भ्रष्टाचारविरोधी आंदोलन का झुनझुना

भ्रष्टाचार की नौंटकी अभी जारी रहेगी। अभी कुछ दिनों तक देश में कालेधन को लाने का मामला गूंजता रहेगा। लोकपाल विधेयक का भी मसला मीडिया में चलता रहेगा। पर, मेपी मानिए तो यह सब ड्रामा और नौटंकी के अलावा कुछ भी नहीं। सरकार को झुकाने का जो अभियान इन चंद लोगों ने जो छेड़ रखा है, उनकी मंशा कभी पूरी नहीं होगी। वैसे भी देखिए तो जिन्हें जनता ने चुना उनको चुनौती देने का हक़ इन बिना चुने लोगों को किसने दे दिया। है हिम्मत तो उतरें चुनावी समर में और फिर बनाएं मनपसंद कानून। कमर टूट जाएगी। जमानत जब्त हो जाएगी। लेकिन कभी संसद में पैर तक नहीं रख पाएंगे। जिस जनता के लिए लड़ने की बात ये चंद लोग कर रहे हैं, वही जनता इन्हें चारो खाने चित कर देगी और ये हाथ मलते रह जाएंगे। ऐसे में यह कौन सा दावा कि देश में भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए क़ानून अब जनता के चुने हुए प्रतिनिध नहीं, बल्कि चंद मुट्ठी भर लोग करेंगे, जिनके पास अरब की आबादी वाले देश में लाखों का भी समर्थन हासिल नहीं है। पहले अनशन करते हैं। फिर सरकार को ब्लैकमेल करने की कोशिश। यह सिविल सोसायटी की तानाशाही नहीं कही जा सकती क्या? बिल्कुल है। अगर देश में वाकई किसी तरह का करप्शन है तो क्यों नहीं लोग सड़कों पर आ जाते हैं। क्यों दिल्ली के जंतर मंतर पर चंद लोगों के इकट्ठा होने को पूरी आबादी का प्रतिनिधत्व मान लिया जा रहा है। {नीचे की पंक्तियां दिलीप मंडल के फेसबुक वाल से हैं...} जो आंदोलन भ्रष्टाचार के विरुद्ध शुरू हुआ था, वह पहले तो जन लोकपाल बिल के समर्थन का आंदोलन बना, फिर लोकपाल बिल की ड्राफ्टिंग कमेटी में शामिल होने का आंदोलन बना, फिर कमेटी का चेयरमैन बनने का आंदोलन बन गया और आखिरकार देखिए यह कहां पहुंच गया है? सिविल सोसायटी के प्रतिनिधि जस्टिस संतोष हेगड़े कर्नाटक में लोकायुक्त है। इन पर उस बिल को बनाने की जिम्मेदारी है, जिससे देश भ्रष्टाचार खत्म होना है। कर्नाटक में भ्रष्टाचार को ये पूरी तरह से रोक चुके हैं!!!! इनका एक परिचय यह भी है कि इनके दिए फैसले यूथ फॉर इक्वैलिटी को खूब पसंद आते हैं। दो हफ्ता पहले सिविल सोसायटी करप्शन के बारे में बात कर रही थी। आज भी वह करप्शन के बारे में ही बात कर रही है। जिन लोगों ने ज्यादा उम्मीदें पाली थीं, और जो अब ज्यादा निराश हैं, उनके प्रति सहानुभूति है। मैं अगर रॉकफेलर फाउंडेशन चलाता हूं (यह दुनिया के सबसे बदनाम कंपनी का फाउंडेशन है) और भारत में अपनी पसंद का लोकपाल बनाना चाहता हूं तो मैं अपने पैसे से दिया जाने वाला मैगसेसे अवार्ड किसी अपने आदमी को दूंगा। अरविंद केजरीवाल और सिविल सोसायटी ने जनलोकपाल के लिए जो विधेयक बनाया है, उसमें मैगसेसे आवार्ड विनर को लोकपाल की सलेक्शन कमेटी में रखने की बात है।

जनलोकपाल बिल की चुनौती

दिग्भ्रमित हूं। चाहता हूं जो लोग चाहते हैं जनलोकपाल विधेयक बने और बने तो कैसे बने, कौन बनाए... वे लोग कृपया कुछ सुझाव दें तो मैं बहुत आभारी रहूंगा। सिविल सोसायटी के बारे में, विरोध में, सरकार विरोधी और पक्ष में काफी बातें की जा सकती हैं। मेरा सवाल है विरोधी और समर्थन वाले ज़रा कुछ राय आर भी दीजिए कि कानून बने तो कैसे, कौन बनाए। सरकार और नेता मिलकर बनाएंगे तो अपने हिसाब से ही बनाएंगे। तभी तो देखते हैं कानून अमीरों और नेताओं की रखैल की तरह है और ग़रीब बेचारा सालों तक बिना कुछ करे जेल की चक्की में पीसता रहता है। कोई देशद्रोही तो कोई नक्सली होने के आरोप में सरकार द्वारा जबरन जेल में डाल दिया जाता है। बिनायक सेन का मामले अभी ताजा है। निचली अदालत से लेकर ऊपर तक सभी ने दोषी करार दे दिया। यह है देश का संविधान। सुप्रीम कोर्ट से उन्हें जमात मिली और सरकार को बताया कि देशद्रोह क्या होता है। अहर सरकार की तले तो वह नेताओंऔर उनके रिश्तेदारों द्वारा किए जाने वाले हर काम को जायज और उनके विरोध में किए जाने वाले काम को गैर कानून बना दे। लेकिन चलती नहीं। संविधान में कई ऐसे पहलू हैं जो कारगर नहीं हैं। अलग-अलग देशों के मसौदे को कट, कॉपी और पेस्ट कर दिया गया है जो भारतीय संदर्भ में लागू नहीं होते इसी का फा़यदा नेता लोग उठाते हैं अपने हिसाब से संशोधन करते हैं। यही हाल आईपीसी और सीआरपीसी का भी है। मेरी समस्या यह है कि इसका समाधान क्या है क्या हम सिर्फ फेसबुक पर इसके समर्थन और विरोध में बातें करें। कौन बनाएगा कानून और कौन नहीं ये बातें करें। जो बनाने जा रहा है वो पाक साफ है या नहीं। बहुत जटिल मामला है। ज़रा मेरी जिज्ञासा शांत करें। अंदर बेचैनी बढ़ती जा रही है। भइया मुझे पता है इस हमाम में सभी नंगे हैं इसलिए मैं चाहता हूं आप इस ड्राफ्टिंग कमिटी में सिविल सोसायटी की नुमाइंदगी करें। मुझे पता है आप भी इनकार कर देंगे। आप कह रहे हैं कि जनता बिना चुने लोग कैसे किसी कानून को बना सकते हैं तो आप चुने हुए लोगों से बनवाइए...शरद पवार, कलमाड़ी, ए राजा जैसों से ...बाहर बैठे खामियां निकालना बहुत आसान है। कुछ लोग पीछे हाथ धोकर पड़ गए हैं।

महिलाओं से वाकई अलग होते हैं पुरुष

आज फिर से लेखनी चलाने का मन कर रहा है. वो भी हथियार की तरह की कुछ असर हो. सोचा था अब नहीं लिखूंगा. वजह जब कुछ कहने से आपकी बात का कोई असर ही न हो, किसी को कोई फर्क ही न पड़े तो कागज़ काला करने से फायदा क्या? लेकिन महिला दिवस के अवसर पर जो हुआ और उस खास दिन के अलावा भी जो वारदात महिलाओं के साथ आये दिन हो रहा है, उससे रहा नहीं गया. अब भी जनता हूँ कुछ खास असर नहीं पड़ेगा. पुरुषवादी समाज में महिलाओं को दोयम दर्जे का समझा जाना अब भी जारी है. भले ही महिलएं घर की देहरी से बहार आ चुकी हों या पुरुषों को हर क्षेत्र में चुनौती दे रही हों फिर भी उनको बराबरी का दर्ज़ा देने को हम पुरुष दिल से रजामंद नहीं हैं. आरक्षण के मसले पर उनको ३३ फीसदी भी नहीं देना चाहते. कहते हैं, इससे हमारा हक मारा जायेगा. पता नहीं ये कैसा हक है जो मारा जायेगा. सदियों से हम उनका हक मार रहे हैं और बातें करते हैं अपने हक की. अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर राजधानी दिल्ली में एक लड़की को सरेआम गोली मरना क्या यह हमारा हक है? मैंने आज तक कभी नहीं सुना, इस तरह के मामले में एक लड़की ने लड़के को गोली मारी हो. लेकिन पुरुषों द्वारा इस तरह या इससे भी बदतर अपराध को अंजाम देना बदस्तूर जारी है., अगर मान भी ले, अपवाद के तौर पर एक दो मामला महिलाओं के भी अपराध के सामने आते हैं तो क्या हम इसे जस्टिफाई करेंगे या फिर अपनी ज़िम्मेदारी समझेंगे, आखिर ऐसा क्यों हो रहा है. फिलहाल तो मामला बेहद संगीन है. सबसे ज्यादा संकीर्ण सोच तो पढ़े लिखे और उच्च वर्ग के लोग ही रखते हैं. इनकी नज़रों में महिलाएं महज उपभोग की वास्तु के अलावा कुछ नहीं. यदि एक मिसाल दूं तो...मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से law  कर रहा हूँ...महिला दिवस के अवसर पर ही मेरे साथियों से बात हुयी...इन सभी का मानना था की महिलाओं को जितना आरक्षण मिल रहा है वे उतना ही पुरुषों के सर पर चढ़ रही हैं. एक तो मेट्रो की सबसे आगे वाली बोगी में आरक्षण और उसके बाद भी वे आम बोगी में चढ़ जाती हैं. इस बात से मेरे कुछ मित्रों को काफी तकलीफ हुयी.  भला उन्हें इतना फायदा क्यों. हालाँकि, सभी का ऐसा नहिन्मानन था पर मेरी समस्या ये है की ऐसा ख्याल रखने वाले जो मेरे सहपाठी थे वो बचपन से ही हाई-फाई माहौल में पले-बढे तो मैंने सोचा सोच भी इनकी ढंग  की होगी. पर, अपवाद से मैं इनकार नहीं कर रहा है. पर, अपवाद अपवाद ही होता है. यहाँ हम बात पूरी महिला जाति की बात कर रहे हैं, नहीं तो महिलाओं में भी दलित या निचले तबके के महिलाओं की हालत तो और भी दयनीय है.

ठिठुरता गणतंत्र और परसाईजी


पिछले दिनों दिल्ली में ठंड काफी बढ़ गई थी। लगभग पांच या छह वर्षों बाद इतनी सर्दी पड़ी है।  सर्दी और गणतंत्र दिवस का बड़ा गहरा नाता है। गणतंत्र दिवस के साथ मुझे याद आ रहे हैं, मेरे प्रिय व्यंग्य साहित्यकार परसाई जी। हरिशंकर परसाई। जितने याद परसाई जी आ रहे हैं, उतना ही उनकी रचना ठिठुरता गणतंत्र भी। वह दिल्ली में चार बार गणतंत्र दिवस का जलसा देख चुके हैं। लेकिन पांचवी बार का साहस नहीं जुटा पाए। पर, उनकी चिंता इस अवसर पर ही घिसी-पिटी बातें नहीं, जो देश के नाम संबोधन में किया जाता है। दरअसल, वह भी मौसम की मार से परेशान हैं। पता नहीं क्यों हर साल छब्बीस जनवरी को आसमान में बादल छा जाते हैं, बूंदा-बांदी होने लगती है और सूरज कहीं छुप जाता है। बकौल परसाई जी, जिस तरह दिल्ली की अपनी अर्थ नीति नहीं है, ठीक उसी तरह अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति डॉलर, पौंड, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष या विदेशी सहायता से तय होता है, उसी तरह  दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि से तय करते हैं। लेकिन लगता है इस बार उन्हें फिर गणतंत्र दिवस का मौका मिले, क्योंकि इस बार बादल नहीं और सूरज खिल के निकल रहा है। शायद वैश्विक आर्थिक मंदी और मंहगाई आदि ने दिल्ली की अर्थनीति आदि को कुछ पल के लिए समान कर दिया है।
हरबार गणतंत्र दिवस पर मौसम खऱाब होने से परसाई जी थोड़े नाराज़ हो जाते हैं। इस बाबत वह कांग्रेसी से भिड़ पड़ते हैं। वह पूछते हैं क्या बात है कि हर छब्बीस जनवरी पर सूरज छिप जाता है। कांग्रेसी उन्हें जवाब देता है, मुझे तो लगता है कि इस बार पाकिस्तान कोई बड़ी साज़िश रच रहा है या फिर चीन कृत्रिम बारिश करा सकता है तो संभवतः इस बार वह भारत में सूरज को उगने ही नहीं देना चाहता है। मुमकिन है ये दोनों हमारे पड़ोसी किसी बड़ी साज़िश में लगे हैं और हमारी ख़ुफ़िया एजेंसी को भी इसकी भनक नहीं लगी। चूंकि वह कांग्रेसी गृह मंत्रालय में मंत्री थे सो कहा कि हमने सारा दोष राज्यों पर मढ़ दिया है कि प्रत्येक राज्य अपने क्षेत्रों में सूरज के न उगने का पता लगाएं। इसके लिए उच्च स्तरीय जांच बिठाएं हो सके तो जेपीसी की मदद भी ली जाए। इस बीच, बंगाल से ख़बर आई कि वहां सूरज ठीक से उगा। बंगाल के मुख्यमंत्री ने जांच में शामिल होने या किसी तरह की मदद से मना कर दिया और गृहमंत्री की बैठक में शामिल होने से भी इंकार कर दिया।
परसाई जी यहीं नहीं रूके। उन्हें गणतंत्र दिवस की झांकी बहुत पसंद थी। वह इन झांकियों में अद्भुत चीज़ खोज निकाले थे। उनके हिसाब से हर राज्य की झांकियां अपने राज्य का सही प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। जैसे 2002 और 2003 की झांकियों में वह बड़े उत्साह से गुजरात की झांकियों को देखने पहुंचे थे कि उसमें दंगों को दिखाया जाएगा, लेकिन निराशा हाथ लगी। आंध्र में हरिजन को जलाता हुआ दिखाया जाएगा वह भी नदारद। इस साल उन्हें उम्मीद है कि राष्ट्रमंडल खेलों में घपले, टू जी स्पेक्ट्रम सहित उत्तर प्रदेश में अनाज घोटाला आदि को दिखाया जाएगा। लेकिन लगता है जिस तरह कांग्रेस इन घपलों को ढकने में लगी है, उससे तो इसबार भी उनकी उम्मीद अधूरी ही रहने वाली है। भारत में पिछले साल घोटालेबाजों और भ्रष्टाचारियों का बोलबाला रहा और परसाई के साथ आम जनता को भी उम्मीद है कि इस बार के छब्बीस जनवरी के परेड में उन्हें कुछ इसी तरह की झलकियां दिखाई जाएंगी। लेकिन, लगता है इस ठिठुरती ठंड में लोगों को यह सब देखने का मौक़ा न मिले। और लगता है परसाई जी भी अपने पहले के अनुभवों से सीख लेते हुए गणतंत्र दिवस नहीं देखने जाना चाहते। क्योंकि जो इस साल हुआ व तो झांकी में दिखाया जाएगा ही नहीं तो नकली भारत की तस्वीर क्या देखें। घर बैठे ही आईपीएल और बिग-ब़स की पुरानी झलकी देख के दिल बहलाएंगे।

पुरस्कारों के लिए बनाई गयी फ़िल्म धोबी घाट

आमिर खान की फ़िल्म धोबी घाट. आमिर की पत्नी किरण राव निर्देशित है यह फ़िल्म. यानी आमिर के लिए बहुत बड़ी चुनौती थी. फ़िल्म का प्रोमो देखकर लगा बेहतरीन फ़िल्म होगी. लेकिन देखने के बात लगा पता नहीं फ़िल्म क्या बताना चाहती है. चार निराश, हताश और कुंठित लोगों की कहानी है. वह भी अनमने ढंग से कही गयी. फ़िल्म शुरू होती है और ख़त्म हो जाती और आप जब फ़िल्म देख बहार निकलते हैं तो ठगा सा महसूस करते हैं. शायद यह खास वर्ग के लोगों के लिए फ़िल्म बनाई गयी है. किरण राव भी यही मानती हैं. हालाँकि उनका यह भी कहना है कि अब आमिर खान प्रोडक्शन पर बेहतर फिल्मों को लेकर काफी दबाव होता है. लोग उम्मीद अधिक करने लगे हैं. धोबी-घाट की कहानी काफ़ी अलग किस्म की है और उसे दूसरी फ़िल्मों की तुलना में काफ़ी अलग अंदाज़ में पेश भी किया गया है. मुंबई पर गढ़ी गयी ये फिल्म एक डाक्यूमेंट्री है। जिसमें हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करता एक शख्स मौजूद है। इस फिल्म में इंसान को प्यार भी मिलता है तो उसे दर्द भी नसीब होता है, कहीं फटकार मिलती है तो कही सहारा भी। बस इंसानी जज्बात और भावनाओं की कहानी है धोबी घाट जिसे संजीदा बनाने की भरपूर कोशिश की गयी है. कहना गलत नहीं होगा कि धोबी-घाट एक मास फिल्म नहीं बल्कि एक क्लास फिल्म हैं। जिसे शायद लोगों के मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि, पुरस्कार जीतने के लिए बनाया गया है. यह फिल्म में मुंबई पर लिखे गए कुछ फुटकर नोट जैसी है। जिसे हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से लेने के लिए स्वतंत्र है। कहानी कुछ ऐसा है कि महानगर में मौजूद हर वर्ग का आदमी किसी ना किसी कहानी में अपना अक्स तलाश लेगा। फिल्म में मसाला, भावुकता, प्यार एक भी ऐसा तत्व नहीं है जो आपको फिल्म में रोके रखने के लिए या आपको अच्छा लगाने के लिए या सहज महसूस कराने के लिए डाला गया हो। कुल मिलकर कहा जाये तो यह फ़िल्म एक प्रयोग है...

देशद्रोही बाहर और बिनायक सेन जेल में

'राज्य' यानी स्टेट सबसे बड़ा गुंडा और अपराधी है। यह सिर्फ मेरा ही नहीं आम लोगों का भी मानना है। ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं जो सरकार को सबसे बड़ा अपराधी मानते हैं। जब बात बिनायक सेन की आती है तो यही ख्याल मेरे जेहन में आता है। बिनायक सेन को जेल और जनता का ख़ून चूसकर मलाई खाने वाले नेताओं को ऐय्याशी की तमाम सुविधाएं। बिनायक की घटना से दिल कांप उठता है। एक पल को तो लगता है कि हम अब भी पाषाण युग में जी रहे हैं, जहां जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। बिनायक सेन पर मामला माओवादियों से साठगांठ का है। यह सिर्फ सरकार ही मानती है। देश की जो सिविल सोसायटी है वह बिनायक के साथ है। फिर भी बिनायक पर शिकंजा कसा हुआ है। जब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज तक कहें कि बिनायक सेन को सजा दी गई है वह न्याय की हद है। मतलब एकबार फिर वही बात साबित होती है। सरकार के सामने सब बेबस। निरंकुश सरकार की तानाशाही। अब वक्त आ गया है कि कानून की आड़ में जो सरकार जो काली करतूत करती है उसका पोल खोल किया जाए। नहीं तो इसी तरह जनता का सारा धन स्विस बैंक पहुंचता रहेगा और हमारे ग़रीब भाई भूख और महंगाई की मौत मरते रहेंगे। महंगाई जब ख़ुद सरकार के नियंत्रण से बाहर हो गई है । उस पर उसका कुछ वश नहीं चल रहा है तो प्रधानमंत्री तक अनाप शनाप बयान देते घूम रहे हैं। मनमोहन सिंह ने हाल में मंहगाई की अजीब वजह बताई है। उन्होंने कहा है कि भारत के ग़रीब पहले की अपेक्षा अधिक खाने लगे हैं। नतीजतन ज़रूरी चीज़ों की क़ीमतों में इजाफ़ा हुआ है। इस बचकाने बयान की उम्मीद कम से कम उस शख्स से तो नहीं ही की जा रही थी, जिसने नई आर्थिक नीति -नव उदारवाद को भारत में जन्म दिया। एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री यदि ऐसी बातें करें तो समझ लेना चाहिए मानसिक संतुलन कुछ ठीक नहीं है। सही मायनों में इस तरह का बयान भेदभाव और देश विरोधी बयान है। देशद्रोही वो हैं, जो एक राज्य से दूसरे राज्यों में आए लोगों को समस्या की जड़ बताते हैं। कहीं अपराध होता है तो गृहमंत्री से लेकर वहां के मुख्यमंत्री तक मुंह ले के घूमते रहते हैं। अपनी नाकामी ठीकरा अप्रवासी लोगों पर पर ठहराते हैं। तो क्या यह हिंदुस्तान एक नहीं है। देश के अट्ठाइस राज्य और सात केंद्र शासित प्रदेश उस राज्य के लोगों के लिए ही हैं। ऐसे में कोई ऐसा कहे तो कहे लेकिन हमारा संविधान ऐसी बात कभी नहीं कहता। और जो संविधान के ख़िलाफ़ जाकर इस तरह का बयान देता है, सही मायनों में वह देशद्रोही है। लेकिन इन लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं होती। क्यों? तो भई ये सभी बयान नेता लोग देते हैं। और नेता कुछ भी बोलें करें...वो तो खुद को कानून से ऊपर की चीज़ मानते हैं। लेकिन उनके ख़िलाफ कोई कुछ भी कहे या फिर उनको जिससे भी डर लगता है उसे कानून का ककहरा पढ़ा दिया जाता है। जैसा कि बिनायक सेन के साथ हुआ। ग़रीब आदिवासियों के हितैषी को माओवादी बताना कितना हास्यास्पद लगता है। यह तो एक छोटा सा नमूना है। मसला चाहे सोहराबुद्दीन फर्जी एनकाउंटर का हो या बिनायक को जेल में बंद करने का सारे मामले सरकार के खिलाफ है। अलग-अलग पार्टियां पावर के लिए अलग-अलग बात कहेंगी। कभी हमारे साथ तो कभी हमारे खिलाफ। उनका सीधा वास्ता वोट से होता है। अब वक्त आ गया है कि सभी एक हो और क्रांति की मशाल थामनी होगी। नहीं तो आज बिनायक, कल आपकी और परसों मेरी बारी होगी। एक-एक कर सभी इसी तरह मारे जाएंगे। इंकलाब ज़िंदाबाद........

यूपीए-दो कैबिनेट में फेरबदल, महिलाएं 'वीक जेंडर'

मनमोहन सरकार ने अपने मंत्रिमंडल में फेरबदल तो काफी किया, लेकिन यह कवायद सिर्फ बदलाव का ढिंढोरा पीटने जैसा ही है. सबसे ताज्जुब इस बात से होती है की जिस यूपीए सरकार की चेयरपर्सन और कांग्रेस की अध्यक्ष एक महिला सोनिया गाँधी हों, उसके बावजूद एक भी महिला का कैबिनेट में शामिल न किया जाना हैरान करता है. यहाँ तक की एक भी महिला मंत्री को प्रमोट करके भी कैबिनेट का दर्ज़ा नहीं दिया गया. बात हम चाहे कुछ भी कहें या फिर कोई भी तर्क दें सब महज बहाना ही माना जायेगा. हकीक़त तो यही है कि मनमोहन सरकार की खास और थोड़े शक्तिशाली विभाग में महिलाओं को बहुत कम ही प्रतिनिधित्व मिला है. 78 मंत्रियों वाली कैबिनेट में महज आठ महिला मंत्री यानी सिर्फ दस फीसदी. जब महज दस फीसदी जगह मंत्रिमंडल में देने में इतना आनाकानी और जोड़ घटाव देखने में मिल रहा है तो संसद में ३३ फीसदी की भागीदारी की बात बेमानी ही लगती है.  कैबिनेट में जिन महिला मत्रियों को ज़िम्मेदारी दी गयी है, उन मंत्रालयों की कुछ ख़ास अहमियत नहीं है. मसलन, ममता बनर्जी को रेल मंत्रालय, अम्बिका सोनी को सूचना और प्रसारण और कुमारी सेलजा को आवास, शहरी गरबी उन्मूलन एवं संस्कृति मंत्रालय का ज़िम्मा सौंपा गया है. कृष्ण तीरथ अकेली राज्य मंत्री हैं जिन्हें स्वतंत्र प्रभार दिया गया है. उनको महिला और बल विकास मंत्रालय का ज़िम्मा सौंपा गया है. हालाँकि, कई महिलाओं का नाम सामने है और इनको मौका दिया जा सकता था. मसलनमहिला आयोग की अध्यक्ष गिरिजा व्यास, मीनाक्षी नटराजन, जयन्ती नटराजन आदि.

क्रिकेट में ख़त्म हुई दादा की दबंगई

क्रिकेट की आईपीएल मंडी एकबार फिर सजी. आईपीएल के पहले सत्र में जिन लोगों ने खिलाड़ियों की नीलामी को लेकर तमाशा खड़ा किया था, वह भी निढाल हो गए. चर्चा रही तो बस दादा की.कोलकाता के प्रिंस और महाराज कहलाने वाले सौरभ गांगुली की. वह भी उनके न बिकने की वजह से. इस मसले पर हो-हल्ला किसी ने किया हो या नहीं, लेकिन दादा के न बिकने की वजह से मीडिया को ज़बरदस्त मसाला मिल गया. सात दिनों तक समाचार दिखा-दिखाकर कि दादा नहीं बिके, दादा नहीं बिके. क्या यह दादा का अपमान है या कोलकाता का. या फिर भारतीय क्रिकेट का. मीडिया को भले ही इनमें से सभी का अपमान लगा हो, लेकिन मेरी मानिये तो क्रिकेट के जानकारों को किसी का अपमान नहीं लगा होगा. मुझे भी नहीं लगा, लेकिन हाँ दुःख बहुत ज्यादा हुआ. दुःख इसलिए कि मैं गांगुली का बहुत बड़ा फैन हूँ और अब मुझे उनकी बल्लेबाजी नहीं देखने को मिलेगी. मुझे आश्चर्य भी हुआ, इसलिए कि दादा ने अपनी टीम में सबसे ज्यादा रन बनाये थे और किसी भी युवा खिलाड़ी से उनका प्रदर्शन कमतर कभी नहीं था. लोग कह रहे हैं उनकी कप्तानी बेअसर रही, एक पल को मैं मान लेता हूँ थी. लेकिन इसके लिए उनके खेल को भला क्यों कसूरवार ठहराया जा सकता है. गांगुली समर्थक ये आस बांध रखे थे कि जब फिर से उन खिलाड़ियों की बोली लगेगी, जो बिके नहीं है, तो गांगुली अच्छी क़ीमत पर बिकेंगे. यह आस मुझे भी थी, लेकिन जब आप बाज़ार में खड़े हों और आपके सामान को कोई खरीदना नहीं चाहता तो आप ज़बरन उसे नहीं बेच सकते. हाँ, इतना ज़रूर कर सकते हैं कि अपने उत्पाद की ऐसी मार्केटिंग करें कि वह बिक ही जाये. आजकल तो कंघी की ऐसी मार्केटिंग हो रही है कि गंजे भी उसे खरीद रहे हैं और दादा तो कोहिनूर हैं. शायद अपनों ने ही उन्हें दगा दिया और जैसा कि कोलकाता टीम के मालिक शाहरुख़ ने भी कहा कि दादा को न खरीदने के फैसला क्रिकेट के जानकारों ने ही किया. उन्होंने कहा कि पहले संस्करण के बाद क्रिकेट से जुड़े मसलों पर फैसला उनके क्रिकेट दोस्त ही करते हैं. निराशा की बात तो यह भी थी कि भी टीम की सहमति से जिन 28 खिलाड़ियों के लिए फिर बोली लगी, उनमें न सौरभ गांगुली का नाम था, न ब्रायन लारा का, न मार्क बाउचर का और न सनथ जयसूर्या का. लेकिन मुझे सबसे अधिक निराशा दादा के न बिकने ससे हुई. उन्हें खेलते देखना शायद अब नसीब न हो.

बेमतलब

मैंने मान लिया है
क्या
ये सोचना अभी बाकी है
लेकिन
इतना तो तय है कि मैंने तय किया है थोड़ा रास्ता
बाकी रास्ता भी नाप लूंगा
तुम अगर यह मान सको 
तो बड़ा एहसान होगा और रास्ता छोटा

मैंने सुन लिया है
क्या
यह कह नहीं सकता
लेकिन
जो भी है वह किसी शीशे की दीवार जैसा है
टूट सकता है
थोड़ी सी मुस्कराहट से ही
तुम अगर मुस्करा सको
तो बात एक होगी और टुकड़े कई

पर मैं जानता हूं
ऐसा कुछ भी नहीं है
कोई रास्ता नहीं है, कोई बात नहीं है
कोई  दीवार,कोई एहसान भी नहीं
है तो बस
तुम और मैं
और
एक दिन
ये भी नहीं रहेगा
बचेगी तो बस ये बेमतलब कविता
                   ---पावस नीर---
यह कविता क्यों लिखी गयी इसका जवाब नहीं मिल पाया. लेकिन जैसा कि हर रचना की अपनी नियति और महत्व होता है, यह बात इस पर भी लागू होती है. लेकिन, यह कविता भला क्यों तो इसका जवाब है आज की भाग दौर भरी ज़िंदगी में जब एक युवा बहुत ही व्यस्त शेड्यूल में अचानक ही कुछ सोचता है तो वह क्या है और भला वह ऐसा क्यों सोचता है इसकीझलक मिलती है.

हमारा अपना पाकिस्तान

पाकिस्तान में पंजाब राज्य के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या ने एक बहुत बड़ा सवाल हमारे सामने छोड़ा है. तासीर पाकिस्तान में एक उदारवादी चेहरा थे. सबसे दुःख की बात की जब-जब पकिस्तान में उदारवादी ताकतें अपना जुबान खोलती हैं, उसका अंजाम कुछ तासीर की ही तरह होता है. ऐसी आवाजों को अतीत में सैनिक शासन ने दबाने का काम किया अब अतिवादी लोग यह कर रहे हैं. हालात पहले से बदतर और संगीन हैं. वजह, ऐसे लोग अब आवाम के बीच ही फलफूल रहे हैं. अपनी अलग विचारधारा बना रहे हैं. लोगों को अपनी विचारधारा से जोड़ रहे हैं. यही वजह है कि तासीर के अंगरक्षक  ने ही उनकी हत्या की. खबर तो यह भी है कि हत्यारे मुमताज़ कादरी ने अपने नापाक मकसद को अंजाम देने से पहले अपने साथियों यानी बाकी के अंगरक्षकों से कहा कि वह तासीर की हत्या करने जा रहा है. कादरी ने यह भी कहा कि वह हत्या के बाद आत्मसमर्पण भी कर देगा इसलिए कोई मुझ पर गोली मत चलाना और हुआ भी ऐसा ही. यानी बाकी के अंगरक्षकों की भी सहमति थी, नहीं तो ऐसी नौबत में हत्यारे को मौका-ए-वारदात पे ही सुरक्षा अधिकारी मार गिरते. पर यह हुआ नहीं. पर इस सबसे अलग अहम सवाल यह है कि क्या तासीर की हत्या को पाकिस्तान में उठ रहे उदारवादी आवाजों को दबाने कि कोशिश के तौर पे देखा जाये? अगर ऐसा है तो हमारा पड़ोसी एक कुचक्र में घिरता जा रहा है. उसे बचाने की तमाम कोशिशें नाकाम हो रही हैं. कोशिशों के नाकाम होने की वजह ठोस और सशक्त कोशिश का न होना. यह कुछ ऐसा ही है जैसे ग़ुलामी के दिनों में सन 1857 की क्रांति. अंग्रेजों के ख़िलाफ़ देश के कोने कोने से आवाज़ उठी, लेकिन यह आवाज़ दबी थी नतीजतन अंग्रेजों को उसे कुचलने में ज्यादा मशक्कत करने की ज़रुरत ही नहीं पड़ी. पाकिस्तान में भी उदारवादी ताकतों की भी यही हालत है. कभी पंजाब से तो कभी लाहौर और कभी कराची से चरमपंथियों के ख़िलाफ़ आवाजें उठती हैं. लेकिन इन्हें कुचलने में दिक्कत नहीं होती, क्योंकि इन आवाजों में ताकत ही नहीं है. एक बार पूरे आवाम को जोर का धक्का लगाना होगा. तभी मेरा प्रिय पाकिस्तान अपने पैसों पर खड़ा हो सकेगा. अधिकांश पाकिस्तानियों की तरह मेरा भी मानना है कि अमेरिका का दखल ग़लत है. मैं भी चाहता हूँ पाक कुछ भी करे अपने बूते पर करे. ग़लत फैसले सभी लेते हैं और ग़लतियाँ सभी से होती हैं. इसका मतलब नहीं कि वह हमेशा ग़लत ही होगा. पाकिस्तान के साथ भी ऐसा ही है. और इसका फ़ायदा सत्ता प्रतिष्ठान उठा रहा है. आवाम को नींद से उठाना होगा और अल्लाह, आर्मी और अमेरिका में अल्लाह के रास्तों पर चले. यह रास्ता वाकई ख़ूबसूरत है. बस ज़रूरत है उस सही रास्ते को समझने की. खासकर कादरी जैसे लोगों को. यही लोग हैं जो दो-राहे पर हैं. और इनसे ही पाकिस्तान की किस्मत बनेगी.

ठंड बढ़ी या ग़रीबी

लोग कह रहे हैं कि ठंड ज्यादा है। क्या वाक़ई? क्या इससे ज्यादा ठंड कभी नहीं पड़ी। या कहीं नहीं पड़ती? दिलीप मंडल साहब अपने फेसबुक के स्टेटस मैसेज पर लिखते हैं, 'जो पत्रकार लिख रहे हैं कि ठंड से इतने लोग मरे...उतने लोग मरे, वे या तो बेवकूफ हैं या फिर शब्दों का अर्थ बदलने की सत्ता की साजिश में हिस्सेदार। कोई भी आदमी ठंड से नहीं मरता, गरीबी से मरता है। अगर ठंड से लोग मरते तो अलास्का, आइसलैंड और स्कैंडेनेवियाई देशों में कोई जीवित नहीं बचता, जहां साल में कई महीने तक तापमान शून्य से काफी नीचे रहता है।' यह बात सौ फ़ीसदी सच है...हम लोग ठंड का हो हल्ला मचाकर ग़रीबी को ठंड से ढकने की कोशिश करते हैं...दुख की बात तो यह कि सफल भी हो जाते हैं..यह एक कड़वी हक़ीकत जो आज के हमारे चिल्लाऊ पत्रकार बंधु समझना नहीं चाहते। दूसरी बात यह है कि आज जो सत्ता की साज़िश में शामिल नहीं है, वह सत्ता का दलाल बनकर काम कर रहा है। मतलब दोनों हालातों में मरना उसी को है जो दशकों से मरता आया है। और उसी की मौत का तमाशा दिखाकर या छापकर हमारे बंधु अपनी अय्याश ज़िंदगी जीते हैं। और, ग़रीब ठंड में मरता है, गर्मी में लू से मरता है बरसात में बाढ़ से मरता है और तो और  इलाज न होने की हालत में छोटी-मोटी बीमारियों से मरता है। वैसे मरना सबको हो, लेकिन उसका मरना औरों के मरने से अलग होता है। पैसे वालों को न तो सर्दी लगती है न गर्मी। उनके लिए तो यह बस उल्लास और कौतूहल की चीज है। हमारे लिए भी यह किसी कौतूहल से कम नहीं। मैं क्या कर रहा हूं, बस लिख रहा हूं या कभी दिल नहीं मानता तो किसी ग़रीब को कुछ दे देता हूं। लेकिन, रेत के मैदान में एक बूंद पानी कुछ नहीं कर सकता। उसी तरह यह करना भी ठेस पहुंचाता है।

विधायक की हत्या और नीतीश से कुछ सवाल

बिहार में कल बेहद ही दुखद घटना घटी। आपमें ज़्यादातर को पता होगा पूर्णिया के भाजपा विधायक को एक महिला ने चाकू से मार डाला। महिला शिक्षा के पेशे से थी और विधायक साहब को भाजपा का युवा और प्रतिभाशाली राजनेता कहा जा रहा था। कम से भाजपा के नेता उनकी मौत के बाद अब तो ऐसा ही कह रहे हैं।  विधायक जी हत्या के बाद नीतीश सरकार को अपने विधायकों की सुरक्षा की चिंता सताने लगी है। जनता की सुरक्षा पर उनका ध्यान नहीं गया। उनका ध्यान उस महिला के आरोप पर नहीं गया। जनता दरबार नीतीश भी लगाते हैं। मुमकिन है कइयों की समस्या उससे सुलझी हो, लेकिन अधिकांश की नहीं ही सुलझी होगी। इसका प्रमाण फिर कभी। तो उस महिला ने जो संगीन आरोप लगाए उस पर नीतीश बाबू ने इसलिए कान नहीं दिया, क्योंकि शायद बलात्कार के आरोप का मामला हत्या की  तुलना में कमतर ठहरता है। मुमकिन हो ऐसा हो। लेकिन, क्या यह सोचना कम तक़लीफ़देह है कि वह महिला तीन साल से लगातार बलात्कार का दंश झेल रही थी। सिर्फ़, विधायक जी ने मुंह काला नहीं किया, उनके चमचों ने भी उस स्कूल शिक्षिका की ज़िदगी को जहन्नुम में तब्दील कर दिया। जैसा कि उसने आरोप लगाया है। मेरे कई साथी कहते हैं, यह मुमकिन है विरोधियों की साज़िश हो। हां, हो सकता है हालिया चुनाव में हार का ग़म न पचा पाए हों, तो बदला लेने के लिए ऐसा मुमकिन है। भारतीय राजनीति की यह एक कड़वी सच्चाई है। यहां विरोधी रंजिश में कुछ भी कर सकते हैं। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं कि यह सच हो। जांच की बात पहले सामने आती। नीतीश जी ने भी यह बात कही। पुलिस अधिकारियों ने भी जांच की बात कही। सबसे दुखद था नीतीश बाबू का बयान। उन्हें अपने विधायकों की सुरक्षा ज्यादा परेशान कर  रही थी, जनता की नहीं। जैसे, विधायक किसी दूसरे ग्रह से टपके हों और उन्हें इंसानों से ख़तरा हो। मेरा कहना है, विधायक जी को जनता यानी इंसानों ने ही चुना था। तो हज़ार या लाखों लोगों का प्रतिनिधि होने से उन्हें अधिक सुरक्षा क्यों? उन पर तो और ज़िम्मेदारी बढ़ गई। इसका मतलब विधायकजी को अपने लोगों पर ही, जिन्होंने उन्हें चुना, उन पर ही भरोसा नहीं है। हां, अगर इस हादसे के संदर्भ में देखें तो वह महफूज नहीं हैं, क्योंकि उन पर संगीन आरोप लगे थे। एक महिला की आबरू को तार-तार करने का। उस महिला ने शिकायत भी दर्ज कराए। लेकिन हुआ कुछ नहीं। तीन साल से शोषण होता रहा। आख़िरकार, उसने एक हिंसक और अपराध वाला रास्ता चुना। लेकिन, इसके लिए वह आज़ाद है, जहां लोगों को न्याय न मिले और नेता-विधायक झूठ और बलात्कारी का चोंगा पहनकर इज्ज़तदार की ज़िंदगी जीते रहें तो कम से कम समझता हूं ऐसी घटनाएं रूकेंगी नहीं। नीतीश बाबू कितनी भी कोशिश कर लें। उन्हें चाहिए कि महिला विरोधी रुख त्यागकर, पहले मामले का कच्चा-चिट्ठा जानें। जांच ईमानदारी से कराएं और यदि जांच में विधायकजी को दोषी पाया जाता है तो उन्हें यूं भी सज़ा नहीं दी जा सकती। कम से कम उस महिला को सज़ा न होने पाए इसका पुख्ता इंतज़ाम करें। वैसे भी हमारा क़ानून अंधा है, जब तक उसकी बारी आएगी शायद वह मर भी चुकी हो। या फिर क़ानून उसे उस अपराध की सज़ा दे जो उसने तीन साल तक घुट-घुटकर जीने के बाद किए।

नया साल भला नया क्यों?

नए साल का आज पहला दिन है। पहली तारीख। क्या लिखूं , कुछ समझ में नहीं आ रहा है? कई बातें दिमाग में आ रही हैं और जा रही हैं। उसे शब्दों में उतारने में असमर्थ पा रहा हूं, बस ज़रा यही दिक्कत है। फिर भी कोशिश करता हूं। पुराने साल के आखिरी दिन और  नए साल के पहले दिन कुछ बातें बेहद कॉमन होती हैं। लोग एक-दूसरे को बधाई देते हैं। एक रिवाज सा। सभी आपसे आपके रिजॉल्यूशन पूछते हैं। ये दो बातें बेहद आम हैं। अच्छा लगता है लोगों को बधाई देना और उनसे शुभकामनाएं लेना। लेकिन, मैं ज़रा अलग सा हूं। पता नहीं मुझे बधाई की खानापूर्ति क्यों पसंद नहीं? कुछ वाकई आपके शुभचिंतक होते हैं तो कुछ रिश्तों को ढोने के लिए शुभ संदेश आपको भेजते हैं। कह सकते हैं यही तो हिंदुस्तानी तहज़ीब की ख़ासियत है। अगर ऐसा है तो मुझे यह पसंद नहीं। अब, बात रिजॉल्यूशन की। हर साल हम खुद से एक वादा करते हैं। कई बार तो वहीं वादा हर साल करते हैं। बार-बार करते हैं। कहते हैं रिश्तों की वजह से ही समाज नामक संस्था जो है वह टिकी है। लेकिन उन रिश्तों का क्या जो रेत की नींव पर टिके हैं। मेरे संबंध भी कुछ इसी तरह के हैं। हालांकि वो बेहद प्यारे हैं। उससे अलग होने का जी नहीं करता है। लेकिन पूरी ईमानदारी नहीं निभा पा रहा हूं। उन्होंने काफी कुछ किया मेरे लिए। शायद इससे उनको मुझसे कुछ उम्मीदें भी हैं। पर मैं उन उम्मीदों पर सही नहीं उतर पा रहा हूं। मैं दोष नहीं दूंगा। ग़लतियां हर किसी से होती हैं। आज मैं किसी पर कोई तोहमत नहीं लगाऊंगा। बस बच के निकलना चाहता हूं और चाहता हूं एक सुकून भरी ज़िंदगी। चाहता हूं कुछ रिश्तों से कुछ वक्त के लिए पूरी आज़ादी। यह सवाल मेरे सामने खड़ा है एक चुनौती की तरह। एक तरफ खाई तो दूसरी तरफ शेर के हालात हैं। शायद मुझे जोख़िम मोल लेना चाहिए। और, मैं लूंगा। मतलब नए साल मेंरा रिजॉल्यूशन कुछ संबंधों के बोझ को कंधे उतारना है। मैं जीना चाहता हूं अपनी ज़िंदगी। और चाहता हूं खुद की इज्जत करना। अपने अतीत को भूलाकर वर्तमान में जीना चाहता हूं। अपने दोयम व्यक्तितत्व को हमेशा के लिए अलविदा कहना चाहता हूं। मैंने तय किया-अब डरूंगा नहीं। हार नहीं मानूंगा और न झुकूंगा। बस अपने अस्तित्व के लिए आख़िरी सांस तक लड़ूंगा। तो दोस्तों...नहीं कहना है कुछ मुझे उनसे जो साल भर अपनों की आड़ में ज़ख्म देते रहे। न कोई गिला और न ही शिकवा उनसे भी जिन्होंने कभी मेरा भला चाहा ही नहीं। वो मेरा मुक़द्दर था। मेरी ज़िंदगी थी। हां, शुक्रिया ज़रूर कहूंगा आपको और उन सभी को भी जिनसे मुझे परेशानी हुई, क्योंकि इंसान हर पल और किसी से कुछ न कुछ सिखता ही है। मैं भी उनमें से एक हूं, जो अभी एक ज़िंदगी का विद्यार्थी ही है वह भी निचले दर्जे का। नए साल की ढेरों शुभकामनाएं सभी को!