पांच बरस बीत गए

ख़त्म होती जा रही है संवेदनशीलता,
दूरियां क्या रिश्तों को भी
कमजोर कर देती है,
पांच बरस रहा अपनों से दूर,
खूब घूम-घूम और विघ्नों को चूम,
जब दिक्कत थी, तो दुनिया भी थी,
जब सपने थे, तो अपने भी थे,
पांच बरस कैसे बीते, सोचने पर पछताता हूँ,
पर बीती बातों को सोचने से क्या होता है,
आगे बढ़ने से नहीं होगा हासिल कुछ,
रिश्ते तो बिखर गए न,
जिनमे यकीं बाकी हैं,
वो भी दरकने लगे हैं.
बीत गए पांच बरस बिरह में,
टूट गयी आस अब मिलन की,
न दर्द रहा न उसका अहसास,
बाकी है तो बस यादों की चंद घरियाँ,
जिनमें अब भी गुज़रती है,
मेरी सबसे अच्छी शाम.
पांच बरस बीत गए,
बिना किसी को भूले,
यादों को सजोने में थोडा वक़्त लगता है,
उनमें भी अच्छी और बुरी यादें भी,
बुरी यादों का भी भाव बढ़ने लगा है,
उसे याद कर रोने वाले,
और छुप कर पीने वाले,
गले लगाने लगे हैं.

चलो ज़ख्म को ज़रा याद करें

कुछ दिनों से कई बातें मन में चल रही हैं. काफी उहापोह का माहौल बना हुआ है. एक साथ कई बातों के घुल मिल जाने से सर फटा जा रहा है. बात कहाँ से शुरू करूं, समझ में नहीं आ रहा है. दरअसल आजकल एक अलग तरह का जुनून स्वर है सर पर. वह आखिर है क्या मुझे भी समझ नहीं आ रहा है. पिछले कुछ दिनों से अपने अस्तित्व को लेकर एक अजीब सी उलझन में फंसा हुआ हूँ. यह उलझन कहाँ तक ले जाती है, पता नहीं. पर मुझे मालूम है या तो कुछ अच्छा होगा नहीं तो बुरा. जब तक हिम्मत है खुद से लड़ने का ज़ज्बा है तब तक कुछ बुरा होने की उम्मीद नहीं है. जिस दिन मेरे और मेरे मन के बीच यह जंग ख़त्म होगी, तब तक उम्मीद बाकी है. यह जंग कब ख़त्म होगी इसका इंतज़ार मुझे भी बड़ी बेसब्री से है. मै बस कर्ता की तरह कर्म किये जा रहा हूँ. क्यों किये जा रहा हूँ, पता नहीं. बस आजकल तो यही है, कि जीना है तो कुछ करना होगा. जीने के लिए काम के अलावा कुछ निजी वक़्त भी निकाल ले रहा हूँ. शुरू वक़्त खूब होता था, पर करना क्या है, इस पर उलझता रहता था. जो करना चाहता था वह नहीं कर पाया, तो आज वह सब करना चाहता हूँ, जो जी में आता है. इसके लिए कभी हंसी का पत्र बनना पड़ता है तो कभी, जोश में बहुत म्हणत करने का मन करता है, ताकि कोई मेरी कमजोरी पर हँसे नहीं. हाँ, यह गनीमत है कि अभी तक मैंने हार नहीं मानी है. जिस हार मान लूँगा, उस दिन मेरा वक़्त ख़त्म हो जायेगा. इसलिए जब तक ज़ज्बा है, तब तक जीत कि आस है. क्योंकि हर हार के बाद यही सोचता हूँ कि यदि मै सफल नहीं हो पाया तो, यह मेरी नहीं मेरे द्वारा चुने गए रास्ते की असफलता थी. हार मेरी नहीं मेरे तरकीबों की होती है.  आजकल फिर किसी मकसद को पूरा करने मेंलगा हूँ. सफल होता हूँ या नहीं, इसका डर नहीं है. बस थोड़ा भटक जाने का खतरा है. पहले से ही दलदल में फंसा हूँ, एक और ज़ख्म और खेल ख़त्म तो नहीं, लेकिन अंजाम का पता नहीं.....

DUSU's ELECTION: MORTIFYING OR MOTIVATING

It's election time. Ravish kumar is reporting from bihar and me from university of delhi. Just kidding, but facts are very true. so, don't take it lightly. bihar is more than two months away for it's poll and university of delhi is just two weeks. Ravish kumar has started his work on it, but still i have to. IN Bihar, incumbent government chief Nitish kumar is shaking hand with whom, those have muscle and money power. like Anant singh, Anand Mohan. same alphabet, perhaps nitish thinks alphabets are going to change his fate. It's a wellkonown saying or proverb which is as follows power corrupts politician. Here nitish is not corrupt, but allegations are made on him, which is true or not i can't say, not because of my nature, but situation. ok... much things have been discussed about it. Here in university students leaders will ask you which state do you belong, the after they started to tell you many of mine friends are from there. if you have any problem just come to me. first time it's look cool and nice, but these are the things which is going on everyday. sometimes what does happen, withinn two to three hours same candidate comes to you, shakes his hand and ask your name, about your permanent living place, then start to tell his purpose, that why did he come to you. He says, he needs your help as he is the candidate of for president, vp, js and so on...But, you know it makes me fraustrate and my fraustration irritate me a lot. What i think, which could be the suggestion for them, is that they shoud not mortifying the sutdends by their routine and cumbersome behaviour, they should motivate in stead of mortify. I think it's enough for now, later we'll have a lot for discussion as campaign is getting full fledeg coverrage by local newspaper and channels. So, I'm wraping up my this little chit-chat with you, so that i could proceed with my other work.

अच्छा मानसून या सफल कॉमनवेल्थ

दिल्ली पर इन्द्र भगवान कुछ ज्यादा ही मेहरबान हैं. वैसे भी सुना था, दिल्ली कि सर्दी बहुत तरसाती और तड़पाती है. पर इस बार यह काम बारिश कर रही है. महंगाई और कॉमनवेल्थ गेम्स में भ्रष्टाचार की गर्मी से तपती दिल्ली के लिए बारिश रहत लेकर आयी है. हो सकता है यह बारिश खेलों के लिए खलनायक बने. बहुत सारा काम बाकी है. बारिश इसमें अडंगा डाल सकती  नहीं, बल्कि डाल रही है. इससे पहले दिल्ली में इतनी बारिश नहीं देखी थी. अबकी देखकर लगता है, भगवान् आम आदमी के साथ हैं और इन खेलों के खलनायक का मुंह काला करना चाहते हैं. पिछले दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया में एमजे अकबर का लेख पढ़ा. उसमें उन्होंने दिल्ली वालों से पूछा कि आप क्या चाहते हैं? एक अच्छा मानसून या सफल कॉमनवेल्थ खेल, जों भ्रष्ट्राचार की बुनियाद पर खड़ा है. पिछले ५-७ दिनों में दिल्लीन में बेहतरीन बारिश हुयी इससे लगता है कि दिल्ली वालों ने अपना फैसला सुना दिया है. उन्हें क्या चाहिए अब यह सवाल सामने न ही आये तो अच्छा है. सुरेश कलमाडी के नेतृत्व वाली राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति पर कई सवाल उठ रहे हैं. वैसे भी बिना आग के कहीं धुआं नहीं उठता है. मतलब साफ़ है. आयोजन समिति ने राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के लिए कंस्लटेंसी यानी सलाहकार सेवाओं के लिए टेंडर खोले और आख़िरकार ये टेंडर उस कंपनी को मिले जिसने अपनी सेवाओं के लिए दूसरों से कहीं ज़्यादा पैसे माँगे थे. इसका अर्थ ये निकाला जा सकता है कि जहाँ पर आयोजन समिति करोड़ों रुपए ख़र्च होने से बचा सकती थी. लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. अब क्यों नहीं किया इसे समझने में ज्यादा परेशानी नहीं होनी चाहिए.
कल हम आज़ादी कि चौसठ्वीं सालगिरह मनाएंगे. पर, आज भी हम उन्हीं समस्यायों से जूझ रहे हैं, जों ४० साल पहले हमारे सामने थे. मसलन गरीबी, बेकारी, भ्रष्ट्राचार, घोटाला, महंगाई कई चीज़ें हैं. बेशक हमने तरक्की की है. लेकिन इसकी कीमत भी हम ही चुका रहे हैं. यह तरक्की भी एकतरफा है.  

स्वतंत्रता दिवस- चाहिए साधु और मंत्री

१५ अगस्त जल्द आने वाला है. राष्ट्रमंडल खेल भी. ऐसे में मुझे मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई याद आ रहे हैं. वो हमेशा इन अवसरों पर उदास रहते थे.वजह नीचे है..इसे उनकी रचना के आधार पर आपके सामने लेकर हाज़िर हूँ...
हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को मैं सोचता हूं कि साल भर में कितना बढ़े हम। एकबार फिर 2009 के बाद 15 अगस्त 2010 आ गया। यह स्वतंत्रता दिवस है। पर, स्व और तंत्र की हालत क्या है, यह मत पूछिए। स्व कोई रहा नहीं, सारे के सारे पर में बदल रहे हैं। तंत्र नाम की कोई चीज रह नहीं गई। पहले गणतंत्र हुआ करता था। वह भी गनतंत्र हो गया। इस पूरे साल मैंने दो चीजें देखीं। दो तरह के लगो बढ़े- साधु और मंत्री। सोचता था आम आदमी के जीवन में इससे तरक्की आएगी। उसकी समस्याएं कम होंगी, पर नहीं। बढ़े तो साधु और मंत्री। मेरा अंदाजा था, इससे आम आदमी की मुश्किलें कम होंगी-मगर नहीं। बढ़े तो ये ही दोनों। दोनों हमजोली हो गए। कभी-कभी सोचता हूं कि क्या साधु और मंत्री गरीबी हटाओ प्रोग्राम के तहत ही आ रहे हैं। क्या इसमें कोई योजना है। रोज अखबार उठाकर देखिए तो सामने आएगा, वैद्य रहमानी के पास आइए, सारे कष्ट दूर भगाइए। बीवी से लड़ाई हो, प्रेमिका से बन आई हो, या प्रेमिका को करना हो वश में या फिर दोस्त बन गया हो दुश्मन, ये विज्ञापन अटे पड़े होते हैं। हमारे पास आइए समस्या का समाधान पाइए। साधु हर तरह की समस्याओ को दूर कर रहा है। क्यों न फिर भारत के शीर्ष पद पर बैठा दिया जाए. आम आदमी की समस्याएं आसानी से खत्म हो जाएंगी। इधर, सुना भी है कि अगले लोकसभा चुनाव में साधु सबकी समस्या दूर करेंगे। वह खुद चुनावी दंगल में कूदेंगे। सारे बाबा लोग एक से एक तरकीब सुना रहे हैं। एक बाबा के आश्रम में बच्चों की मौत लगातार होती रही है। सुना उनके आश्रम में काला जादू होता है। बाबा रिद्धि-सिद्धि करते हैं। शायद जादू-टोना इसलिए कि देश को सभी समस्याओं से मुक्ति दिला सकें। एक बाबा योग के जरिए राजनीति में घुसपैठ करना चाहते हैं। वह लोगों को तरह-तरह के योग सिखाते हैं, ताकि वे स्वस्थ रहें, कभी लौकी का जूस तो कभी करैला का। लौकी से कोई मर जाता है तो वह बचाव में सामने आ बैठते हैं। एक बाबा क आश्रम में प्रसाद बटने के दौरान भगदड़ मचती है, सैंकड़ों काल के गाल में समा जाते हैं. बाबा कहते हैं यह ऊपर की कृपा है, उसने अपने भक्तों को बुला लिया, तो मेरा क्या कसूर।
जारी...

कोई वजह तो हो

वो सचमुच बेहद खूबसूरत है। बिल्कुल गंगा की तरह निर्मल और उनमुक्त। जी चाहता है उसे कभी खुद से दूर न जाने दूं। उसकी आंखों में मदहोशी और जुल्फों में काली घटा। बोलती है तो मानो मोती गिर रहे हों। चलती है तो मन का मयूर नाचने लगता है। उसका मुस्कुराना, दिल पर कहर बनकर गिरता है। जब वो झुकी नजरों से देखती है तो दिल मचल उठता है। उससे बातें करने का तो जी बहुत चाहता है, पर बेबसी सामने जाती है। कुछ न कह पाने की बेबसी। इंसान जब जन्म लेता है तो उसमें जो तमाम खुबियां या खामियां आती हैं, वह उसके परिवेश और जिस तरह से उसका पालन पोषण होता है, उसी आधार पर आती है। ज़िदगी के हर मोड़ पर मैं असफल रहा हूं। यदि आप अपनी मर्जी से ज़िदंगी नहीं जी रहे हैं तो गुलामी की ज़िदगी जी रहे हैं। जन्म लेने के बाद से ही हमे गुलाम बना दिया जाता है। पहचान के नाम हमारा नामाकरण किया जाता है। इंसान बहुत ही स्वार्थी है। वह हर चीज के लिए जस्टीफिकेशन ढूंढ लेता है। यदि वह गलत भी करता है तो तरह-तरह के तर्को से खुद को समझाता है कि नहीं तुमने जो किया है वह सही है। तुमने सबसे अलग काम किया। तुमने वह काम किया है जो कोई नहीं कर सकता। ऐसी बहुत सी बातें या तर्क हैं जो गलत करने पर हम खुद सही साबित करने के लिए देते हैं। कितना झूठा दिलासा अपने दिल को हम देते हैं। दुनिया की तहजीब ही यही है। यहां कोई भी आपके दर्द या आपकी बातों को समझना नहीं चाहता। समझे भी क्यों, सभी के पास अपनी-अपनी समस्या है। मुझे समस्या है कि मैं एक गांव से दिल्ली में आया। मेरी पढ़ाई-लिखाई बेहद ही लो-प्रोफाइल स्कूल,जिसे हम सब गांव का स्कूल कहते हैं में हुई। उसके बाद यहां यानी दिल्ली आया तो हिंदी में ग्रैजुएशन किया। साला इस देश की मातृभाषा हिंदी है, इसकी कद्र कोई नहीं करता। अंग्रेज चले गे, लिकन अभी भी हमें गुलाम बनाए हुए हैं। हम अपने आप को महान समझते हैं। भारत महान देश। पर सच मानिए यहां महनता के लायक कुछ भी नहीं है। आजादी की 63वीं वर्षगांठ हम मनाने जा रहे हैं, लेकिन हम बात क्या कर रहे हैं, खेलों में घोटाले की। यहां एसे हरामी नेता पड़े हैं, जो हर इवेंट को अपनी झोली भरने का मौका मानते हैं। माफ करना दोस्तों कहां से शुरू किया और कहां पहुंच गया। पर, क्या करूं कभी किसी को मुकम्मल जहां, जो नहीं मिलता। मुझे मेरी ज़िंदगी चाहिए, लेकिन मेरी ज़िंदगी कहीं और कैद है। उसे मेरे होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। अब मैं क्या करूं। इस बात की तकलीफ तो बहुत है, लेकिन क्या कर सकता हूं। हां, वो ज़िंदगी भी मांगे तो कुर्बान करने को तैयार हूं। लेकिन इसकी भी किसी को कहां फिक्र है?

‘वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई’ यानी मौत गरीबों के मसीहा की

‘वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई’ बहुत दिनों बाद 70 के दशक की याद आई। जब फिल्मों का नायक गरीबी में बचपन गुजारने के बाद जवानी अमीरी में मौत और जीवन की खतरनाक खेल की बीच गुजारता है। जीत मौत की होती है। अफसोस हर किसी को होता है। जब इंसान अपराध की दुनिया छोड़ अच्छी राह बनाने की सोचता है, मौत ही उसे गले लगाती है। इसकी तुलना मैं अमिताभ बच्चन के फिल्मों से कतई नहीं करूंगा। अजय देवगन का एक अलग अंदाज है। उनमें अमिताभ जैसी बात न हो, शाहरूख जैसी फैन फॉलोइंड भले ही न हो, लेकिन आज के नायकों में वह बिल्कुल जुदा नजर आते हैं। रील लाइफ को रियल एहसास कराने का माद्दा उनमें ही दखता है। एक मोड़ पर वह इन सबसे बेहतर नजर आते हैं। ‘वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई’ यही साबित करती है। लोग कह रहे हैं, यह फिल्म मशहूर (?) डॉन हाजी मस्तान, अजय देवगन का चरित्र (मस्तान) और इमरान हाशमी का दाउद इब्राहिम से प्रेरित है। मस्तान को मशहूर इसलिए कहा क्योंकि जब गरीबी छाई हो और पेट अन्न के दानों के बिना चिपटा जा रहा हो, दो रोटी देने वाला ही खुदा होता है। आजादी की वर्षगांठ एकबार फिर हम इस महीने की 15 तारीख को मनाने जा रहे हैं। यह 63वीं वर्षगांठ होगी यानी हमें आजाद हुए तिरेसठ बरस बीत गए, लेकिन आज भी बहुसंख्यक आबादी दो वक्त की रोटी की खातिर जान गंवा रहा है। कुछ नक्सली के नाम पर ढेर किए जा रहे हैं तो कुछ किसी और के नाम पर। सच्चाई तो वाकई यही है कि सन् 47 के पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे और उसके बाद गरीबी के। पहले हमें दूसरों ने लूटा अब अपने नोच- खसोट रहे हैं। इस फिल्म को देखकर हम अपनी गरीबी के मसीहा को पाते हैं। सुल्तान मिर्जा का किरदार यदि मस्तान से प्रभावित है तो वाकई वह उन लोगों के लिए खुदा था, जिसकी उसने मदद की। सरकार के खिलाफ उसने बेशक काम किए, क्योंकि सरकार जिस काम की इजाजत नहीं देती, वह वहीं काम करता था। वह काम वह कभी नहीं करता था, जिसकी इजाजत जमीर नहीं देता। इसकी तर्ज पर कहूं तो सरकार हर उस काम को नहीं करती या करने देती, जो उसके खिलाफ और जनता के हित में हो। इंसान का जमीर सरकार से बड़ी चीज है। सरकार गोली तो दे सकती है, पर रोटी नहीं। नक्सलियों को मार तो सकती है, लेकिन नक्सली बनने की वजह को नहीं मार सकती। लिखना तो फिल्म के बारे में ही चाहता था, लेकिन फिल्म दिल के इतना छू गई कि क्या कहूं मन का गुबार सामने आ गया। ‘वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई’ के नायक अजय देवगन हकीकत में नायक नजर आने लगते हैं। वह हर उस शख्स की आंखों में उम्मीदों नजर आते हैं, जिसकी जिंदगी गरीबी में बीती है। इसे एहसास करने का दावा वही कर सकता है, जिसने गरीबी को जिया है। फिल्म में जब तक अजय देवगन जीवित रहते हैं, गरीबों का मसीहा, जिंदा रहता है। पर, उनके मरते ही, गरीब फिर से मनहूस जीवन को मजबूर हो जाते हैं। कड़वी सच्चाई यह है कि असल जिंदगी का फलसफा भी यही है। यहां गरीबों का परवाह करने वाला, उसके हक की लड़ाई करने वाला ज्यादा वक्त तक जिंदा नहीं रहता या रहने नहीं दिया जाता। यानी अमीरी ही हमेशा जिंदा रहती है तो मौत गरीबों के लिए। मेरे जेहन में यह सवाल बार-बार उठ रहा है, आखिर मौत हमेशा बदलते वक्त की क्यों होती है। बदलाव शायद सिर्फ संपन्न और सक्षम लोगों के लिए ही है।

शर्मिंदा हूं ऐसी मर्दानगी पर

पुरुषों को जब भी मौका मिलता है, सबसे पहले वह अपनी मर्दानगी दिखाना शुरू कर देता है। उसकी मर्दानगी यह होती है शोषण। यह बात सभी पर लागू नहीं होती है, पर पिछले कुछ वक्त में इस तरह के मामले काफी बढ़े हैं। मामले कम उम्र की लड़कियों के शोषण के, उनके साथ गलत संबंध बनाने। उन्हें बहला-फुसलाकर, डरा-धमकाकर वह कुकृत्य को अंजाम देने से बाज नहीं आते। हालिया, हैदराबाद के पार्कवुड स्कूल का है। स्कूल के प्रिंसिपल पर बेहद ही संगीन आरोप लगाए गए हैं। उसने ग्यारहवीं क्लास की एक छात्रा के साथ बलात्कार किए। एक नहीं कई बार। यह कोई पहली बार नहीं है, जब इस तरह के मामले सामने आए हैं। वह स्कूल के मामले। शिक्षकों ने जब अपनी छात्रा के साथ ही इस तरह की अमानवीय हरकत की हो। 22 जुलाई को हैदराबाद के स्कूल के प्रिसिंपल को ग्यारहवीं की छात्रा के साथ बलात्कार करने आरोप में गिरफ्तार किया गया। छात्रा के गर्भवती होने के बाद यह मामला सामने आया। मुंबई में 1 जुलाई को एक टीचर को 13 साल की छात्रा के यौन-शोषण के आरोप में पकड़ा गया। फरवरी में दिल्ली में ही 24 साल के एक शख्स ने दो साल की मासूम को पहले किडनैप किया, फिर उसके बलात्कार किया। दिसंबर 2009 में मुंबई के स्कूल प्रिंसिपल को पांचवीं क्लास की छात्रा का यौन शोषण के आरोप में गिरफ्तार किया गया। 7 नवंबर 2009 को दिल्ली के एक म्यूजिक टीचर को कोर्ट ने साल भर कैद की सजा सुनाई। उस पर पांच साल पहले नाबालिग बच्ची के शोषण का आरोप था। जनवरी 2006 में चेंबुर के 35 वर्षीय शख्स को महज 10 महीने की बच्ची के साथ कुकृत्य के आरोप में गिरफ्तार किया गया। ऐसे एक नहीं कई मामले हैं, गिनाने से समस्या का समाधान नहीं होगा। बस दिल में एक टीस उठी खबर को पढ़कर रुह कांप गया। दिल से तो गाली निकलती है, उससे ज्यादा कुछ न कर पाने की बेबसी झलकती है। मन कहता है बूते की बात होती है तो ऐसे लोगों से जीने का अधिकार मैं छीन लेता है। शर्म आती है ऐसी मर्दानगी और पुरुषार्थ पर। हालांकि, मेरा मानना है कि इस तरह की कलंकित हरकतों को करने वाले मानव नहीं, दानव नहीं हैं। चंद कुंठित लोगों की वजह से मानवता कलंकित हो रही है। गुरू जैसा मर्यादित और पाक ओहदा नापाक हो रहा है। कहीं न कहीं हमारा समाज, हमारी तहजीब खोखली साबित हो रही है। ऐसा इसलिए कि हमारा कानून कागजों पर बुलंद, सशक्त, मजबूत और शक्तिशाली है। असलियत में इसकी औकात रास्ते के पत्थर की तरह है जिसे कोई भी ठोकर मारकर आगे बढ़ता जाता है। इससे निजात पाने का जो मुझे रास्ता नजर आता है, वह यह कि हम अपने नैतिक मूल्यों को भूलते जा रहे हैं, हमारे आचरण में आधुनिकता के नाम पर बेवजह का बदलाव आ रहा है।