हिंदुस्तान किससे लड़ रहा है? कोरोना या फिर मुसलमानों से...

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कोरोना धर्म देखकर नहीं होता। लेकिन धर्म देखकर आरोप लगाया जा रहा है कि किसी धर्म की वजह से कोरोना फैल रहा है। ख़ैर 'कोरोना धर्म देखकर नहीं होता इसलिए सबको एकजुट रहकर कोरोना से लड़ाई लड़नी है।' यह बिलकुल हालिया बयान है दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की। जबकि दिल्ली में ही धर्म देखकर कोरोना फैलाने के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार बताने की कई घटनाएं हुई हैं। मैं जहां रहता हूं, वहां का आंखों देखा हाल है। एक बीट कॉन्स्टेबल को कुछ लोग कहते हैं कि सब्जी बेचने वाले मुसलमानों को इस मोहल्ले में आने से रोकें। वह कॉन्स्टेबल मना कर देता है और कहता है कि मैं किसी को मुसलमान-हिंदू देखकर नहीं रोकूंगा। हालांकि, वह इससे रोकता भी नहीं है और कहता है कि अगर आपको हिंदू-मुसलमान देखकर रोकना है, तो रोको।


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कह चुके हैं कि कोरोना से इस जंग को हमें मिलकर लड़ना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया, कोरोना वायरस नस्ल, धर्म या पंथ के आधार पर भेदभाव नहीं करता है। इसलिए इसके खिलाफ हमारी लड़ाई में एकता और भाईचारे को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। हम सभी इस लड़ाई में एकजुट हैं। हालांकि, उनकी यह प्रतिक्रिया ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन के मानवाधिकार संगठन द्वारा कोरोना वायरस के संदर्भ में मुसलमानों को निशाना बनाए जाने और देश में चलाए जा रहे इस्लामोफोबिक कैंपेन की निंदा करने के घंटों बाद आई। दरअसल, भारत में मुसलमान कोरोना वायरस संकट का खामियाजा भुगत रहे हैं। क्योंकि हर बात पर हर दिन यहां न्यूज चैनलों से लेकर सोशल मीडिया और लोगों के पर्सनल वॉट्सऐप ग्रुप में देश में कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों को लेकर मुसलमानों को हो दोषी ठहराया जा रहा है। यह दिल्ली के निजामुद्दीन में तबलीगी जमात के बाद 100 फीसदी पढ़ गया है। एक पार्टी विशेष के नेता और पार्टी से जुड़े संगठन कोरोना आतंकवादतक जैसे शब्दों का प्रयोग करने लगे हैं। दुनिया के दूसरे सबसे अधिक आबादी वाले देश यानी भारत में इस कोरोना वायरस संकट के बीच अल्पसंख्यकों के प्रति हिंसा, व्यापारिक बहिष्कार और नफरत फैलाने वाले बयानों में तेजी से वृद्धि आई है।
भारत में कोरोना वायरस के अभी तक 26 हजार 496 मामलों की पुष्टि हो चुकी है। 824 लोगों की मौत हो चुकी है। अगर तबलीगी जमात के कोरोना मामलों को देखें, तो भारत में हर पांच से एक केस का ताल्लुक इसी से है। फिर बाकी चार का किससे है? मार्च में तीन दिनों धार्मिक जलसे में तकरीबन 8 हजार लोग इकट्ठा हुए थे। उसके पहले इस देश में कोरोना वायरस अपना रंग दिखाने लगा था। लेकिन मार्च की इस घटना के बाद देश में क्या चल रहा है? कोरोना का इस्लामीकरण। बड़ी सभाओं या देश में लॉकडाउन से पहले तबलीगी जमात ने दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में बड़ी धार्मिक सभा का आयोजन किया था। जमात के प्रवक्ता मुजीब-उर-रहमान का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 24 मार्च को 21 दिनों का लॉकडाउन लागू किए जाने के बाद वहां फंसे लोगों को रहने की जगह मुहैया कराई गई।
फिर छापे मारी हुई। कई विदेशी भी वहां से निकले। संक्रमण का खतरा बढ़ता चला गया। लोगों ने खुद को छिपाना भी शुरू कर दिया। देश में एक तरफ जहां कोरोना मरीजों का इलाज करने वाले डॉक्टरों पर हमला हो रहा है। इलाज करने वाले डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों को उनके पड़ोसी ही उनके खुद के घरों में रहने पर हंगामा मचा रहे हैं। एक डॉक्टर की मौत पर तो लोगों ने उनके दफनाने को लेकर बवाल मचा दिया। जब इस तरह का सोशल स्टिग्मा चल रहा हो, तो भला कौन खुद की पहचान जाहिर करेगा। हालांकि, जरूरत इस बात की है कि इसे लेकर जागरूकता अभियान चलाया जाए, लेकिन जागरूकता अभियान की जगह मुसलमानों के खिलाफ अभियान चलाया जा रहा है।
मुसलमानों को निशाना बनाकर झूठी खबरें/फेक न्यूज़ फैलाना शुरू कर दिया गया। कथित रूप से अधिकारियों पर उनके थूकने की खबरें फैलाई गई। बाद में यह झूठ साबित हुआ। सरकार की तरफ से भी कैसे इस बहस को आगे बढ़ाया गया, उसकी मिसाल भी देख लीजिए। भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस धार्मिक कार्यक्रम का नाम लिया। ब्रिटिश अखबार की वेबसाइट मेल ऑनलाइन के मुताबिक, उन्होंने 5 अप्रैल को कहा कि वायरस के मामलों की संख्या के 4.1 दिनों में दोगुनी हो रही थी। यह रफ्तार 7.4 दिनों की होती, 'अगर तबलीगी जमात की वजह से कोरोना के अतिरिक्त मामले सामने नहीं आते।
उसी दिन दिलशाद मोहम्मद ने अपनी जान ले ली। हिमाचल प्रदेश के रहने वाले दिलशाद ने जमात के दो लोगों को अपनी बाइक पर लिफ्ट दी थी। और जमात को लेकर पूरे देश में दहशत और कलंक का माहौल इतना फैला दिया गया कि इससे उसने अपनी जान ले ली। वहां के एसपी ने भी इस आत्महत्या के मामले को स्टिग्मा यानी कोरोना को लेकर सामाजिक कलंक को जिम्मेदार ठहराया।
राजस्थान में एक गर्भवती मुस्लिम महिला को उसके धर्म के कारण सरकार अस्पताल में भर्ती करने से मना कर दिया गया। इसकी वजह से महिला के पेट में पल रहे सात महीने के बच्चे की मौत हो गई।
उत्तराखंड में कुछ हिंदू युवाओं ने फल बेचने वाले मुसलमान शख्स को सामान बेचने से रोक दिया। हालिया मामला यह है कि झारखंड के जमशेदपुर के कदमा में एक फल की दुकान पर लिखा था, विश्व हिंदू परिषद द्वारा अनुमोदित दुकान। मुसलमानों की दुकानों का बहिष्कार और इस तरह की दुकानों को बढ़ावा दिया जा रहा है।
दिल्ली से सटे गुड़गांव के एक मस्जिद में गोलीबारी की गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 9 अप्रैल को 15 मिनट के लिए अपनी स्वेच्छा से लोगों को घरों की लाइट बंद करने की अपील की। यह पूरी तरह से स्वैच्छिक था, लेकिन हरियाणा में एक मुसलमान परिवार ने लाइट बंद नहीं की, तो उसके पड़ोसियों ने हमला बोल दिया। यह तो चंद उदाहरण हैं।
इससे पहले डॉक्टर कोरोना को लेकर पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि कोरोना महामारी से अधिक इसे लेकर सोशल स्टिग्मा अधिक लोगों की जान ले सकता है। यहां पहले से ही मुसलमानों के खिलाफ रोज नई बहस खड़ा करने की कोशिश की जाती है और ऐसे में जब कोरोना वायरस ने भारत में दस्तक दी, तो मुस्लिम पहले ही बैकफुट पर नजर आए।

लोकतंत्र को लगा कोरोना रोग, हुआ वायरस से संक्रमित


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कोरोना वायरस का शुक्रिया! मुझे पता है कि ऐसा नहीं कहना चाहिए, लेकिन मौजूदा कोरोना वायरस महामारी में कुछ छोटी-छोटी खुशियां हैं। कुछ इन्हीं शब्दों में रूस का एक शख्स अपनी भावनाओं को ज़ाहिर करता है। स्वाभाविक सी बात है कि इसकी वजहें भी होंगी। दरअसल, रूस में व्लादिमीर पुतिन वर्ष 2000 से ही सत्ता में हैं। राष्ट्रपति का उनका मौजूदा कार्यकाल 2024 में खत्म होने वाला है। लेकिन पुतिन ने 2024 के बाद भी 12 साल तक पद पर बने रहने का संवैधानिक जुगाड़ कर लिया। बस एक पेच बाकी रह गया था। रूस की संसद से पुतिन के 2036 तक सत्ता में बने रहने के लिए विधेयक पास हो चुका है। बस जनमत संग्रह कराना बाकी रह गया, जो 22 अप्रैल को होने वाला था। लेकिन कोरोना वायरस महामारी की वजह से इसे फिलहाल टाल दिया गया है। पिछले 20 वर्षों से पुतिन ही रूस के मालिक बने बैठे हैं। कभी संविधान का सहारा लेकर, तो कभी संविधान संशोधन के जरिए। सवाल उठते हैं, तो विपक्ष की आवाज का गला घोंट दिया जाता है।
कुछ इसी तरह का हाल या थोड़ा मुस्तफा कमाल पाशा के देश तुर्की का है। दरअसल, यह हक़ीकत है कि मौजूदा समय में सबसे बड़ा ख़तरा लोकतंत्र पर मंडरा रहा है। कोरोना वायरस ने इस ख़तरे को संजीवनी दी है या कहें कि लोकतंत्र भी कोरोना वायरस से संक्रमित हो गया है। दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश की तमाम खूबियां इस महामारी की चपेट में आ रही हैं या आ चुकी हैं। ऐसा इसलिए कि इस महामारी की वजह से अधिकांश देशों को मनमानी करने की छूट मिल चुकी है। उन पर नजर रखने या सवाल करने पर ही सवाल खड़े किए जा रहे हैं।
भारत में ही एक उदाहरण देता हूं कि मोदी सरकार ने प्रधानमंत्री राहत कोष के होते हुए पीएम केयर्स नाम से एक अलग ट्रस्ट बना लिया। अभी तक आपदा या महामारी के लिए प्रधानमंत्रा राहत कोष में ही चंदा या दान दिया जाता था, लेकिन अब पीएम केयर्स। लेकिन इसकी पारदर्शिता पर कई तरह के सवाल उठने लगे हैं। जब विपक्ष की तरफ से इसकी राशि प्रधानमंत्री राहत कोष में ट्रांसफर करने की मांग की गई, तो सिरे से खारिज कर दिया गया। अब ख़बर है कि पीएम केयर्स के फंड का सरकार ऑडिट भी नहीं करवाएगी। हालांकि, पहले प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष का भी नहीं होता था। लेकिन सवाल उठता है कि जब प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष का भी नहीं होता था, तो पीएम केयर्स फंड का भी क्यों नहीं होना चाहिए? अगर नहीं होना चाहिए, तो एक कोष के होते दूसरे की जरूरत क्यों हैं? यहीं से मंशा पर सवाल उठता है।
अब लौटते हैं यूरोपीय देशों की तरफ जहां कोरोना वायरस के साथ-साथ लोकतंत्र का खतरा बढ़ता ही जा रहा है। पूरे यूरोप में चुनावों को स्थगित किया जा रहा है। अदालतों ने बेहद अहम केसों को छोड़कर बाकी की सुनवाई ही बंद कर दी है। हंगरी में सरकार की तरफ से उठाए गए कदमों ने इस चिंता को और बढ़ा दिया है। हंगरी की सरकार ने कोरोना वायरस की आड़ में ऐसा प्रस्ताव पास किया है या करने वाला है, जिससे जब तक कोरोना महामारी के कारण आपातकाल लगा रहेगा, तब तक मौजूदा सरकार की सत्ता में बनी रहेगी। कोई चुनाव नहीं होगा। यानी हंगरी की सरकार आपातकालीन स्थिति के तहत अनिश्चितकाल तक शासन करेगी।
मौजूदा हालात में यूरोप के कम-से-कम 15 देशों ने आपातकाल की घोषणा की है। कुछ देशों ने आपातकाल नहीं लगाया, लेकिन जनता पर पाबंदी को लेकर सख्त कदम उटाए हैं। पोलैंड में सरकार आपातकाल लागू करने को लेकर अड़ी हुई है। इसकी वजह भी है। यहां 10 मई को राष्ट्रपति का चुनाव होना है। अगर आपातकाल लगता है, तो चुनाव को स्वाभाविक रूप से टाल दिया जाएगा। इसी तरह फिलीपींस की संसद से एक कानून पास किया गया, जिसके तहत राष्ट्रपति रॉड्रिगो डुत्रेतो को आपातकाल में असीमित अधिकार दिया गया है। कंबोडिया में एक कानून का मसौदा बनाया गया है। यह भी राष्ट्रीय आपातकाल से जुड़ा है। अगर कानून की शक्ल ले लेता है, तो सरकार को बेइंतहा मार्शल पावर मिल जाएगा और वहां के नागरिकों के राजनीतिक अधिकारों में व्यापक कटौती की जाएगी।
उधर, इजरायल में प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और उनके भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों का सोशल डिस्टेंसिंग वाला प्रदर्शन जारी है, लेकिन नेतन्याहू किसी तरह सत्ता पर फिर से कब्जा करने में सफल दिख रहे हैं। अमेरिका पहले ही स्टेट लेवल प्रेसिडेंशियल प्राइमरी चुनाव को रद्द कर चुका था।
अभी आने वाले दिनों में आइवरी कोस्ट, मलावी, मंगोलिया, डॉमिनिकन रिपब्लिक जैसे कई देशों में चुनाव होने वाले हैं, लेकिन यहां भी इसी तरह का ख़तरा मंडरा रहा है।  
एशियाई देशों में बात करें, तो श्रीलंका में भी कोरोना वायरस की वजह से संसदीय चुनाव दो महीने के लिए स्थगित कर दिए गए हैं। राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने निर्धारित समय से छह महीने पहले 2 मार्च को संसद भंग कर दी थी। तब उन्होंने 25 अप्रैल को मिडटर्म चुनाव कराने की बात कही थी। अब नई तारीख 20 जून की दी गई है। आपको बता दें कि इन्हीं गोटबाया राजपक्षे ने अपने भाई महिंदा राजपक्षा को प्रधानमंत्री नियुक्त किया था।
कुल मिलाकर हक़ीकत यही है कि कोरोना वायरस ने न सिर्फ इंसानों का कत्लेआम किया, बल्कि यह लोकतंत्र का दमन करने के लिए तैयार है। यह दमन वायरस नहीं, बल्कि इसकी आड़ में तानाशाही सोच वाले नेता/सरकारें कर रही हैं। चाहे यूरोपीय देश हों, रूस या फिर भारत की मोदी सरकार... तो तैयार रहिए कोरोना की जंग के बाद लोकतंत्र की अस्थियां समेटने के लिए...

पालघर मॉबलिंचिंगः मर्ज को जाने बिना इलाज नामुमकिन है


महाराष्ट्र के पालघर में दो साधुओं समेत तीन लोगों की भीड़ ने पीट-पीटकर हत्या कर दी। इस मॉब लिंचिंग में तीनों को जान गंवानी पड़ी। किसी ने उनके चोर होने की अफवाह उड़ा दी। इसके बाद दर्जनों लोगों की भीड़ उन पर टूट पड़ी। यह पूरी घटना वहां मौजूद कुछ पुलिसकर्मियों के सामने हुई। 110 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। लापरवाही के आरोप में महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार ने पुलिस के दो अधिकारियों को सस्पेंड किया है।
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एक अफवाह ने तीन बेकसूरों की जान ले ली। अब लाख कोशिश कर ली जाए... पुलिस को सस्पेंड करो, दोषियों को सजा दो, उन तीनों की जिंदगी तो वापस नहीं आ सकती न। इसलिए पालघर की लिंचिग घटना बेहद शर्मनाक है! लेकिन, आज जिस तरह कुछ वर्ग विशेष के चंद लोग इस घटना से तमतमाए हुए हैं, अगर पहले ही हम इस तरह की तमाम हिंसा पर सरकार से सवाल करते और जिम्मेदार ठहराते तो ऐसी नृशंस हत्या करने से पहले गुनहगार 100 बार सोचता... अगर मॉब लिंचिंग के आरोपियों को मोदी सरकार का कोई मंत्री फूल-मालाओं से स्वागत नहीं करता, तो ऐसी हिम्मत किसी क न होती। अगर मॉब लिंचिंग करने वालों के पक्ष में नारे नहीं लगाए जाते, तो ऐसी हिम्मत कोई नहीं कर पाता। और, आज दोनों साधु हमारे सामने जीवित होते। लेकिन नहीं, जब तक सहूलियत के हिसाब से मॉब लिंचिंग एक मजहब विशेष के लोगों के साथ होती रही, लोग चुप रहे। मरने वालों को चोर-उचक्का कहने लगे और मारने वालों का यशोगान करते रहे। ये भूल गए कि यह अफवाह एक भस्मासुर है और इस आग में एक दिन खुद भी भस्म होना होगा। फिर भी कुछ लोग सुधर नहीं रहे और पालघर में मॉब लिंचिंग की घटना में सांप्रदायिक ऐंगल निकालने में लगे हैं... पुलिस ने हत्या का मामला दर्ज कर सौ से ज़्यादा लोगों को हिरासत में लिया है। लेकिन कुछ निहायत घटिया लोग इसे सांप्रदायिकता का रंग देने में जुटे हैं।
जब मैंने कल इस पर सवाल उठाया, तो तकरीबन 15 साल से पत्रकार साहब ने उल्टा सवाल कर दिया। उनका कहना था कि इस पालघर लिंचिंग की घटना पर कोई कुछ नहीं बोल रहा है, ना मीडिया गैंग, ना जमाती, ना जेहादी, ना वाम, ना हाथ, ना सेलेब्स, ना लिबरटार्ड... देश बोल रहा है। देश से उनका तात्पर्य था ट्विटर। जब सवाल किया कि क्या 1.3 अरब की आबादी ट्विटर पर है। ट्विटर पर कैसे चंद ट्रोल ट्रेंड कराने लगते हैं किसी विषय को और  क्या ट्विटर ही देश है, तो मुझसे सवाल पूछा गया कि चोर तबरेज के लिए ट्वीट करने वाले आम आदमी थे, साधु मारा गया सब ट्रोल ही ट्वीट कर रहे हैं। मतलब उनकी नज़रों में 24 साल का तबरेज अंसारी, जिसकी झारखंड में भाजपा की सरकार के दौरान मॉब लिंचिंग की गई, वह चोर था।
दरअसल, सारी समस्या की जड़ यही है। जब तक हम सहूलियत के हिसाब से घटनाओं को देखेंगे, पालघर जैसी मॉब लिंचिंग से बेकसूरों के जान गंवाने की वारदात होती रहेगी। अगर हमें इसे रोकना है, तो सारे मामले को एक चश्मे से देखना ही होगा।
सबसे पहले हमें सांप्रदायिकता के चश्मे को उतारना होगा। वरना जब अगस्त 2019 में पटना में 20 से अधिक अफवाह बच्चा चोरी की उड़ाई जाती है और भीड़ लाठी-डंडों से बेकसूबर दूसरे मजहब के लोगों की पिटाई कर हत्या कर देती है, तब हम कहां होते हैं?
सितंबर 2019 में जब भीड़ बच्चा चोरी की अफवाह में मानसिक रूप से कमजोर और दिव्यांग मुस्लिम समुदाय के लड़के को पीटकर अधमरा कर देती है, तो हमारी आवाज़ कहां होती है? जब यूपी के ही संभल में ऐसे ही मामले में भीड़ मॉब लिंचिंग में हत्या कर देती है, तब भी खामोशी की चादर बिछी रहती है।  
पालघर में जिस बेरहमी से दोनों साधुओंपर भीड़ हमला कर रही है, वह बीभत्स है। पुलिस एक घर से उसे हाथ पकड़कर लाती दिख रही है। फिर अचानक भीड़ साधु को मारना शुरू कर देती है। पुलिस वाले खुद को बचाते दिख रहे हैं। जब पुलिस ऐसे भीड़ वाले मामले में खुद फंसती है, तो पहले अपनी जान बचाती नजर आती है। लेकिन सवाल उठता है कि आखिर हालात बेकाबू कहां से हुए। किन वजहों से इन वारदात को अंजाम दिया गया। हमें इस तरह की भीड़ की मानसिकता के तहत तक जाना होगा। वरना मर्ज को जाने बिना इलाज नामुमकिन है।
यही सही है कि इस तरह की वारदात के साथ कुछ तथाकथित (वामपंथियों और छद्म सेकुलरों) बुद्धिजीवियों का दोहरा चेहरा सामने आने लगता है। हालांकि, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह देश इन छद्म बुद्धिजीवियों से बना है। हमें उनसे भी पार पाना है और इस तरह की मॉबलिंचिंग की मानसिकता और इसे बढ़ावा देने वाली सोच से भी। यह दोनों तरफ के लोग हैं।
अब जैसा कि पहले ही कहा कि इसमें भी कुछ निहायत ही घटिया और संकीर्ण सोच वाले लोग सांप्रदायिकता का एंगल तलाश रहे हैं।

लॉकडाउन: छबू मंडल की मौत सुसाइड नहीं, हत्या है! और, जिम्मेदार यह सरकार है


17 अप्रैल को उत्तर प्रदेश से लगभग 250 बसें राजस्थान के कोटा में पहुंचती। यह बस उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ की सरकार की ओर से कोटा में फंसे लगभग 9,000 छात्रों को लाने के लिए भेजी गई। उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली और पश्चिम बंगाल के भी स्टूडेंट्स कोटा के विभिन्न कोचिंग संस्थानों में पढ़ाई कर रहे हैं। अचानाक लॉकडाउन होने से ये स्टूडेंट्स यहां लंबे समय से फंसे हुए हैं। लेकिन बिहार सरकार इन स्टूडेंट्स को अपने यहां बुलाने पर राजी नहीं हुई। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने योगी सरकार के कदम निशाना भी साधा कि यह लॉकडाउन के नियमों का उल्लंघन है। लेकिन नियमों को कौन मानता है। जब उत्तराखंड से 1800 गुजरातियों को बसों से भेजा जा सकता है, तो यह तो कुछ नहीं है। सारे कायदे-कानून सिर्फ अमीरों के लिए हैं और मजदूरों के लिए लाठियां, भूख, गरीबी, बेरोजगारी और अंत में मौत। मौत इसलिए कि यही सच्चाई है।
छबू मंडल की पत्नी और उनके बच्चे। Photo: Indian Express
इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर है। फ्रंट पेज पर। बिहार के एक प्रवासी शख्स की। 17 अप्रैल की बात है। बिहार के 35 वर्षीय छबू मंडल गुड़गांव में एक पेंटर (चित्रकार नहीं, घरों लंबी-लंबी इमारतों के बनने के बाद उन्हें रंगने का काम) के रूप में काम करते थे। छबू मंडल गुड़गांव में अपनी पत्नी और चार बच्चों के साथ रहते थे। उनका सबसे छोटा बच्चा सिर्फ पांच महीने का ही था। उन्हें मजबूरन अपना फोन 2,500 रुपये में बेचना पड़ा, ताकि परिवार को खिलाने के लिए कुछ राशन खरीद सकें। उस पैसे से उन्होंने एक पंखा भी खरीदा।
जब वह राशन का सामान लेकर घर लौटे, तो उसकी पत्नी बेहद पूनम खुश थी, क्योंकि घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं था। इससे पहले भी उनका परिवार लोगों द्वारा मुफ्त में बांटे जा रहे खाने पर ही गुजर-बसर कर रहा था। या फिर उनके पड़ोसी उन्हें कुछ दे देते थे। खाना बनाने से पहले छबू मंडल की पत्नी वॉशरूम जाती हैं। उनकी मां बच्चों को लेकर बाहर एक पेड़ के नीचे बैठ जाती हैं। जब उनका परिवार बाहर होता है, तो मंडल अपने झोपड़ीनुमा घर का दरवाजा बंद करते हैं और घर के अंदर पंखे लटककर खुदकुशी कर लेते हैं। इंडियन एक्सप्रेस से उनकी पत्नी पूनम कहती हैं, लॉकडाउन के बाद से ही वह बहुत परेशान थे। हम हर रोज दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहे थे। न काम था और न पैसा। हम पूरी तरह से लोगों की ओर से बांटे जाने वाले खाने पर निर्भर थे। लेकिन, यह भी हमें रोज नहीं मिलता था।
गुड़गांव की पुलिस का कहना है कि छबू मंडल "मानसिक रूप से परेशान" था।  जिला प्रशासन के अधिकारियों ने भी 35 वर्षीय के "मानसिक रूप से परेशान" होने की बात पर जोर दिया। छबू मंडल के इलाके में ही रहने वाले फिरजो भी बिहार के रहने वाले हैं। उनका कहना है कि लोग बाहर निकलने से डर रहे हैं, क्योंकि पुलिस उनके साथ बेरहमी से पेश आ रही है। लेकिन क्या आपको पुलिस का ऊंचे ओहदों या फिर कोटा की तरह दूसरे इलाकों के लोगों के साथ जी-अदबी से पेश आती दिखी नहीं। वह तो लॉकडाउन की वजह से भूखे मरने, नौकरी गंवाने वालों की मौत, मजदूरों के पलायन करने से होने वाली मौतों को मानसिक रूप से परेशान बताने लगती है। उससे पहले जो मन आए और जिस तरह इच्छा उस तरह से पेश आती है।
बतौर इंडियन एक्सप्रेस छबू मंडल करीब 15 साल पहले बिहार के मधेपुरा से गुड़गांव आए थे। 10 साल पहले उनकी शादी हुई थी और उसके बाद अपने परिवार को भी गुड़गांव लेकर आ गए। पिछले कुछ वर्षों से वे गुड़गांव से सरस्वती कुंज इलाके में रहते थे। दो झोपड़ी किराए पर ली थी, जिसके लिए उन्हें 1500 रुपये महीने देने होते थे। पहले प्रदूषण की वजह से कंस्ट्रक्शन का काम बंद हुआ, तो आमदनी भी बंद। अब लॉकडाउन से सबकुछ बंद हुआ, तो फिर सब गया।
सरकार के दावे बड़े-बड़े कि इस लॉकडाउन में अपने किराए पर रहने वालों की मदद करें। कुछ महीनों का माफ करें या किसी भी तरह से मदद करें, लेकिन हो उल्टा रहा है। मंडल की पत्नी पूनम कहती हैं,
इस संकट में मकान मालिक की तरफ से एक-दो बार किराए के लिए पैसे की मांग की गई, जिससे उन पर दबाव बढ़ा। वह कहती हैं, एक दिन मेरे पति ने फैसला किया कि वह अपना फोन बेच देंगे, जिसे उन्होंने 10 हजार रुपये में खरीदा था, ताकि राशन के लिए कुछ सामान खरीदा जा सके।
मंडल के परिवार ने उनका अंतिम संस्कार गुड़गांव में ही 17 अप्रैल को किया। इसके लिए भी अपने पड़ोसियों, और दान के पैसे पर निर्भर रहना पड़ा। छबू मंडल की पत्नी कहती हैं, हम तो हमें इसी हकीकत के साथ रहना पड़ेगा कि अब परिवार में कमाने वाला कोई नहीं रहा। शायद मैं दूसरों के घरों में मेड का काम कर लूं, लेकिन अभी भी लॉकडाउन खत्म होने में 15 दिन बचे हैं।
यह लॉकडाउन में होने वाली कोई पहली मौत नहीं है। यह मौत कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से भी नहीं हुई है। यह मौत हुई सरकार की मनमानी नीतियों और छबू मंडल जैसे लोगों को बिना ध्यान में रखे लॉकडाउन लागू करने की वजह से हुई है। यह सिर्फ छबू मंडल की मौत नहीं है। यह भारत की आत्मा की मौत है, जिसकी हिफाजत इस देश के हुक्मरान नहीं कर सकते। यह किसकी सरकार है, जिसका मुखिया खुद को प्रधानसेवक कहता है। लेकिन इसी प्रधानसेवक की पार्टी का मुख्यमंत्री उसकी बातों की धज्जियां उड़ाते हुए 250 बसों को भेजता है, ताकि फंसे लोगों को लाया जा सके। फिर उन लाखों मजदूरों ने कौन-सा अपराध किया था, जिसके साथ भेड़-बकरियों की तरह पेश आया गया। छबू मंडल जैसे लोगों ने क्या अपराध किया था? पीएम केयर्स फंड का पैसा किसके लिए है? छबू मंडल की मौत कोई सुसाइड नहीं, बल्कि हत्या है। इस हत्या की जिम्मेदार इस सरकार की ग़ैर-जिम्मेदाराना सोच और नीतियां हैं। वह इससे बच नहीं सकती।

मोदी के भारत में कोरोना वायरस ने बढ़ाई हिंदू-मुसलमानों की खाई


यह भारत सवा अरब भारतीयों का है। इसी सवा अरब भारतीयों पर कोरोना वायरस महामारी का संकट भी है। अब वैश्विक संकट है, तो दोष सरकार पर नहीं ही लगाया जा सकता है। लेकिन इस संकट के समय में जिस तरह की घटनाएं हो रही हैं, उसके लिए सरकार जरूर जिम्मेदार है।
मीडिया हाउस अल-जजीरा की ख़बर है कि गुजरात के अहमदाबाद के सरकारी हॉस्पिटल में कोरोना मरीजों का इलाज हिंदू मरीज और मुस्लिम मरीज के आधार पर किया जा रहा है। गुजरात के इस सरकारी अस्पताल में कोरोना के हिंदू मरीजों के लिए अलग वॉर्ड है, तो मुसलमानों के लिए अलग। दावा यह कि ऐसा करने के लिए सरकार से आदेश आया है।आमतौर पर किसी भी अस्पताल में किसी भी वॉर्ड को पुरुष और महिला वॉर्ड के तौर पर बांटा जाता है। लेकिन, यहां के सरकारी अस्पताल में मुस्लिम वॉर्ड और हिंदू वॉर्ड के तौर पर बांटा गया है, ताकि कोरोना वायरस के मरीजों का इलाज किया जा सके। इंडियन एक्सप्रेस से अहमदाबाद सिविल हॉस्पिटल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट डॉक्टर गुनवंत एच. राठौड़ कहते हैं, यह सरकार का फैसला है और आप सरकार से ही इस बार में पूछिए। यह उसी गुजरात के हॉस्पिटल की कहानी है, जहां 2014 में प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेंद्र मोदी 2001 के बाद से लगातार 13 साल तक मुख्यमंत्री थे।
अब कहानी को थोड़ा मोड़ते हैं। बात 12 अप्रैल की है। तमिलनाडु के मदुरै में जलीकट्टू और धार्मिक यात्राओं में शामिल होने वाले एक बैल के अंतिम संस्कार में हजारों की संख्या में लोगों की भीड़ जुट गई। 15 अप्रैल की बात है। मुंबई के बांद्रा की ही तरह दिल्ली में हजारों की संख्या में प्रवासी मजदूर यमुना किनारे जमा हो गए। राजस्थान के जैसलमेर के पोखरण क्षेत्र में भी मुंबई के बांद्रा रेलवे स्टेशन जैसे हालात पैदा हो गए। देश में लॉकडाउन को फिर से 3 मई तक बढ़ाने की घोषणा के बाद प्रवासी मजदूर यहां जुटने लगे। कुछ ही समय में सैकड़ों प्रवासी मजदूर परिवार सहित सड़कों पर उतर आए। इनमें अधिकांश यूपी और बिहार राज्यों के कामगार थे, जिनकी मांग थी कि उन्हें  अपने-अपने राज्य लौटने की इजाजत दी जाए। भले ही ट्रेन या बस से नहीं, तो पैदल ही, लेकिन जाने दिया जाए।
उधर, गुजरात के सूरत में 14 अप्रैल के बाद 15 अप्रैल को भी लगातार दूसरे दिन प्रवासी मजदूरों की भीड़ सड़कों पर नजर आई। दरअसल, सूरत के कारखानों में काम करने वाले उत्तर प्रदेश, बिहार और ओडिशा जैसे राज्यों के हजारों प्रवासी यहां फंस गए हैं। पर चर्चा और बहस का केंद्र मुरादाबाद और मुसलमान। तो फिर पंजाब में निहंगों का हमला क्यों नहीं? हालांकि, यह सही है कि एक हिंसा का जवाब दूसरी हिंसा नहीं है। फिर भी बहस का केंद्र घूमफिर कर मुसलमान ही क्योंयह सच है कि चंद मुसलमानों की वजह से साख का संकट गहरा रहा है, लेकिन यही बात सरकार पर भी तो लागू होती है।
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महाराष्ट्र में लोगों को सड़कों पर आने के लिए उकसाने वाला विनय दुबे क्यों नहीं मीडिया के बहस के केंद्र में आता है। क्यों नहीं विनय और निहंग समुदाय की हिंसा के बाद इनके पूरे समुदाय पर सवाल उठने लगते है? क्यों फेसबुक से लेकर ट्विटर तक पर एंटी मुसलमान विषय ट्रेंड करने लगते हैं? इसकी वजह भी है। वजह यह है कि जब पहले से ही मन-मस्तिष्क में एजेंडा भरा हो, तो आपको सिर्फ वही दिखाई देता है और उसे शह मिलती है सत्तारूढ़ सरकार से।
कुल मिलाकर कोरोनो वायरस महामारी के दौरान देश के हिंदुओं और अल्पसंख्यक मुसलमानों की एक बड़ी आबादी के बीच खाई बढ़ी ही है। कहां तो उम्मीद थी कि इस संकट में महामारी के खिलाफ पूरा देश एकजुट होकर लड़ेगा। लेकिन, मीडिया और कुछ तथाकथित राष्ट्रवादी और मुसलमान विरोधी या फिरकापरस्त तबके को ज़रा भी मौका मिलता है, वह मुसलमानों के खिलाफ हो-हल्ला शुरू कर देता है। दरअसल, मोदी सरकार में मुसलमानों का या उनके प्रति अविश्वास कुछ महीने पहले नागरिकता संशोधन कानून और फिर एनआरसी की चर्चाओं को लेकर तेज हुआ। अभी तक आधिकारिक तौर पर कोरोना वायरस फैलने को लेकर किसी धर्म को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया है। लेकिन दिल्ली के निजामुद्दीन से तबलीगी जमात का मामला सामने आने के बाद कई मुसलमानों को लगता है कि इस संक्रमण के लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। इसे लेकर बेहद ही सनसनीखेज तरीके से न्यूज चैनलों और अखबारों द्वारा खबरों की रिपोर्टिंग की गई। एक बहस शुरू की गई कि देश में कोरोना फैलने की वजह मुसलमान ही हैं। फिर हिंदुत्व के कुछ झंडाबरदार नेता भी इस बहस में कूद पड़े। सोशल मीडिया पर कोरोना जिहाद ट्रेंड कराया जाने लगा। तबलीगी जमात के कार्यक्रम से जुड़े करीब 1000 लोगों में कोरोना वायरस की पुष्टि हुई। कुछ मुस्लिम नेताओं का कहना है कि चंद लोगों में यह गलतफहमी थी या फिर उनकी एक सोच हो गई कि उनके मजहब में यह नहीं फैलेगा। यह भी कि कहीं उनके खिलाफ साजिश तो नहीं। लेकिन, उनका यह भी कहना है कि इसे लेकर मस्जिदों से इस तरह की गलतफहमी दूर करने की कोशिश भी हो रही थी।
आखिर ऐसा क्यों हुआ कि मुसलमान इस तरह की सोच रखने लगे। गुजरात के एक मुस्लिम नेता का कहना है कि सरकार और सत्ता प्रतिष्ठान के प्रति मुसलमानों में गहरा अविश्वास है। वह बताते हैं, इस तरह के लोगों को यह समझाने में काफी कोशिश करनी पड़ी कि मेडिकल सुविधाओं और इलाज के लिए डॉक्युमेंट्स की जरूरत पड़ती है।
ऐसे में जब कुछ मुस्लिम बहुल इलाकों में स्वास्थ्यकर्मी कोरोना के मामलों का पता लगाने गए, तो कुछ मुसलमानों को लगा कि यह अवैध प्रवासियों का डेटा इकट्ठा करने की सरकारी कवायद है।
यह सिर्फ भारत में ही है कि अगर किसी समुदाय की वजह से संक्रमण बढ़ रहे हैं, तो उसके खिलाफ एक पल में एक फौज खड़ी नजर आने लगती है। सिर्फ भारत में ही है कि धर्म के आधार पर कोरोना से जंग लड़ी जा रही है। दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल के शिनचोनजी चर्च के 61 साल महिला में कोरोना के लक्षण थे। वह इस बात से अनजान रही और चर्च की सार्वजनिक बैठकों में शामिल होती रही और कोरोना संक्रमण फैलता चला गया। बात 18 फरवरी की है। उस दिन महिला को कोरोना पॉज़िटिव पाया गया। तब दक्षिण कोरिया में कोरोना वायरस के सिर्फ 31 मामले थे। 28 फरवरी को यह संख्या 2000 से ज़्यादा हो गई थी।
इसी तरह फ्रांस के म्यूलहाउस शहर के एक चर्च में पांच दिनों का सालाना कार्यक्रम हुआ, जिसमें यूरोप, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के हजारों लोग शामिल हुए। म्यूलहाउस शहर फ्रांस की सीमा को जर्मनी और स्विट्जरलैंड से जोड़ती है। इस सालाना धार्मिक उत्सव में कोई कोरोना पॉजिटिव था, जिससे पूरे फ्रांस और अन्य देशों में कोरोना फैला। करीब 2500 पॉजिटिव केस का लिंक इसी से जुड़ा पाया गया।
इस तरह के कई मामले हैं, जहां धार्मिक सभा या कार्यक्रमों की वजह से कोरोना के खिलाफ लड़ाई कमजोर हुई। लेकिन किसी भी देश ने धर्म विशेष को निशाना नहीं बनाया। लेकिन हमारे यहां क्या हो रहा है। हमारे एक साथी हैं मनीष। वह लिखते हैं, तबलीगी जमात के जिस मौलाना साद के बारे में पुलिस और मीडिया ने खबर उड़ाई कि वह फरार है। पुलिस उसकी तलाश कर रही है। बाद में पता चला कि यह झूठ था और साद अपने घर में आइसोलेशन में है। कोविड-19 टेस्ट में निगेटिव पाए जाने के बाद भी उसकी गिरफ्तारी/हिरासत की कोई खबर नहीं आई है। उधर, दिल्ली के ही डिफेंस कॉलोनी में गार्ड मुस्तकीम के बारे में भी यही खबर उड़ाई गई कि वह फरार है और पुलिस को उसकी तलाश है। बाद में पता चला कि यह भी झूठ था और उसे उसके घर में ही क्वारंटीन/आइसोलेशन में रखा गया था और टेस्ट में अब उसकी रिपोर्ट निगेटिव आई है। हां, रिपोर्ट आने से पहले ही उसके खिलाफ केस जरूर दर्ज हो गया।
सबसे बड़ी बात कि इन तमाम तरह के हथकंडों और सांप्रदायिक ख़बरों को लेकर सरकारी सुस्ती और निष्क्रियता ही दिखती है।

यह कैसा लॉकडाउन, किसकी सरकार...किसी के लिए स्पेशल फ्लाइट, किसी को लाठी और मार


22 मार्च को जनता कर्फ्यू। फिर 24 मार्च की आधी रात से पूरे देश में 21 दिनों का लॉकडाउन। उसके बाद पूरे देश से प्रवासी मजदूरों का अपने-अपने गृह राज्यों और घरों के लिए पलायन शुरू हो गया। दिल्ली, हरियाणा और पंजाब के हजारों दिहाड़ी मजदूर कई किलोमीटर पैदल चलने के बाद बस पकड़ने के लिए आनंद विहार, गाजीपुर और गाजियाबाद पहुंचे। इनमें से किसी को उत्तर प्रदेश जाना था, तो किसी को बिहार। कई राजस्थान जाना चाहते थे, तो कई उत्तराखंड। कोई राजस्थान के जैसलमेर से 22 दिनों में 1400 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर बिहार के गोपालगंज पहुंचता है, तो कोई 800 किलोमीटर साइकल चलाकर बनारस पहुंचता है।
मुंबई के बांद्रा में जुटी भीड़। फोटोः इंटरनेट
इस तरह गुजरात से राजस्थान, महाराष्ट्र से गुजरात और उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना सीमा पर भी ऐसे ही हजारों दिहाड़ी मजदूरों की भीड़ देखी जा सकती थी, तो कर्नाटक में भी यही हाल था। पूरे देश का कमोबेश यही नजरा। हर तरफ से लोग इस लॉकडाउन के बाद अपने घर जाना चाहते थे। इसकी वजह यह थी कि लॉकडाउन से सभी का कामधंधा, रोजी-रोटी छीन लिया था। उनके पास न रहने को स्थायी ठिकाना और न खाने का पुख्ता इंतजाम। सरकार और कुछ लोगों ने व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास किए, लेकिन क्या वह काफी था या नहीं, इस पर सवाल बाद में। हालांकि, आप खुद इस सवाल का जवाब तलाशने में पूर्ण रूप से सक्षम हैं।
अब 14 अप्रैल को एक नया मसला आया। ख़बर यह है कि दिल्ली के आनंद विहार की तरह की मुंबई के बांद्रा रेलवे स्टेशन पर हजारों प्रवासी मजदूरों इकट्ठा हो गए। 14 अप्रैल को प्रधानमंत्री मोदी ने लॉकडाउन को तीन मई तक बढ़ाने का ऐलान किया। हाराष्ट्र में 30 अप्रैल तक जारी लॉकडाउन के बावजूद बांद्रा स्टेशन पर हजारों प्रवासियों की भीड़ जुट गई। बताया जा रहा है कि कई लोगों के पास बांद्रा स्टेशन से ट्रेन खुलने का मैसेज मिला था। इसके बाद हजारों की भीड़ जुट गई, क्योंकि सभी लोगों को अपने घर जाना था। अब इस पर कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि क्या यह साजिश के तहत किया गया? क्या साजिश के तहत हजारों की तादाद में लोग रेलवे स्टेशन पर जुट गए? दिल्ली के निजमुद्दीन में तब्लीगी जमात का मामला सामने आने के बाद वैसे भी कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ हमारी लड़ी लड़ाई हिंदू-मुसलमान वाली कोरोना फाइट में तब्दील हो गई है। अगर आप न्यूज़ चैनल देखते हैं या ट्विटर फॉलो करते हैं, तो कई वरिष्ठ संपादकों और मीडिया समूह के मालिकों के ट्वीट से आपको इसका अंदाजा लग जाएगा। एक संपादक हैं रजत शर्मा। उन्होंने ट्वीट किया, बांद्रा में जामा मस्जिद के बाहर इतनी बड़ी संख्या में लोगों का इकट्ठा चिंता की बात है। इन्हें किसने बुलाया? अगर ये लोग घर वापस जाने के लिए ट्रेन पकड़ने के लिए आए थे तो उनके हाथों में सामान क्यों नहीं था?’ अब इस ट्वीट का मकसद आप समझते रहिए। सुशांत सिन्हा भी एक पत्रकार हैं। एक कहावत है, नया-नया मुल्ला प्याज ख़ूब खाता है, तो यह साहब उसी बिरादरी के हैं। इन्होंने ट्वीट किया, साल में एक बार छठ/दुर्गा पूजा में घर जा पाने वाले बिहार/बंगाल के मजदूरों को 21 दिन के लॉक डाउन में घर की इतनी याद सताने लगी कि डिप्रेशन हो गया। एक से एक कहानी ला रहे हैं लोग। गजबे है।
ऐसे कई पत्रकार हैं, जो सरकार की जगह विपक्ष और जनता से ही सवाल करने का साहस कर पाते हैं। यह पत्रकारिता के स्वर्णिम काल के चंद लम्हों में एक है। ऐसा इसलिए कि अभी तक एक भी पत्रकार सरकार से यह सवाल करने की हिम्मत नहीं कर पाया कि जब विदेश में फंसे हजारों भारतीयों को स्पेशल फ्लाइट से भारत यानी देश लाया जा सकता है, तो देश में ही फंसे लाखों प्रवासियों को उनके गृह राज्यों तक क्यों नहीं पहुंचाया जा सकता है? जबकि, यह तो पूरी तरह सच है कि कोरोना वायरस का संक्रमण भारत से शुरू नहीं हुआ। विदेशों से लोग आते गए और संक्रमण फैलता गया। सोशल मीडिया पर एक मीम भी चला कि पासपोर्ट ने खता की और भुगत राशन कार्ड रहा है। यह इस देश की सच्चाई भी है। विदेशों में रहने वाले लोग/एनआरआई भारत में रहने वाले इन मजदूर तबके को किन नजरों से देखते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। जब खुद की जान पर आई, तो स्पेशल विमानों से कोरोना का संक्रमण लेकर देश में आते गए। उनकी सज़ा आज पूरा देश और यहां के दिहाड़ी मजदूर, गरीब, फुटपाथ पर रहने वाले लोग और न जाने कितने वंचित भुगत रहे हैं। फिर भी सरकार को इनकी फिक्र नहीं है। आख़िर क्यों इन लोगों को अपने गृह राज्य भेजने का इंतजाम सरकार नहीं करती?
कुछ तथाकथित राष्ट्रवादी और बात-बात में सेकुलरिज्म को गाली देने वाले अंधभक्तों का तर्क है कि पूरे देश में लॉकडाउन है, अगर इन्हें भेजा गया तो संक्रमण का खतरा बढ़ जाएगा। इनके लिए सरकार हर तरह से रहने-खाने का इंतजाम कर रही है। इस तरह के सवाल करने वालों में ट्विटर पर खुद को बिहार का बीजेपी प्रवक्त बतलाने वाले निखिल आनंद भी हैं। तो क्या विदेशों से जिन लोगों को सरकार स्पेशल फ्लाइट से देश लेकर आई है, उनके लिए वहां इतजाम नहीं था। था, लेकिन उन्हें तो यहां आना था। दो वक़्त की रोटी तो विदेश में भी भारतीयों को मिल जाती। फिर विशेष विमान भेजकर क्यों निकाला? लॉकडाउन में ही उत्तराखंड की लग्जरी बसें 1800 गुजरातियों पर्यटकों को घर तक छोड़कर आईं। लेकिन मज़दूर जहां हैं, वहीं रहें! ऐसा क्यों?
क्या ग़रीब प्रवासी मजदूर को भी उसी तरह का सम्मान नहीं मिलना चाहिए, जो विदेशों में रहने वाले भारतीय को स्पेशल विमान से लाकर दिया गया। जबकि विदेशों में रहने और जाने वाले ये भारतीय ही देश में कोरोना वायरस के संक्रमण की असल जड़ और वजह हैं। ऐसे में आप एक वर्ग के लिए सम्मान देने वाले और दूसरे वर्ग के लिए अहंकारी नहीं बन सकते। अगर सरकार के नैतिकता है, तो इन सभी दिहाड़ी मजदूरों और गरीबों को उसी सम्मान से उनके घर या गृह राज्य पहुंचाना चाहिए। किसी तरह की प्राथमिकता नहीं और न ही किसी तरह का भेदभाव होना चाहिए।

कोविड-19 और चीन की शातिर कूटनीति पर भारी ताइवान की मास्क डिप्लोमेसी

चीन के वुहान से जन्मा कोरोना वायरस पूरी दुनिया में तबाही मचा रहा है। अभी तक 19 लाख से ज्यादा लोग पूरी दुनिया में इस महामारी की चपेट में हैं, जबकि 1 लाख 18 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। लेकिन, चीन के बेहद करीब का देश ताइवान काफी पहले ही इस पर काबू पाने में कामयाब रहा है। ताइवान आबादी और संसाधनों के मामले में चीन ही नहीं, दुनिया के अधिकांश देशों के मुकाबले बेहद कमजोर है। उसके बावजूद कोरोना जैसी महामारी को इस देश ने काफी हद तक आगे बढ़ने से रोक दिया है। यहां आज की तारीख में 308 लोग संक्रमित हुए हैं, जिसमें से 109 लोग ठीक भी हो चुके हैं। सिर्फ 6 लोगों की ही मौत हुई है।
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आख़िर ऐसी क्या वजहें रहीं और उसने क्या उपाय किए, जिससे ताइवान को यह महामारी अपनी जकड़ में नहीं ले पाया। जबकि ताइवान विश्व स्वास्थ्य संगठन का सदस्य देश भी नहीं है। वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन जिस पर इस महामरी को लेकर चीन के पक्ष में काम करने का आरोप लग रहा है। तो इसके पीछे वजह यह है कि जब चीन में कोरोना की शुरुआत हुई, तभी ताइवान ने मास्क, टेस्ट, सैनिटाइजर और दूसरी जरूरी मेडिकल वस्तुओं को बनाने पर जोर देने लगा था। उसने डिजिटल थर्मामीटर से लेकर मास्क और वेंटिलेटर वगैरह के निर्यात पर भी बैन लगाया।
अब वह मास्क डिप्लोमेसी के जरिए वैश्विक परिदृश्य में अपनी मजबूत धमक या कूटनीतिक पहुंच साबित कर रहा है। हम जानते हैं कि कोरोना वायरस महामारी ने बुनियादी चिकित्सा उपकरणों और सामानों की सप्लाई को पूरी तरह से बदल दिया है। कई देशों में इस मुश्किल घड़ी में फेस मास्क, दस्ताने और गाउन जैसे महत्वपूर्ण सामानों की भारी कमी हो गई है। कई देश पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (PPE) के निर्यात प्रतिबंध लगा रहे हैं। वहीं कई देश इनके आयात के के लिए बेचैन हैं, क्योंकि वहां इसकी कमी की वजह से खतरा बढ़ता जा रहा है। मेडिकल जरूरतों की सप्लाई इससे पहले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कभी भी बाधित नहीं हुई, क्योंकि देश पहले अपना हित देख रहे हैं। इसकी वजह है कि इनका उत्पादन करने वाले देश खुद कोरोना वायरस महामारी की भारी चपेट में हैं। ताइवान इन उत्कृष्ट स्तर के मेडिकल मास्क का दुनिया के सबसे बड़े आपूर्तिकर्ताओं में एक है। ताइवान उन चुनिंदा देशों में भी है, जिसने कोविड-19 से सफलतापूर्वक निपटा है। अब इसके पास इस अवसर का लाभ उठाने का एक दुर्लभ अवसर है कि वह अपने खिलाफ लंबे समय से चल रहे चीन विरोधी राजनीति का लाभ उठा सके। उसे अपने पत्ते सावधानी से खेलने होंगे। खासतौर पर अमेरिका के साथ।
ताइवान की आबादी सिर्फ 2.3 करोड़ है और वह चीन के बाद फेस मास्क का दूसरा सबसे बड़ा वैश्विक उत्पादक है। यानी दुनिया में चीन के बाद ताइवान ही सबसे अधिक फेस मास्क बनाता है। यह हर रोज तकरीबन 1.5 करोड़ मास्क का उत्पादन करता है। चूंकि दुनिया में अब इसी मांग बड़ी तेजी से बढ़ी है, तो यह एक दिन में 1.7 करोड़ मास्क का उत्पादन कर रहा है।
अमेरिका में अभी तक कोरोना वायरस से सबसे अधिक मौतें 23 हजार से ज्यादा हुई हैं और यहीं सबसे अधिक संक्रमित 5 लाख
87 हजार से अधिक लोग हैं। वह ताइवान के मास्क निर्यात का लाभ उठाने के लिए तैयार है, क्योंकि उसे अभी बड़ी बेसब्री से इसकी जरूरत है। मार्च में ताइवान ने अमेरिका को हर सप्ताह लगभग 100,000 सर्जिकल मास्क दान करने का वादा किया था। बदले में अमेरिका ने  ताइवान को 300,000 हाजमत सूट देने पर सहमत हुआ। इसके बाद ताइवान ने 1 अप्रैल को घोषणा की कि वह दुनिया के सबसे अधिक जरूरतमंद देशों को 1 करोड़ मास्क दान करेगा। इसमें अमेरिका के लिए अलग से उसने 20 लाख मास्क देने का वादा किया। इसी सप्ताह उसने अमेरिका को 400,000 मास्क दिए। पिछले कुछ दिनों में ताइवान ने अपने कूटनीतिक रूप से सहयोगी देशों के साथ-साथ इटली, स्पेन, फ्रांस, नीदरलैंड और यूनाइटेड किंगडम जैसे कोरोना से सबसे प्रभावित यूरोपीय देशों को मास्क और पीपीई दिए।
उधर, चीन की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस बात को लेकर खूब आलोचना हुई कि उसे महामारी फैलने की शुरुआत में ही दुनिया को आगाह नहीं किया और मामले को दबाता रहा, जिससे आज यह महामारी घातक हो चुकी है। चीन इसकी काट के तौर पर एक अलग बहस छेड़ने की कोशिश करता रहा। इसने अमेरिका की तुलना में खुद को महामारी से सबसे प्रभावित यूरोपीय देशों का भरोसेमंद सहयोगी साबित करने की कोशिश की। इन प्रयासों के तहत उसने
पूरे यूरोप में चिकित्सा उपकरण, पीपीई और दवाइयां भेज रहा है। चीनी कंपनियां भी अपनी सरकार का समर्थन कर रही हैं। 
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ई-कॉमर्स के दिग्गज और अलीबाबा के सह-संस्थापक चीनी अरबपति जैक मा ने यूरोपीय देशों में 18 लाख फेस मास्क और 100,000 टेस्ट किट भेजने का वादा किया। चीनी कंपनी हुआवे ने भी यूरोप देशों के लिए इसी तरह के राहत पैकेजों की घोषणा की औऱ लाखों मास्क दान में दिए। चीन की कुछ छोटी-बड़ी कंपनियों ने अमेरिका में मेडिकल उफकरण भेजे, लेकिन अफ्रीकी और यूरोपीय देशों को भेजे जाने वाले मदद पैकेजों की तुलना में वह मामूली लगते हैं। चीन ने पूरे यूरोप में एक तरह से मानवीय मदद का प्रोपेगेंडा का खेल खेला है, लेकिन उसकी यह चाल अमेरिका के साथ सफल नहीं रही। अमेरिका ने चीनी कंपनियों जैसे हुवावे के कारोबार पर लगाम लगाने की कोशिश की। इस पर कहा गया कि अगर अमेरिका इस तरह के कदम उठाता है, तो चीन मौजूदा समय में बहुत जरूरी फेस मास्क की आपूर्ति अमेरिका को बंद कर सकता है। चीन एक तरफ मास्क डिप्लेमेसी का कूटनीतिक खेल खेल रहा है, तो इसी बीच कुछ देशों ने चीन में बने मेडिकल इक्विपमेंट और मास्क की गुणवत्ता पर सवाल उठाने शुरू कर दिया है। नीदरलैंड ने चीन से आयात किए गए हजारों मास्क को लौटा दिया है। आगे के आयात पर भी रोक लगा दी है, क्योंकि उनकी गुणवत्ता मानकों को पूरा नहीं करते हैं। स्पेन और तुर्की सहित अन्य देशों ने भी चीनी कंपनियों के कोरोना वायरस की जांच के लिए रैपिड टेस्टिंग किट की शिकायत की है।
ऐसे में अमेरिका की मदद से ताइवान के पास खुद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मजबूती से पेश करने का मौका आया है। वह भी ऐसे समय में जब विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) से वह बाहर है, उसे चीन के दबाव में इस संगठन का सदस्या नहीं बनाया गया। इसके बावजूद ताइवान ने कोरोना वायरस पर काबू पाया है। दरअसल, डब्ल्यूएचओ की सदस्यता केवल उन देशों मिलती है, जो संयुक्त राष्ट्र के सदस्य हैं। ताइवान को संयुक्त राष्ट्र की मान्यता नहीं मिली है। कोरोना वायरस महामारी के बीच कनाडा, यूरोपीय संघ, जापान और अमेरिका ने WHO से ताइवान को सदस्यता देने की अपील की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। कोरोना वायरस पर आपातकालीन बैठकों और महत्वपूर्ण ब्रीफिंग से ताइवान को दूर रखा गया।
डब्ल्यूएचओ इस महामारी से निपटने की कोशिशों को लेकर लगातार चीन की तारीफ करता रहा। इससे कुछ देशों ने उस पर चीन का पक्षधर होने का आरोप भी लगाया। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने तो यहां तक कह दिया कि डब्ल्यूएचओ को इस महामारी में पूरी तरह से चीन-केंद्रितहै। ट्रंप ने इसकी फंडिंग रोकने की भी धमकी दी। इस पर डब्ल्यूएचओ के महासचिव ने ट्रंप को इस महामारी का राजनीतिकरण न करने की अपील की। टेड्रोस ने ताइवान के नेताओं पर नस्लवादी टिप्पणी और हत्या की धमकी देने का भी आरोप लगाया। ताइवान ने उनके दावे को सिरे से खारिज कर दिया।
ट्रंप के शासनकाल में अमेरिका और ताइवान के बीच संबंध पहले की ही तरह मजबूत रहे हैं और कहा जाता है कि ट्रंप अमेरिकी इतिहास में शुरू से सबसे अधिक ताइवान समर्थकों में एक माने जाते हैं। अब कोरोनो वायरस संकट ने दोनों को और भी करीब ला दिया है। अमेरिकी-चीन के तनावों के बीच ट्रप ने 26 मार्च को ताइवान अलाइज इंटरनैशनल प्रोटेक्शन ऐंड अन्हांसमेंट इनिशिएटिव (TAIPEI) अधिनियम पर हस्ताक्षर किए। यह अधिनियम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ताइवान को अमेरिका का खुला समर्थन का प्रतीक है।
मौजूदा समय में चीन और अमेरिका के बीच तकरार बढ़ रही है, तो दूसरी तरफ ताइवान खुद को बेहतर स्थिति में ला रहा है। अब अमेरिका और ताइवान के बीच कोई मोहरा नहीं है। ताइवान खुद अपने बूते खड़ा हो रहा है।

कोरोना की टेस्टिंग में फिसड्डी भारत, दावे बड़े दर्शन छोटे


पिछले दिनों एक ख़बर आई कि भारत कोरोना वायरस के मामलों की बहुत कम टेस्टिंग कर रहा है। यह ठीक है कि लॉकडाउन जैसे कुछ फैसले भारत ने दुनिया के कई देशों की तुलना में पहले लिए, जिसका थोड़ा-बहुत फायदा वह अपने हक़ में बता सकता है। हालांकि, इस लॉकडाउन की वजह से कितनी बड़ी आबादी पलायन और भूख से लेकर तमाम तरह की दिक्कतों से जूझने को मजबूर हुई वह अलग कहानी है। तीन-चार दिन पहले एक खबर आई कि भारत प्रति 10 लाख बहुत ही कम लोगों की टेस्टिंग कर रहा है। यह आंकड़ा हर 10 लाख पर महज 102 था। यानी देश की 1 अरब 33 करोड़ आबादी को मानें, तो इसमें 10 लाख लोगों में से सिर्फ 102 लोगों की ही कोरोना की टेस्टिंग की जा रही है। पिछले दिनों कहीं पढ़ा कि भारत के जिन राज्यों ने सबसे ज्यादा टेस्टिंग की वहां कोरोना से मौत की दर कम है। उदाहरण के तौर पर, हर 100 केसों के हिसाब से देखें, तो मध्य प्रदेश में कोरोना से मृत्य दर 8 फीसदी है। इसी तरह, पंजाब और झारखंड में 7.7 फीसदी, हिमाचल प्रदेश और महाराष्ट्र में 7.1 फीसदी, गुजरात में 6.9 फीसदी और पश्चिम बंगाल में 4.7 फीसदी है।
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वहीं, हर 10 लाख की आबादी पर दिल्ली में सबसे ज्यादा 594 टेस्ट हो रहे हैं। इसके बाद  केरल में हर 10 लाख की आबादी पर 366, राजस्थान में 279, महाराष्ट्र में 274 और गोवा में 236 लोगों की कोरोना टेस्टिंग हो रही है। यह एक औसत आंकड़ा है। यह अलग बात है कि हम चीन की तरह मौतों के आंकड़ों को छिपाएं, तो फिर कहा ही क्या जाए। बिहार में तो टेस्टिंग न के बराबर हो रही है। फिर वहां तो कुछ डॉक्टरों का कहना है कि पॉजिटिव मामलों को भी आधिकारिक आंकड़ों से गायब कर दिया जा रहा है। पिछले कुछ दिनों में भारत में जिस तेजी से कोरोना वायरस संक्रमण और मौतों के मामले बढ़े हैं और वह बतलाता है कि हम अभी भी बहुत कम टेस्ट कर रहे हैं। अगर यही हालात रहे, तो जिस तरह से इटली और स्पेन की हालत हुई वह हमारी भी हो सकती है।
हालांकि, स्पेन औऱ इटली में हालात धीरे-धीरे काबू में आ रहे हैं। इसकी वजह लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे उपाय तो हैं ही, लेकिन उसमें कोरोना टेस्टिंग का भी बहुत बड़ा योगदान है। इसी में भारत बहुत पिछड़ रहा है। अब आंकड़ों पर नजर डालें, तो ये देश और इनसे और भी छोटे-छोटे देश (आबादी के हिसाब से) हमसे टेस्टिंग में कहीं आगे हैं। अब अमेरिका को ही लें। अमेरिका की आबादी 32.82 करोड़ है और उसने अभी तक 27 लाख 81 हजार 460 लोगों की टेस्टिंग कर ली है। स्पेन हमसे आबादी में कहीं पीछे है। लगभग 4.69 करोड़ की आबादी वह देश कोरोना से बुरी तरह प्रभावित देशों में एक है। इसने अभी तक 3 लाख 55 हजार टेस्टिंग की है। इटली की आबादी 6.04 करोड़ है। कल तक यहां कोरोना महामारी से सबसे ज्यादा मौतें हुई थीं। आज अमेरिका में मौतों की संख्या इससे ज्यादा हो चुकी है। इटली ने 10 लाख 10 हजार 193 टेस्ट किए हैं। यूरोप के जिन चार देशों में कोरोना वायरस से सबसे ज्यादा तबाही मचाई है, उनमें फ्रांस भी है। इसकी आबादी 6.7 करोड़ है, जबकि यह 3 लाख 33 हजार से ज्यादा लोगों की टेस्टिंग कर चुका है। जर्मनी में 1 लाख 26 हजार 921 केस आ चुके हैं। इसकी आबादी 8.3 करोड़ है और यहां 13 लाख 18 हजार के आसपास लोगों की टेस्टिंग की जा चुकी है। 
इनकी छोड़िए अपने एशिया में ही आते हैं। चीन के बाद ईरान एशिया का सबसे प्रभावित देश है। यहां 71 हजार 600 से ज्यादा केस संक्रमण के आए हैं और इसने 2 लाख 63 हजार से ज्यादा लोगों की अभी तक टेस्टिंग की है। तुर्की को ही ले लीजिए 8.2 करोड़ की आबादी वाले देश में कोरोना के लगभग 57 हजार मरीज हैं औऱ इसने 3 लाख 76 हजार सैंपल टेस्ट कर लिए हैं। उससे भी अचरज तो यह लगेगा कि 5.16 करोड़ की आबादी वाले दक्षिण कोरिया में 10 हजार 500 से कुछ ज्यादा ही मरीज हैं और यहां लगभग 215 लोगों की अभी तक मौत हुई है, लेकिन इसने 5 लाख 14 हजार से ज्यादा लोगों की टेस्टिंग की है।

वहीं, भारत 1 अरब 33 करोड़ की आबादी वाला देश है। अमेरिका से इसकी आबादी 1 अरब अधिक है। दक्षिण कोरिया के बराबर केस सामने आ चुके हैं, लेकिन अभी तक टेस्टिंग सिर्फ 1 लाख 90 हजार के आसपास हुई है। अब इस पर भी हम ढिंढोरा पीटें कि हमारे यहां तो मामले भी कम आ रहे हैं। तो कम-से-कम दक्षिण कोरिया से ही सबक ले लें। या फिर रूस से ही ले लें। 14.65 करोड़ की आबादी वाले रूस में 15 हजार 700 से ज्यादा मामले आ चुके हैं और इसने कम मामलों के बावजूद 12 लाख से ज्यादा लोगों की टेस्टिंग कर ली है। साफ मतलब है कि ज्यादा टेस्टिंग यानी मौतें कम। लेकिन, हम इसी में फिसड्डी साबित हो रहे हैं और हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन नामक दवा को लेकर खामखां अपनी सीना चौड़ा कर रहे हैं। जबकि हमारा पूरा जोड़ अभी लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे उपायों के साथ टेस्टिंग पर होना चाहिए।

नोटः आंकड़े 12 अप्रैल तक के हैं।