मुझको डुबोया मेरे होने ने।

सबसे पहले आपसे एक सवाल, आपको क्या लगता है फिलहाल प्रमुख विपक्षी दल बीजेपी की अंदरूनी हालात को लेकर आपकी क्या राय है ? मेरी यह पक्की सोच है कि हममें से ज़्यादातर सोच रहे होंगे यह बिल्कुल ही पतन की ओर है। जिस तरह से एक-एक कर इसके दिग्गज बाहर निकाल दिए गए या इसे छोड़ गए, सबने इसका बंटाधार किया। चाहे वह गोविंदाचार्य हों, उमा भारती, शंकर सिंह बघेला, कल्याण सिंह आदि और अब जसवंत सिंह इन सबने कहीं न कहीं पार्टी को काफी हद तक कमजोर किया है। इसमें को शक नहीं फिलहाल पार्टी के भीतर जितने आला नेता हैं उनका कोई जनाधार नहीं है। सबके सब एक से बढ़कर एक लफ्फाज़ हैं। चाहे वह अरूण जेटली हों या वेंकैया नायडू कोई भी आम जनता में अपनी पहचान नहीं रखते। और फिलहाल जिन राजनाथ के हाथों में पार्टी की कमान है, उनका भी कुछ अता-पता नहीं, यह एक दिशाहीन नेतृत्व द्वारा लोगों का ध्यान, भाजपा को चुनौती दे रही अगली समस्याओं से हटाने की कोशिश है। पार्टी के समक्ष चुनौती है- आडवाणी के बाद कौन? सत्ताधारी नेतृत्व का कांग्रेस का नेतृत्व किस युवा दिशा में जा रहा है सबको दिख रहा है। भाजपा में आडवाणी फ़िलहाल पद छोड़ने के मूड में नहीं हैं और सुषमा, जेटली, नरेंद्र मोदी, अनंत कुमार जैसे उनके समर्थकों की टोली को अभी और इंतज़ार करना पड़ेगा। हालांकि अब संकेत मिलने लगे हैं कि आडवाणी कुछ दिनों में राजनीति से संन्यास ले सकते हैं। फिर भी जिस तरह से संघ का डंडा बीजेपी पर चला है, इसे उसी का असर कहा जाएगा। लेकिन सवाल यह भी है कि इन जेटली, वेंकैया और नरेंद्र मोदी जैसे युवा नेताओं के हाथ में नेतृत्व आने के बाद भी मामला सुलटता नज़र नहीं आ रहा है, वजह साफ है इसके बाद यशवंत सिन्हा जिन्होंने मोर्चा खोलना शुरू कर दिया है और मुरली मनोहर जोशी जो अर्से से ताक में लगे हैं, मुमकिन है वो भी कुछ गुल खिला सकते हैं। इस तरह फिलहाल उस पर से संकट के बादल छंटते नज़र नहीं आ रहे हैं। हां, हो सकता है मामला कुछ दिनों के लिए पर्दे के पीछे चला जाए। लेकिन बग़ैर अमूल-चूल बदलाव के पार्टी में नया जोश भर पाना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल तो ज़रूर है। दरअसल पिछले लगातार विधानसभा चुनाव जीतने के बाद इसके नेताओं में सत्ता लोलुपता कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई थी, लेकिन लोकसभा चुनाव में लगातार दूसरी हार ने इनके सब्र के बांध तोड़ दिया और इनके मन का गुबार बाढ़ की तबाही की तरह पार्टी को डुबाने लगी। दरअसल बीजेपी को तभी चेत जाना चाहिए, जब पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत ने सवाल उठाने शुरू कर दिए थे, लेकिन यह मदमस्त हाथी की तरह झुमती रही, फिर नतीजा आपके सामने है.

मंदी को भी मिलने लगी मात !

ऐसा लग रहा है, मंदी भी अब मात खाने लगी है। हालांकि जैसे जख़्म इसने दिए हैं उससे पूरी तरह उबरनें अभी कुछ वक़्त तो लगेगा ही, क्योंकि मंदी के दौर से पहले जिस रफ़्तार से उभरते विकासशील देशों में पूंजी आ रही थी, उस रफ़्तार में कमी आई है और उसे वापस पुराने स्तर पर आने में समय लगेगा. पिछले दो सालों से जिस तरह से इसने लाखों या कहें तो पूरी दुनिया करोड़ों लोगों को अपना शिकार बनाया। कइयों ने तो अपनी जान भी दे दी। इसी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इसने किस तरह से हमें चपेट में लिया। लेकिन इसकी वदह क्या रही, इसे जानने की सही कोशिश किसी ने ईमानदारी से नहीं की। यदि किया भी तो इसके लिए ज़िम्मेदार लोगों पर कोई एक्शन नहीं लिया गया। इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित अमेरिका रहा। जिससे उबरने में उसे अभी काफी वक़्त लगेगा, चाहे ओबामा यस, वी कैन, चेंज़ जैसी पंच लाइनों के सहारे अमेरिका के सुप्रीमों का पद जीत गए हों, उन्हें भी मालूम है कि ही कैन नॉट चेंज़। क्योंकि अमरीका जैसे देश जहाँ की अर्थव्यवस्था खपत पर आधारित है, उन्हें अपना निर्यात बढ़ाने पर ध्यान देना होगा और वो भी ऐसे वक्त में जब एशियाई देशों से आयात बढ़ रहा है। कम से कम फिलहाल तो नहीं ही। लेकिन हां, अर्थव्यवस्था में सुधार के लक्षण दिखने लगे हैं। फ्रांस और जर्मनी के बाद अब जापान भी इस घातक मंदी से उबरने लगा है। जिससे उम्मीद की एक नई किरण जगती है। लेकिन भारत जैसे कुछ ऐसे मुल्क़ हैं, जो इससे प्रभावित कम रहा, लेकिन इसका ख़ूब हो-हल्ला मचाया। ख़ासकर पब्लिक सेक्टर ने तो कुछ ज़्यादा ही कॉस्ट कटिंग के नाम पर लाखों लोगों को नौकरी से निकाल कर, उनकी ज़िंदगी से खिलवाड़ किया। और आलम ये कि उन्हें सरकार की तरफ़ से राहत पैकेज़ दिए जाएं, सत्यम को डूबाया किसी और ने लेकिन उबारने का काम सरकार उस आम लोगों के पैसे से कर रही, जिसे वही निजी क्षेत्र धक्के देकर बाहर निकाल रहे थे। इस तरह के खेल ख़ूब चले और चल रहे हैं, चलते भी रहेंगे। ख़बर तो ये भी है कि कुछ देशों में हालत में जिस तरह का सुधार दिख रहा है वो वहाँ की सरकारों के सहायता पैकेज का नतीजा है और ये ख़तरा ज़रूर है कि पैकेज के असर के खत्म होने के बाद वहाँ मंदी का दौर फिर से शुरू हो जाएगा.
ख़ैर ये ख़बर दिलासा देने वाली है कि मंदी के बादल अब छंटने लगे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए, आइंदा सतर्क रहें, चंद लालची लोगों की वजह से करोड़ों ज़िंदगी को बचेने की कोशिश होनी चाहिए, बजाय उनकी महत्वाकांक्षा को संतुष्ट करने के। जिसने न जाने कितनों के विश्वास के साथ धोख़ा किया।

जिन्ना का जिन्न है ये जनाब !

एक हिंदुस्तान का राष्ट्रपिता तो दूसरा पाकिस्तान का (क़ायदे-आज़म)। दोनों साथ-साथ हैं लेकिन अपने विचारों से कोसों दूर। गांधी कभी अपने कब्र से इस तरह कभी बाहर नहीं आए, जिस तरह जिन्ना बारबार। और हर बार विभाजन की लकीर खींचीं, ज़िदा थे तब भी यही काम किया, लेकिन शायद गांधी की कब्र नहीं है तो वो बाहर नहीं निकलते। वैसे भी ये जिन्ना का जिन्न है जनाब, पीछा छोड़ने का नाम ही नहीं लेता। न जाने बार जिन्ना कब्र से बाहर निकले, अपनी फितरत की तरह कुछ न कुछ अपने पीछे छोड़ ही जाते हैं। ये वही जिन्ना हैं जो कभी राजनीति से अज़ीज आकर दुबारा वापस न आने की कसम खाकर ब्रिटेन चले गए थे, लेकिन मुस्लिम लीग की बेपनाह गुजारिश के बाद अपने कदम दुबारा हिंदुस्तान में रखे, लेकिन इस बार मिजाज-ए-जिन्ना बिल्कुल जुदा था। ये पहले वाले राष्ट्रवादी जिन्ना नहीं थे, अंग्रेज़ो ने इनके मन में विभाजन के बीज बो दिए थे। इस मसले को पाकिस्तान के नज़रिए से देखें तो हाल के दिनों में वह इतने आरोपों को झेल चुका है कि ख़ुशी का कोई भी मौक़ा हाथ से नहीं गंवाना चाहता। चाहे ट्वेंटी 20 का वर्ल्ड कप का फ़ायनल हो या जश्ने आज़ादी, बंदूक़ें निकाल कर हवाई फ़ायरिंग शुरू कर देते हैं। आख़िर कर भी क्या सकते हैं, मौक़ा भी तो कभी-कभी मिलता है। एक मौक़ा जसवंत सिंह ने भी दे दिया है, ख़बर है कि शुक्रवार को वो पाकिस्तान भी जा रहे हैं अपनी किताब के प्रमोशन के लिए। लेकिन सोचने वाली बात है कि हर बार बीजेपी को जिन्ना का जिन्न ही क्यों जकड़ लेता है। क्यों एक राष्ट्रवादी पार्टी अपनी दुर्गति पर उतर आती है। दरअसल इन सबके बीच बीजेपी के पतन की कहानी के शुरूआत की वजह ढूंढने की कोशिश करें तो वाजपेयी जी की बीमारी के बाद उनका सक्रिय राजनीति से सन्यास और प्रमोद महाजन की असामयिक मौत ने पार्टी को ऐसा झटका दिया कि वह उससे उबरने की कोशिश में ही ख़त्म हो गई, रही सही कसर पूरी कर दी राजनाथ सिंह ने जो दरअसल राष्ट्रीय स्तर के नेता बनने लायक़ कभी थे ही नहीं, लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के समर्थन से वह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन बैठे। और अब आलम ये है कि हाल के लोकसभा चुनाव में मिली मात के बाद तमाम जिम्मेदार नेता सत्ता के बचे-खुछे पदों को हथियाने की कवायद में जुट गए, न तो चिन्तन बैठक में इस पर चिंता जाहिर की गई न ही अपने हार से कुछ सीख ही ले पाई। कभी कुछ पत्रकारों के हाथों में तो कभी आरएसएस के हाथों की कठपुतली बनी रही। लेकिन जिन्ना के जिन्न ने तो इसे टूट के कगार पर ला खड़ा किया है। जिन्ना के बारे में सबसे दिलचस्प बात ये है कि मुस्लिम मुल्क़ पाकिस्तान के जनक के पूर्वज हिंदू थे, जिन्होंने बाद में इस्लाम क़बूल कर लिया. और शुरू में मुस्लिम लीग ज्वाइन करने से इसलिए इन्कार कर दिया था कि यह केवल मुसलमानों की ही बात करता है जबकि अल्पसंख्यक मुसलमानों के रहनुमाई करने से उन्हें कोई एतराज़ नहीं था. लेकिन बाद में यही जिन्ना मुसलमानों के एकमात्र प्रवक्ता बनना चाहते थे।
यही प्रवक्ता रहरह कर बीजेपी में टूट के बीज बोता रहता है।

कंगारूओं के क़िले में सेंध

इंगलैंड ने ऑस्ट्रेलिया को एशेज सीरीज़ में २-१ से मात देकर ये साबित कर दिया कि किस तरह शिखर पर पहुंचने के बाद का रास्ता सिर्फ नीचे की ही ओर आता है जब तक कि आप ख़ुद को वहां टिके रहने के क़ाबिल नहीं बना लेते। कई दफ़ा ये बहस का मुद्दा भी बना कि एक- दो सीरीज़ में हार से ही ऑस्ट्रेलिया की बादशाहत पर सवालिया निशान लगाना मुनासिब नहीं हो सकता। लेकिन यदि देखें तो पिछले कुछ सीज़न में उसकी हालत वाकई में ख़स्ता बनी रही। दऱअसल अब ऑस्ट्रेलिया अपने खेल में ही मात खाता नज़र आ रहा है। इस बार इंगलैंड के हाथों मुंहकी खाने के बाद कम से कम ये बात तो साबित हो ही जाती है। याद कीजिए भारत का ऑस्ट्रेलिया दौरा, किस क़दर परेशान किया था, कंगारूओं ने। इस बार ठीक वैसा ही बर्ताव उनके साथ ब्रिटेन में हुआ। जिस तरह सिडनी टेस्ट भारत जीत रहा था, लेकिन माइकल क्लार्क और पोंटिंग के बदनीयती ने ऐसा होने नहीं दिया। ज़मीन को छूने के बावजूद क्लीन कैच करार देना और पोंटिंग का अंपायर की जगह आउट का निर्णय देना भला कौन भूल सकता है ? ठीक यही कंगारूओं के साथ स्ट्रॉस एंड कंपनी ने किया। दोनों के बीच जो टेस्ट एक विकेट न गिर पाने की वजह से ड्रॉ हो गया, कितना चपलता के साथ उसे स्ट्रॉस ने बचाया, तब पोंटिग की भन्नाहट बिल्कुल सामने आ गई थी, लेकिन उन्हें याद रखनी चाहिए कि आसमान का थूका अपने मुंह पर ही गिरता है।
अब कंगारूओं की टेस्ट रैंकिंग गिरकर चौथे पायदान पर आ गई है। अपना खोया रूतबा हासिल करना फिलहाल तो दूर की कौड़ी नज़र आ रही है, पोंटिंग एंड कंपना को। वजह साफ है, गेंदबाज़ी में न तो पहले जैसी धार है न ही फिल्डिंग में फुर्ती और न ही बल्लेबाज़ी में बादशाहत। मैक्ग्रा, शेन वार्न, गिलक्रिस्ट, हेडेन और लैंगर जैसे खिलाड़ियों के संन्यास के बाद मानो यह टीम बुरी तरह बिखड़ गई है।एक चैंपियन की हार का मलाल किसे नहीं होता, क्रिकेट का प्रशंसक होने के कारण कंगारूओं के क्रिकेट के खेलने के अंदाज़ का कायल बहुत सारे रहे होंगे, मैं भी था। लेकिन जब अपनी क़ाबिलियत को तराशने के बजाय उस पर कोई घमंड करने लगे तो उसका अंजाम भी क्या होता है, ऑस्टेलियाई क्रिकेट टीम हमारे सामने है।

बारिश की बोरियत का भी मज़ा है

ये बेहद ही ख़ूबसूरत नज़ारा है, बारिश के बाद की दिल्ली की, जो मुझे काफी अच्छी लगी। य़दि बारिश नहीं होती तो राहुल गांधी मेट्रो से सफर नहीं करते। यही फर्क है बारिश के होने का। हम हर बारिश के बाद सीएम साहिबा को कोसने लगते हैं, कहने लगते है पानी निकासी की कोई व्यवस्था ही नहीं है, निकम्मी हो गई है सरकार। मुझे लगता है और साथ इत्तेफाक़ से मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भी कि बारिश होगी तो जाम तो लगेगा ही। अब इसमें कोई क्या कर लेगा ? लेकिन इन सबसे अलग आपको इस तस्वीर को देख कर ख़ूबसूरती का एहसास नहीं हो रहा ? मुझे इस खूबसूरती का एहसास करने के लिए बारखम्बा मेट्रो से लाजपत नगर तक पैदल आना पड़ा। आपको लग रहा होगा ये क्या पागलपन है, इतनी दूर पैदल चलने क्या ज़रूरत थी ? लेकिन मैं आपको बता दूं, फिर भी मैं रैश ड्राइविंग करने वाले सारे बस वालों, बीएमडब्ल्यू की रफ्तार इन सबसे आगे था। हालांकि तक़रीबन तीन घंटे में मैंने ये दूरी पैदल चलकर तय की थी। सही में दिल्ली की बारिश का सही लुत्फ तो इसी दिन मैंने उठाई। ऐसा लग रहा था मानो हर चीज़ यहां कितनी ख़ामोश है, बेजान, फीकी वर्षों गुजर जाते हैं यूं ही, कुछ पता नहीं चलता हफ्ते और दिन बड़ी मुश्किल से कटते हैं, और सिर्फ ऊब ही है इनका सिलसिला। लेकिन कल कुछ ऐसा नहीं लग रहा था। सारी चीज़े अपनी जगह थीं पर बेजान और ख़ामोश नहीं, शायद नहीं। वाकई बहुत मज़ा आया कल की बारिश का बहुत सुकून मिला गाड़ियों की लंबी कतारें देखकर।

ख़ान हर किसी के साथ सोए !

पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री के लेकर एक नई बात आजकल पाकिस्तान में हड़कंप मचाए हुए है। जी हां, ये बात है पाक क्रिकेटर इमरान खान और बेनज़ीर भुट्टो के शारीरिक नज़दीकियों को लेकर। ये ख़बर नव भारत टाइम्स में छपी है, जिसमें बताया गया है कि ऑक्सफोर्ड में पढ़ने के दौरान दोनों एक-दूसरे के बेहद क़रीब आए थे और इमरान की मां दोनों की शादी को लेकर रज़ामंद भी थीं लेकिन बात कुछ बन नहीं सकी। वो बेनज़ीर ही थीं, जिसने इमरान को लॉयन ऑफ लाहौर कहा था। खान और भुट्टो के बीच सेक्सुअल रिलेशन थे यह इस बात से भी पुख़्ता हो जाती है कि इमरान के एक दोस्त ने कहा था कि, खान हर किसी के साथ सोए थे।

ये सारी बातें इमरान की बायोग्राफी में क्रिस्टोफर स्टैनफर्ड ने लिखी हैं। ध्यान देने वाली बात है कि इस तरह की बातें शायद पाक में किसी प्रधानमंत्री को लेकर पहली बार सामने आई है, वो भी एक मुस्लिम कंट्री में जहां लोकतांत्रिक क़ानूनों की जगह इस्लामी कानून का वर्चस्व बरकरार है और इस तरह की बातें सामने आने के बाद क्या बवाल खड़ा होता है, ये तो बस इंतजार करने और देखने वाली बात होगी। जहां कि उस दिवंगत प्रधानमंत्री बेनज़ीर का पति अभी राष्ट्रपति हैं और इमरान जो इस बात को ग़लत ठहरा रहे हैं, वो भी एक राजनीतिक तंजीम गठित कर पाक राजनीति में एक अहम किरदार निभा रहे हैं।

किताब के हवाले से स्टैनफोर्ड के मुताबिक़ 1975जब बेनज़ीर 21साल की थीं और ऑक्सफोर्ड में सेकेंड यीअर में पढ़ती थीं तभी वो इमरान के क़रीब आईं। बेनज़ीर जहां एक ख़ुले दिमाग और प्रोग्रेसिव सोच वाली महिला थीं जिसने अपनी ज़िदगी का अधिकतर वक़्त पश्चिमी मुल्कों में गुजारा और इमरान ने अपनी शादी इंग्लैंड में ही जेमिमा से की थी। मतलब की दोनों एक खुले विचारों वाले शख़्सियत। इस ख़ुलासे ने पूरे पाकिस्तान में तहलका मचा दिया है। हालांकि इस बात में कितनी सच्चाई है य़ा बस कहीं पब्लिसिटी स्टंट तो नहीं, ये कहना ज़रा मुश्किल है क्योंकि बेनज़ीर अब स दुनिया में हैं नहीं और इमरान जिनकी बायोग्राफ़ी में इसका ख़ुलासा किया गया है, इस पूरी बात से इन्कार कर रहे हैं। लेकिन एक बात तो है कि इसने एक नए विवाद को जन्म दे दिया है, जो आने वाले समय में निश्चित ही एक नया गुल खिलागा। जो कभी दुनिया कि दूसरी पावरफुल महिला थी और पाक जैसे चरमपंथी सियासतदां मुल्क में एक महिला से जुड़ी इस बात का ख़ुलासा ही इस हवा को बवंडर की शक्ल देने को काफी।

ए कॉल टू जिन्ना

आप सोच रहे होंगे जसवंत सिंह के साथ ये कौन है, ये हैं वो आतंकवादी जिसपर न जाने किरने बेग़नाहों का क़त्ल करने का इल्जाम है, जिसे छोड़ने कंधार गए थे, जसवंत सिंह जी।
अब बात जसवंत सिंह को उनके कारनामे के लिए सम्मानित करने का सिलसिला शुरू हो चुका है। शायद एक मुख्य धारा की पार्टी में रहते हुए भी अपनी विशिष्ट पहचान बनाने की उनकी कवायद रंग लाने लगी है। जी हां, उनको सम्मानित करने का फ़ैसला किया है, ऑल इंडिया मुसलिम मज़लिस ने। इसके उपाध्यक्ष यूसुफ हबीब औऱ प्रवक्ता बदरकाजमी ने कहा कि जसवंत सिंह ने वो काम किया है जिसे कांग्रेस हमेशा से अपमानित करती आई है। उनका कहना था कि जसवंत सिंह ने जिन्ना की एक सही तस्वीर पेश की जिसे कभी कोई हिंदुस्तानी समझ ही नहीं पाए...इस तरह की और तमाम बातें मुस्लिम मजलिस ने कही, जिसे दोहराना शायद मुनासिब नहीं क्योंकि बात फिर अपनी ही थाली में छेद करने वाली हो जाएगी।
लेकिन इन सब के बीच जो एक बात सोचने वाली है कि आखिर बीजेपी के ही नेता जिन्ना को महान और सेक्युलर बनाने पर क्यों तुले हुए हैं। और जब भी ऐसा होता है, पार्टी अपने को उससे अलग कर लेती है और व्यक्तिगत मसला बताकर किनारा कर लेती है। लेकिन सोचने वाली बात है कि बीजेपी में कैसे व्यक्ति हैं कि उन्हें अपनी बात कहने के लिए भी व्यक्तिगत होना पड़ता है, ख़ैर ये बात वो व्यक्ति नहीं कहता है कि ये मेरी व्यक्तिगत सोच है, जो सारा बखेड़ा खड़ा करता है।

अगर जसवंत सिंह जिन्होंने एक अलग ही इतिहास लिखने का काम किया है , यदि उनके इतिहास पर नज़र डालें, तो नेशनल डिफेंस अकादमी का एल्युमिनाई, जिसने देश की सेवा एक विदेश, वित्त और रक्षा मंत्री के तौर पर की। सबसे बड़ी बात ये कि जसवंत सिंह बीजेपी के भीतर सबसे प्रभावशाली शख़्सियत हैं जिनका बैकग्राउंड आरएसएस से नहीं है। हो सकता है शायद इसीलिए ऐसी हिमाकत की हो, जिन्ना को महान बताने की जबकि आडवाणी का हश्र वो देख चुके थे। अब इनका क्या होगा राम जाने। इसके पहले भी सुर्ख़ियों में आने के लिए जसवंत जी किताबें लिखते रहे है- ए कॉल टू ऑनर को कौन भूल सकता है, जब उन्होंने पीएम ऑफिस में जासूस होनी की बात कहकर सनसनीख़ेज ख़ुलासा किया था, जिसे वो कभी भी सच साबित नहीं कर सके। इस बार उन्होंने कोशिश नहीं बकायदा बताया है कि नेहरू और सरदार पटेल विभाजन के लिए कसूरवार थे और सारा दोष जिन्ना के उपर गढ़ दिया गया। साथ ही जिन्ना और गांधी के विचारों की समानता की भी बात की है। शायद उम्र की इस दहलीज पर कुछ करने को था नहीं, पार्टी पहले ही लुटपिट चुकी है, राज्यसभा में विपक्ष के नेता का पद भी हाथ से चला गया सो लगे जिन्ना का जिन्न बोतल से निकालने। अब होगा क्या , शायद रामजी अयोध्या से आकर कुछ करें तो बात बने।

और बात बन ही गई, जसवंत सिंह को आख़िरकार बीजेपी से चलता कर ही दिया गया। बड़े बेआबरू होकर पार्टी से निकलना पड़ रहा है।

जसवंत पर भारी जिन्ना का जिन्न

पहले आडवाणी , अब जसवंत। उसके बाद पता नहीं कौन। आख़िर ऐसा क्यों है कि हिंदुत्व का पुरजोर वकालत करने वाली पार्टी आजकल हिंदुओं के बजाय मुसलमानों पर ज़्यादा ध्यान दे रही है। आडवाणीजी को पीएम बनना था, सो उसकी तैयारी वो पहले से ही करने लगे लेकिन दांव उल्टा पड़ गया, कहने वाले कहते हैं कि अपनी छवि सुधारने के चक्कर मे कन्फ्यूजिया गए कि करना क्या है और बोलना क्या, इसलिए जनता उनको समझ नहीं सकी। लेकिन जसवंत सिंह को क्या हो गया, न तो अभी कोई चुनाव होने वाले हैं और न ही कुछ ऐसा कि इस तरह की बातें वो कर सकें, क्योंकि जब बीजेपी के लोग इस तरह की बातें जब करते हैं तो ख़ुद को उदारवादी बनाने के बहाने सुर्ख़ियों में आने का बहाना ढ़ंढ़ते हैं। वही काम जसवंतजी कर रहे हैं। एक अलग ही इतिहास लिखने का काम किया है, जसवंत सिंह ने। वैसे भी बीजेपी वालों को इतिहास लिखने में खासी दिलचस्पी रहती है, आपको याद ही होगा, जब सत्ता में थी ये पार्टी तो कैसे-कैसे इतिहास लिखने का काम कर रही थी।
दरअसल जसवंतजी जिन्ना को महान और नेहरू और सरदार पटेल को भी विभाजन के लिए कसूरवार बता कर ये जताने की कोशिश कर रहे है,
" कैसे हम इल्जाम लगाएं, बारिश की बौछारों पर।
हमने ख़ुद तस्वीर बनाई, मिट्टी की दीवारों पर।। "
सिवाय बखेड़ा खड़ा करने के और कुछ भी मक़सद नहीं होता है इनका। ये वही जसवंतजी हैं, जो आतंकवादियों को अपने साथ छोड़ने प्लेन में कंधार तक जाते हैं। उनके गृह-मंत्री अपनी किताब में कहते हैं, मुझे इस बात की कोई जानकारी ही नहीं थी।
दरअसल बीजेपी आजकल संक्रमण के दौर से गुजर रही है, किसी भी नेता का कुछ अता-पता नहीं कब क्या बोलना है। वैसे भी हमारे नेताओं में भी अब किताबें लिखने का भूत सवार होने लगा है, चलिए वैसे भी कहा गया है, खाली दिमाग़ शैतान का घर।

भूख है तो सब्र कर ।


क्या इतने प्रेम और चाव से आप खाना खाते हैं या खा सकते हैं ? हो सकता है नहीं आपका जवाब बिल्कुल हां में ही होगा, कुछ लोगों की अपनी मज़बूरियां हो सकती हैं , जिसकी वजह से वो ना कहें।
दरअसल ये तस्वीर उस जगह की है, जब आप और हम ट्रेन से सफ़र करते हैं तो ट्वायलेट और दूसरी चीज़ों के लिए इस्तेमाल करते हैं। दूसरी चीज़ों से मतलब शौचालयों के लिए। आप और हम वहां खाने की सोच भी नहीं सकते, ज़रा सा साफ़ न रहे तो ट्वायलेट भी जाने से कतराते हैं। लेकिन खाने की बात तो सपने में भी नहीं सोच सकते भूख बर्दाश्त कर लेंगे लेकिन खाएंगे नहीं। अब बताइए क्या आप इतने मज़े से खा सकते हैं। जहां तक मैं अपनी बात करूं तो मैं तो कतई नहीं। लेकिन ये सिर्फ़ बस एक आदमी जो आपको तस्वीर मे दिख रहा है, उसी की कहानी नहीं है, काफी सारे लोग ऐसे ही खाते हैं, कम-से-कम मेरे साथ जो लोग सफर कर रहे थे वो तो खा ही रहे थे। अंतर इतना था कि ये ट्वायलेट रूम मे खा रहा था, बाक़ी उस रूम में रखें खाने को खा रहे थे, अनजाने में मैंने में भी पानी का बॉटल ले लिया, लेकिन जब ट्वायलेट के लिए गया तो सारा माजरा नज़र आया। आसपास काफी सारे लोग ठूंसे पड़े थे, बगल वाले ट्वायलेट को ही पेंट्रीकार बना दिया गया था। लोग ये देख भी रहे थे खाना-पानी कहां रखा है, फिर ख़रीद रहे थे और खा भी रहे थे, उनको कोई एलर्जी या दिक्कत नहीं थी। शाय़द वो इस बात के अभ्यस्त थे। और मेरे लिए नया अनुभव।
डरिए या घबराइए मत ये कहानी किसी ट्रेन के जनरल डब्बे की है, लेकिन दूसरे बोगियों की साफ़-सफाई और हालत भी इससे कुछ खास बेहतर है या नहीं, इससे अभी पाला नहीं पड़ा है। फिर भी हक़कीत हम सभी से छुपी नहीं है। यहां ये बताना भी ज़रूरी बन पड़ता है कि बड़े ही चाव से खा रहे खाने की क़ीमत पैंतीस रू है । मेरी गुजारिश है यदि इंडिया से फुर्सत मिले तो एक बार आप भी ऐसे ही जनरल बोगी में सफर कीजिए और एक नए भारत का दर्शन कीजिए। एक नई दुनिया की झलक आपको मिलेगी, चार की सीट पर कैसे आठ लोग बैठते हैं, सामान रखने वाली जगह पर कैसे चार लोग मज़े से सोते हुए सफर करते हैं। भारत कैसे जुगाड़ का देश है , ये भी आप सही तरीक़े से जान और समझ सकते हैं।
" कल नुमाइश में मिला वो चिथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदोस्तां है।"

हमें शर्म नहीं आती !




मेहनतकश बच्चे, बड़े होकर देश का बोझ उठाने को तैयार
चलता-फिरता दुकान

आख़िर इन्हें भी तो भूख लगती है- सेल्फ-डिपेंडेड बच्चे


नई-दिल्ली स्टेशन पर गंदे पानी का बोतल बेचने पर मज़बूर लड़का





हाल ही में संसद में शिक्षा का अधिकार बिल पारित हो गया और पिछले दिनों मैं अपने घर गया...आप सोच रहे होंगे कि इसका इन सबसे क्या नाता, तो बस आपको कुछ तस्वीरें दिखाना चाहता हूं, और आप पर छोड़ता हूं बाक़ी चीज़ों के लिए।

ये सारी तस्वीरें पंद्रह अगस्त के दिन खींची गई हैं, कुछ नई दिल्ली- स्टेशन तो कुछ पटना की हैं। ये उन्हीं ट्रेनें में पानी, पराग और कई चीज़े बेचते हैं। जिस ट्रेन से बड़े-बड़े अफ्सर और कभी-कभी कुछ नेता भी सफर करते हैं, वो भी ये सारी चीज़ें देखते हैं, लेकिन उनकी भी मज़बूरी है, वो क्या करें कहां तक और किस-किस की प्रॉब्लम दूर करते रहें।

शिक्षा का अधिकार क़ानून लागू हो जाएगा, क्या ये बच्चे उसे कभी पा सकेंगे, देश की मुख्य धारा में कभी शामिल हो भी सकेंगे, कोई आश्चर्य नहीं कल इसी में से कोई पॉकेटमार या उससे भी आगे कुछ और बन सकता है, आइएस बनने की गुंजाइश तो है नहीं....इनके ऐसे सुनहरे भविष्य के लिए क्या ज़िम्मेदार हम भी हैं, अगर जवाब आपके पास है तो , हमें भी बताइगा
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मीडिया की मृगमरीचिका

आख़िर हर कोई मीडिया को ही क्यों गाली देने पर तुला हुआ है। और क्यों दे रहा है ? एक तो बारबार यही रोना रोया जाता है कि इसका नैतिक पतन होते जा रहा है और ख़बरे दिखाई नहीं बेची जा रही है। जवाब यह मिलता है कि एक चैनल को चलाने में करोड़ों रूपये लगते हैं और उसे सही तरीक़े से चलाने के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ती है। जो उसे एडवरटाइज़िंग के जरिए मिलता है और ये एडवरटाइज़िंग उसे कॉरपोरेट क्षेत्र से मिलता है या कभी-कभी सरकार से भी। कॉरपोरेट वर्ल्ड एडवरटाइज चैनलों के टीआरपी के हिसाब से देते हैं। टीआरपी ये तय करती है कि किस चैनल को लोग सबसे ज़्यादा देखते हैं। उसे अधिक विज्ञापन मिलता है, तो कमाई होती है उस चैनल की। जिससे पूरा चैनल चलता है। अब आप ख़ुद समझदार हैं कि जो लोग विज्ञापन, चैनलों को देते हैं, वो अपने हितों को नज़रअंदाज नहीं कर सकते । साथ ही चैनल भी उनके हितों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश भी कम ही करते हैं, भला कोई अपने पेट पर लात थोड़े ही मारता है।

दूसरी बात ये कि सरकार अगर विज्ञापन देती है तो चुनावों के मौसम में क्योंकि उसे भी मालूम है कि कब चैनलों से अपना काम निकलवाना है। जिसे देख हमलोग हल्ला मचाने लगते हैं कि चैनल वाले पैसे लेकर किसी ख़ास पार्टी या कैंडीडेट की बातों को ख़बर के तौर पर दिखा रहे हैं। फिर वही बात आ जाती अपने-अपने हितों की, कि घोड़ा अगर घास से दोस्ती कर ले तो खाएगा क्या ? कुल मिलाकर बात ये कि हम बाज़ारवाद के युग में जी रहे हैं और बाज़ार सारी चीज़ें तय कर रही हैं। एकबार एक प्रतिष्ठित चैनल के मैंनेजिंग एडीटर ने एक बात कही कि आज हम बाज़ार की ताकत को नकार नहीं सकते और आप भी यदि अपने हिसाब से ख़बरें देखना चाहते हैं तो पैसा लगाइए, फिर हम किसानों की आत्महत्या दिखाएंगे, बुंदेलखंड की समस्या दिखाएंगे , भारत को दिखाएंगे बजाय इंडिया के। सबसे बड़ी बात ये दुनिया हमारी बनाई हुई दुनिया ही है, अगर हमें वही दिखाया जा रहा है जो हम देख रहे हैं या देखना चाहते हैं। उसी से उनकी टीआरपी बढ़ती या घटती है, जिससे विज्ञापन कम या अधिक का मिलना अमुक चैनल को तय होता है। इस सिस्टम को हमीं ने मज़बूत किया है, हमी को कुछ करना होगा। बस बारबार गाली देना और उसी टीवी को देखना हमारी फितरत में शामिल हो चुकी है, न्यूज़-प्रोग्राम देखना और उसी की फज़ीहत करना, ऐसा करने से बाज आना होगा,जिसे ख़ुद बदलना होगा। न कि कोई हमारी मदद करने आएगा।

कुछ यूं तय की अपनी ज़िंदगी, मैंने.........

ज़िंदगी का कुसूर था कुछ ऐसा,
कि बस न मिलेगा सुकुन मेरे रूह को
ऐसा एहसास था, पता नहीं क्यूं
शायद मैं क़ाबिल नहीं तुम्हारे....
फिर भी, सासों की खुशबू ही काफी है,
तुम्हारे एहसास के लिए।


दिल की हर धड़कन के साथ तड़पता हूं,
अब तो बस तेरी यादों के साये में,
जीता हूं न मरता हूं...
हरपल एक कशिश को सीने से लगाए रहता हूं।



इबारत क्यों भला उस ख़ुदा की,
माना पनाह दी है, ज़िदगी तो नहीं,
गर ज़िंदगी दी तो मक़सद तो नहीं,
आज रूकसत कर रहा हूं,
अपने हबीब को, ये सोचकर...
शायद जिंदगी ने यही फ़ैसला किया है,
मेरी तन्हाइयों के लिए........

गोत्र, गांव और ग्लोब्लाइजेशन

कहने को तो हम मॉडर्न हो गए हैं। जी हां हो भी गए हैं, लेकिन वो इंडिया है या भारत। यदि दोनों है तो अभी तक न तो इंडिया शाइनिंग हुआ है और न ही भारत-निर्माण। भरत अभी भी गांवों में बसता है, वही उसकी आत्मा भी है। लेकिन ये भी हक़क़ीत है कि कुछ चीज़ें ऐसी भी हो जाती हैं कि इंसानियत को भी शर्मसार कर देती है। एक ही गोत्र में शादी को लेकर हत्या, इस तरह के मामले आजकल काफी सुनने में आ रहे हैं। ऐसा क्यों ? क्या अंग्रेजियत की धमक वहां तक नहीं पहुंच पाई है ? क्या ग्लोब्लाइज़ेशन की हवा से गांव अभी भी महरूम हैं ? ऐसा भी नहीं है। गांवों में भी अब प्रेम विवाह होने लगे हैं और मां-बाप, उन्हें तक़लीफ तो होती है कि बेटे ने उसकी नहीं सुनी और नाक कटवा दी, लेकिन इसके बावजूद बेटे-बहू को अपना लेते हैं। जबकि अभी से महज पांच साल पहले की ही बात है, ऐसी कोई भी बात वहां होना मतलब आप जाति-बिरादरी से निकाल दिए जाते। बस यही एक फ़ैसला। ऐसी बात नहीं है कि पंचायतों की परमपरा वहां नहीं है, अभी भी हैं। लेकिन एक फ़र्क है उन्होंने ख़ुद को ज़माने के मुताबिक़ बदला भी। लेकिन कुछ जगहों पर एक ही गोत्र में शादी को लेकर पंचायतों का कायराना फ़ैसला अभी भी हमें शर्म से पाना-पानी होने पर मज़बूर कर देता है। नया मामला हरियाणा के झझर का है...दरअसल देखा जाए तो राजस्थान, हरियाणा जैसे राज्यों में पंचायतों का काफी बोलबाला रहता है। यहां तक कि हाल में जब मामला हरियाणा के सीएम और राहुल बिग्रेड के युवा सांसद दीपेंद्र हुड्डा के इलाक़े का आया और जब उनसे इस पर प्रतिक्रिया मांगी गई तो एक शब्द भी हलक से नहीं निकला कि इस घटना की आलोचना भी कर सकें। उन्हें भी अपनी सीमाएं मालूम है। इन जगहों पर पंचायतों का फरमान तालिबानी फरमानों से कम नहीं होता और किसी नेता या मंत्री में ये कुव्वत नहीं होती के उसके ख़िलाफ़ एक शब्द भी बोल सके। यहां तक कि न्यायपालिका(कोर्ट) तक के आदेश को ताक पर रख दिया जाता है। तभी तो हाल में पुलिस को पीट-पीट कर भगा दिया और उस युवक की बेरहमी से हत्या कर दी गई, जिसे अदालत ने सुरक्षा देने का जिम्मा प्रशासन को सौंपा था...उसके फैसले को पैरों तले रौंदते हुए ये सब हुआ तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि क़ानून कि क्या हैसियत है इस मुल्क में। परंपरा रीति-रिवाज के नाम सरेआम तमाशा होता रहता है और ऐसा नहीं कि जो लोग ऐसा करते हैं वो अनपढ़, जाहिल या गंवार होते हैं। वेल एजुकेटेड लोग भी इस बात का समर्थन करते हैं, जैसा कि दीपेंद्र हुड्डा ने इसे परंपरा का हवाला देकर चुप्पी साध ली थी। आख़िरीतौर बात आकर ठहरती है कि “ समरथ कछु दोष नहिं गुसाईं “ जो कि एक कड़वी सच्चाई है।

मुल्क का बंटवारा ही है समाधान ।

कल सुबह से ही एक सवाल मेरे जेहन में है, जो काफी परेशान किए हुए है? अगर करता हूं, तो सांप्रदायिक होने का एहसास होने लगता है और नहीं करता हूं तो फ्रसट्रेशन फील होने लगता है। आज रहा नहीं गया। बाक़ी आप सभी जैसा सोचें। बात है तो काफी, नहीं तो थोड़ी पुरानी। इमरान हाशमी को लेकर। महेश भट्ट साहब को लेकर। एक सवाल उन्हे मुंबई में मनपसंद जगह घर नहीं मिल रहा है इसलिए कि वो मुसलमान हैं। हरकोई मुसलमान को शक के नज़रिए से देख रहा है। कहीं वो आतंकवादी तो नहीं। ऐसा इमरान हाशमी ने भी कहा- आई एम नॉट टेररिस्ट। उन्हें लगता है कि लोग सारे मुसलमान को आतंकवादी समझते हैं। इसलिए अपने मोहल्ले में घर नहीं देना चाहते। कई टीवी चैनलों पर इलको लेकर बहस भी हुई नतीजा निकला, हां भेदभाव तो होता है। बिल्कुल होता है मैं भी सहमत हूं, मेरी आंखों के सामने ही मेरे एक मुस्लिम दोस्त को इस तरह की प्रॉब्लम झेलनी पड़ी है। कल आईबीएन-७ पर आशुतोष भी अपने एजेंडा में यही बाक कर रहे थे। लेकिन हुआ यूं कि उनने जितने गेस्ट बुलाए सारे के सारे राष्ट्रवादी निकले। ख़ैर ये एक अलग ही बहस है। एक घर न मिलने की वजह से इतना हो- हल्ला होगा, अचरज की बात है। दरअसल एक मुसलमान को घर नहीं मिला, क्योंकि वह एक मुसलमान है, इसलिए इमरान हाशमी को घर नहीं मिला। इस बात से हंगामा है। शबाना आज़मी और जावेद साहब को घर नहीं मिला क्योंकि वो मुसलमान हैं। तो क्या वो अभी मुंबई से बाहर रह रहे हैं या किसी मुस्लिम सोसायटी में रह रहे हैं। मुंबई में कितनी प्रॉपर्टी है इन लोगों की जो ऐसी बातें कर रहे हैं। ये किसी हिंदू डायरेक्टर या सहयोगी के साथ काम क्यों कर रहे हैं, मुझे तो लगता है कि वहां भी इनको भेदभाव का सामना करना पड़ता होगा। अल्पसंख्यक होने की वजह से फिल्म इंडस्ट्री में भी इनके आरक्षण मिलना चाहिए। हर चौथी फिल्म में एक एक्टर और एक्ट्रेस मुस्लिम होंगे। मान लीजिए यदि ऐसा होने लगे तो देश का क्या होगा? इससे किसी को क्या मतलब। भांड़ में जाए देश।

आज देश की आबादी तेज़ी से बढ़ रही है। ऐसे में हर किसी को मनमाफिक जगह पर घर मिलना मुमकिन तो नहीं। फिर मजहब के नाम पर इस तरह का खेल खेलना कितना जायज है? छोटी-मोटी पब्लिसिटी के लिए इस तरह के कारनामें कितना ख़तरनाक है, शायद उनको इस बात का एहसास तक नहीं है। इसी तरह आगर देखा जाए तो कोई ये भी कह सकता है कि बिहारी होने के नाते मेरे साथ दिल्ली, मुंबई, गुजरात गोवा आदे में भेदभाव होता है, नौकरी नहीं मिलती, घर नहीं मिलता, लोग बिहारी कहकर ग़ाली देते हैं। ये हक़क़ीत भी है। इस तरह से देखा जाए तो देश किस हिसाब से एकजुट है। कर दीजिए देश के टुकड़े-टुकड़े। मौक़ा भी सुनहरा आ रहा है- पंद्रह अगस्त। गांधी, नेहरू और सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद के अरमानों को उनके साथ ही दफ़न हो जाने दीजिए। सबसे कम उम्र में फांसी के फंदे पर झूलने वाले ख़ुदीराम बोस, भगत सिंह, सुभाषचंद्र, अशफ़ाक़उल्ला की कुर्बानियों से हमें क्या लेना ? जीने दीजिए सभी को अपने-अपने ढंग से, आख़िर हरएक को जीने का हक़ जो है। क्योंकि हरकोई उत्तरदायित्व के कंधे पर बस हक़ की गोली चलाना ही तो चाह रहा है।

बलात्कार, एन्काउंटर और पूर्वोत्तर !

पहले एक लड़की के साथ छेड़छाड़, फिर एक लड़के का एनकाउंटर...ये दोनों वारदात पूर्वोत्तर राज्यों के हैं और दोनों वहां मौज़ूद सेना ने किया है। ये बात ध्यान रखने वाली है कि आख़िर हम किस तरह की सोसायटी में जी रहे हैं। कहते हैं सिविल सोसायटी लेकिन कम-से-कम मुझे तो ये सब बस एक खेल-सा लगता है। आज अगर भारत सबसे ज़्यादा कहीं परेशानियों से जूझ रहा है तो वो है-नक्सलवाद और आतंकवाद के मुद्दों से। जिसके समाधान के लिए वह कभी भी संजीदा नहीं रहा। आज हिंदुस्तान एक ऐसा मुल्क़ है, जहां क़ानून का पालन करने वाले निराश और हताश हैं जबकि क़ानून तोड़ने वाले सरकार पर हावी रहते हैं। पूर्वोत्तर में जो लोग समस्या पैदा करते हैं, उनको प्रशासन या सेना तो कभी पकड़ पाती नहीं, जब दबाव पड़ता है तो वह ऐसे ही बेबस, निर्दोष और बेग़ुनाहों का क़त्लेआम करती रहती है। ये सही है कि इस तरह के मामलों में कुछ निर्दोष लोगों की जान जाती ही हैं, लेकिन इसके नाम पर जो खेल खेला जा रहा है, वो बेहद ही भयानक है। इस तरह से हम प्रॉब्लम सुलझाने के बजाय उसे उलझाते ही जा रहे हैं। हम कभी भी वहां के लोगों का दिल जीतने की कोशिश नहीं करते और चाहते हैं कि ज़बरदस्ती अपने साथ बनाए रखें, उन पर जुल्मोसितम करते रहें। चाहे मामला वहां की महिलाओं के साथ छेड़छाड़, बलात्कार या शोषण का हो या मासूम लोगों को गोलियों का निशाना बनाने का...हम कभी उनकी समस्याओं को उनकी नज़रिए से समझने की कोशिश तक नहीं करते कि आख़िर वो चाहते क्या है, उनकी वाजिब समस्याएं क्या हैं, बल्कि इन सब की जगह उन्हें चुप कराने का बस एक ही तरीक़ा हमें नज़र आता है, उन पर गोलियां बरसाना , ख़ौफ दहशत का माहौल कायम करना। क्या सरकार वहां की समस्या इसलिए सुलझाना नहीं चाहती कि वहां से भारत सरकार को कोई ख़ास राजस्व नहीं मिलता, उल्टे ख़र्च ही करना पड़ता है ? अगर ऐसा है, तो बस ख़ुद और देश के लिए मैं शाहिर लुधियानवी की इन पंक्तियों को ही कह सकता हूं कि.......मुबारक कह नहीं सकता, मेरा दिल कांप जाता है।

अधूरी मुलाक़ात का फ़साना

काग़जों में उनकी यादों को समेटे जा रहा हूं,
कभी इज़हार तो न कर पाए उनसे,
कहीं-न-कहीं मेरे लिए भी होगी उनके दिल में जगह,
यही सोचकर अब तक जीये जा रहा हूं।।


कौन करता है याद उस दौर को,
जब कुछ नहीं था पास,
फिर भी बहुत कुछ था,
आज सबकुछ है, फिर भी कुछ नहीं है।


उनकी गलियों से गुजरे एक ज़माना हो गया,
फिर भी यादों में वो आज भी बसे हैं,
एक अधूरी मुलाक़ात तो हुई थी,
चंद पलों की वो कहानी,
अब फसाना है......................।

क्या खोया-क्या पाया !

पहले तो एक बचपना समझा...
फिर अपनी नादानी,
लेकिन इत्तेफाक
यह भी न हुआ कि तुम्हे
कुछ बता सकूं...

क्या मैंने सोचा और क्या पाया,
न कुछ हासिल, न ही गुमनाम,
इस दुनिया की भूलभुलैया में,
बस ख़ुद को ही भूला पाया...
इस तमाम ज़िंदगी में...
इतना ही ख़ुद के लिए कर पाया...

हिंदू और मुसलमान ! झगड़े की जड़ क्या ? पार्ट-2

जैसा कि मैंने इस शीर्षक के पहले पोस्ट में इस्लाम और हिंदुस्तान एवं हिंदुओं का जिक्र किया। इस हिस्से में उसके कुछ मौलिक बातों का ज़िक्र करना चाहूंगा, जिससे उम्मीद है ग़लतफहमियां जो बरकरार है, कुछ कम होंगी या हम उसे समझने की कोशिश करेंगे।
हिंदू इस्लाम के उन गुणों से कम वाकिफ़ थे, जिसकी वजह से यह धर्म क्रांतिकारी समझा जाता था। और ऐसा नहीं कि आज नहीं है, है और सौ फ़ीसदी है, लेकिन उनके मानने वालों में अज्ञानता है, सहनशीलता नहीं है। ख़ासतौर पर " भारतीय मुसलमानों की अज्ञानता कम नहीं है। पूरी दुनिया जानती है कि प्राचीन समय में सभ्यता का गुरू भारतवर्ष था, लेकिन हिंदुस्तान में आज ऐसे बहुत से मुसलमान हैं, जो खुलकर बोलते तो नहीं, पर मन ही मन यह महसूस करते हैं कि मुसलमानों के आने के पहले भारत की संस्कृति बहुत उंची नहीं थी। " जो कहीं-न-कहीं आज भी बरकरार है। यहां पर समस्या दो तहजीबों के बीच के टकराहट की हो जाती है, जिसे न तो हिंदू और न ही मुसलमान समझने की कोशिश करते हैं। ऐसे हालात में आख़िर वो कौन से उपाय हैं, जिससे हिंदू मुसलमान को और मुसलमान हिंदू के क़रीब आ जाए, केवल कहने को नहीं बल्कि सही मायनों में। दरअसल ऐसे में सारा मामला मनोवैज्ञानिक पहलू में आकर उलझ जाता है। ये सच है कि हिंदुस्तान पर मुसलमानों का वर्चस्व काफी समय तक रहा, चाहे वह जिस हिसाब से रहा हो। और इस दौरान ऐसे कई क़िस्से हुए जो नहीं होने चाहिए। बात यहीं आकर रूकती है कि, हिंदुओं की मानसिक कठिनाई है कि इस्लाम का अत्याचार उन्हें भुलाए नहीं भूलता और मुसलमान यह सोचकर पस्त हैं कि जिस देश पर उनकी कभी हुकूमत चलती थी, उसी देश में उन्हें अल्पसंख्यक बनकर जीना पड़ रहा है
कभी बाबरी, तो कभी गोधरा ये सारी बातें मुसलमानों के दिल में दहशत पैदा करते हैं, जो किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता है। आख़िर दंगे में जो लोग मारे जाते हैं उनमें बच्चे, बूढ़े, औरतें होती जिनका कोई कसूर न होते हुए भी मौत के घाट बड़ी बेरहमी से उतार दिए जाते हैं। यही बात हिंदुओं के संदर्भ में भी लागू होती है। लेकिन बहुसंख्यक होने नाते हमारा कर्तव्य अधिक हो जाता है। साथ ही यह भी सच्चाई है कि प्रजातंत्र में ऐसा कोई भी तरीक़ा नहीं है, जिससे अल्पसंख्यक लोग बहुसंख्यक बना दिए जाएं। लेकिन, ऐसे तरीक़े तो हर शासन में अपनाए जा सकते हैं, जिससे अल्पसंख्यकों की हर जायज़ शिकायत दूर की जा सके। लेकिन यह तभी मुमकिन है, जब अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक सुमदाय एक-दूसरे पर भरोसा करे, यकीन करे।

यहां बात यह आती है कि मुसलमानों को यह समझना है कि उसके धर्म और स्वदेश-प्रेम में कोई विरोध नहीं है। अमीर खुसरो, अकबर, जायसी भी मुसलमान थे और भारत भक्त भी और हिंदुओं को यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि इस्लाम की ओर से जिन लोगों ने भारत पर हमले कि वे इस्लाम के सही प्रतिनिधि नहीं थे...आख़िर मुगल अकबर और औरंगजेब में कोई कैसे समानता बता सकता है, जबकि दोनों अपने हिसाब से इस्लाम की सेवा कर रहे थे ?
सहयोग-संस्कृति के चार अध्याय।

हिंदू और मुसलमान- झगड़े की जड़ क्या ? पार्ट- १

इमरान हाशमी को मुंबई में मुसलमान होने की वज़ह से पसंदीदा जगह पर मकान नहीं मिल पाया। इससे पहले सैफ़ अली ख़ान, शबाना आज़मी-जावेद अख़्तर और मशहूर वीजे सोफी चौधरी के साथ भी इसी तरह का वाक्या पेश आया। सैफ़ को तो किसी मुसलमान बिल्डर से अपनी मकान लेनी पड़ी। वहीं इमरान का दर्द और ग़ुस्सा टीवी पर साफ़ झलकता नज़र आया कि आई एम नॉट अ टेररिस्ट । वहीं कल रात एनडीटीवी पर रवीश कुमार न्यूज़-प्वाइंट में भी यही चर्चा कर रहे थे। कुल मिलाकर वहां यही नतीज़ा आया कि हिंदुस्तान में मज़हब के नाम पर ऐसा होता आया है और हो रहा है। यहां तक कि कई जगह ऐसे हैं जहां केवल मुसलमानों की सोसायटी है तो कई जगह सिर्फ़ हिंदुओं की। और वहां के नियम आप बदल भी नहीं सकते । आख़िर ऐसा क्यों है? जबकि सलमान ख़ान और शाहरूख़ ने इस मामले अपनी राय देते हुए कहा कि मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ और आज जो कुछ भी हम हैं वो इसी मुल्क़ की बदौलत। साथ ही उनका ये भी कहना था कि लेकिन ये कहना कि ऐसा होता ही नहीं ये भी ग़लत होगा। यदि ऐसा है तो इसकी वजह क्या है? न्यूज़-प्वाइंट में ही एक बिल्डर ये बता रहा था कि मुसलमानों से परहेज की हिदायत मकान मालिकों या सोसायटी की तरफ़ से उन्हें पहले ही दी हुई होती है। अगर ये सच्चाई है तो इसकी असलियत क्या है? दरअसल इसके पीछे की वज़हों को समझने की कोशिश करें तो आज भी इन दो समुदायों के बीच विश्वास की कमी बरकरार है, नफरत की वो बीज अभी भी क़ायम है जो सदियों से हमें जाने-अनजाने में अपनी गिरफ्त में लिए हुए है।
साथ ही हम इसे समझने की कोशिश करें तो इस समस्या की जड़ में जाने की जरूरत है। एम एन राय ने अपनी किताब "द हिस्टोरिकल रोल ऑव इस्लाम" में लिखा है, जिसका ज़िक्र रामधारी सिंह दिनकर अपनी किताब "संस्कृति के चार अध्याय" में करते हैं, कि संसार की कोई भी सभ्य जाति इस्लाम के इतिहास से उतनी अपरिचित नहीं है जितने हिंदू हैं और संसार की कोई भी जाति इस्लाम को उतनी घृणा से भी नहीं देखती, जितनी घृणा से हिंदू देखते हैं। साथ ही वो कहते हैं, यह बात एक तरह से भारत के मुसलमानों पर भी लागू है, क्योंकि इस देश के मुसलमानों में भी इस्लाम के मौलिक स्वभाव, गुण और उसके ऐतिहासिक महत्व की जानकारी बहुत ही छिछली रही है। भारत में मुसलमानों का अत्याचार इतना भयानक रहा कि सारे संसार के इतिहास में उसका जोड़ नहीं मिलता ।

हिंदू, इस्लाम के उसी रूप को जानते हैं जिससे उन्हें पाला पड़ा है। वे इस्लाम के उन गुणों से बहुत ही कम परिचित हैं, जिनके कारण यह धर्म क्रांतिकारी समझा जाता था।


आगे जारी........