नक्सली और राजनेता

कांग्रेस ने अकालियों की हवा निकालने के लिए जरनैल सिंह भिन्दरेवाला को खड़ा किया. भिन्दरेवाला वाला ने आतंकवाद को पैदा किया. इंदिरा गाँधी ने आतंकवाद के खिलाफ मोर्चा खोला. आतंकवाद ने इंदिरा गाँधी की जान ले ली. इंदिरा गाँधी की हत्या से हुई हिंसा हजारों सिखों के नरसंहार की वजह बनी.
ठीक इसी तरह भाजपा ने मंडल की हवा निकालने के लिए कमंडल के कार्ड खेला. उन्मादी कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद गिरा दी. फिर दंगे भड़के. बदला लेने के लिए मुम्बई में धमाके हुए. उसके बाद गोधरा में कारसेवकों से भरी बोगी जला दी गयी. फिर उसके अगले दिनों गुजरात में २००० मुसलमानों की हत्या की गयी. उसकी प्रतिक्रिया में आज भी हिंसा जारी है.
ये पंक्तियाँ मेरी नहीं हैं. बहुत दिन पहले तहलका पत्रिका में पढ़ी थी. पता नहीं क्यों एक बार पढने के बाद ही पूरी तरह याद ही गयी. बहुतों को लगता होगा कि आतंकवाद के सन्दर्भ में लिखी गयी इन बातों का अभी क्या मतलब हो सकता है. लेकिन मेरे हिसाब से इन्हें सिर्फ आतंकवाद के नजरिये से देखना हमारी नादानी होगी. दरअसल आज हमारे प्रधानमन्त्री से लेकर तमाम बड़े नेता और अधिकारी तक यही खाते घूम रहे हैं कि आज देश कि सबसे बड़ी समस्या नक्सलवाद है. पर यहाँ भी यह ध्यान देने वाली बात है कि कुछ राजनितिक दल इस नक्सलवाद का फायदा उठाने में लगे हैं. कई मर्तबा तो यह आरोप भी लग चुका है कि जो राज्य नक्सलवाद कि समस्या से प्रभावित हैं वहा के कद्दावर नेता इन्ही नक्सलियों कि मदद से अपनी चुनावी तकदीर का फैसला करवाते हैं. वह न तो अपने कार्यों और न ही जनता कि सेवा चुनाव जीतते हैं. होता यह है कि चुनाव के पहले यह नेता उनकी मदद लेते हैं और चनाव के बाद उनकी मदद करते हैं. फ़िलहाल बिहार और पश्चिम बंगाल में चुनाव की दुदुम्भी बजने वाली है. झारखण्ड में भी सत्ता समीकरण डगमगा चूका है तो वहा भी इसकी सम्भावना या फिर आशंका कह लीजिय, बढ़ गयी है. मै यह नहीं कह रहा हूँ कि इन राज्यों के नेता पूरी तरह नक्सलियों से मिले हुए हैं. ऐसा हो भी नहीं सकता पर क्या वजह है चुनाव के वक़्त नेता कोई ठोस कदम उठाने से बचने लगते हैं. दरअसल उन्हें मालूम है कि नक्सलियों का दायरा काफी बढ़ चुका है, उनका अधिकारक्षेत्र भी पहले की अपेक्षा बाधा है. आम जनता नेता से दूर भाग रही है. नेता पर उसका यकीं नहीं रहा. वह हर समस्या के लिए नाता को ही जिम्मेदार मानाने लगी है. नेता भी इस बात को समझ चुके हैं. इसलिए वह चुनाव जितने के लिए अपनी यह तरकीब अपनाने लगे हैं.

शशि मोदी बनाम ललित थरूर

शशि थरूर ने जिस तरह सफलता का ग्राफ छूआ है, वह सभी को आकर्षित करता है। वह एक नौजवान और हैंडसम राजनेता हैं। कई बूढ़े नेता उनकी इस हैंडसमनेस यानी खूबसूरती पर जल-भून जाते होंगे। लेकिन अंग्रेजीदां के सत्ता वाले फॉर्मूले वह सटीक बैठते थे, इसलिए उन्हें मनमोहन सिंह ने पहले संयुक्त राष्ट्र में महासचिव पद के लिए उनका समर्थन किया। हालांकि मनमोहन जानते थे कि वहीं थरूर को मात मिलने वाली है। लेकिन इससे उनकी भविष्य योजना सफल हो जाती। कहते हैं ना हार कर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं। थरूर भी महासचिव का चुनाव हारकर बाजीगर बन गए. भारत लौटे और केरल से लोकसभा का चुनाव लड़ा। जीतकर आए और मनमोहन सिंह की नीतियों के मुताबिक, विदेश राज्यमंत्री बन बैठे। लेकिन इस दौरान अपने काम से ज्यादा ट्विटर पर सक्रिय नजर आए. सरकार को कई विवादों में भी घेरा। भारतीय राजनीतिक परंपरा और संस्कृति से अनजान थरूर मगरूर बन बैठे। अब आईपीएल की बात करें तो एक तरह से इस हम सभी राजनीतिक पार्टियों का ब्रेन चाइल्ड कह सकते हैं। कांग्रेस से लेकर बीजेपी, एनसीपी और यहां तक लालू यादव भी (उनका बेटा दिल्ली टीम का सदस्य है) इसमें शामिल हैं। जिनका जिक्र नहीं हुआ, वह भी प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर इसमें भागीदार हैं। यह एक लॉटरी की तरह है। जिसमें सभी लोग टिकट खरीदने को आजाद होते हैं। इसमें पैसा जनता के पॉकेट से आता है, लेकिन जाता अमीरों के हातों में है, क्योंकि सवाल सेटिंग का है। इसकी एक खासियत यह भी है कि इस खेल में सभी भागीदार एक समान नहीं होते, पर सभी समान तौर पर खुश जरूर होते हैं।
थरूर ने दरअसल इन मामलों में दो पाटों के बीच झूलते नजर आए। अपनी गलती और दुर्भाग्य के बीच। उनकी गलती यह थी कि वह बिन बुलाए मेहमान बन गए। उन्होंने सोचा कि वह दुबई और गुजरात के जरिए पैसा लगाकर कोच्चि पर दांव खेलकर राजनीतिक लाभ ले सकते हैं। जब कोच्चि ने फ्रेंचाइजी अधिकार जीता तो फ्रेंचाइजी का अता-पता कहीं नहीं था। सारा क्रेडिट थरूर को मिल रहा था। जबतक ललित मोदी ने अपने स्वाभिमान पर हुए प्रहाक का बदला लेने के लिए इनाक खुलासा किया तो सारा कच्चा-चिट्ठा सामने आ गया। अब थरूर और मोदी की बात करें तो दोनों में कई समानता है। दोनों ने मीडिया का बखूबी इस्तेमाल अपने हक में किया। दोनों तेजतर्रार हैं। इसलिए एक जंगल में दो शेर तो कतई नहीं रह सकते ना। मसलन मीडिया को अचूक हथियार दोनों ने बनाया। मोदी थरूर की चाल चलने लगे। लगातार ट्विटंग कर अपने मोहरे चलने लगे। उधर थरूर भी मोदी की मांद में आ गए। हालांकि मोदी प्राइवेट सेक्टर से ताल्लुक रखते थे। इसलिए वह फायदे में और थरूर अपनी चाल बर्बाद कर चुके थे। एक तरह से कहें तो शशि मोदी हो गए और ललित थरूर।

आईपीएल से डगमगाया सरकार का इंद्रासन

शिक्षा व्यवस्था को लेकर तमाम तरह के सवाल उठते रहते हैं। पर इसकी जड़ में अहम सवाल को अक्सर अनसुना कर दिया जाता है। अभी तो आईपीएल देश की सभी समस्याओं पर इस कदर हावी है कि बाकी किसी भी मसले पर बात करना बेमानी ही है। चूंकि शिक्षा में गिरावट के लिए सरकार का रोल बहुत व्यापक है। इसलिए वह अपने दायित्वों से बचने की हर मुमकिन कोशिश करेगी। कभी आईपीएल विवाद में अड़ंगा डालकर तो कभी फोन टैपिंग का मामला सामने लाकर तो कभी किसी और तरीके से। उसे हमेशा खतरा बना रहता कि कहीं जनता जागरूक हो गई तो उसके खिलाफ कहीं बगावती तेवर न अपना ले। जनता की जागरूकता से सरकार की सत्ता ठीक उसी तरह डगमगाने लगती है, जैसे पुराणों में वर्णित कथा के मुताबिक, जब कोई आम आदमी भी तपस्या करता तो इंद्र को हमेशा भय सताता की यह तपस्या उसकी गद्दी छीनने के लिए की जा रही है। फिर इससे बचने के लिए वह दस तरह की तरकीबें आजमाता। काम, क्रोध, लोभ, मोह माया इत्यादि शत्रुओं को वह उस तपस्या को भंग करने के लिए भिरा देते थे। कभी रंभा तो कभी मेनका की मोहनी मूरत का सहारा लेते। हमारी सरकार भी ठीक यही करती है। सबसे पहले बाबरी मस्जिद पर लिब्रहान कमेटी की रिपोर्ट आई तो अपनी नाकामी से बचने के लिए रंगनाथ का मामला लीक हो गया। जिसके तहत अल्पसंख्यक मुसलमानों को आरक्षण देना था। जब यह मामला तूल पकड़ा तो गुजरात में गोधरा दंगा पर रिपोर्ट सामने पटक दिया। फिर महंगाई के मामले में घिरती नजर आई तो नरेंद्र मोदी को एसआईटी के सामने पेश कराकर उससे ध्यान भंग कराया। मोदी का मामला खत्म हुआ तो आईपीएल में अपने कारिंदे थरूर के जरिए बखेरा खड़ा दिया। यह सबसे बखेरा ही तो है। क्योंकि यदि सरकार के इरादे स्पष्ट होते तो अब जो वह वित्त मंत्री और आयकर विभाग जांच के नाम पर तमाशा कर रही है, वह पहले भी कर सकती थी। जब आईपीएल शुरू हुआ तब भी केंद्र में वही सरकार थी, जो आज तीन साल बाद है। सत्ता परिवर्तन से इसका कोई लेना देना नहीं है। एक तरह से कहें तो इंद्र की तरह सरकार घबरा और डर गई है।

थरूर के लगातार ट्विटिंग से सरकार की किरकिरी रूक नहीं रही थी तो उसे भी तो मजा चखाना था। इसी बीच कहीं से उड़ती खबर आई कि थरूर तीसरी शादी करेंगे। उनकी भावी पत्नी ने आईपीएल में हाथ आजमाए हैं। थरूर को आखिर उनकी औकाद बता दी गई । फिर महज तीन साल में ही आईपीएल से ललित मोदी दुनिया की सबसे ताकतवर बोर्ड बीसीसीआई को चुनौती दे रहे हैं। पहले शरद पवार की चूलें हिली। वह भी आए दिन कांग्रेस की कमीजें फाड़ रहे थे। जब थरूर ने अपना वर्चस्व दिखाना चाहा तो मोदी ने उनकी एक न चलने दी। मोदी ने अपने मोहरे से थरूर का गरूर तो चूर कर ही दिया। इससे सरकार को लगा कि बात काफी आगे निकल गई है तो उसने ठान लिया कि अब किसी कीमत पर मोदी को मिट्टी में मिलाकर ही वह दम लेगी। मोदी के लिए बाहर का रास्ता तैयार वह कर ही चुकी है। अभी क्लाइमेक्स तो बाकी ही है। बात निकल चुकी है, पर लगता नहीं कि दूर तलक जाएगी।

दलित कबतक जलाएंगे अपना दिल

भारत में जब भी दलितों की चर्चा होती है, तो उनसे जुड़ी घटनाएं-दुर्घनाएं ही हमारे सामने आती है। दलित उत्थान का जिक्र जब हम करते हैं तो उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का ही चेहरा हमारे सामने आता है। खुद को दलित प्रतिमान के तौर पर पेश करने से वह भी बाज नहीं आती हैं। पर वहीं दूसरी तरफ हरियाणा के जाट समुदाय और दलितों की लड़ाई में जिंदा जलाई गई उस विक्लांग लड़की भी चेहरा नजर के सामने घूमने लगता है, जिसे जिंदा जला दिया गया। कहानी हरियाणा के हिसार जिल की है। एक मामूली सी बात ने इतना तूल पकड़ लिया कि लोगों ने राई का पहाड़ और रेत से महल बना लिए। फिर क्या था रेत का महल कब तक टिकता। नतीजतन हिंसा की वारदात हुई कई दलितो के घर फऊंके गए। दो दलित इस अगजनी की घटना में मारे गए। इसके बाद दलितों में खौफ का माहौल इस कदर समा गया कि उन्होंने इलाके से परिवार समेत पलायन करना ही बेहतर समझा। हालात यहां तक हैं कि पुलिस प्रहरी बनी हुई है। फिर भी दलित खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रहे हैं। इस तरह के कई वारदात अतीत में भी हो चुके हैं। दलित महिलाओं को दुत्कारने वाले समाज के उच्च वर्ग के लोग उनकी अस्मत लूटते हैं। यूं तो आ जिंदगी में उन्हें इन दलितो से छुआछूत नजर आती है। पर इनकी बहन-बेटियों की इज्जत से खिलवाड़ करते समय इन्हें वह सबकुछ नजर नहीं आता। यह समाज के उच्च वर्ग का दोगलापन और पाखंडी चेहरा नहीं तो और क्या है। यह एक ऐसा क्रूर सच है कि जिसे छिपाया जाता है कि दलितो की हालत पहले की अपेक्षा सुधरी है। पर कहीं सुधरी वह नजर नहीं आती। इससे तो यही लगता है कि संविधान और कानून जो भी कहे, पर कानून का ठेका तो समाज का प्रभुत्व वर्ग के ही जिम्मे मालूम पड़ता है। दलित हजारों सालों से पीड़ित हैं, शोषण के शिकार हैं और आज भी हो रहे हैं। ब्राह्मणवादी विचारधारा ने दलितों को दबा कर रखा है और रखना चाहता है। इसी मानसिकता के लोग उस वक्त भी विरोध करते हैं, जब इनको समान अधिकार के नाम पर आरक्षण देने की बात उठती है। हाल में कहीं एक टिप्पणी पढ़ी थी, जिसमें कहा गया था कि लोगों को मायावती की मूर्तियां दिखती हैं, पर कानूनी तरीके से सत्ता तक पहुंचने का का चमत्कार नहीं दिखता है। यदि पेड़ काट कर बनाया गया अंबेडकर पार्क कॉनक्रीट जंगल है तो भला अक्षरधाम मंदिर क्या है?

बंदूक से विकास को चुनौती

प्रधानमंत्री ने आखिरकार मान ही लिया कि नक्सलवाद की वजह क्या है। उन्हें इस बात का एहसास हो ही गया कि 90 के दशक में जो उन्होंने आर्थिक उदारीकरण की नींव रखी थी, उससे अमीर पहले की अपेक्षा और अमीर और गरीब पहले से बहुत गरीब होते गए। इससे समाज का बहुसंख्यक वर्ग उनके द्वारा शुरू विकास की आंधी में कहीं खो गए। अब जबकि उन्हें इस बात का इहलाम हो गया है तो क्या वह कुछ करने की जहमत उठाएंगे या फिर उन्होंने बस कहने भर के लिए कहा है कि विकास से वंचित होने के चलते उग्रवाद या नक्सलवाद फैल रहा है। अब तो उन्हें भी पता चल गया होगा कि जब देश का बहुसंख्यक तबका विकास की देहरी तक अपना कदम नहीं रख पाता है तो उनमें से ही कुछ सिरफिरे बंदूक उठाकर विकास को चुनौती देने लगते हैं। इन दोनों के पाटों में जो मारा जाता है वह बेकसूर जवान या सेना जो सिर्फ सरकार का आदेश बस इसलिए मानती है कि सरकार उसके रोजी रोटी के लिए महीने के हर तीसवें दिन पैसा देती है। यह पैसा भी हालांकि उसके लिए कम पड़ता है। फिर भी वह शांति और सुरून से जिंदगी गुजारने के लिए सरकार का हुक्म मानकर नक्सलियों के खिलाफ जंग करती है। यदि प्रधानमंत्री विकास की अधूरी परिभाषा को समझ चुके हैं तो उम्मीद की जानी चाहिए कि आईपीएल में हस्तक्षेप से थोड़ा सा वक्त निकालकर इन वंचित और बेसहारा तबका की ओर ध्यान देंगे। हालांकि उनके लिए चुनौती बढ़ गई है। उनकी सरकार द्वारा ही बिठाई गई एक कमेटि ने कहा है कि पहले की अपेक्षा देश में 10 फीसदी गरीबों की तादाद बढ़ी है। अब यदि वाकई पीए को अपनी गलती का एहसास हुआ है तो उन्हें इसे सुधारने के लिए कोशिश करनी चाहिए, न कि कोशिश करते हुए दिखनी चाहिए। यदि अब वह इसमें असफल होते हैं तो अंसतोष का ज्वार तेजी से फैल ही रहा है, और भी तेज रफ्तार पकड़ लेगी। नतीजतन दिन ब दिन भारत में हिंसक गतिविधियों की घटनाएं ही सुर्खियों में रहेंगी। मुमकिन है जो जवान आज सरकार का आदेश मानकर उसकी हुक्मबरदारी करती है, आगे वह साफ इनकार भी कर दे। हाल में जो खबरें आई हैं वह कम हैरान करने वाली नहीं हैं। बिना प्रशिक्षण के लड़ने के लिए भेजना और भूख और पानी से बेहाल जवानों को मार्चाबंदी के लिए तैयार करना। मतलब तो साफ है कि सरकार नक्सलियों का सफाया करने के लिए सेना का इस्तेमाल नहीं कर रही, बल्कि एक गरीब को दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल कर रही है।

मोदी से मिलेगी थरूर को मात

खेलों को मनोरंजन के लिए खेला जाता है। पर इस खेल पर भी राजनीतिक खेल शुरू हो चुका है। आईपीएल अपनी शुरुआत से ही दौलत का खेल बन चुका है। लेकिन अब नेताओं और फिल्मी सितारों ने इसे पैसा कमाने का पेशा बना लिया है हम अन्य खेलों को वैसे ही भूल चुके हैं, जैसे हम बीमारी,गरीब़ी,अशिक्षा,बेकारी,भ्रष्टाचार,नक्सलवाद और आतंकवाद को भूल गए। आईपीएल निश्चित तौर पर पैसे का ही खेल है। यहां खराब से खराब खेलने वाला भी एक सीज़न में 40 लाख रु. की कमाई कर रहा है. वो भी ऐसे में जब भारत की 35 फ़ीसदी आबादी को दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं। हाल में नक्सलियों ने 76 जवानों को मौत के घाट उतार दुया। पर अब कोई भी चिदंबरम के सामने अपना माइक नहीं घुसेड़ रहा है। कहां तो इस्तीफे की पेशकश चिदंबरम ने की थी। पर अब देना पड़ रहा है थरूर को। अमेरिकी बेस बॉल चीयर लीडर्स की तर्ज़ पर खेल के दौरान मैदान में कम से कम कपड़े पहन कर लड़कियों के नाचने का कई जगहों पर विरोध हुआ. कहा गया कि ये भारतीय संस्कृति के ख़िलाफ़ है। अब तो आरोप यह भी लग रहे हैं कि आईपीएल के जरिए सारा काला पैसा सफेद किया जा रहा है। पहले एनजीओ के जरिए यह काम होता था। पर उसकी साख पर भी बट्टा लग चुका है। इसलिए यह नया तरीका निकाला गया। इस पूरे प्रकरण में शशि थरूर के शामिल होने पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। वह कोई पहले नेता नहीं हैं, जो इस तरह से इस खेल में सामिल हैं। हां इतना जरूर है कि जिसकी चोरी पकड़ी जाती है, वही चोर कहलाता है। और, थरूर की चोरी पकड़ी गई है। वह खुलेआम डाका करने निकले थे। नतीजतन उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। एक बात और है कि दो दिन पहले तक ललित मोदी खूब सुर्खियों में रहे। फिलहाल वह पर्दे के पीछ हो गए हैं। दरअसल सारे प्रकरण से एक बात सामने आती है वह यह कि हम नौटंकी और सोप ओपेरा के ज़माने में रह रहे हैं और यहाँ कोई बात तब तक सच नहीं है जब तक कि टेलीविज़न उस पर अपनी मुहर नहीं लगा देते। जैसे ही ललित मोदी ने शशि थरूर पर हमला बोला मीडिया ने भी अपनी भाषा तुरंत बदल दी। आखिर इसकी वजह क्या है? यह भी सोचने का विषय है। करोड़ों का यह खेल चैनलों को अभ भी टीआरपी दे रहा है। पर मैच के लिए नहीं, बल्कि खबरों के लिए।

थरूर की तीसरी शादी ! और कुंआरे का दर्द

भारतीय विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर को लेकर विवादों का दौर खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। विपक्षी दलों ने उनको बर्खास्त करने की मांग की है। अब सुना है सरकार इस बरे में सोच भी रही है। पर वह थरूर को हटाने की नहीं, बल्कि उनके लिए एक अलग मंत्रालय बनाने की सोच रही है। विवाद मंत्रालय (controversial affairs ministry)। इस मसले पर सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री से बात भी कर चुकी हैं। आज हमारे देश में सरकार को इस मंत्रालय की सख्त जरूरत है। देश की बुनियादी मुद्दों से आम जनता का ध्यान भटकाने के लिए। विपक्षी दलों को मुद्दा विहीन करने के लिए। अपनी ही सरकार में विरोधी सहयोगियो को निपटाने के लिए। हमारी सरकार इसका बखूबी इस्तेमाल कर सकती है। हालांकि वह अभी कर भी कर रही है। पर ज्यादा अनुभव नहीं होने के चलते पकड़ में आ जाती है, क्योंकि अक्सर विपक्षी दल आरोप लगा ही देते हैं कि सरकार एक मसले से ध्यान हटाने के लिए दूसरा विवाद खड़ा कर देती है। यह अलग बात है कि विपक्षी दल भी उसी झांसे में आ जाती है।

सुना है शशि थरूर तीसरी शादी करने जा रहे हैं। जिस दिन यह खबर पढ़ी, उसी दिन एक और खबर सामने आई। भारत के किसी राज्य में एक ऐसा भी गांव है, जहां युवक कुंवारे ही बूढ़े हो रहे है। कहते हैं भगवान ऊपर ही जोड़ियों को बनाता है। पर क्या भगवान ने ऊपर थरूर के लिए तीन और इन बेचारों के लिए एक भी नहीं बनाई थी। यह भगवान का भेदभाव है। भगवान भी अब गरीबों और बेसहारों में भेद करने लगा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस तरह देश के हुक्मरान और इलीट तबका गरीबों के मूलभूत अधिकारों और जरूरतों पर मुंह मारते आ रहे हैं, अब वह इनके तकदीर में लिखी पत्नियों पर भी हक मारने लगे हैं। तभी तो कोई कुंवारा मर जाता है। कोई तीन-चार शादी करके भी हिम्मत नहीं हारता है। मेरे ख्याल से तो यह गरीबी मिटाने का सबसे कारगर तरीका है। इस तरह न गरीबों की शादी होगी। न उनकी तादाद बढ़ेगी। फिर आने वाले 25-30 वर्षों में गरीब नाममात्र के भी नहीं रह जाएंगे। जो होंगे भी तो उन्हें इलीट तबका म्यूजियम में रख देगें। ताकि भविष्य में अपने बच्चों को भापत का इतिहास बताएंगे तो यह भी बताएंगे कि बेटा पहले इस मुल्क में गरीब नाम की प्रजाति भी होती थी। अब वह विलुप्त हो चुकी है। या फिर जिस तरह आजकल डायनासोर के कई जीवाश्म मिल रहे हैं, उसी तरह गरीबों के जीवाश्म भी मिला करेंगे। एक तरह से गरीब दुनिया से विलुप्त होकर लोगों को रोजगार का अवसर दे जाएंगे। लोग गरीबों के जीवाश्म पर रिसर्च किया करेंगे। एमए. एम फिल, पीएच डी, आदि।

भारत की सबसे बड़ी समस्या

इंडियन प्रीमियर लीग का सही मैच अब शुरू हुआ है। क्रिकेट के मैदान से राजनीतिक गलियारे में अब खूब चौक-छक्के लगने लगे हैं। कल तक जो विपक्षी दल नक्सलवाद, महंगाई, गुदरात दंगों में नरेंद्र मोदी से जवाब-तलब, लिब्रहान आयोग, रंगनाथ कमीशन आदि मुद्दों को लेकर संसद तक नहीं चलने देती थी। वह अब आईपीएल का मैच लोकसभा और राज्यसभा में खेलने लगी है। हाल मे सानिया मिर्जा तक को लेकर राजनीतिक पार्टियां ने खूब तमाशा खड़ा किया। मानों भारत में अब गरीबी, बढ़ती महंगाई, कम हो रहे रोजगार के अवसर, आर्थिक मंदी, कॉमनवेल्थ क नाम पर गरीब और निचले तबके का विस्थापन की समस्या से कहीं बढ़कर आईपीएल हो चुका है। सानिया मिर्जा की शादी का मुद्दा बड़ा हो गया है। बात सिर्फ राजनीतिक दलों की ही नहीं है। हमारा मीडिया जिस तरह की खबरें दिखा रहे है, वह भी कम दिलचस्प नहीं है। देश का सबसे तेज चैनल का तमगा लिए घूमने वाला नंबर एक चैनल खबर के नाम पर लोगों का मनोरंजन करती दिखती है। इन खबरिया चैनलों पर मनोरंजन के नाम पर भी भौंडा पर दिखाया जाता है। आधे घंटे के कॉमेडी शो में संवादों के द्विअर्थी मतलब और अधनंगी तस्वीरों में नहाती रियलिटी शो की नायिकाएं। यह सब पड़ोसा जाता है। बात चाहे खुद को सबसे विश्वसनीय कहने वाले चैनल की ही क्यों न हो। उसका तमाशा भी कम नहीं है। कुछ खुलेआम करते है, कुछ बहुत ही चालाकी से और चुपके-चुपके। अपने लाइफ-स्टाइल वाले चैनल से किंगफिशर के कैलैंडर शूट की अधनंगी मॉडल की तस्वीरें ज्यादातर लोगों को भले ही पसंद आता हो, पर इसे वह न्यूज चैनल पर शायद ही देखना चाहते होंगे। यदि देखना भी चाहते हैं तो क्या हमारी यही जिम्मेदारी है। शायद इसी लिए पाकिस्तान में भौडी और खबरों के नाम पर नंगा नाच करने वाले चैनलो पर प्रतिबंध लगाने की बात हो रही है। यह काफी हद तक सही भी है। हमें अपने दुश्मन में हमेसा बुराइयां ही नहीं देखनी चाहिए। राम भी कहा करते थे कि रावण भले ही बुरा है, फिर भी उन्होंने लक्ष्मण को रावण के पास ज्ञान के पास भेजा था।

खैर अब वापस असली मसलों पर आते हैं। देश की बड़ी आबादी को यहां किस तरह बेवकूफ बनाया जा रहा है। जनता को पता हो या न हो पर कुछ लोग तो इस मैदान के बाहर के खेल को भली भांति खेल रहे हैं और अरबों खहरों के वारे-न्यारे कर रहे हैं। पहले कहा जाता था कि एनजीओ के जरिए ब्लैक मनी को व्हाइट बनाया जाता था। अब आईपीएल में 1500 करोड़ तक की टीम की खरीदना किसी के मेहनत की गाढ़ी कमाई होगी। कोई कुंभ के दौरान गंगा में डुबकी लगाकर भी कहे तो मुझे यकीन नहीं होगा। आईपीएल क इतना बड़ा दांव भारत में फेंका गया है कि दो वक्त की रोजी रोटी को तड़पने वाले का मामला कहीं खो सा गया है। हमारे मुल्क के गरीब भी अपनी गरीबी, लाचार और बेबस जिंदगी के अभिशप्त है। यह उनके पूर्व जन्मों का पाप है। तभी तो वह गरीब से और गरीब बनते जा रहे हैं। वह अमीरों को अमीर बनाने का काम करते हैं। पर उनकी किस्मत पर किसी ने जैसे कालिख पोत दी हो।

प्राणघातक प्रण मेरा

तोड़ तो बंधनों को, अब जरा उनमुक्त रहो,
छोड़कर दुनिया को अब जरा आजाद रहो,
हरबार सोचकर, एकबार ये फैसला आज करो,
बहुत हुआ संगी-साथी,
सब साथ छुट जाते हैं,
एकबार भावनाओं को शब्दों के समंदर से,
जरा निकाल कर उतार फेंको,
बहुत हुआ स्नेह-निमंत्रण,
अब तो हो कुछ ऐसा भी,
हर पल हर क्षण में हो जीवन की तृष्णा,
मृग तृष्णा ने खूब नचाया,
जिंदगी ने खूब झुलाया,
अब उतार दो झूठ का चोंगा।


हररोज सोचता हूं और करता हूं प्रण,
हररोज होती है वादाखिलाफी,
हररोज कुंठित जिंदगी,
गम नहीं कि कुछ नहीं है मेरे पास,
जो सबकुछ मिल जाए तो भी,
क्या खुश हो पाऊंगा।
प्रण लेता हूं अपनी बीमार आदतों से मुक्ति का,
प्राणघातक बनेगा किसी दिन यह प्रण मेरा।

इस मातम का कोई नाम नहीं

एक गरीब ने दूसरे गरीब की हत्या कर डाली। पहला हिंसक होकर अपने शोषण का बदला लेना चाहता है। पर अब वह अपने पाक मकसद से भटक चुका है। दूसरा उसे मारना नहीं चाहता। पर हुक्म की तामील करना उसका काम है। उसी से उसकी रोजी-रोटी चलती है। नक्सलियों ने जो दंतेवाड़ा में किया उसे किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता है। 76 आरपीएफ के जवानों की निर्मम मौत का कोई जस्टीफिकेशन नहीं हो सकता है। फिर भी कुछ तबका और बुद्धिजीवी वर्ग उसे सही ठहरा रहे हैं। पिछले दिनों नक्सली हमले में देश के अलग-अलग इलाकों के 76 बेकसूर और गरीब परिवारों ने अपने बेटे-पति-पिता-भाई को गंवाया है। इसके बावजूद यदि इस घटना को जस्टीफाई करने की कोशिश की जाती है तो यह निहायत ही मानसिक दिवालियापन के अलावा कुछ भी नहीं हैं। वह भी मानसिक तौर पर बीमार हो चुके हैं। दिल्ली के बौद्धिक और सबसे बेहतर सेंट्रल यूनिवर्सिटी में एक में कुछ छात्रों ने इसी तरह का कुछ कारनामा किया। टीवी चैनलों पर भी इस तरह की बहस में कुछ लोग इसे सही ठहराते दिखे। इनके समर्थकों का कहना था कि राज्य ने जो अत्याचार और नरसंहार इन गरीब आदिवासियों पर किया है, उसका क्या जवाब हो सकता है? हां, यह बिल्कुल सच है कि राज्य का अत्याचार कहीं भी कम नहीं है, चाहे आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक या फिर राजनीतिक अत्याचार हो, राज्य का शोषण बर्दाश्त से बाहर है। फिर भी इस बिनाह पर भला 78 निर्दोष जवानों की मौत को कैसे सही ठहराया जा सकता है। जरा कोई मोतिहारी के उस परिवार के पास जा कर देखे कि उस परिवार की क्या हालत है, जिसने अपना सबकुछ गंवा दिया। परिवार की रोजी रोटी का जरिया गंवा दिया। लोग कहते हैं सरकार ने मुआवजा दिया। पर मुआवजा ही इसका समाधान है क्या? इसी तरह लखनऊ के उस परिवार के दर्द को तो बांटे, उस बेटे को तो कोई समझाए जो परीक्षा दे रहा था, परीक्षा की वजह से अपने पिता को आखिरी बार देखने के लिए कितना तड़पा? राजस्थान के उस परिवार और बाप को समझाए, जिसने अपने बेटे को काफी अरमानो से ऑफिसर बनाने के जिद ठानी थी। क्या इसी दिन के लिए कि कोई उसकी मौत को जस्टीफाई करे? हालांकि यह सही है कि सरकार में बैठे हुक्मरान अभी भी इस समस्या को सही तौर पर समझने को तैयार नहीं हैं। वह जनाक्रोश पैदा कर हिंसक लडाई लड़ने को उतावले हो रहे है। सरकार को समझना चाहिए कि यह समस्या उसी की गलत नीतियों और शोषण का नतीजा है। जिसका खामियाजा बेकसूर और गरीब लोग भोग रहे हैं। आरपीएफ के जवानों की तनख्वाह न तो आर्मी जैसी होती है और न ही इन्हें उस तरह की सुविधा दी जाती है। इनकी ट्रेनिंग के नाम पर सरकार तमासा करती रहती है। बगैर आधुनिक हथियार दिए मौत के मुंह में झोंक देती है।

जेल में सेक्स का अधिकार

यूँ तो मनवाधिकार के दायरे में सभी आते हैं। चाहे वह भले ही सजायाफ्ता मुजरिम हो या जेल में ही क़ैद कोई अपराधी। ऐसे में सवाल उठता है कि मानवाधिकार के नाम पर किसी कैदी को किस हद तक आज़ादी दी जा सकती है। जेल में बंद एक कैदी ने अपनी पत्नी के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनने की मांग की है। क्या उसे यह इज़ाज़त दी जा सकती है। दिल और दिमाग कहता है नहीं। उसे कतई इज़ाज़त नहीं मिलनी चाहिए। क्योंकि सजा के नाम पर उसे क़ैद में रखा जाता है। क़ैद में इसलिए भी रखा जाता है कि उस शख्स ने कोई अपराध किया होता है। तो उसे दंड के तौर पर उसे उसके अधिकारों से महरूम रखा जाता है। यदि ऐसे में उसकी मांगो को जेल में भी मन जाने लगा तो, जेल जेल न हो कर, ऐश करने का अड्डा हो जायेगा। हालाँकि कुछ मानवाधिकार वाले कहते हैं कि कैदियों को उनके अधिकारों से महरूम नहीं रखा जा सकता है। उनकी दलील है कि दांपत्य संबधों का अधिकार जीवन के अधिकार का ही एक हिस्सा है। वहीँ दूसरी तरफ यह भी कहा जा रहा है कि जघन्य अपराध के दोषी एक आम आदमी कि जिन्दगी जीने की कल्पना भी कैसे कर सकता है। यानी किसी को यदि सजा मिली है तो उसे उसके कुछ अधिकारों से वंचित रखने के लिए ही, ऐसे में वह इस तरह की फरमाइश का हक़दार कैसे हो सकता है।
एक तरह से देखा जाये तो सारा मामला इस तरह उलझ गया है कि कोई भी फैसला लेने से कही न कही चूक हो सकती है। ज्यादातर लोग हालाँकि इस पक्ष में होंगे कि उसे यह अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। पर यह अधिकार नहीं देने पर इससे उसके अधिकारों का हनन हो सकता है। यदि दिया जाता है तो कई लोग यह कह सकते हैं कि जेल अब् जेल नहीं कुछ और बन गया है।

बुंदेलखंड और पानी की समस्या

भवरां तोरा पानी ग़जब कर जाए।
गगरी न फूटे भले खसम (पति) मर जाए।।

ये पंक्तियां मेरी नहीं हैं। पर इसकी समस्या मेरी जरूर है। बहुत पहले की बात है, चित्रकूट-बुंदेलखंड और पानी की समस्या पर एक रिपोर्ट देख रहा था या शायद अखबार में खबर पढ़ी थी। तभी से मुझे याद है ये पंक्तियां। बुंदेलखंड के लिए रोने-चिल्लाने वाले आज भी हैं। दिल्ली में गर्मी का पारा दिन-ब-दिन चढ़ता जा रहा है। सत्तानशीं एयरकंडीश्नड कमरे में पैक हो चुके हैं। बुंदेलखंड के लिए लड़ने वाले सभी मीडियाकर्मी भी सानिया की शादी के पीछे कैमरा रूपी शस्त्र भिरा चुके हैं। सर्दी के मौसम में बुंदेलखंड का मु्द्दा काफी उठा. प्रधानंमंत्री ने राहुल बाबा के प्रयासों के चलते करोड़ों की सहायता राशि यहां के लोगों के लिए आवंटित की। लेकिन यह खबर कहीं नहीं है कि इन्हें जिस समस्या के लिए सहायता दी गई है, उन तक पहुंच भी रही है या नहीं। या एक बार फिर जब राहुल बाबा के उत्तराधिकारी भविष्य में यह कहते फिरेंगे कि गरीबों के लिए जो पैसा आवंटित होता है, वह उन तक दो पैसा भी नहीं पहुंचता है। बुंदेलखंड की बात करें तो जरा सोचिए गर्मी के मौसम में क्या हाल होता होगा। सर्दी में ही जब वहां पानी की किल्लत रहती है तो गर्मी के बेरहम मौसम में उनकी हालत का अंदाजा लगाना परेशान कर जाता है। पानी के एक-एक बूंद के लिए तड़पना। जिस पानी के लिए वहां नलकूपों से खूनों की धारा बहाई जाती है, अब वहां क्या हाल होता होगा। कितने पानी के बगैर तड़प भी रहे होंगे। पर किसी को कई फर्क नहीं पड़ता है। फर्क तब पड़ेगा, जब वहां कुछ अलग किस्म की वारदात होगी। उसके बाद हमारे मीडिया के बंधु जाएगें। बड़ी धांसू सी खबर बनाएंगे। इमोशनल अत्याचार करेंगे अपनी खबरों के माध्यम से और हम सभी अपने घरों में फ्रीज का पानी पीते हुए रिपोर्ट की वाहवाही करेंगें। उस रिपोर्ट को एनटी अवार्ड में पुरस्कृत भी किया जाएगा। हमारी संवेदना इतनी मर चुकी है कि हम घर बैठे, अपने कमरे में आरामतलब होकर दर्द का एहसास करना चाहते हैं।

नक्सलियों का तांडव और सरकारी मुआवजा















छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलियों की कारस्तानी सभी ने देखी। देश के 76 सपूत शहीद हो गए। ऐसी वारदात के बाद इनके परिजनों के लिए सरकार मुआवजे की घोषणा जरूर करती है। एक तरह से मरे हुए लोगों की कीमत तय करती है। यानी मुर्दे की कीमत भी हमारे यहां ही तय होती है। जिनका सम्मान और ख्याल सरकार उनके जीते जी नहीं कर पाती मरने के बाद सहानुभूति के तौर पर मुआवजा देकर उनके मौत की कीमत लगाती है। मरने के बाद इन लोगों का हिसाब किताब लगाया जाता है। बिल्कुल बनिए की तरह। खून की कमत तय करके दे दी जाती है। कुछ इस तरह... नक्सली हमले में मारे गए सीआरपीएफ के सभी 75 जवानों के परिजनों को केंद्र सरकार ने 15-15 लाख रुपये की मुआवजा राशि देने की घोषणा की। गृह मंत्रालय ने कहा कि हर मृतक जवान के परिवार को 38 लाख रुपये से अधिक की सहायता प्रदान की जाएगी, जिसमें केंद्र सरकार की तरफ से 15 लाख रुपये की अनुग्रह राशि, सीआरपीएफ जोखिम कोष से 10 लाख रुपये, राज्य सरकार की तरफ से तीन लाख रुपये की अनुग्रह राशि, राज्य सरकार की तरफ से नक्सल निरोधी अभियान के लिए योजना के तहत 10 लाख रुपये और सीआरपीएफ केंद्रीय कोष से 60 हजार रुपये की राशि शामिल है। जो घायल होकर अस्पताल में हैं उसे भी सरकार कुछ न कुछ जरूर देगी। इस तरह हो गया हिसाब साफ!

इसके बाद सरकार मुमकिन है नक्सलियों के बारे में मिली खुफिया जानकारी को नजरअंदाज किए जाने के चलते हुई इस बर्बर कांड के बारे में जांच कमीशन भी बिठा दे कि आखिर चूक (चिदंबरम ने कहा ह कि कहीं न कहीं चूक हुई है) कहां और किन अधिकारियों से हुई। जांच कमीशनों का क्या इतिहास रहा है हमारे यहां सभी को मालूम है। पर जब सरकार कोई जांच कमीशन बिठाती है तो लगता है वह किसी अद्भुत चीज को खोजना चाहती है। जैसे कि यह समस्या या नक्सली कहीं कंदराओं में रहते हैं या उनसे जुड़े लोग इस तरह की कुख्यात वारदात क अंजाम देकर बरमूडा ट्रैंगल में छिप जाते हैं और फिर बाहर निकल आते हैं। हालांकि वहां से कोई कभी वापस नहीं आता। सरकार ने भी ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरू किया ही, अब और तेज करेगी वह अभियान। हवाई हमले हो या न हो पर अभी भूमिका कुछ उसी तरह की बांधी जा रही है। पर असली समस्या और उसके समाधान की ओर किसी का भी ध्यान नहीं जा रहा है। जबकि न जाने सरकार और नक्सली दोनों से ही ओर से खेले जाने वाले खूनी खेल में कितने ही मांओं ने अपने बेटे गंवा दिए, पत्नियों ने मांग की सिंदूर पोछ डाली, बहनों ने राखी खरीदना छोड़ दिया और बेटा अनाथ कहलाने लगा। सारी समस्या पर मुझे नागार्जुन की चंद पंक्तियां याद आती हैं......

देश हमारा भूखा-नंगा घायल है बेकारी से,

मिले न रोजी -टी भटके बने दर-दर भिखारी से,

स्वाभिमान सम्मान कहां है, होली है इंसान की,

बदला सत्य, अहिंसा बदली, लाठी-गोली डंडे हैं,

कानूनों की सड़ी लाश पर प्रजातंत्र के झंडे हैं।

शब्दों की फितरत

आज भी शेष हैं यादें,
धुंधली भले ही हो गईं हो,
पर खोई नहीं।
जीवन की आस बनकर।
एक नया अर्थ गढ़ती है जिंदगी,
हां, मालूम है सबको
कि शब्दों की फितरत है अर्थ गढ़ना,
पर जब अर्थ ही अनर्थ हो जाए तो ?

अब तो बाजारू हो गए हैं रिश्ते-नाते,
हरकोई खेलना चाहता है शब्दों से,
पहले भावनाओं से खेला करते थे,
खेलने का यह चलन अब पुराना हो गया।

भला किसकी मजाल,
कि गुजर जाए बदनाम बस्ती से,
रात के अंधेरों में कारोबार करने वाले
कभी दिन के उजाले में चेहरा छिपाया नहीं करते।
चलो एकबार हम दखते हैं,
कि अपने पेशे में बेईमानी कैसे करते हैं!

मुआवजा या मुर्दे के मूल्य

हाल में कृपालु महाराज के आश्रम में भगदड़ की खबर तो आप सभी ने सुनी और देखी ही होगी। मंदिरों और बाबाओं के आश्रम में भगदड़ से लोग तो मरते ही रहते हैं। इसके अलावा लोगों की मौत और भी दूसरे तरीके से होती है। आज सेना में बहाली की जगह पर युवकों की तादाद ज्यादा होने और धांधली होने के चलते भगदड़ का होना आम बात है। यहां देश के लिए मरने से पहले उस योग्य होने के लिए लोग खेत आ जाते हैं। हाल मे बेंगलुरू के कर्लटन टावर में आग से भी कुछ लोगों की जानें जाती हैं। पुलिस और पब्लिक के बीच प्रदशर्न से भी कुछ लोगों की मौत हो जाती है। राजस्थान में गुर्जर आंदोलन का मामला ज्यादा पुराना नहीं है। इन सभी में मरने वालों के बीच एक ही समानता है। इनके मरने के बाद इनके परिजनों के लिए सरकार मुआवजे की घोषणा जरूर करती है। एक तरह से मरे हुए लोगों की कीमत तय करती है। यानी मुर्दे की कीमत भी हमारे यहां ही तय होती है। जो जीते जी अपने परिवार के लिए कुछ नहीं कर पाते, वह मरने के बाद अपने परिवार को मालामाल कर जाते हैं। मरने के बाद इन लोगों का हिसाब किताब लगाया जाता है। बिल्कुल बनिए की तरह। खून की कमत तय करके दे दी जाती है। कुछ इस तरह... जो मरा उसको पांच हजार दे देंगे। जो घायल होकर अस्पताल में हैं उसे हजार रुपए। जिसकी सिर्फ मरहम पट्टी हुई है, उसे ढाई सौ रुपए। हो गया हिसाब साफ!

अब इस पर मरने वाले परिवार की औरतें बात करती हैं- हमारी तो किस्मत फूट गई। हमारे मर्द को मामूली मरहम पट्टी हुई तो तो हमें सौ रुपए ही मिलेंगे। तू भगवान है बाई कि तेरा मरद मर गया तो तुझे पांच हजार मिलेंगे। हमारा मरद से शूरू निखट्टू है। पड़ोसी का घरवाला फिर भी ठीक है तो अस्पताल मे पड़ा है तो उसे हजार रुपए मिलेंगे। सरकार ने मरने वालों के परिवार का मनोबल कितना बढ़ा दिया है कि रोटी के बदले लोग गोली खाने यानी मरने को भी तैयार हैं। सरकार को शायद रोटी से गोली सस्ती पड़ती है। इसलिए वह रोटी क बदले गोली सप्लाई ज्यादा करती है। खैर, इनके अलावा भी लोग सरकार के हाथों या उसके जरिए मरते हैं। नक्सलवाद के नाम पर आदिवासी, आतंकवाद के नाम पर बेकसूर और बेगुनाह मुसलमान, अपराधी के नाम पर फर्जी मुठभेड़ के चलते पुलिस के ही मुखबिर या आम आदमी। पर इनकी या इनके परिवार वालों की करम फूटी है। इन्हें सरकार की ओर से कोई मुआवजा नहीं मिलता। लेकिन बेकसूर मुसलमान, आदिवासी, आम आदमी को मारने अफसरों को तरक्की या ईनाम की राशि जरूर मिलती है। पहले वाली स्थिति में फायदा परिवार को, जबकि दूसरी हालत में फायदा किसे आप समझ ही रहे हैं....इसलिए दोस्तों मरने का कौन सा विकल्प चुना जाए..................

नोट- टर्म एंड कंडीशन अप्लाई!

तन्हाई से प्यार

सब करते हैं मोहब्बत दुनिया में,
जो तुम कर बैठे तो क्या?
मंझधार में अक्सर डूब जाती हैं कश्तियां ,
जो तुम डूब गए तो क्या,
यूं तो हबीब पसंद है दुनिया,
तुम्हे कुछ रकीब मिल गए तो क्या?
इश्क सभी करते हैं, तुमने भी की।
दर्द सभी झेलते हैं इश्क में,
तड़प और बेचैनी में गुजरता है हरएक पल,
अब पूछते हो खता क्या है?
तो सुनो।
इश्क के बाजार में निकले थे तुम अकेले,
बड़ी मुश्किल से मिली तुम्हें तुम्हारी तन्हाई,
पर तन्हाई से भी एक तरफा प्यार?
अब आगे क्या बताऊं.....