सबसे बड़ा मीडिया

आजकल हर काम बहुत बड़ा हो रहा है। कोई भी घटना हो रही है, वह देश की सबसे बड़ी घटना ही हैं। हालांकि, इसका पैमाना क्या है, मुझे नहीं मालूम। पर बताया तो कम से कम ऐसा ही जा रहा है। मीडिया में तो यही कुछ चल रहा है। पहले राजधानी का हाइजैक। एक चैनल के लिए यह दुनिया का शायद भारत का सबसे बड़ा ट्रेन हाइजैक था। उसके बाद कल राजस्थान में इंडियन ऑयल डिपों में आग लगी यह भी भारत की कुछ ने तो बताया कि यह दुनिया की सबसे बड़ी आग थी। इस तरह की ख़बरे आजकल देखने और सुनने को मिल रही है। शायद हम सभी भाग्यशाली हैं, हमें दुनिया की बड़ी घटनाओं के गवाह बन रहे हैं। लेकिन, दुर्भाग्य यह कि ये सारे घटना बेहद ही दुखद हैं। भाषा के लिहाज़ से देखें तो कई चैनल यह बता रहे थे कि राजस्थान में आग के बढ़ने की संभावना है। तरस आता है, ऐसे ऐंकरों के भाषा के ज्ञान पर । वे आग बढ़ने पर ख़ुश हो रहे थे या दुखी। दरअसल, संभावना एक सकारात्मक शब्द है। होना तो यह चाहिए था कि इसकी जगह आशंका जताई जाती। लेकिन जो मैं जानता हूं वही सही है। और मैं इसी तरह इसका इस्तेमाल करूंगा। तो करते रहिए। वाक़ई में निराशा होती है.

लाल सलाम के क़त्लेआम की वजह

पूंजीवाद और विकास के नाम पर आदिवासियों और समाज में हाशिए पर रह गए लोगों को उनकी ज़मीन और अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है. यदि ये तबका कोशिश भी करे तो इनकी आवाज़ भी सांप के फन की तरह कुचल दिया जाता है. शायद इन्हें नहीं मालूम जब यहीं देश के सत्ताधीशों को निगलेंगे तो कोई बचाने वाला भी नहीं होगा. दरअसल, आज देश के चंद गिने-चुने लोगों के पास अथाह संपत्ति है और अधिकांश लोग ऐसे हैं जो अपनी न्यूनतम ज़रूरतें भी पूरी नहीं कर पाते हैं. जो लोग दूसरों के महल बनाते हैं उन्हें सिर छुपाने के लिए फूस की झोपड़ी भी मयस्सर नहीं, जो औरों के लिए क़ीमती कालीन बुनते हैं, वे सारा जीवन ग़रीबी और अंधकार में बिता देते हैं. आज हालात ऐसे हो गए हैं कि क़ानून का पालन करने वाले निराश और हताश हो गए हैं जबकि क़ानून तोड़ने वाले सरकार पर हावी हो चुके हैं. नक्सलवाद का यह विकृत रूप हर रोज़ लगों की जानें ले रहा है. हररोज़ कोई न कोई मांग सूनी हो रही है, बच्चे अनाथ हो रहे हैं. आख़िर इसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा. सरकार तो कतई नहीं लेगी. बस चंद मुआवजा देकर अपने फर्ज़ पूरी समझती है. लेकिन, क्या वाक़ई यही समस्या का निदान है. लोगों के बीच तो ऐसी चर्चा चल रही है कि नक्सलियों से निपटने का कारगर तरीक़ा यही है तो हमें नहीं चाहिए, मुआवजा और हम दुआ (बद्दुआ) करते हैं कि नक्सली सरकार में बैठे आला नेताओं अधिकारियों के भी मार डाले, फिर हम चंदा जमा कर सरकार को मुआवजा देंगे. हताशा की चरम स्थिति लोगों पर इस क़दर हावी होने लगी है कि वे अब ऐसी दुआएं करने लगे हैं. उन्हें समझ में आने लगा है कि उनके (ग़रीबों-लाचारों) वोटों से बनी सरकार उनका कभी भला नहीं कर सकती है. यह काफी हद तक सही भी है, तभी तो लोग कहते नज़र आते हैं कि भारत के लोग वोटर नहीं होते और यहां चुनावी पर्व नहीं होते तो आम लोगों के लिए चुनाव जीतने के नाम पर जो कुछ भी जन-कल्याण का काम हो जाता है, वह भी नहीं होता. ज़रा नीति-नियंताओं की कारास्तानी देखिए जिस नक्सलवाद से देश जूझ रहे हैं, जिन परेशानियों ने लोगों को नक्सली बनने पर मजबूर किया, उस वजह पर कभी ध्यान नहीं देते. संपत्ति की विषमता संसाधनों का असमान वितरण. कोई करोड़ों रूपए की दौलत से अय्याशी की ज़िंदगी जी रहा है तो देश की 77 फ़ीसदी लोग हररोज़ महज 20 रूपए से भी कम पर अपना गुज़र-बसर कर रहे हैं. इन 77 फ़ीसदी में भी अधिकांश यदि सुबह की रोटी जुटा पाता है तो शाम के लिए उसे तरसना पड़ता है. यह सोचते-सोचते ही फिर सुबह हो जाती है कि उनके छोटे-छोटे बच्चे आज भी भूखे पेट रोते-बिलखते सो गए. इस तरह पिता का प्यार और मां की ममता हर रोज़ दम तोड़ती है. अपने लाडले को दो वक़्त की रोटी का फर्ज़ निभाने में. ऐसे में फाइव-स्टार और एसी की हवा खाने वाले इन ग़रीब मजलूमों की स्थिति में सुधार के कोई नीतियां बनाते हैं तो उसकी हक़ीक़त समझना कतई मुश्किल नहीं है. जब हवाई सफ़र में इकॉनमी क्लास में सफ़र करने वालों के लिए कैटल क्लास की संज्ञा दी जाती है तो इन ग़रीब और मजलूमों के लिए कैसी सोच और भावना होगी बताने की शायद ज़रूरत भी नहीं है.
हाल में, छत्तीसगढ़ का दंतेवाड़ा ज़िला हो, या महाराष्ट्र का गढ़चिरौली इलाक़ा कत्लेआम का खेल यहां ख़ूब खेला गया. हम केवल इन्हीं इलाक़ों की बात क्यों करें, देखा जाए तो नक्सलियों का प्रभाव क्षेत्र दिन ब दिन बढ़ता ही जा रहा है, जहां नक्सलियों का तांडव सर चढ़ कर बोला रहा है. लोग इतने ख़ौफ़जदा हैं कि घर से निकलना भी उनके लिए जान गंवाने ले कम नहीं है. पुलिस प्रशासन पर नक्सलियों का क़हर इस क़दर आजकल टूट रहा है कि हर 10-15 दिन में कोई न कोई बड़ी वारदात सुनने को मिल ही जाती है, जिसमें पुलिस वाले थोक के भाव में मारे जा रहे हैं.

लाल सलाम को सलामी

साल 1967 के दौर में नक्सलबाड़ी से जो चिंगारी उठी, उसने भारत को अपनी आगोश में ले लिया. आज हालात ऐसे हैं कि बंगाल कि यह चिंगारी आंध्रप्रदेश के गांवों तक पहुंच चुकी है. लेकिन सत्ता की मंशा कभी इसे सुलझाने की नहीं रही. देश में जब जनता पार्टी की सरकार थी तब उसी दौर में पिपरा, पारस बीघा, मसौढ़ी अरवल, कंसारा से लेकर बेलछी जैसे दर्जनों कांड हुए जिसमें दलित और कमज़ोर लोगों की सामूहिक हत्याएं की गईं. जब बेलछी कांड हुआ तो पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हाथी पर चढ़कर बेलछी पहुंची थीं. आज भी ऐसे हालातों में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं आया है, कत्लेआम होती रहती हैं, नेता मुआवजा की घोषणा करते रहते हैं, मानों ये कह रहे हों कि बस यही लाख- दो लाख आपके जान की क़ीमत है. नक्सलवाद की समस्या को टटोलें तो कभी आंध्र, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ तो कभी बिहार झारखंड में यह हमेशा अपना सर उठाता रहा है. सामाजिक और आर्थिक न्याय के लिए शुरू हुआ यह आंदोलन आज जिस मुकाम तक पहुंच चुका है, उससे यह कतई नहीं माना जा सकता कि यह वही नक्सलवादी आंदोलन है, जो बंगाल के नक्सबाड़ी से शुरू हुआ था. जिसकी अगुवाई चारू मजूमदार और कानू संन्याल जैसे नेताओं ने की. एक वक़्त ऐसा था जब देश का पूरा अल्पसंख्यक बुद्धिजीवी वर्ग भी इस आंदोलन के पक्ष में खड़ा दिखाई देता था. ग़रीब-गुर्बा से लेकर समाज में हाशिए पर जीने को मजबूर लोगों का हमेशा से इसे जन समर्थन मिलता रहा. यहां तक कि सरकार के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ने वाले नक्सलियों के कुछ समर्थक तो सरकार में भी थे. लेकिन, आज नक्सलवाद की वही स्थिति जानना है तो आप उन लोगों के बीच जाइए, जो हररोज़ इनके संगीनों का शिकार हो रहे हैं. उस मां से पूछिए जो अपने बेटे का चिता सामने देखती है, उस पिता से पूछिए जो अपने बेटे को ही अपना कंधा दे रहे हैं. हाल में, नक्सलियों के हाथों मारे गए पुलिस अधिकारी फ्रांसिस के बेटे से पूछिए. इस तरह जवाब तलाशने के लिए आपको कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. ऐसे अनगिणत उदाहरण हैं जो नक्सलवाद के बदलते स्वरूप की तस्वीर आपकी आंखों के सामने घूमने लगेंगे.
हालांकि, एक बात तो तय है कि सरकारी नीति-निर्धारक तय नहीं कर पा रहे हैं, इस हालात के लिए कौन सी स्थितियां ज़िम्मेदार हैं. नक्सलवाद को लेकर सरकारें जिस तरह से अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकती रही हैं, इसे समझना कतई मुश्किल नहीं है. आज देश के सात से भी अधिक राज्यों में नक्सली अपना क़हर बरपा रहे हैं. देश के क़रीब दर्जन भर राज्यों में इन माओवादियों ने सत्ता को खुलेआम चुनौती दे रखी है. चाहे वह छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, ओडीसा, बिहार, बंगाल उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश जैसे राज्य ही क्यों न हों. कुछ इलाक़ों या कहें कि कुछ राज्यों में में तो इनकी समानांतर सरकारें भी चल रही हैं तो कतई ग़लत न होगा. क्या यह बुरा होगा कि नक्सलवाद का मसला सुलझा लिया जाए. यह मसला सुलझ भी सकता है, लेकिन इससे नक्सलवाद पर चलने वाली कुछ लोगों की दुकानें बंद हो जाएंगीं. ये कौन लोग हैं. कौन हैं, जो हर समस्या को उसके उसी रूप बरकरार रखना चाहते हैं. आख़िर, ये क्यों चाहते हैं कि समाज के हाशिए पर और विकास के नाम जो लोग पिछड़ गए हैं, उनके अधिकारों के लिए लड़ने वाले उनका ही ख़ून बहाए. जब तक इस सवाल को हम नहीं समझ लेते तब तक किसी भी समस्या की तरह नक्सलवाद को भी नहीं सुलझा सकते. चाहे सरकार कोई नीति बनाए, नक्सलवाद से लड़ने के नाम पर सलवा जुड़ूम बनाए गए, लेकिन पिसता तो वही आम आदमी है. जिसकी आवाज़ देश के हुक्मरानों तक नहीं पहुंचती.

नक्सलवाद की राम कहानी

होती हैं बड़े लोगों की बड़ी बातें,
उनके सामने सब छोटे हो जाते.
जुबां ख़ामोश ही रखो अपनी
बरख़ुरदार हो जाओगे बर्बाद नहीं तो.
चारों ओर हा-हाकार मचा है, नक्सलवाद का.
पीएम, सीएम सब सर खपा रहे हैं
फिर भी कुछ हो नहीं पाता है.

सुबहो-शाम इसी मगन में रहते हैं,
कि कब कसेगा नकेल नक्सलवाद पर.
लाखों-करोड़ों के होटल में रहने वाले,
पॉलिसी बनाते हैं फकीरों की.
शहीद हो गया फ्रांसिस झारखंड में,
लड़ते-लड़ते नक्सलियों से,
नहीं मिली थी उसको लेकिन
सैलरी 6 महीने से.

कैसे कहते हैं हम लड़ पाएंगे
ऐसे नक्सलवाद से.
इसी विषमता के लिए लड़ रहे हैं नक्सलवादी,
पुलिस भी है शिकार उसी विषमता का.
फिर भी हो गया शहीद फ्रांसिस
करके नेताओं को आबाद. बनने लगी हैं फिर से नीतियां,
लड़ने नक्सलवाद से, देखें क्या-क्या होता है.
यह नकस्लवाद कितना बढ़ाता है.
क्योंकि, जब-जब होता हैं कुर्बान कोई
नेता करते हैं ऐलान कोई.
सुना दिया है फरमान इन्होंने,
नहीं करेंगे बर्दाश्त अब,
ऐसे नक्सलवाद को.
अमां मियां पहले करलो काम कोई.

जंपिंग जसवंत की राजनीतिक चाल

जिस दिन जसवंत सिंह को बीजेपी से निकाला गया, उसी दिन लग गया कि जसवंत सिंह राजनीति महत्वकांक्षा को आख़िर कब तक दरकिनार करके रखते हैं। कांग्रेस तो जा नहीं सकते थे, इसलिए राजस्थान की गद्दी जिसके लिए वसुंधरा से पंगा लेते रहे, वहां इन्हें मिल नहीं सकती थी. सो कांग्रेस का दरवाज़ा उन्होंने ख़ुद बंद कर रखी थी. दूसरा विकल्प, बीजेपी के मसले पर आरएसएस की दिलचलस्पी के बाद घर वापसी की तो वो भी मुमकिन नहीं हो पाया.
तीसरा विकल्प उनके पास दरअसल विकल्प नहीं, ये प्रस्ताव था. अमर सिंह की तरफ़ से समाजवादी पार्टी के लिए. इसकी संभावना प्रबल थी क्योंकि बीजेपी से निकाले गए या ख़ुद निकल गए कल्याण सिंह भी वहीं हैं. साथ ही, सपा दूसरे दलों के बाग़ियों को कुछ ज़्यादा ही सम्मान करती आई है. लेकिन जसवंत वहां भी नहीं गए. मतलब इरादा साफ़ था. दोयम दर्ज़े के राजनेता बनना उन्हें पसंद नहीं, हो भी क्यों ? जो सिपाही भारतीय सेना में हमेशा फ्रंट से मुक़ाबला किया हो वो भला दूसरों के कंधे पर बंदूक रख गोली चलाने लगे. ऐसे में एक ही विकल्प बचता था, जसवंत सिंह के पास. अपनी ख़ुद की पार्टी बनाएं. इसके लिए उनकी कवायद बहुत दिनों से चल रही थी. और अब उनकी मेहनत परवान चढ़ गई. ख़बरों में ऐसा कहा जा रहा है कि वो एंटी बीजेपी और एंटी कांग्रेस समूह की अगुआई करते नज़र आएंगे. इस समूह का नाम लोक मोर्चा है. जिसके संयोजक जदयू से निकाले गए नेता और पूर्व विदेश राज्य मंत्री दिग्विजय सिंह को बनाया गया है. सिंह ने ख़ुद बताया कि लोक मोर्चा को लेकर चर्चा बहुत पहले से ही हो रही थी. अगस्त में इसकी बैठक मुंबई में हुई भी थी. एक तरह देखा जाए इसमें तमाम बाग़ी हुए नेता ही सक्रिय भूमिका में नज़र आ रहे हैं. मसलन, झारखंड के पूर्व विधानसभा भी इस समूह में शामिल हैं. मुंबई के ही एक नेता राज शेट्टी भी इसके सदस्य बने हैं. यदि दिग्विजय सिंह की माने तो कई बुद्धिजीवियों का भी उन्हें समर्थन हासिल है. अब कितने अल्पसंख्यक बुद्धिजीवी इनके साथ हैं, इसका ख़ुलासा तो वक़्त आने पर ही होगा. फिलहाल सिंह के मुताबिक़ प्रभाष जोशी और एम जे अकबर जैसे हस्ती का नाम वो बता रहे हैं. जिनका सहयोग और समर्थन लोक मोर्चा को मिल रह है. बताया तो ये भी जा रहा है कि यह समूह महाराष्ट्र विधानसभा में भी अपने उम्मीदवार उतारने जा रही है. मतलब, अभी से ही सक्रियता दिखाने की पुरजोर कोशिश चल रही है. लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि इस तरह के समूह कब तक अपना अस्तित्व बचा कर रख पाते हैं, इतिहास भी इस बात का गवाह है कि इस तरह कई समूहों आए और कई गए भी. ऐसे में इसका क्या हस्र होता है, यह देखना भी काफी दिलचस्प होगा.

गांधी उपनाम का जलवा

कभी आपने सोचा है, नेहरू का ख़ानदान गांधी ख़ानदान कैसे बन गया। आख़िर क्या वजह रही कि पंडित नेहरू ख़ानदान का उपनाम बाद में चलकर गांधी उपनाम में बदल गया। हममें कई लोग सोचते होंगे कि और हो सकता है कई लोग न भी जानते हों, कि इंदिरा गांधी ने जब फिरोज़ गांधी से शादी की तो भारतीय परंपरा के मुताबिक़, पति का उपनाम ही ख़ानदान का उपनाम बन जाता है। इसीलिए, इंदिरा गांधी के बाद जिस भी नेहरू वंशज ने भारत पर राज किया चाहे वह राजीव हों या अब राहुल उनके नाम में गांधी उपनाम लग गया। कई लोग यहां तक अफवाह फैला चुके हैं कि फ़िरोज़ गांधी महात्मा गांधी दूर के रिश्तेदार थे। लेकिन ऐसा नहीं। दरअसल फिरोज़ गांधी एक पारसी फैमिली से ताल्लुक़ रखते थे। उनके पिता का नाम जहांगीर गांधी था। ऐसा भी कहा जाता है कि फ़िरोज़ गांधी ने अपना उपनाम गैंडी (Gandy) से गांधी कर लिया। फ़िरोज़ से शादी के पहले इंदिरा गांधी अपना पूरा नाम इंदिरा नेहरू लिखती थी।
लेकिन, इस गांधी उपनाम में भी ग़जब का जादू है। इसी उपनाम की बदौलत नेहरू वंशज भारत पर अभी तक शासन कर रहे हैं। यदि इसमें हक़ीक़त नहींहै तो क्यों फिरोज़ गांधी गुमनामी के अंधेरे में खो गए। बावजूद इसके कि वो भी एक राजनीतिक शख्स थे। लोकसभा के सांसद थे। लेकिन, उनका नामोनिशान सत्ता के गलियारे तक नहीं है। आख़िर, क्यों। इसकी सबसे बड़ी वजह यह भी हो सकती है, कांग्रेस पार्टी यह बख़ूबी जानती है कि या कहें कि नेहरू परिवार कि गांधी (महात्मा) के उपनाम के मोहजाल से इस देश की जनता का निकलना काफी मुश्किल है, जब तक यह देश भारत रहेगा, गांधी का जलवा बरकरार रहेगा। इसी का फंडा कांग्रेस अपना रही है।

बापू, तुम ऐसे क्यों थे !

आज बापू का जन्मदिन है। मतलब ड्राई डे। कम से कम सरकारी मतलब तो यही होता है। छुट्टियां ऊपर से बोनस में। मैं फिलहाल दिल्ली में हूं, तो बात दिल्ली की ही करूंगा। आज भी में ऑफिस आया। वह भी जल्दी। इसलिए नहीं कि जानबूझ कर। घर से तो चला था उसी टाइम पर, जिस पर मैं रोज़ चलता हूं। दरअसल, पहले पहुंचने की वजह यह है कि आज ट्रैफिक की भीड़भाड़ बिल्कुल नहीं थी। बस, सरपट सरपट तेज़ गति से चली जा रही थी। चारों तरफ़ सन्नाटा और सुनसान सड़कें। मतलब कम ट्रैफिक की वजह से आज जल्दी पहुंच गया।

ख़ैर, क्या आपने कभी सोचा है कि गांधी, गांधी क्यों थे। हो सकता है आपको ये थोड़ा अटपटा लगे। लेकिन इसमें बहुत बड़ा रहस्य छुपा हुआ है। वह भी आज के गांधी परिवार की। हमारे भविष्य के प्रधानमंत्री की। सबसे पहले आज का एक अजीब वाकया मैं आपको सुनाता हूं। आज मेरी मुलाक़ात एक ऐसे इंसान से हुई जिसे आप आम आदमी कह सकते हैं। मैंने गांधी जी की बात उनसे छेड़ दी। वह भी मेरे साथ न्यूज़ चैनल देखने में मशगूल थे। बापू की कुछ दुर्लभ तस्वीरें दिखाईं जा रही थीं, जो वाकई दुर्लभ थीं। मैं आश्चर्य कर रहा था कि कैसे एक इंसान बस एक धोती में अपनी ज़िंदगी गुजार सकता है। वह काम बापू ने किया। नेहरू की कांग्रेस पार्टी आज सादगी का खेल खेल रही है, लेकिन गांधी ने इसे दशकों तक जिया। (नेहरू की कांग्रेस पार्टी इसलिए क्योंकि गांधी उसे भंग कर जनता की सेवा में लगाना चाहते थे, पर नेहरू ने उसे अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का अचूक हथियार बना लिया.) कैसे कोई बस सच बोलकर इतनी बड़ी क्रांति कर सकता है। कैसे दूसरों पर बग़ैर हाथ उठाए ही उसे परास्त कर सकता है। जब देश आज़ादी की जश्न मना रहा हो तो, वह इंसान जिसने वाक़ई में आज़ादी दिलाई हो, वह तब भी लोगों के ज़ख्म भरने का काम कर रहा हो। (जब सारा देश और आज़ादी की लड़ाई के ज़्यादातर अगुवा आज़ादी की ख़ुशिया मना रहे थे, उस वक़्त बापू हिंदू-मुस्लिम दंगे रोकने में लगे थे, उनकी सेवा और लोगों की जान बचाने का काम कर रहे थे। उस भीषण दंगे ने बापू अंदर तक हिला दिया था, ऐसी आज़ादी की उम्मीद तो कतई नहीं चाह रहे थे। जबकि नेहरू सहित कई पुरोधा सत्ता की बंदरबांट में लगे थे ) इन्हीं सब ख़ूबियों की वजह से गांधीजी मुझे एक विचित्र और एक अद्भुत शक्ति नज़र आते हैं। जिसे समझन के लिए बेहद सरल और साधरण समझ की ज़रूरत है। जिसे आज हम भूलते जा रहे हैं।


हां, तो मैं बात कर रहा था उस विचित्र वाकये की। मुझे उन्होंने बताया कि गांधी जल्दी चले गए, मतलब गोडसे ने मार दिया अच्छा हुआ। नहीं तो देश का और कबाड़ा कर दिया होता। ये सोच आज के टुवाओं की है,। लेकिन सोचने वाली बात है कि यदि कुछ लोग भी ऐसा सोचते हैं तो आख़िर क्यों...क्या ये भी गोडसे मानसिकता वाले लोग हैं। या फिर अब के संघी मिजाज़ वाले...या कहीं ये कांग्रेसी तो नहीं, जो बस गांधी के नाम को भुना कर आज भी सत्ता की चाबी अपने पास ही रखना चाहते हैं। जब राहुल गांधी ये बयान देते हैं कि आज भी आम लोगों तक १० पैसा भी नहीं आम लोगों तक नहीं पहुंचता तो मुझे शक़ होता है कि कांग्रेसी भी वही कर रहे हैं, जो बाक़ी संघी या गोडसे मानसिकता वाले लोग कर रहे हैं।


अगले अंक में आपके बताएंगे कि कैसे नेहरू का परिवार गांधी परिवार बना...........क्यों...क्या थी कहानी....मजबूरी थी....या कोई और वजह.........