुई थी। काफी सारे रवीश की बातों से सहमत भी थे, जिनमें मैं भी एक था। लेकिन अब अचानक सूरज पश्चिम से कैसे निकलने लगा। यह समझ में नहीं आ रहा है। शायद रवीश कुमार को भी समझ नहीं आ रहा होगा कि जिस स्पेशल रिपोर्ट में कंटेंट को वह दूसरे चैनल वाले को गरिया रहे थे, वहीं अब तालीबान और दाउद जैसी ख़बरें कैसे आने लगीं। एक पंक्ति रवीश की आप भी सुन लीजिए जो उन्होंने उस स्पेशल रिपोर्ट के दौरान उन्होंने पब्लिक और दूसरे चैनल वालों के लिए इस्तेमाल किए थे, थोड़ा इधर-उधर हो सकता है...जब तक आप ख़बर के नाम पर ऐसी (तालिबान और दाउद, पाक का आतंक, कॉमेडी तड़का) चीज़ें देखते रहेंगे॥ ये चैनल वाले ऐसे ही आपके सामने बकर-बकर करते रहेंगे.. मेरी तरफ से यह कि देखते रहिए एनडीटीवी इंडिया-ख़बर वही सच दिखाए.....तो करते रहिए एनडीटीवी पर सच का सामना................