म्यांमार की जातीय हिंसा, नागरिकता का सवाल और विस्थापन

म्यांमार में सांप्रदायिक हिंसा की घटना ऐसी कोई खबर नहीं, जिसे सुनने को दुनिया अधीर हो। दरअसल, जम्हूरियत की तरफ मुल्क के डगमगाते कदम बढ़ रहे हैं और ‘बदलाव की इस प्रक्रिया’ की निगरानी कर रही हैं नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की। लेकिन बदकिस्मती देखिए, पिछले कुछ दिनों से रखिन सूबे में बौद्ध अनुयायियों व रोहिंग्या मुसलमानों के बीच हुई सांप्रदायिक हिंसा को लेकर म्यांमार सुर्खियों में है। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों की हालत बदतर है। उन्हें नागरिक मानने से इनकार किया जाता रहा है। दरअसल, म्यांमार की नस्लीय संरचना बेहद पेचीदा है। आधिकारिक तौर पर वहां 135 नस्ली समूहों की पहचान की गई है। लेकिन इसमें रोहिंग्या लोगों का नाम नहीं है, जबकि ये रखिन बौद्ध, चिटगांव के बंगाली और अरब सागर से आए कारोबारियों की संतानें हैं। वे बांग्ला की एक बोली का बतौर भाषा इस्तेमाल करते हैं। न्यूयॉर्क की ह्यूमन राइट्स वॉच संस्था के मुताबिक, वे दशकों से रखिन बौद्ध के साथ म्यांमार में रह रहे हैं। जब ब्रिटिश हुकूमत ने हिन्दुस्तान और म्यांमार की सरहद का डिमार्केशन किया, उससे भी पहले के तत्कालीन बर्मा में उनकी मौजूदगी थी। फिलहाल, मुल्क में उनकी आबादी अंदाजन आठ लाख है। दो लाख तो बांग्लादेश में भी हैं। रिपोर्टे यह भी कहती हैं कि म्यांमार का एक बड़ा तबका रोहिंग्या विरोधी है। यही संकट की जड़ है। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों को घुसपैठी माना जाता है. सबसे पहले मई में हिंसा की छिटपुट घटनाएं हुईं. इसके बाद हिंसक आग पूरे इलाके में फैल गई. 10 जून को राखिल प्रांत में इमरजेंसी लगा दी गई. शुरुआती दौर की हिंसा में दोनों पक्षों को नुकसान हुआ लेकिन एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक अब मुसलमानों को ही निशाना बनाया जा रहा है. इस मामले में अंतरराष्ट्रीय राजनीति भी शुरू हो गई. ईरान ने संयुक्त राष्ट्र संघ से अपील की है कि वह इस मामले में दखल दे और म्यांमार सरकार से मुसलमानों के खिलाफ हिंसा रोकने के लिए कहे. संयुक्त राष्ट्र में ईरान के राजदूत मुहम्मद काजी ने यूएन सचिव बान की मून को एक पत्र लिख कर हस्तक्षेप की मांग की है. म्यांमार में जातीय हिंसा का इतिहास पुराना है. हालांकि नई सरकार ने कई गुटों के बीच सुलह की कोशिश की है लेकिन कई मसले अभी भी अनसुलझे हैं. सरकार और विद्रोही गुटों के बीच देश के उत्तरी इलाके में जब तब हिंसक झड़पें होती रहती हैं. रोहिंग्या लोग मूल रूप से बंगाली हैं और ये 19वीं शताब्दी में म्यांमार में बस गए थे. तब म्यांमार ब्रिटेन का उपनिवेश था और इसका नाम बर्मा हुआ करता था. 1948 के बाद म्यांमार पहुंचने वाले मुसलमानों को गैरकानूनी माना जाता है. उधर, बांग्लादेश भी रोहिंग्या लोगों को नागरिकता देने से इनकार करता है. बांग्लादेश का कहना है कि रोहिंग्या कई सौ सालों से म्यांमार में रहते आए हैं इसलिए उन्हें वहीं की नागरिकता मिलनी चाहिए. संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक म्यांमार में करीब 8 लाख रोहिंग्या हैं. ये हर साल हजारों की तादाद में या तो बांग्लादेश या फिर मलेशिया भाग जाते हैं. मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि इस समुदाय के लोगों को जबरन काम में लगाया जाता है. उन्हें प्रताड़ित किया जाता है और उनकी शादियों पर भी प्रतिबंध लगाया गया है. अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक दुनिया का कोई आदमी बिना किसी देश की नागरिकता के नहीं रह सकता. अगर हुकूमत इस संकट को खत्म करना चाहती है, तो उसे अलोकप्रिय और सख्त फैसले लेने होंगे.

क्यूबा में 26 जुलाई की क्रांति के कुछ पहलू

26 जुलाई, 1953 को ही क्यूबाई क्रांति की शुरुआत हुई थी. फिदेल कास्त्रो की अगुवाई में शुरू हुई यह एक सशस्त्र-क्रांति थी, जो तानाशाह शासक फुल्जेंसियो बतिस्ता के शासन के खिलाफ थी. अपने भाई राउल कास्त्रो और मारियो चांस सहित सर्मथकों के साथ फिदेल ने एक भूमिगत संगठन का गठन किया. इस क्रांति की शुरुआत कास्त्रो द्वारा मोनकाडा बैरक पर हमले से हुई, जिसमें कई की मौत हो गयी. हालांकि, तख्तापलट की कोशिश में लगे कास्त्रो और उनके भाई पक.डे गये. 1953 में कास्त्रो पर मुकदमा चला और उन्हें 15 साल की सजा हुई. लेकिन, 1955 में व्यापक राजनीतिक दबाव के कारण बातिस्ता को सभी राजनीतिक बंदियों को छोड़ना पड़ा. इसके बाद कास्त्रो बंधु निर्वास में मेक्सिको चले गये, जहां उन्होंने बतिस्ता की सत्ता का तख्ता पलट करने की योजना बनायी. जून, 1955 में फिदेल कास्त्रो की मुलाकात अज्रेंटीना के क्रांतिकारी चे ग्वेरा से हुई. 26 जुलाई को शुरू हुई क्रांति का अंत बतिस्ता के तख्तापलट से हुई. एक जनवरी, 1959 को फिदेल कास्त्रो ने क्यूबा में नयी सरकार बनायी. जनवरी 1959 में जब फिदेल कास्त्रो क्यूबा की राजधानी हवाना पहुंचे, तो उस वक्त क्यूबा ही नहीं पूरे लैटिन अमेरिकी में खुशी की लहर थी. एक अलोकप्रिय तानाशाही शासन को उखाड़ फेंका जा चुका था और अब सत्ता क्यूबाई आबादी समर्थित युवा क्रांतिकारियों के हाथों में थी. उस वक्त कास्त्रो का मुख्य एजेंडा भूमि सुधार और देश की अर्थव्यवस्था पर अच्छी खासी पकड़ था. कुल मिलाकर पूरे देश में सुधारवादी नज़रिया झलक रहा था. हालांकि, चुनौतियां भी कम नहीं थी. पहले ही दिन इस सरकार को अमेरिकी राजनीति और शहरी एलीट तबके से खतरा था. इन सबके पीछे उनका अपना आर्थिक हित छिपा था. 1959 की क्रांति की विचारधार पूरी तरह से स्पष्ट नहीं थी. वह पूरी तरह फिडेल कास्त्रो के रंगों में रंगी थी. उसके बाद निकारगुआ में भी सैंडिनिज्मो और शावेज का वेनेजुएला बोलिवारियाई क्रांति का प्रतीक बना. लेकिन, अपने पहले ही दिन से कास्त्रो की नीतियों ने अमेरिकी हितों पर चोट पहुंचाना शुरू कर दिया था. तेल से लेकर गन्ना, दूर संचार तक सभी क्षेत्र में. अमेरिकी ने कास्त्रो को कम्युनिस्ट के तौर पर पेश किया जिसने अपनी क्रांति और क्यूबा की जनता को धोखा दिया. अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनआवर के मुताबिक, क्यूबा ने किसी भी लैटिन अमेरिकी देशों के हितों का प्रतिनिधित्व नहीं किया. वह सिर्फ सोवियत संघ की हाथों का कठपुतली बन गया. 1961 तक सिर्फ मेक्सिको और कनाडा ही ऐसे देश बने, जिसने अमेरिकी दबाव का विरोध किया और साथ में क्यूबा के साथ राजनीतिक संबंध बनाये हुए था. सोवियत संघ से करीबी संबंध विकसित करने से पहले क्यूबा राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर तमाम सुविधाओं के लिए इन पर निर्भर था. इसके बाद अमेरिकी को नाराज़ करने की क़ीमत भी क्यूबा को चुकानी पड़ी. अप्रैल 1961 में बे ऑफ पिग्स का हमला किसे नहीं याद है. अमेरिका ने कास्त्रो की हत्या के लिए पूरी रणनीति बना ली थी. उसके बाद अक्तूबर 1962 का मिसाइल संकट सामने आया. 1965 में उसने सोवियत संघ की तरह का सांस्थानिक ढांचा देश में विकसित किया. एक ऐसी पार्टी, जिसमें महासचिव जेनरल कमेटी आदि सभी थे. लेकिन इसमें भी महत्वपूर्ण पद कास्त्रो के करीबियों और 26 जुलाई के आंदोलन में शामिल लोगों के पास ही था. सीमित संसाधनों और बढ़ते अमेरिकी दबावों के बावजूद क्यूबा ने गन्ना निर्यात के लिए सोविय संघ और पूर्वी यूरोपीय देशों के साथ संपर्क बढ़ाया. शिक्षा और स्वास्थ क्षेत्र को अधिक प्राथमिकता दी गयी. इसके अलावा अमेरिकी खतरे का सामना करने के लिए क्यूबा की सेना आधुनिक हथियारों से लैस हो चुकी थी. जब फिदेल कास्त्रो ने दक्षिणी अफ्रीकी राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लिया, तो सभी ने क्यूबा की क्रांति के बाद उसकी सफलता को व्यापक संदर्भ में देखना शुरू कर दिया. वहां शिक्षा और स्वास्थ्य से लेकर तमाम बुनियादों क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता से सभी प्रभावित थे. इसके बाद अंगोला में क्यूबा के सैन्य हस्तक्षेप से अन्य देश अनभिज्ञ थे. यह बहुत बड़ी विडंबना थी कि क्यूबा लैटिन अमेरिका में गुरिल्ला जंग से क्रांति लाने में असफल रहा, जबकि ख़ुद गुरिल्ला जंग से उसकी क्रांति सफल हुई थी. 1980 में जब रोनाल्ड रीगन अमेरिकी राष्ट्रपति बने तो उन्होंने साम्यवाद के खात्मे की घोषणा की. इसके लिए उसने हर तरकीब अपनायी. मध्य अमेरिका और कैरेबियाई देशों में सैन्य हस्तक्षेप तक किया. सोवियत संघ ने शुरू में अमेरिका को चुनौती देनी चाही, लेकिन सोवियत संघ के सहयोगी देश आर्थिक रूप से दिवालिया हो रहे थे. यहां तक कि उसकी भी हालत कुछ सही नहीं थी. 1989 से 1991 तक सोवियत संघ से जुड़े तमाम देशों की हालत खस्ता हो चुकी थी. यहां तक कि सोवियत संघ का भी विघटन हो गया. 1990 के शुरुआत में क्यूबा की आयात क्षमता, निवेश, निर्यात से मुनाफा और लोगों का जीवन स्तर बुरी तरह प्रभावित हो गया. बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ गयी. इसके बावजूद क्यूबा ने शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में अपना दबदबा बनाये रखा. हालांकि, सरकार की आमदनी बहुत कम हो गयी थी. आर्थिक तौर पर खुद को बचाए रखने के लिए ऐसे में क्यूबा ने अपनी नीतियों में व्यापक बदलाव किये. पर्यटन से लेकर माइनिंग तक के क्षेत्र में विदेशी निवेश को मंजूरी दी. इसका असर यह हुआ कि 2000 तक क्यूबा की अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट चुकी थी. 2000 का साल लैटिन अमेरिका के लिए भी काफी अहम रहा. ह्यूगो शावेज वेनेजुएला में सत्ता में थे. उसके बाद एक दौर आया जब फिदेल कास्त्रो ने खुद सत्ता की कमान अपने भाई राउल कास्त्रो को सौंप दी. पहले कास्त्रो की अगुवाई में अब राउल कास्त्रो की अगुवाई में क्यूबा तरक्की के रास्ते पर है. एक 26 जुलाई का दिन वह था, जब क्यूबा की क्रांति की शुरुआत हुई थी और आज फिर 26 जुलाई है. क्यूबा एक स्वतंत्र और आर्थिक, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में कई विकसित देशों से अव्वल है.

'जन'लोकपाल पर फिर घमासान !

लोकपाल पर घमासान शुरू होने वाला है. दिल्ली जंतर-मंतर फिर होगा युद्धस्थल. अरविंद केजरीवाल होंगे इस बार के महायोद्धा. अन्ना चार दिनों पर फस्ट डाउन बैंटिंग करेंगे. केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, गोपाल राय ने नये बल्लेबाज़ के तौर पर पहले ख़ुद मोरचा संभाला है. क्या होगा इस मैच में. कौन सी टीम हारेगी और कौन जीतेगी. आंखो देखा हाल आप भारतीय न्यूज़ चैनल पर देख सकते हैं. लेकिन, सबसे बड़ा सवाल कि क्या नये योद्दा टिक पाएंगे. टिकेंगे तो कितना. लेकिन इन सबके सवालों के बीच सबसे बडी़ बात यह कि टीम अन्ना ने जिन 15 लोगों के ख़िलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है, उसमें निर्वाचित राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का भी नाम शामिल है. ऐसे में यह सवाल उठ सकता है कि अब टीम अन्ना प्रणब दा का नाम इस तरह उछालकर देश के सर्वोच्च पद का अपमान नहीं कर रही. ऐसे लोगों को यह पता होना चाहिए कि टीम अन्ना प्रणब दा पर उनके राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन दाखिल करने से पहले ही यह आरोप लगा रही है. ऐसे में यह कतई नहीं माना जाना चाहिए कि यह राष्ट्रपति पद की गरिमा का अपमान है. अगर लोगों को ऐसा लगता है तो उन्हें प्रणब दा के पास जाना चाहिए था और उनसे यह अनुरोध करना चाहिए कि प्रणब दा आप पर कुछ आरोप हैं, उसकी जांच हो जाने के बाद ही आप इस चुनाव के लिए नामांकन करिए, नहीं तो देश के सर्वोच्च पद का अपमान हो जायेगा. ख़ैर, इस बात को भी छोड़ दिया जाये तो सरकार यह तर्क भी दे सकती है कि टीम अन्ना को कमेटियों का इंतजार करना चाहिए. हर काम के लिए एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया होती है, उसका पालन ज़रूरी है. सरकार कहती है कि लोकपाल पर कमेटी काम कर रही है. इंतज़ार करिए. सरकार बख़ूबी जानती है कि जब उसे कोई काम टालना होता है, तो एक कमेटी के बाद दूसरी कमेटी बनाती है. जनलोकपाल पर पहले स्टैंडिंग कमेटी, फिर सेलेक्ट कमेटी. ''आरटीआई फाइल करके मैं सरकार से पता करने वाला हूं कि इस देश में कितनी कमेटियां काम कर रही हैं.' मैंने सरकार द्वारा बनायी गयी कमेटियों का हिसाब-किताब जानने के लिए आरटीआई फाइल करने का प्लान ख़ारिज कर दिया है. अभी-अभी पता चला है कि सरकार की इतनी कमेटियां है कि अगर वो उनकी फोटो स्टेट आपको भेजें तो दो रुपये प्रति पेज के हिसाब से आपको रिपोर्ट लेने में अपना घर तक बेचना पड़ सकता है. यानी आपको रिपोर्ट 2 रुपये प्रति पेज के हिसाब से मिलेगी और अगर उस रिपोर्ट को आप रद्दी में बेचने जाएं तो वह 2 रुपये प्रति किलोग्राम बिकेगा. 2 रुपये प्रति पेज से 2 रुपये प्रति किलोग्राम....बाप-रे-बाप...

दलीलों से आगे बढ़ने का वक्त

प्रणब मुखर्जी भ्रष्ट हैं. वह राष्ट्रपति तो बन गये, लेकिन इसके लिए उन्हें कई तरह के कुचक्र रचने पड़े. घोटालों के जरिए वह राष्ट्रपति बनने में सफल हो पाये. इस तरह के कई आरोप आपको सुनने को मिल सकते हैं. टीम अन्ना से लेकर कई फेसबुकिया क्रांतिकारियों तक भी. लेकिन, क्या वजह है कि ये लोग सिर्फ दलील देते हैं, कोई ठोस सबूत नहीं. तर्क-कुतर्कों के सहारे किसी को भ्रष्ट बनाने में इन्होंने जी-जान लगा दिया है. प्रणब दा भ्रष्ट हैं, क्योंकि उन्होंने ए राजा, कलमाडी जैसों की रक्षा की. अरे कैसे की बाबा. अगर वो दोषी हैं, तो सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान क्यों नहीं लिया. क्या सुप्रीम कोर्ट भी बिका हुआ है. सिर्फ कोरे तर्कों के आधार पर बकवासबाजी करना आसान है. क्योंकि आपको सिर्फ किसी पर आरोप लगाना होता है. आरोप लगाने बहुत आसान है, लेकिन जब उसे साबित करने की बात आती है तो पता नहीं किस बिल में छिप जाते हैं ये लोग. इस ीतरह राम जेठमलानी हैं, दशकों से कहते आ रहे हैं कि (संकेतों में ही सही) पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का ब्लैक मनी स्विस बैंक में जमा है. उनका अकाउंट है. अभी तक साबित नहीं कर पाये हैं, वह. देश के सबसे बड़े वकील माने जाते हैं, पूरा संविधान और कानून की हर बारीकियां कंठस्थ है उन्हें, फिर भी इस तरह की बचकानी हरकत वह जारी रखते हैं. उन्हें पता होना चाहिए वकील के पास दमदार तर्क होता है, जिससे वह जज और लोगों को प्रभावित कर सकता है. लेकिन, जज सिर्फ उस तर्क के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराता. उसे सबूत चाहिए. यही सबूत आजतक जेठमलानी नहीं दे पाये हैं. जबतक कोई ठोस सबूत आपके पास, नहीं हो तब तक आप किसी को कानून दोषी नहीं ठहरा सकते है. यहां एक समस्या यह भी है कि तथाकथित फेसबुकिया और चुरकुटिया क्रांतिकारी चोर का खुन्नस उसके रिश्तेदारों पर निकालने लगते हैं.अगर कुछ लोगों को प्रणब दा के राष्ट्रपति बनने में भी घोटाला दिख रहा है, तो फिर मैं इसे उनका मानसिक दिवालियापन ही कहूंगा. अभिव्यक्ति की सही आजा़दी आजकल यही मानी जा रही है, आप कुछ भी किसी पर बकर-बकर आरोप लगाते रहिए. ज़रूरत है, दलीलों और आरोपों के दौर से आगे बढ़ने का और हर बात में नुक्ताचीनी से बचने का. साथ में, फेसबुकिया क्रांति से बाज आने का भी.

पानीवाली बाई ''मृणाल गोरे''

भारतीय सिनमा के पहले सुपरस्टार के ग़म में हम इस कदर डूब गये कि मृणाल गोरे को भूल ही गये. यह बदलते दौर का प्रतीक है. हमारे हक़ की लड़ाई लड़ने वाली महिला ने जब आख़िरी सांसें ली, तो मुख्यधारा मीडिया से सोशल मीडिया सबने खा़मोशी बरती. यह लवर ब्वॉय के जाने का मातम था या उस मातम में हम इतने मशगूल हो गये कि एक ज़मीनी लड़ाई लड़ने वाली गोरे हमें याद ही नहीं आयीं. 17 जुलाई 2012 को अंतिम सांस लेने वाली 83 वर्षीय गोरे एक खांटी समाजवादी नेता थी. वह सांसद भी रह चुकी थीं. मुंबई उपनगरीय क्षेत्र के गोरेगांव इलाके में पीने के पानी की सुविधा मुहैया कराने की उनकी कोशिशों की वजह से ही उन्हें पानीवाली बाई के नाम से जाना जाता है.1977 में छठे लोकसभा के लिए चुने जाने से पहले वो महाराष्ट्र विधानसभा में नेता विपक्ष थीं. 1977 का साल वही साल था, जब इंदिरा गांधी की करारी हार हुई थी.  लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद जब वह दिल्ली लोकसभा पहुंची तो एक स्लोगन काफी मशहूर हुआ था, ''पानीवाली बाई दिल्ली में, दिल्ली वाली बाई पानी में'' यह इंदिरा गांधी की हार के बाद उन पर किया गया सबसे तीखा व्यंग्य था. आज जबकि नेता मंत्री पद पाने के लिए जोड़-घटाव और तमाम तरह के गुना-भाग का सहारा लेते हैं. आज कृषि मंत्री शरद पवार को जब यूपीए में नंबर दो का पावर नहीं मिला तो वे रूठ गये. वहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने जब गोरे को स्वास्थ्य मंत्री बनने की पेशकश की, तो उन्होंने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया. यह उनके जनता के लिए काम करने की इच्छाशक्ति को बतलाता है. आज अन्ना हजारे जो लोकपाल के मुद्दे पर लोगों से अपने-अपने सांसदों का घेराव करने की बात कहते हैं, यह अनूठा तरीक़ा मृणाल गोरे ने ही अपनाया था. वह विरोध के तौर पर मंत्रियों और प्रशासन का घेराव करने का नायाब फॉर्मूला अपनाया, जो कारगर भी हुआ. महंगाई से लेकर कई मुद्दों पर सरकार को उन्होंने कठघरे में खड़ा किया. 1974 में जब जॉर्ज फर्नांडीस ने रेलवे में हड़ताल का आह्वान किया था, तो उस वक्त सारे नेताओं को गिरफ्तार किया गया. फर्नांडीज की गिरफ्तारी वाली वह तसवीर आज भी लोगों को याद है. इस दौरान आंदोलन को जारी रखने के लिए गोरे किसी तरह गिरफ्तारी से बचने में सफल रही थीं. आज जबकि महाराष्ट्र के मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों पर भ्रष्टाचार का आरोप है, ऐसे में मृणाल गोरे याद आती हैं जिन्होंने संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन से लेकर गोवा लिबरेशन मूवमेंट के बाद अपने जीवन को आम आदमी के हितों के लिए लगा दिया. आज भले ही हमें मीडिया के जरिए हमारे सरोकारों के लिए लड़ने वालों का पता चलता हो, लेकिन उस वक्त मीडिया भी आज की तरह नहीं था. उसका दायरा सिमटा था. लोग अपने नेता की पहचान करने में सक्षम थे. आज जबकि मीडिया के बूते कोई आंदोलन खड़ा होता है, गोरे ने यह साबित किया अगर उद्देश्य जनहित है, तो मीडिया की ज़रूरत नहीं लोग खुद-ब-खुद जुड़ते चले आते हैं.
                                  मृणाल गोरे की शख्सियत को सलाम!

''भारतीय सिनेमा का पहला सुपरस्टार''

एक सुपरस्टार के तौर पर राजेश खन्ना का उदय और अस्त जिस नाटकीय अंदाज़ में हुआ, शायद ही ऐसा किसी कलाकार के साथ हुआ हो! 1969 से 1972 तक, राजेश खन्ना नामक एक फेनोमना ने बॉलीवुड को कदमों पर लाकर रख दिया. उन्होंने जो हिस्टीरिया  पैदा किया, वैसा फिल्म इंडस्ट्री में न पहले कभी देखा गया और न ही बाद में. दरअसल, 1969 से 1973 के इन तीन वर्षों में राजेश खन्ना ने एक के बाद एक 15 लगातार हिट फिल्में दीं. यह अभी तक एक रिकॉर्ड है. अभी तक यह कीर्तिमान कोई कलाकार या एक्टर नहीं तोड़ पाया है. ऑल इंडिया टैलेंट प्रतियोगिता जीतकर फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखने वाला राजेश खन्ना की पहली फिल्म थी, आख़िरी ख़त. यह फिल्म 1966 में आयी थी. इसके बाद आयी राज़. लेकिन दोनों फिल्में ज्यादा नहीं चली. ऐसा कहा जाता है कि राजेश खन्ना एकमात्र स्ट्रगलिंग एक्टर थे, जो उन दिनों फिल्म निर्माताओं से काम मांगने अपनी कार से जाते थे. उनकी शुरुआती फिल्मों से करियर को कुछ ख़ास फायदा नहीं हुआ. लेकिन, 1969 में आयी आराधना ने उन्हें रातों-रात सुपरस्टार बना दिया. बाप और बेटे के डबल रोल वाले किरदार ने उनके चाहने वालों को दीवाना बना दिया. आरडी बर्मन के संगीतों ने मेरे सपनों की रानी, कोरा काग़ज़ था ये मन मेरा, रूप तेरा मस्ताना, गुनगुना रहे हैं भंवरे, गानों के साथ आराधना को गोल्डन जुबली हिट बना दिया. राज खोसला की दो रास्ते भी गोल्डन हिट रही. उन दिनों आलम यह था कि बांबे में एक सड़क के दोनों किनारे वाले थिएटर में से एक ओपेरा हाउस में आराधना लगी थी, तो दूसरी तरफ रॉक्सी में दो रास्ते. अब बांबे में किसी एक एक्टर के लिए इससे बड़ी बात उन दिनों कुछ नहीं हो सकती थी. 1969 तक तो हाल ये था कि लगता कि राजेश खन्ना कुछ भी ग़लत नहीं कर सकता है. एक के बाद एक फिल्में बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचा रही थीं. अभी तक उनकी फिल्मों एक मैनरिज्म झलकता था. लेकिन, उनमें इस मैनरिज्म से भी अधिक काफी कुछ था. 1969 की ख़ामोशी, सफर (1970) और आनंद (1970) में उन्होंने दिल से बेहद संवेदनशील किरदारों को निभाया. कैंसर से पीड़ित, लेकिन मरने से पहले अपनी पूरी ज़िंदगी जीने की चाहत रखने वाले शख्स के तौर आनंद संभवतः उनकी सबसे महान परफॉरमेंस वाली फिल्म थी. आनंद में राजेश खन्ना फ्रैंक काप्रा के अमर्त्य संबंधी विचारों को जस्टीफाइ की परिकल्पना से भी आगे ले गये..., ट्रैजडी वह नहीं है, जब एक्टर रोता है. ऑडिएंस का रोना ही ट्रैजडी है. फ़िल्म के अंत में जब अमिताभ राजेश खन्ना के मृत शरीर के बगल में बैठे होते हैं और टेपरिकॉर्डर से राजेश खन्ना की आवाज़ आती है, तो उस वक्त आपकी आंखे भर आती हैं और आप उस आंसू को रोक नहीं पाते. वह एक के बाद एक हिट फिल्में देते गये. यहां तक कि अंदाज (1971) में आयी फिल्म में उनकी मेहमान भूमिका को भी लोगों ने मुख्य हीरो शम्मी कपूर से अधिक पसंद किया. यह शम्मी कपूर काल के अंत और राजेश खन्ना काल के शीर्ष पर होने का प्रतीक था. हालांकि, राजेश खन्ना ने अपने दौर की शीर्ष अभिनेत्रियों वहीदा रहमान, नंदा, माला सिन्हा, तनुजा और हेमामालिनी के साथ काम किया, लेकिन उनकी जोड़ी सुपरहिट रही शर्मिला टैगोर और मुमताज़ के साथ. बीबीसी ने 1973 में अपने डॉक्यूमेंट्री सिरीज़ मैन अलाइव में राजेश खन्ना के बारे में बांबे सुपरस्टार नामक कार्यक्रम पेश किया. यह पहली बार था जब बीबीसी ने बॉलीवुड के किसी एक्टर पर डॉक्यूमेंट्री बनाने का फ़ैसला किया था. राजेश खन्ना ने निर्देशक शक्ति सामंत, संगीतकार आरडी बर्मन और गायक किशोर कुमार के साथ जबरदस्त तालमेल बनाया. यह तिकड़ी और राजेश खन्ना के साथ का ही नतीजा था कि लोगों को कटी पतंग (1970) और अमर प्रेम (1971) जैसी फिल्में देखने को मिली. ह्रषिकेश मुखर्जी के साथ बावर्जी (1972) में राजेश खन्ना के हरमनमौला रसोइया का किरदार कौन भूल सकता है, वहीं नमक हराम ने तो अमिट छाप छोड़ी. करियर के शीर्ष काल में राजेश खन्ना को देखने के लिए भीड़ का पागल हो जाना आम बात थी. कहा तो यहां तक जाता है कि लड़कियां उन्हें ख़ून से ख़त लिखा करती थी. उनकी तसवीर से शादी करती थीं. भारतीय सिनेमा में सुपरस्टार शब्द पहली बार राजेश खन्ना के लिए ही इस्तेमाल हुआ था. वह वाकई हमारे सुपरस्टार थे और रहेंगे.
                                                          (राजेश खन्ना मेरी नज़र से)

एक रहस्य है वो

आख़िरी मैसेज मैंने ही भेजा था. क्योंकि उसने जवाब देना सही न समझा. मैंने ख़ुद को समझाने की कोशिश की थी. इस बार दिल से नहीं दिमाग से सोचने का फ़ैसला किया था. दिमाग तो मान गया पर दिल वहीं उलझा रहा और इस उलझन ने कंफ्यूज्ड कर दिया. जवाब तो उसने नहीं दिया था, पर उदास थी वो या ऐसा जताना चाहती थी कि वो उदास है. नहीं-नहीं वो उदास ही थी. उसने उदासी का सिंबल पोस्ट किया था. कुछ लाइक और कमेंट थे उसी के ख़ास दोस्तों के. वजह मुझे पता थी, लेकिन फिर मैंने जानना चाहा था. दिल की मजबूरी थी, लेकिन दिमाग के कहने पर उसे बाद में डिलीट कर दिया. कुछ इसी तरह मन को मनाने की कोशिश जारी रही...आज एकबार फिर उसका स्टेटस देखा, शिकायत के अल्फाज़ डाले थे इस बार उसने अपने मैसेज में. शिकायत, लेकिन किससे? मुझसे तो कतई नहीं. मैं तो शायद याद भी न होऊं. शायद होऊं भी. नहीं-नहीं कभी नहीं. लेकिन वो मीठा-सा एहसास अभी भी याद है मुझे, किस तरह हुई थी बात, फिर बढ़ती गई बेसब्री. बढ़ा बातों का अंतराल. फिर आई वो कुछ मेरे करीब, लेकिन अचानक कट गई डोर पतंग की. वहीं मान-मर्यादा, परंपरा, समाज, घर-द्वार, मम्मी-पापा. उसके फ़ैसले में सभी थे. लेकिन अपने जीवन के इस फ़ैसले में वो कहीं नहीं थी. नहीं थी. हां, बिल्कुल ही नहीं थी. आज जब देखा उसका मैसेज तो फिर वही लम्हा याद आया. कौन-सा लम्हा? नहीं, तुम नहीं समझ सकते उसने यही कहा था. एक नहीं कई बार. पता नहीं क्या जताना चाहती थी वो. जताना तो मैं भी चाहता था. लेकिन इगो. घमंड. इस इगो को मारने के चक्कर में शायद मैंने सेल्फ रेसपेक्ट से भी समझौता किया हो. लेकिन इसका मलाल नहीं मुझे. अगर किसी को कुछ बातों से खुशी मिलती है, तो वह खुश ही सही. अपने हिस्से में ग़म का दरिया है, जो बहता जाता है. बहता जाता है, तब तक जब तक कि वह सागर में नहीं मिल जाता. लेकिन, मैं जानता हूं सागर बहुत दूर है. उतनी ही दूर जितनी दूर आज वो है मुझसे. फिर भी याद आती हो उसकी. पता नहीं लोग क्यों कहते हैं, वक्त हर जख्म को भुला देता है. लेकिन कुछ जख्म ऐसे भी तो होते हैं, जो वक्त के साथ और हरा होता जाता है. रिसता रहता है.
''कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है,
कि जिंदगी तेरी ज़ुल्फों की नर्म छांव में गुजरने पाती
तो शादाब हो भी सकती थी,
ये रंजो-ग़म की स्याही जो दिल पे छाई है
तेरी नजर की शुआओं में खो भी सकती थी,
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है कि
तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू भी नहीं.
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे,
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं.
न कोई राह, न मंज़िल और न रोशनी का सुराग,
इन्हीं अंधेरों में भटक रही है, ज़िंदगी मेरी.
रह जाऊंगा इन अंधेरों में कभी खोकर,
मैं जानता हूं मेरे हम-नफ़स मगर यूं ही,
कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है।.......''(कभी-कभी, साहिर लुधियानवी)

केशुभाई की नाराज़गी और राष्ट्रीय राजनीति में नीतीश-ममता

नरेंद्र मोदी के विरोध को लेकर लोगों की अलग-अलग राय है. ज्यादातर लोगों को उनकी छवि से नफरत है. वैसे भी गुजरात नरसंहार को भला कौन भूल सकता है. भूलने योग्य है भी नहीं. लेकिन गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल का दर्द कुछ और ही है. हर पांच साल पर विधानसभा चुनाव होता है और यह बताया जाता है कि केशुभाई मोदी से नाराज़ हैं. वह नाराज़ पिछली बार भी थे, लेकिन मोदी की जीत के बाद पांच साल तक चुप रहे. फिर गुजरात में चुनाव होने हैं, तो केशुभाई फिर से नाराज़ हो गये हैं. दिल्ली में आला नेताओं को मोदी के प्रति अपनी नाराज़गी बता रहे हैं. पिछली बार तो केशुभाई के अलावा संघ के लोग भी मोदी से खुश नहीं थे. वजह मोदी संघी लोगों को भाव नहीं दे रहे थे. लेकिन यही संघी अब मोदी को प्रधानमंत्री की दावेदारी में आगे बढ़ा रहे हैं. इधर, नीतीश का राग अलग ही है. नीतीशजी अगर यह सोच रहे हैं कि धर्मनिरपेक्ष उम्मीदवार की बात करके खुद को आगे बढ़ाना चाहते हैं तो यह उन्हें मालूम होना चाहिए कि देश की राजनीति में अब एचडी देवगौड़ा जैसा वाकया कभी नहीं दोहराया जाने वाला है. हालांकि ख़ुद को वह प्रधानमंत्री पद की रेस से अलग बता चुके हैं, फिर भी मन में महत्वाकांक्षा हिलोरे तो ज़रूर मार रही होगी. यही वजह है कि प्रणब दा के बहाने कांग्रेस की ओर झुकाव बढ़ता जा रहा है. वह अच्छी तरह जानते हैं कि अगले चुनाव में कांग्रेस की हालत ख़राब होने वाली वाली है. एनडीए में ख़ुद सर फुटव्वौल हो रहा है. ऐसे में उनकी चाहत यही है कि इतनी सीट लाने में सफल हो जाएं कि तोल-मोल या अलग मोरचे की नौबत में खुद को आगे बढ़ाने में कामयाब हो जाएं. लेकिन, उनकी यह मंशा भी काम नहीं आने वाली.यहां पर दो बातें समझना बहुत जरूरी है कि नीतीश अपनी रणनीति-कूटनीति में क्यों कामयाब नहीं पाएंगे. पहली बात तो यह कि कांग्रेस पहले तृणमूल के दबाव वह हर बात माने जा रही थी, जो वह मानना नहीं चाहती थी. क्षेत्रीय पार्टी होने का गरूर जो ममता दिखा रही थीं, वह पानी सर के ऊपर से गुजरने लगा था. सभी कांग्रेस नेतृत्व पर सवाल उठाने लगे थे कि राष्ट्रीय स्तर की पार्टियां, जिस तरह से क्षेत्रीय दलों के सामने घुटने टेक रही हैं, उससे देश की राजनीति को गलत दिशा मिल रही है. सभी नीतियां प्रभावित हो रही हैं. अंततः कांग्रेस ने तमाम नखरे झेलने के बाद दीदी को उनकी हैसियत बता दी. हालांकि, दीदी की सराहना इस बात को लेकर की जा सकती है कि वह अपनी बातों से हटी नहीं. मुलायम सिंह गिरगिट की तरह रंग बदलते रहे. पाला बदलते रहे. मुलायम यह सोच रहे थे कि अगर ममता यूपीए से बाहर होती हैं, तो उनका कद बढ़ जायेगा और वह इसकी मुंहमांगी क़ीमत वसूल सकते हैं. लेकिन उनकी भी मंशा पूरी नहीं हुई. यानी कांग्रेस ने एक तीर से दो शिकार किया. दोनों क्षेत्रीय दलों को बता दिया कि कुएं के मेढ़क को कभी कुएं से नहीं निकलना चाहिए. अब दूसरी बात यह कि, नीतीश ने जिस तरह से भाजपा-एनडीए पर दबाव बनाना शुरू किया था, उससे लग रहा था कि पार्टी की बिहार इकाई की तरह राष्ट्रीय स्तर पर भी भाजपा उसके पीछे दुब हिलाने लगेगी. यही सोचकर उन्होंने धर्मनिरपेक्ष प्रधानमंत्री उम्मीदवार का दांव खेला. उनका काम सबसे पहले मोदी को अपने रास्ते से हटाना था. वह जानते हैं कि अगर मोदी उनके रास्ते से हट गये तो भले ही उन्होंने खुद को प्रधानमंत्री उम्मीदवार की रेस से बाहर बताया हो, वह रेस में दोबारा शामिल हो सकते हैं. क्योंकि राजनीति में हमेशा हर बात की संभावना बनी रहती है. पॉलिटिक्स इज़ ऑलवेज़ प्रिगनेंट विद पॉसिबिलिटीज़. नीतीश को पता है कि भाजपा में प्रधानमंत्री बनने की चाहत कई लोगों में है, लेकिन मोदी इस दावेदारी की तरफ़ बहुत तेज़ी से आगे बड़ रहे हैं. अगर उन्हें रोका नहीं गया तो उनकी रही-सही संभावना खत्म हो जायेगी. लेकिन, नीतीश का दावं गलत पड़ा. उन्होंने प्रणब दा को समर्थन देकर एक-तीर से दो शिकार करना चाहा. भाजपा पर तीखे प्रहार और यह कदम नीतीश के लिए घातक रहा. उन्हें यक़ीन नहीं था कि भाजपा की तरफ़ से उन्हें इस तरह जवाब मिलेगा, पहले तो उनके ही मंत्रिमंडल में भाजपा के कोटे के मंत्री गिरिराज सिंह ने करारा जवाब दिया. फिर, बलबीर पुंज ने और लगे हाथ सुषमा स्वराज ने भी इशारों ही इशारों में उन्हें बता दिया कि उनका बयान कितना ग़लत था और उनके किसी भी बयान को भाजपा तवज्जो नहीं देती. यानी एक तरफ कांग्रेस और दूसरी तरफ भाजपा ने क्षेत्रीय दलों उनकी हैसियत बता दी.

''अंतरिक्ष युद्ध'' में चीन से हारता भारत

महाशक्ति बनने की चीन की महत्वाकांक्षा किसी से छिपी नहीं है. चीन धरती से आसमान तक अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहता है. चीन के अंतरिक्ष कार्यक्रम को इस महत्वाकांक्षा की मिसाल कहा जा सकता है. चीन ने शनिवार को शेंझोउ-9 नामक मानवयुक्त यान अंतरिक्ष में भेजकर दुनिया को यह संदेश देने की भले उसने अपना अंतरिक्ष कार्यक्रम अमेरिका और रूस के काफी बाद शुरू किया हो, लेकिन वह अब उनके बराबर पहुंच चुका है. शेंझोउ-9 मिशन एक महिला सहित तीन यात्रियों को लेकर 16 जून 2012 को अंतरिक्ष की ओर रवाना हुआ. शेंझोउ-9 चीन का चौथा मानवयुक्त अंतरिक्ष मिशन है. चीन का अंतरिक्ष कार्यक्रम भारत और दुनिया के लिए बड़ी चुनौती है. अभी तक सिर्फ अमेरिका और रूस ने अंतरिक्ष में मानवयुक्त मिशन भेजा था. अब चीन ऐसा करने वाला दुनिया का तीसरा देश बन गया है. अंतरिक्ष में अपनी शक्ति प्रदर्शित करने की इस दौड़ में भारत चीन से काफी पीछे नजर आ रहा है. अंतरिक्ष में बादशाहत की जंग को देखें तो भारत ने भी पिछले कुछ वर्षों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं. 22 अक्तूबर 2008 को चंद्रयान-1 के सफल प्रक्षेपण के बाद अब चंद्रयान-2 को अंतरिक्ष में भेजने की तैयारी है. यह अंतरिक्ष में भारत के बढ.ते कदम को बतलाता है. लेकिन, इसके बावजूद इस क्षेत्र में भारत चीन से मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है. हां अगर इस आपसी रेस से अलग अंतरिक्ष में विकासशील देशों के बढ.ते दखल के हिसाब से देखें तो चीन और भारत की उपलब्धियां इस बात का सबूत हैं कि अंतरिक्ष विज्ञान में अमेरिका-रूस के प्रभुत्व वाले दिन खत्म हो गये हैं.
स्पेस रेस का वह दौर : स्पेस में में वर्चस्व कायम करने होड़ 1950 के दशक में दो महाशक्तियों अमेरिका और सोवियत संघ के बीच देखने को मिली थी. इसे स्पेस रेस के नाम से जाना गया. सोवियत संघ ने 4 अक्तूबर 1957 को पहला कृत्रिम उपग्रह स्पुतिनक-1 पृथ्वी की कक्षा में प्रक्षेपित किया था. इसके बाद अमेरिकी अपोलो-11 अंतरिक्ष यान को चंद्रमा पर 20 जुलाई 1969 को उतारा गया था. हालांकि, दोनों देशों को इस होड़ की कीमत भी चुकानी पड़ी. 1960 में सोवियत संघ की नेडेलीन नामक त्रासदी स्पेस रेस की सबसे भयावह दुर्घटना थी. दरअसल, 24 अक्तूबर 1960 को मार्शल मित्रोफन नेडेलीन ने प्रायोगिक आर-16 रॉकेट को बंद और नियंत्रित करने की गलत प्रक्रिया निर्देशित की. नतीजतन, रॉकेट में विस्फोट हो गया, जिससे लगभग 150 सोवियत सैनिकों और तकनीकी कर्मचारियों की मौत हो गयी. उधर, 27 जनवरी 1967 को अमेरिकी यान अपोलो-1 ते ग्राउंड टेस्ट के दौरान केबिन में आग लग गयी और घुटन के कारण तीन क्रू सदस्यों की मौत हो गयी. इसके अलावा दोनों देशों को अंतरिक्ष रेस की बड़ी आर्थिक कीमत चुकानी पड़ी है.
भारत और चीन में प्रतिद्वंद्विता : भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की योजना वर्ष 2025 तक मानवयुक्त अंतरिक्ष यान भेजने की है. इसकी योजना सुरक्षा के लिए उपग्रह आधारित कम्युनिकेशन और नेविगेशन सिस्टम इस्तेमाल करने की भी है. लेकिन, भारत का प्रतिद्वंद्वी पड़ोसी चीन का अंतरिक्ष के उपयोग को लेकर भारत से थोड़ा अलग एजेंडा है. इसरो के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, भारत के पास 21 उपग्रह हैं. इनमें से 10 संचार और 4 तसवीर लेने की क्षमता से लैस निगरानी करने वाले उपग्रह हैं. बाकी सात भू-पर्यवेक्षण उपग्रह हैं. इनका इस्तेमाल दोहरे उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है. ये रक्षा उद्देश्यों के लिए भी प्रयोग में आ सकते हैं. चीन से यदि प्रत्यक्ष तुलना करें तो भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम अपनी सफलताओं के बावूद चीन से पीछे नजर आता है, जबकि हकीकत यह है कि दोनों देशों ने एक साथ 1970 के दशक में अपना अंतरिक्ष कार्यक्रम गंभीरता से शुरू किया था. खासकर मानवयुक्त मिशन को लेकर दोनों देशों के बीच फासला काफी बड़ा नजर आता है. भारत के लिए ऐसे किसी मिशन की संभावना अगले दशक में ही है, जबकि चीन ने 2003 में ही मानव को अंतरिक्ष में भेज दिया था.
हम कहां रह गये पीछे : वर्ष 1992 में भारत जब आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों का सामना कर रहा था, उस वक्त चीन में प्रोजेक्ट-921 की शुरुआत हुई. यह मिशन इंसान को अंतरिक्ष में ले जाने से संबंधित था. 2003 तक इसके तहत पांच मिशन अंतरिक्ष में भेज चुके थे. अभी तक नौ चीनी नागरिक अंतरिक्ष की सैर कर चुके हैं. इसकी तुलना में भारत अभी दोबारा इस्तेमाल में आने वाले स्पेस व्हीकल तकनीक के विकास में ही लगा है. इसरो जीएसएलवी-मार्क-3 विकसित कर रहा है. जबकि भारत में इस तरह के प्रोग्राम का कहीं कोई जिक्र नहीं है. आज अंतरिक्ष में चीन के 57 से अधिक उपग्रह हैं, जबकि भारत के मात्र 21 उपग्रह ही हैं. चांद के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए भारत चंद्रयान-1 भेज चुका है. साल 2008 में देश का पहला मानवरहित यान भेजा गया था और 2016 तक चंद्रयान-2 को भेजने की योजना है. चीन ने 2020 तक अंतरिक्ष में स्पेस स्टेशन स्थापित करने की घोषणा की है. शेंझोउ-9 नामक अंतरिक्ष यान उसकी इसी योजना की कड़ी का हिस्सा है.
बढ.ती महत्वाकांक्षा : चीन का हालिया अंतरिक्ष मिशन अभी तक की सबसे महत्वाकांक्षी योजनाओं में एक है. यह बतलाता है कि बीजिंग किस तरह अपनी तकनीकी क्षमताओं को बढ.ा रहा है और इस मामले में संयुक्त राज्य अमेरिका एवं रूस के साथ इस खाई को पाट रहा है. शेंझोउ-9 को तीन अंतरिक्ष यात्रियों के साथ गोबी मरुस्थल से रवाना किया गया. सबसे बड़ी बात की इस मिशन पर पहली चीनी महिला अंतरिक्ष यात्री को भी भेजा गया है. यह मिशन चीन के लिए एक लंबी छलांग है, जिसकी शुरुआत 1999 में शेंझोउ-1 से हुई. इस पहले मिशन पर किसी भी क्रू मेंबर को नहीं भेजा गया. इसके दो साल बाद शेंझोउ-2 को अंतरिक्ष में रवाना किया गया. इसके साथ प्रयोग के तौर पर छोटे जानवरों को अंतरिक्षयान के साथ भेजा गया. और, साल 2003 में चीन ने शेंझोउ-5 अभियान में चीन अंतरिक्ष में अपना पहला अंतरिक्षयात्री भेजा. 2008 में शेंझोउ-7 स्पेस मिशन में चीनी यात्रियों ने स्पेस वाक को भी अंजाम दिया. पिछले साल मानवरहित अंतरिक्ष यान शेंझोउ तियांगोंग-01 से अंतरिक्ष में जोड़ा (डॉक) किया गया. लेकिन, अभी जिस मिशन पर चीनी अंतरिक्षयात्री गये हैं, यह तकनीकी तौर पर और अधिक चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि अंतरिक्षयात्रियों को इसे मैन्युअली डॉक करना होगा.
ऑस्ट्रेलियाई अंतरिक्ष विशेषज्ञ मॉरिस जोन्स के मुताबिक, यह अभी तक का चीन का सबसे महत्वाकांक्षी अंतरिक्ष मिशन है. यह बतलाता है कि चीन अंतरिक्ष में अपने दूरगामी उद्देश्यों के प्रति कितना गंभीर है. अगर इस मिशन पर अंतरिक्ष यात्री यान को सफलतापूर्वक डॉक करने में कामयाब हो जाते हैं तो चीन 2020 तक अपना अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित करने की दिशा में एक कदम और आगे बढ. जायेगा.
वैश्‍विक अंतरिक्ष महाशक्ति : चीन अपना अंतरिक्ष स्टेशन बना लेने के बाद यही नहीं रुकने वाला है. इस मिशन के बाद वह चंद्रमा पर पहुंचने के अलावा सैटेलाइट ऑब्र्जवेशन और ग्लोबल पोजिशिनिंग सिस्टम (जीपीएस) जैसे अभियानों की तैयारी में है. उसका सीधा लक्ष्य भारत नहीं, बल्कि अंतरिक्ष के क्षेत्र में अमेरिका को टक्कर देना है. क्योंकि भारत अभी उससे काफी पीछे है. इसी क्रम में साल 2016 तक चीन विकास और अर्थव्यवस्था की जरूरतों को पूरा करने के लिए उपग्रहों के उपयोग को भी बढ़ाने वाला है. उसने 2011 मेंउसने यूएस-जीपीएस का चीनी प्रारूप लॉन्च भी किया. इस सिस्टम से उसे नेविगेशन में मदद मिलेगी. इस साल तक यह सैटेलाइट पूरे एशिया को कवर कर लेगा और 2020 तक पूरी दुनिया इसके जद में आ जायेगी.
अमेरिका से आगे निकलने की तैयारी : 1980 के दशक तक चीन सिर्फ उपग्रहों को ही विकसित करने पर ध्यान देता था और इसके लिए वह रूस और अमेरिकी मदद लेता था. लेकिन, अब जिस रफ्तार से वह अंतरिक्ष में अपनी पैठ बढ़ाता जा रहा है, उससे वह बहुत जल्द ही अमेरिका और रूस के बराबर खड़ा हो जायेगा. हालांकि, इसमें उसे कम से कम दस साल का वक्त लग जायेगा. गौरतलब है कि अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन की परियोजना से दूर रहा है और अब साबित करना चाहता है कि वह अपने बूते इसी तरह का स्टेशन स्थापित करने में सक्षम है.
अमेरिकी-रूसी वर्चस्व को चुनौती : अंतरिक्ष के क्षेत्र में साल 2011 चीन के लिए सबसे अधिक सफल रहा. इस दौरान उसने अंतरिक्ष में रूस और अमेरिका के एकछत्र राज्य को चुनौती देते हुए पूरी तरह से स्वदेशी तकनीक पर निर्भर अपना खुद का अंतरिक्ष स्टेशन बनाने की दिशा में पहला कदम बढ़ाया. पिछले साल ही चीन ने तियांगोंग परियोजना के तहत सितंबर के आखिरी में तियांगोंग श्रेणी के पहले मॉड्यूल को अंतरिक्ष में रवाना किया. इसके रवाना होने के कुछ ही दिन बाद मानवरहित अंतरिक्ष यान शेंझोउ-8 को भी प्रक्षेपित किया गया. इस अंतरिक्ष यान को तियांगोंग-01 से अंतरिक्ष में जोड़ा (डॉक) किया गया. चीन के मुताबिक, वह इन परीक्षणों के आधार पर 2016 तक अंतरिक्ष में अपनी खुद की एक प्रयोगशाला स्थापित करेगा, जहां भारहीनता की स्थिति में बहुत से प्रयोग किये जा सकेंगे. फिलहाल चीन का स्वदेशी तकनीक से बना यह अंतरिक्ष स्टेशन मौजूदा समय में रूस, अमेरिका और दूसरे देशों के सहयोग से बने अंतराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आइएसएस) के बाद दूसरे स्थान पर होगा.2003 में पहली बार चीन ने मानवयुक्त अंतरिक्षयान भेजा था. अभी तक नौ अंतरिक्ष मिशन.2016 में भारत चंद्रयान-2 को प्रक्षेपित करेगा, पहले इसे 2014 में ही प्रक्षेपित करना था.2020 तक चीन की योजना खुद का अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित करने की है.2025 में भारत के इसरो की योजना मानवयुक्त अंतरिक्षयान भेजने की है.

मौजूदा समय की राष्ट्रीय चिंता

आज पूरी दुनिया में जिस तरह से आर्थिक संकट बढ.ता जा रहा है, उस स्थिति में भारत के पास भी इस संकट से खुद को बचाकर रखने के लिए बहुत कम विकल्प बचे हैं. यह बात कोई और नहीं सरकार के प्रमुख आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु कह चुके हैं. सवाल सिर्फ यूरोजोन संकट के कारण बदतर होती वैश्‍विक आर्थिक स्थिति का ही नहीं है, अपने घरेलू मोर्चे पर भी हम कमजोर नजर आ रहे हैं. लगभग सभी महत्वपूर्ण आर्थिक पैमाने पर भारत का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है. डॉलर के मुकाबले रुपये की लगातार गिरती कीमत, घटता औद्योगिक उत्पादन और घरेलू विकास और बढ.ते घाटे ने सभी की चिंताओं को बढ़ा दिया है. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि की मंद रफ्तार और अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों द्वारा साख कम करने के कारण विदेशी निवेश पर नकारात्मक असर पड़ा है और देश से पूंजी पलायन शुरू हो गया है. पिछले दिनों अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) ने चेतावनी दी कि यदि समय रहते आर्थिक सुधार और वित्तीय ढांचे को दुरुस्त करने के उपाय नहीं किये गये, तो देश में निवेश पर बुरा असर पड़ सकता है. उधर, वैश्‍विक बैंक एचएसबीसी ने मौजूदा वित्त वर्ष में भारत की जीडीपी वृद्धि दर के अनुमान को 7.5 फीसदी से घटाकर 6.2 फीसदी कर दिया है. जाहिर है ऐसे में उद्योग जगत और नीति-निर्माता, सभी का चिंतित होना लाजिमी है.
चारों तरफ से आलोचना के स्वर : संकट के बीच जरूरी फैसले लेने में सरकार नाकाम नजर आ रही है. उद्योग जगत सरकार से नीतिगत स्तर पर सुधारवादी कदम उठाने का दबाव बना रही है, लेकिन सरकार है कि गंठबंधन की मजबूरियों में इतनी गहरी धंसी है कि उससे निकल ही नहीं पा रही. और इस मजबूरी को देखकर गंठबंधन के दल सरकार को हर तरह से दुहने की कोशिश में ही ज्यादा लगे हुए हैं. सरकार की आलोचना करने वालों में अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट एजेंसियां भी शामिल हो गयी हैं. क्रेडिट एजेंसिया लगातार देश की वित्तीय साख को डाउनग्रेड करती जा रही हैं. स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने पिछले दिनों कहा कि मंत्रिमंडल में मंत्रियों की नियुक्ति में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और सहयोगी दल की भूमिका अधिक है. नतीजतन प्रधानमंत्री अपनी उदारवादी आर्थिक नीतियों को लेकर मंत्रिमंडल को प्रभावित नहीं कर पाते. इसे सरकार को लेकर दुनियाभर में नकारात्मक माहौल के तौर पर देखा जा सकता है.
कई सत्ता केंद्रों ने बढ़ायी समस्या : मौजूदा समस्या का सबसे बड़ा कारण केंद्रीय स्तर पर कई सत्ता केंद्रों के उदय को माना जा रहा है. केंद्र की नीतियां दिल्ली के नॉर्थ ब्लॉक में नहीं कोलकाता और चेत्रई में ज्यादा तय की जा रही है. तय नहीं भी की जा रही हों, वहां से बदली जरूर जा रही हैं. और ऐसा हम कई मामलों में देख भी चुके हैं. इस टकराव को जब-तब देखा जा सकता है. चाहे वह राष्ट्रीय आतंकरोधी केंद्र (एनसीटीसी) का मुद्दा हो या फिर रिटेल क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) का मामला राज्यों के क्षत्रप इनमें अपना हस्तक्षेप करते दिखते हैं. पेंशन बिल से लेकर अन्य विधेयकों पर तृणमूल कांग्रेस और डीएमके जैसी सहयोगी पार्टियां सरकार को आ.डे हाथों लेती रहती हैं. नतीजतन, सरकार एक कदम आगे बढ.ना चाहती है और चार कदम पीछे पहुंच जाती है. जानकारों के मुताबिक, मौजूदा सरकार की नीतियां प्रोग्रेसिव (प्रगतिशील) न होकर रेग्रेसिव (प्रतिगामी) लगने लगी हैं. इस समस्या का उपाय यही है कि सहयोगी दल ही नहीं विपक्षी दल भी साथ मिलकर राष्ट्रीय हित में फैसले लेने की शुरुआत करें. लेकिन फिलहाल ऐसे आसार नजर नहीं आ रहे. क्योंकि अभी तक तो सहयोगी दल ही केंद्र सरकार को हलकान किये हुए हैं. इस मुश्किल हालात को देखते हुए सबसे बड़ी पार्टी होने और केंद्र सरकार का नेतृत्व करने के नाते कम से कम कांग्रेस को अपने भ्रमों और अनिर्णय की स्थिति से निकलने की जरूरत है, लेकिन वह भी इसमें नाकाम नजर आ रही है.
राष्ट्रीय नीति बनाने में नाकामी :  आर्थिक क्षेत्र में सुधार बड़ी चुनौती है. एक एकल गुड्स एंड सर्विस टैक्स(जीएसटी), प्रत्यक्ष कर संहिता सुधार, अंतरराज्यीय बाधाओं को दूर करते हुए एकल कृषि बाजार प्रबंधन, बीमा, बैंकिंग, टेलीकॉम, उड्डयन और खुदरा क्षेत्र में उदार विदेशी निवेश, उदार श्रम कानून, पारदश्री भू-अधिग्रहण, खनन और पर्यावरण कानून के मसले प्रमुख हैं. लेकिन ये सब राजनीतिक लड़ाई के कारण अटके प.डे हैं. निकट भविष्य में भी इन पर कोई फैसला होता नहीं दिखता.

साइबर युद्ध : सबसे बड़ा खतरा और हमारी असफलता

ऐसा बहुत ही कम होता है कि कोई अपनी असफलता को स्वीकार लेता है. और ऐसा तो शायद ही कभी हुआ होगा कि किसी क्षेत्र या उद्योग विशेष से जुड़ी सभी कंपनियां एक साथ अपनी असफलता स्वीकार कर ले. लेकिन, ऐसी असफलता आज की कड़वी हकीकत है और साइबर क्षेत्र पर पूरी तरह लागू होती है. आज भारतीय जांच एजेंसी सीबीआइ से लेकर अमेरिकी रक्षा विभाग का मुख्यालय पेंटागन तक साइबर हमलों के शिकार रहे हैं. नये तरह के खतरनाक वायरस से ईरान के न्यूक्लिर प्रतिष्ठानों को निशाना बनाया जा रहा है और ऐसे वायरस की काट ढूंढ़ने में एंटी वायरस कंपनियां पूरी तरह असफल साबित हो रही हैं.  
फ्लेम यानी साइबर जासूस : यह एक स्पाइवेयर सॉफ्टवेयर है, जिसे कुछ इस तरह डिजाइन किया गया है कि यदि आप अपने कंप्यूटर के की-बोर्ड पर अंगुलियां रखते हैं तो उसकी आवाज से ही यह चोरी-छिपे आपके कंप्यूटर की सारी जानकारियां रिकॉर्ड कर लेगा और उसे ट्रांसमिट भी कर देगा. फ्लेम नाम का यह वायरस जानकारी चुराता है, इसलिए इसे साइबर जासूस का नाम दिया गया है. यह ऑडियो बातचीत पर भी नजर रख सकता है. यह कंप्यूटर के स्क्रीनशॉट लेकर हमलावर को भेज देता है. इतना ही नहीं, यह डिवाइस का ब्लूटूथ ऑन करके आसपास रखे अन्य ब्लूटूथ डिवाइस से भी जानकारी चुराता है.
स्टक्सनट के आगे भी घुटने टेके : स्टक्सनट भी फ्लेम की ही तरह एक और वायरस है. इस वायरस के हमले की गंभीरता उस वक्त पता चली, जब 2010 में इसने ईरानी इंफ्रास्ट्रक्चर को निशाना बनाया और उसके यूरेनियम संवर्धन प्रोग्राम को बाधित किया, साथ ही कई जानकारियां इसके हमलावर तक पहुंचा दी. लेकिन, इस वायरस की खोज के दो साल बाद भी इसका कोई एंटी-वायरस विकसित नहीं किया जा सका है. फ्लेम के बाद यह दूसरा ऐसा वायरस है, जिसके लिए हम एंटी वायरस विकसित करने में अब तक असफल रहे हैं. यह खतरे की घंटी की तरह है. यदि आपके न्यूक्लियर प्रोग्राम पर किसी अप्रत्यक्ष डिजिटल हमले का खतरा मंडरा रहा है और पुलिस भी कोई कार्रवाई करने में लाचार और बेबस है, तो ऐसी में स्थिति की गंभीरता को समझा जा सकता है. हालात यहां तक पहुंच चुके हैं कि मौजूदा वैश्‍विक परिप्रेक्ष्य में साइबर हमलों की क्षमता को भी सामरिक क्षमता का एक अंग माना जाने लगा है. एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ ईरान ने ही हाल के महीनों में अपनी साइबर क्षमताओं की सुरक्षा और अन्य देशों पर साइबर हमलों की क्षमता विकसित करने के लिए करोड़ों डॉलर खर्च किये.
पांच सबसे बड़े साइबर खतरे : वायरस किसी भी कंप्यूटर के लिए सबसे बड़ी समस्या के तौर पर जाना जाता है. पिछले कुछ वर्षों में यह समस्या काफी जटिल हो गयी है. रूसी कंप्यूटर सुरक्षा फर्म कास्पर्सकी के मुताबिक, आने वाले समय में इनसे ये पांच सबसे बड़े ख़तरे हो सकते हैं.
कंप्लीट डार्कनेस : पिछले दिनों ईरानी कंप्यूटर सिस्टम में वायरस के हमले के कारण उसके प्रमुख तेल संस्थानों के कंप्यूटर अचानक ही ऑफलाइन हो गये. आने वाले समय में ऐसा हमला और भी व्यापक स्तर पर हो सकता है. इससे पूरा बिजली संयंत्र ही प्रभावित हो सकता है और हमारे पास इस समस्या का कोई तात्कालिक समाधान नहीं होगा. यदि ऐसा होता है तो हम कंप्लीट डार्कनेस के साथ दो सौ साल पहले की स्थिति यानी पूर्व विद्युत युग में पहुंच जाएंगे.
बदल देगा हमारी सोच : सोशल नेटवर्किंग सिस्टम के माध्यम से लोगों के सोच को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया जा सकता है. कंप्यूटर सुरक्षा फर्म कास्पर्सकी के प्रमुख इजीन कास्पर्सकी का कहना है कि द्वितीय विश्‍व युद्धके दौरान हवाई जहाजों से शत्रु देशों में अपने प्रोपेगेंडा के प्रचार-प्रसार के लिए पर्चे गिराये जाते थे. आज यही काम सोशल नेटवर्किंग साइटों के जरिए हो रहा है. पिछले महीने चीन में ब्लॉग पर यह खबर तेजी से फैली कि देशमें विद्रोह हो गया है और सेना की टैंक सड़कों पर तैनात हैं. बाद में यह खबर झूठी निकली. अरब क्रांति के दौरान सोशल साइटों ने प्रदर्शन को सफल बनाने में अहम भूमिका निभाई.
वेब किड्स : तीसरा सबसे बड़ा खतरा यह हो सकता है कि इंटरनेट पीढ़ी इसी के साथ व्यस्त हो जायेगी. आज के बच्चे डिजिटल वर्ल्ड में बड़े हो रहे हैं. कुछ समय बाद वे बड़े हो जाएंगे और उन्हें वोट भी देना होगा. अगर ऑनलाइन वोटिंग सिस्टम की सुविधा नहीं होगी, तो वे वोट देने ही नहीं जाएंगे. इस तरह तो पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया ही बिगड़ जायेगी. इसके अलावा बो और अभिभावक के बीच की खाई भी बढ.ती जायेगी.
अकाउंट हैकिंग : किसी भी कंप्यूटर यूजर के लिए साइबर अपराध वर्षों से चिंता की बात रही है. कोई भी कंप्यूटर वायरस से सुरक्षित नहीं है. साइबर अपराधी प्रतिदिन पूरी दुनिया में हैकिंग के वायरस फैला रहे हैं. हाल में यह खतरा स्मार्टफोन तक फैल गया है.
निजता (प्राइवेसी) का खतरा : आजकल प्राइवेसी खत्म-सी हो रही है. गूगल स्ट्रीट व्यू, सीसीटीवी कैमरा और कृत्रिम उपग्रह के जरिए सभी की नजर हम पर होती है. इमेल, सोशल वेबसाइट आदि के इस्तेमाल में भी निजी सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है, जिसके सार्वजनिक होने का खतरा रहता है. वायरस के जरिए इन सूचनाओं के साथ छेड़छाड़ भी की जा सकती है.
तो इसलिए है खतरा : फ्लेम नामक वायरस का सबसे पहले पता लगाने वाली कंपनी रूस की कास्पर्सकी का कहना है कि सभी देशों को इस तरह के हमलों की विभीषिका को समझते हुए उन पर रोक के लिए प्रयास करना चाहिए. जिस तरह से फ्लेम जैसे वायरस का हमला बढ़ा है और एंटी वायरस कंपनियां उसका काट ढूंढने में अब तक नाकाम रही हैं, उससे खतरा और बढ़ता जा रहा है. सबसे बड़ी चिंता तो इस बात की है कि हैकर समूह के अलावा कई देश भी इस तरह के साइबर हमले करने लगे हैं, लेकिन कोई भी देश या समूह ऐसे हमलों की जिम्मेदारी नहीं लेता. साइबर जासूसी का यह हथियार पारंपरिक हथियारों की तरह नहीं है. यदि एक बार ने इन्हें छोड़ दिया गया तो यह नियंत्रण से बाहर हो जाता है और अपने लक्षित उद्देश्यों के साथ-साथ अन्य चीजों को भी निशाना बना सकते हैं. उसमें बदलाव करके उसे दोबारा भी छोड़ा जा सकता है. ये वायरस भस्मासुर की तरह हैं, जो बाद में इन्हें छोड़ने वाले को भी नुकसान पहुंचा सकते हैं.

सियाचिन की समस्या और भारत-पाकिस्तान का रवैया

सियाचिन ग्लेशियर करीब 6,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित दुनिया का सबसे ऊंचा युद्ध क्षेत्र है. तकरीबन तीन दशक से भारत और पाकिस्तान की सेनाएं इस निर्मम युद्ध क्षेत्र में एक अंतहीन लड़ाई लड़ रही हैं. यहां तापमान शून्य से 55 डिग्री सेल्सियस (- 55 डिग्री सेल्सियस) से भी नीचे चला जाता है. यहां जितने सैनिक गोलियों से नहीं मरते उससे कहीं अधिक हिमस्खलन के कारण शहीद हो जाते हैं. कई सैनिक अकेलेपन के कारण अवसाद का शिकार हो जाते हैं. ऐसी घटनाओं का शिकार सिर्फ भारतीय सैनिकों को ही नहीं होना पड़ता, बल्कि पाकिस्तानी सैनिकों की स्थिति भी यही है. इस युद्ध क्षेत्र को याद करते हुए एक सैनिक ने कहा था, ‘मुझे कौए पसंद हैं, क्योंकि हमारे अलावा वे ही एकमात्र जीवित प्राणी होते हैं, जिन्हें हम यहां देख सकते हैं. भीषण ठंड के मौसम में जब वे चले जाते हैं तो उस दौरान के अकेलेपन को मैं बयां नहीं कर सकता. यह बहुत ही भयावह जगह है, जहां हमारे अलावा न कोई दूसरा आदमी है और न कोई अन्य साधन. यह सीमाओं की रक्षा की जंग नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व और खुद को जीवित बचाए रखने की जंग है. हाल में हिमस्खलन के कारण लगभग 120 पाकिस्तानी सैनिकों की मृत्यु इस बात की ओर इशारा भी करती है. कश्मीर क्षेत्र में स्थित इस ग्लेशियर पर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद काफी पुराना है. यहां कोई भी कार्रवाई करना अकसर आत्मघाती साबित होता है, क्योंकि ऑक्सीजन के अभाव में सैनिक सिर्फ पांच मीटर की ही चढ़ाई कर सकता है. उसके बाद उसे सांस लेने के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ती है. अगर आप शरीर के किसी अंग को महज 15 सेकंड तक बिना ढके रखते हैं तो वह अंग जम जायेगा. यही वजह है कि कई जानकार सियाचिन की इन ऊंची चोटियों पर जंग को एक पागलपन ही करार देते हैं.
विवाद की वजह : सियाचिन की समस्या करीब 28 साल पुरानी है. 1972 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद जब शिमला समझौता हुआ तो सियाचिन के एनजे-9842 नामक स्थान को युद्ध विराम की सीमा तय कर दिया गया. इस बिंदु के आगे के हिस्से के बारे में कुछ नहीं किया गया. अगले कुछ वर्षों के बाद बाकी हिस्सों में दोनों तरफ से कुछ-न-कुछ गतिविधियां होने लगी. 1970 और 1980 के दशक में पाकिस्तान ने इस ग्लेशियर की ऊंची चोटी पर पर्वतारोहण को मंजूरी भी दी. यह पाकिस्तान द्वारा इस क्षेत्र पर अपना अधिकार जताने जैसा था, क्योंकि पर्वतारोहियों ने पाकिस्तान सरकार से अनुमति लेकर चढ़ाई की थी. 1978 के बाद से भारतीय सेना भी इस क्षेत्र की निगरानी काफी सघनता से करने लगी. भारत भी अपनी तरफ से पर्वतारोहण के लिए दल भेजने लगा. लेकिन, जब 1984 में पाकिस्तान ने जापानी पर्वतारोहियों को महत्वपूर्ण रिमो चोटी पर पर्वतारोहण के लिए मंजूरी दी तो इस घटना ने भारत को ग्लेशियर की सुरक्षा के लिए कुछ करने पर विवश किया. यह चोटी सियाचिन के पूर्व में स्थित थी और यहां से पूर्वी क्षेत्र अक्साई चीन पर नजर रखी जा सकती थी. सैन्य जानकारों के मुताबिक, इस क्षेत्र में सैनिकों का रहना जरूरी नहीं है, लेकिन इस पर अगर किसी दुश्मन का कब्जा हो तो फिर दिक्कत हो सकती है. यहां से लेह, लद्दाख और चीन के कुछ हिस्सों पर नजर रखने में भारत को मदद मिलती है.
विवाद से सैन्य कार्रवाई तक का सफर : पाकिस्तान के कुछ मानचित्रों में इस भाग को उनके हिस्से में दिखाया गया तो भविष्य में पाकिस्तान की ओर से पर्वतारोहण को रोकने के लिए भारत ने इस ग्लेशियर अपना दावा किया. भारतीय सेना ने उत्तरी लद्दाख, कुमाऊं रेजिमेंट और कुछ अर्द्ध सैनिक बलों को ग्लेशियर पर भेजने के लिए बुला लिया. इनमें अधिकांश वैसे सैनिक थे जिन्हें ऐसी परिस्थिति में रहने के लिए 1982 में अटांर्कटिका प्रशिक्षण के लिए भेजा गया था. उधर, पाकिस्तान के रावलपिंडी सेना मुख्यालय ने भी ग्लेशियर की ऊंची चोटी पर नियंत्रण की रणनीतिक महत्ता को समझा. उन्होंने इस रणनीतिक चोटी पर नियंत्रण के लिए मिलिट्री फर्म स्थापित करने की योजना बनायी. लेकिन, पाकिस्तान ने तब बहुत बड़ी खुफिया गलती कर दी. पाकिस्तान ने आर्कटिक की ठंड मौसम में रहने की खातिर पोशाक के लिए लंदन की उसी कंपनी को ऑर्डर दिया, जिसे भारत पहले ही ऑर्डर दे चुका था.                                                                                  ऑपरेशन मेघदूत : पाकिस्तानी ऑपरेशन के बारे में पुख्ता खुफिया जानकारी जुटाने के बाद भारत ने पाकिस्तान से चार दिन पहले 13 अप्रैल 1984 में ऑपरेशन मेघदूत शुरू किया.वायुसेना के जरिये सैनिकों को सियाचिन की ऊंची चोटी पर पहुंचाया गया. इस तरह भारतीय सेना ने एनजे-9842 के उत्तरी हिस्से पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया. जब पाकिस्तानी सेना वहां पहुंची तो भारत के तीन सौ सैनिक पहले से ही दुनिया के इस सबसे ऊंचे रणक्षेत्र में मौजूद थे.
पाकिस्तान का पक्ष : सियाचिन विवाद को लेकर पाकिस्तान अकसर यह आरोप भारत पर लगाता रहा है कि 1989 में दोनों देशों के बीच यह सहमति हुई थी कि भारत आॅपरेशन मेघदूत से पुरानी वाली स्थिति पर वापस लौट जाये. लेकिन भारत ने इसे मंजूर नहीं किया. पाकिस्तान का कहना है कि सियाचिन ग्लेशियर में जहां पाकिस्तानी सेना हुआ करती थी, वहां भारती सेना ने 1984 में कब्जा कर लिया था. उस समय पाकिस्तान में जनरल जियाउल हक का शासन था. पाकिस्तान तभी से कहता रहा है कि भारतीय सेना ने 1972 के शिमला समझौते और उससे पहले 1949 में हुए   कराची समझौते का उल्लंघन किया है. पाकिस्तान की मांग रही है कि भारतीय सेना 1972 की स्थिति पर वापस जाए और उन इलाकों को खाली कर दे जिन पर उसने कब्जा कर रखा है.
मौजूदा स्थिति : इस ऊंची चोटी पर भारतीय सेना का नियंत्रण है. ग्लेशियर के अधिकांश हिस्से पर भारत का कब्जा है. पश्चिम का कुछ भाग पाकिस्तान के पास है. ग्योंग ला क्षेत्र पर पाकिस्तान का अधिकार है, जहां से वह ग्योंग, नुब्रा नदी घाटी और लेह में भारतीय प्रवेश पर नजर रखता है. सियाचिन का ही कुछ भाग चीन के पास भी है. एनजे-9842 ही दोनों देशों के बीच लाइन आॅफ एक्चुअल कंट्रोल यानी वास्तविक नियंत्रण रेखा का काम करता है. भारत और पाकिस्तान दोनों की सेनाओं की तैनाती भी इस क्षेत्र में अलग- अलग है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, दोनों तरफ से लगभग 10,000 सैनिकों की तैनाती इस ग्लेशियर पर की गयी है. वहीं, एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के इस ठंडे रणक्षेत्र में सियाचिन की सुरक्षा के लिए पाकिस्तान की तीन बटालियनें मौजूद है, तो भारत की सात बटालियन.
भारत की चुनौती : पाकिस्तान इस ऊंची चोटी पर अपने सैनिकों के लिए रसद-पानी की आपूर्ति सड़क मार्ग से कर सकता है. भारत को इसके लिए हेलीकॉप्टर पर निर्भर रहना पड़ता है. भारत ने यहां सोनम में विश्व का सबसे ऊंचा हेलीपैड (20,997 फीट) बनाया है. 1984 के बाद संघर्ष 1984 के बाद से पाकिस्तान ने भारतीय सैनिकों को हटाने के लिए कई कोशिशें की.1987 में जनरल परवेज मुशर्रफ की अगुवाई में पाकिस्तान सेना में गठित किये गये नये एसएसजी कमांडो ने अमेरिकी स्पेशल ऑपरेशन फोर्स की मदद से कार्रवाई शुरू की. खापलु क्षेत्र में 8,000 सैनिकों के साथ मोर्चाबंदी की गयी. इसका लक्ष्य बिलाफोंड ला पर कब्जा करना था और शुरू में पाक सेना को आंशिक सफलता भी मिली. लेकिन, जब भारतीय सेना से आमना-सामना हुआ तो पाकिस्तानी सेना को मजबूरन पीछे हटना पड़ा. सियाचिन पर नियंत्रण की अगली कोशिश पाकिस्तान द्वारा 1990, 1995, 1996 और 1999 के शुरू में लाहौर सम्मेलन से ठीक पहले की गयी. लेकिन, इन सभी प्रयासों में पाकिस्तान को सफलता नहीं मिली और सियाचिन पर पहले की ही तरह भारत का नियंत्रण बना रहा. फिर, 2003 में पाकिस्तान ने सियाचिन में एकतरफा संघर्षविराम की घोषणा की. भारत ने भी इसका सकारात्मक जवाब दिया.
मानवीय और वित्तीय समस्या : वर्षों से रहते हुए भारतीय सेना ने इस ऊंची चोटी और अत्यधिक ठंड वाले इलाके में खुद को बचाए रखने की कुशलता विकसित कर ली है. लेकिन, 1980 के दशक में ठंड, ऊंचाई पर रहने के कारण कमजोरी और हिमस्खलन के कारण सैकड़ों सैनिकों को जान गंवानी पड़ी. अब भी हर साल लगभग 20-22 सैनिकों की मृत्यु इन कारणों से होती है. भारत को सियाचिन में सैनिकों की सप्लाई और रखरखाव पर हर दिन लगभग पांच करोड़ रुपये खर्च करना पड़ता है. इसके बावजूद भारत में कुछ आलोचक दोनों देशों की बीच सोमवार से सियाचिन मसले पर शुरू हो रही वार्ता को असफल करने के पीछे कारण भारतीय सेना द्वारा सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति को मानते हैं. हालांकि, उनके तर्क को करगिल के अनुभव से करारा जवाब मिला है. जब पाकिस्तान ने उस पर कब्जा कर लिया था. एक्चुअल ग्राउंड पोजीशन लाइन (एजीपीएल) की मंजूरी के बिना भारतीय सेना की वापसी बहुत बड़ी भूल हो सकती है. क्योंकि इससे पाकिस्तान दोबारा सियाचिन पर नियंत्रण की कोशिश कर सकता है और भारत का उस पर कब्जा करना बहुत ही मुश्किल हो जायेगा, क्योंकि ऊंची चोटी से भारतीय सेना को निशाना बनाना आसान हो जायेगा. साथ ही, अगर सियाचिन पर पाकिस्तान का कब्जा हो जाता है तो इसका मतलब यह भी होगा कि पाकिस्तान पाक अधिकृत कश्मीर और चीन के बीच सीधा संपर्क बना सकता है वह भी भारत की नाक के ऊपर से. 
वार्ताओं का असफल दौर : सियाचीन विवाद को सुलझाने के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच कई दौर की वार्ता हो चुकी है. लेकिन अभी तक इनका कोई ठोस नतीजा नहीं निकल पाया है. पाकिस्तान बिना शर्त पूरे सियाचिन से सैनिकों की वापसी की मांग करता है. वह 1984 के पहले की स्थिति की भी बहाली चाहता है. जबकि भारत, एक्चुअल ग्राउंड पोजीशन लाइन यानी एजीपीएल (वह रेखा जिसके दोनों ओर भारत- पाकिस्तान की सेना फिलहाल मौजूद है.) का सत्यापन चाहता है. यह पाकिस्तान की किसी कार्रवाई के रोधक के तौर पर काम करेगा.

सीरिया में शांति की चुनौती

सीरियाई राष्ट्रपति बशर-अल-असद अपनी पत्नी असमा के साथ
सीरिया में बदलाव की मांग को लेकर विपक्षी दल और आम जनता सड़कों पर आंदोलन कर रही है. प्रदर्शनकारी चार दशक से भी अधिक समय से सत्ता पर कब्जा जमाये राष्ट्रपति बशर अल असद के परिवार के शासन का अंत चाहते हैं. लंबे समय से जारी इस विद्रोह ने अब हिंसक रूप अख्तियार कर लिया है और आये दिन हो रही नरसंहार की घटनाओं से स्थिति और गंभीर होती जा रही है. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, सुरक्षा बलों की कार्रवाई में अब तक 9,000 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और 14,000 से अधिक को गिरफ्तार किया जा चुका है. सीरिया में अशांति और हिंसक घटनाओं को बंद करवाने की संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून से लेकर अरब लीग तक की कोशिशें असफल रही हैं. इतना कुछ होने के बाद भी राष्ट्रपति बशर अल असद किसी भी कीमत पर झुकने को तैयार नहीं हैं.
विद्रोह की कैसे हुई शुरुआत : सीरिया में विद्रोह की कहानी की शुरुआत मिस्र और ट्यूनीशिया की क्रांति से जुड़ी है. यह विद्रोह मार्च में दक्षिण सीरियाई शहर डेरा में शुरू हुआ. उस वक्त स्थानीय लोग उन 14 स्कूली बच्चों की रिहाई की मांग को लेकर इकट्ठा हुए, जिन्होंने मिस्र और ट्यूनीशिया में क्रांति के प्रतीक कहे जाने वाले मशहूर स्लोगन जनता सरकार का पतन चाहती है को दीवारों पर लिख दिया था. इस कारण इन स्कूली बच्चों को यातना भी दी जा रही थी. बाद में प्रदर्शनकारियों ने लोकतंत्र और व्यापक आजादी की भी मांग शुरू की. हालांकि, शुरू में प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति असद के इस्तीफे की मांग नहीं की थी. हिंसक कार्रवाई से विद्रोह व्यापक यह विरोध प्रदर्शन शांतिपूर्ण तरीके से हो रहा था, लेकिन सरकार इससे घबरा गयी. जब 18 मार्च को दोबारा प्रदर्शन हुआ, तो सुरक्षा बलों ने लोगों पर खुलेआम गोलियां चलायीं, जिसमें कई लोगों की मौत हो गयी. इस घटना के एक दिन बाद लोग मृतकों को श्रद्धांजलि देने पहुंचे, तो सुरक्षा बलों ने वहां भी फायरिंग की, जिसमें ए और शख्स की मृत्यु हो गयी. इसके चंद दिन बाद ही विद्रोह व्यापक हो गया. इसे कुचलने के लिए राष्ट्रपति असद के भाई माहेर की अगुवाई में सेना की एक टुकड़ी भेजी गयी. कार्रवाई में सेना ने प्रदर्शनकारियों पर टैंक चलाये, जिससे दर्जनों प्रदर्शनकारियों की मृत्यु हो गयी. उनके घरों को नष्ट कर दिया गया. सरकारी की हिंसक कार्रवाई के बावजूद विद्रोह थमा नहीं, बल्कि दूसरे शहरों में भी
प्रदर्शन होने लगे. बाद में सेना ने इस प्रदर्शन के पीछे आतंकियों और सशस्त्र अपराधियों के हाथ होने का आरोप लगाना शुरू कर दिया.
लोगों की मांग, राष्ट्रपति का वादा : पिछले साल के शुरू में प्रदर्शनकारी अन्य अरब देशों की तरह सीरिया में भी लोकतंत्र और व्यापक आजादी की मांग कर रहे थे. लेकिन, सुरक्षा बलों की हिंसक कार्रवाई के बाद अब वे राष्ट्रपति असद के इस्तीफे की भी मांग करने लगे हैं. असद ने इस्तीफे की मांग को सिरे से खारिज कर दिया, लेकिन उन्होंने प्रशासन में सुधार का वादा लोगों से किया. प्रदर्शन का सिलसिला शुरू होने के बाद असद ने देश में करीब 48 वर्षों से चले रहे आपातकाल को पिछले साल अप्रैल में ही खत्म कर दिया था. नये संविधान के तहत बहुदलीय चुनावों के लिए फरवरी 2012 में जनमत सर्वेक्षण के जरिए मंजूरी मिल गयी.
लेकिन, प्रदर्शनकारियों पर सुरक्षा बलों द्वारा गोलीबारी जारी थी. नतीजतन, वे असद के इस्तीफे की मांग पर अड़े गये. इसे देखते हुए असद ने इस विद्रोह को शांत कराने के लिए सेना को सड़क पर उतारने के अलावा जनता से एक और वादा किया. इसके मुताबिक मौजूदा कार्यकाल खत्म होने के बाद आने वाली सरकार के चुनाव के लिए तो वह खुद दावेदार होंगे और ही इस पद को अपने बेटे को सौंपेंगे. लेकिन, लोकतंत्र की मांग को लेकर सड़क पर उतरे लोगों को संतुष्ट करने के लिए यह काफी नहीं था. इसके अलावा राष्ट्रपति असद ने विद्रोह में शामिल लोगों को माफी देने का भी दावं खेला, लेकिन उसे विपक्षी मुसलिम ब्रदरहुड सहित सभी दलों ने खारिज कर दिया. दरअसल, विपक्ष सहित विद्रोहियों की मांग है कि पिछले 44 वर्षों से राज कर रही सरकार अपना सत्ता छोड़ दे
अंतरराष्ट्रीय समुदाय की भूमिका : मध्यपूर्व के देशों में सीरिया की भूमिका काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है. यहां किसी भी तरह की उथल-पुथल का असर लेबनान और इजरायल जैसे देशों पर पड़ता है. इससे प्रॉक्सी समूहों, जैसे चरमपंथी हिजबुल्लाह और हमास की गतिविधियां काफी बढ़ हो जाती हैं. अमेरिका, इजरायल और सऊदी अरब के मुख्य विरोधी और शिया बहुल ईरान के साथ सीरिया का करीबी संबंध है. नतीजतन, चरमपंथी संगठनों का सक्रिय होना मध्यपूर्व में इन देशों के लिए परेशानी का सबब बन सकता है. ‘अरब लीगने इस विद्रोह के लिए सीरिया के सरकारी तंत्र को जिम्मेदार ठहराया है. हालांकि, शुरू में अरब लीग सीरिया के मुद्दे पर चुप रहा, जबकि इसने लीबिया में नागरिकों को बचाने के लिए कर्नल गद्दाफी की सरकार के खिलाफ नाटो की अगुआई में बमबारी का समर्थन किया था. 22 देशों के इस संगठन ने सीरिया में हिंसा खत्म करने की मांग की, लेकिन कूटनीतिक और राजनीतिक वजहों से किसी भी ठोस कार्रवाई पर चुप्पी ही साधे रखी. हालांकि, बाद में सभी को आश्चर्यचकित करते हुए इसने सीरिया को अरब लीग से निलंबित कर दिया. इसके अलावा जब सीरिया ने शांति बहाली के लिए पर्यवेक्षकों की तैनाती को मंजूरी नहीं दी तो अरब लीग ने उस पर   आर्थिक प्रतिबंध भी लगाये. दिसबंर 2011 में पर्यवेक्षकों को सीरिया आने की मंजूरी मिल गयी, लेकिन शांति बहाली का कोई रास्ता नहीं निकल पाया. जनवरी 2012 में अरब लीग ने महत्वाकांक्षी योजना के तहत राजनीतिक सुधार के लिए राष्ट्रपति के अधिकार उपराष्ट्रपति को सौंपने और विपक्ष से समुचित वार्ता की प्रक्रिया शुरू करने एवं दो महीने के भीतर नयी सरकार के गठन का प्रस्ताव रखा.लेकिन, इसके चंद सप्ताह बाद ही नाटकीय ढंग से हिंसा बढ़ने लगी. नतीजतन, अरब लीन ने अपने अभियान को स्थगित कर दिया.फिर, अरब लीग ने अपनी सुधारवादी योजना लागू करने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से मदद मांगी. लेकिन, संयुक्त राष्ट्र समर्थित इस प्रस्ताव को रूस (रूस का सीरिया के साथ महत्वपूर्ण आर्थिक और सैन्य साझेदारी है) और चीन ने वीटो कर दिया. सुरक्षा परिषद में यह उनका दूसरा वीटो था. रूस ने कहा कि इस प्रस्ताव के कारण सीरिया में सैन्य हस्तक्षेप बढ़ जायेगा. सीरिया की समस्या के समाधान की जो कड़ी गायब है वह है रूस. रूस और सीरिया के बीच आपसी संबंध काफी मजबूत हैं. शांति बहाली के लिए संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव के खिलाफ वीटो करके रूस ने ही सीरिया की मदद की थी. ऐसे में अगर कोफी अन्नान (सीरिया में शांति बहाली के लिए नियुक्त अरब लीग और संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत) की छह सूत्रीय शांति योजना को लागू कराना है, तो उसके लिए सीरिया पर रूस का दबाव जरूरी होगा.