होली में हिंदूवादी होने का भय!

आज होली का दिन है। रंगों से सराबोर उत्सव। पर कुछ और कहना या पूछना चाहता हूं। आप कह सकते हैं जानना चाहता हूं। दरअसल मुझे हमेशा इस बात का भय बना रहता है कि कहीं मैं भी हिंदू कट्टरवादी, संघी मानसिकता या एक तरह से कहें कि एक्सट्रमिस्ट न समझ लिया जाऊं। असल मुद्दे पर आने से पहले मैं आप से अपनी व्यक्तिगत बातें कहना चाहता हूं। कहना इसलिए चाहता हूं कि ये बातें अक्सर मुझे कचोटती है। हाल में भारत के मशहूर पेंटर मकबूल फिदा हुसैन का मसला उठा तो यह काफी हद तक प्रासंगिक भी लगा। दरअसल बात कुछ साल पहले की है। यानी मेरे कॉलेज के दिनों की। करीब तीन साल हुए। हमारे एक गुरूजी कहते थे कि आजकल हम और आप भगवन का नाम उतना नहीं लेते, जितना कि समाज के निचले वर्ग के लोग। चाहे वह दलित हो या महादलित अथवा उनके भी नीचे के लोग। हम और आप हमेशा संबोधन में गुड मॉर्निंग या नमस्ते बोलते हैं। पर वे लोग राम राम बाबूजी या किसी और भगवान का नाम लेकर आपसे या हम से कुशल खैर पूछते हैं। बात सही भी है। आज के आधुनिक युग में हमें या आपको ऐसे संबोधन में शर्मिंदगी महसूस होती है। लेकिन इत्तेफाक से मेरी आदत है कि जब मुझसे कोई पूछता है कि आप कैस हैं या क्या चल रहा है तो मैं जवाब देता हूं, सब बजरंग बली की कृपा है। पहले तो कॉलेज में मुझे मेरे साथियों ने शक की निगाहों से देखा। वजह हमारे एक सर का नाम ही बजरंग बिहारी तिवारी था। यानी दूसरे शिक्षक भी आंख दिखाने लगे कि यह उसके ग्रुप का है। कॉलेज के बाहर आया तो लोग कहने लगे कि भई तुम संघी मानसिकता के हो... आरएसएसवादी हो....अब भला मैं उन्हें कैसे बताऊ कि मुझे भी अक्सर इसी बात का डर बना रहता है...अपने एक मित्र को मैंने फोन किया और बोला भई राम राम कैसे हो...जवाब मिला तुम संघी हो गए हो...मैंने कहा यह गंभीर समस्या आन पड़ी है, मेरे सामने...उसने मेरी स्थिति समझते हुए कहा दरअसल दिक्कत यही है। आज जमाना बदल रहा है। मान-सम्मान या सिविल सोसायटी में अपनी जगह बनानी है तो अल्ला का नाम लेना शुरू कर दो...उसने कहा तुम हजार बार अल्ला का नाम लो तुम्हें को ई कुछ नहीं कहेगा, पर एकबार राम कानाम लोग तुम्हे सब मजहबी कहने लगेंगे...आज जो अल्पसंख्यकों की बात करता है, वहीं धर्मनिरपेक्ष माना जाता है। पर मैंने कहा भई मैं तो राम और हनुमान का ही नाम लूंगा और वंचितों के हित की बात करूंगा, चाहे वह किसी मजहब का हो या जाति का...जवाब सुनकर मैं दंग रह गया...तब तो तुम गए, तुम्हारा कुछ नहीं होने वाला...तभी से मैं अपनी धर्मनिरपेक्षता को लेकर धर्मसंकट मे फंसा हूं....

सचिन चालीसा

आपने अभी तक हनुमान चालीसा से लेकर कई चालीसा पढ़ें होंगे...सचीन चालीसा भी...लेकिन यह मेरे मित्र नवीन ने लई चालीसी लीखी है, सचिन की अद्भुद दो सौ रनों का पारी के बाद...उनकी इच्छा थी और भी कि इसे मैं अपने ब्लॉग पर लगाऊं.......
जय सचिन क्रिकेट गुण सागर,
जय क्रिकेटईश पृथ्वी लोक उजागर खेलदूत अतुलित बल दामा,
रमेश पुत्र तेंदुलकर नामा सदाचारी सचिन सतरंगी ,
कीर्तिमान बनावे जीत के संगी कंचन वर्ण छोटे कद का,
सर पे हेलमेट ,घुंगराले केशा हाथ बल्ला और गेंद विराजे ,
सर पे चक्र सह तिरंगा साजे ब्रैडमैन सम भारती नंदन ,
तेज प्रताप महा जग वंदन बल्लेबाज गुनी अति चातुर ,
राष्ट्र काज करिबे को आतुर सचिन को खेल देखबे को रसिया ,
अपनों काम काज सब छडिया सुक्ष्म रूप धरि विकेट गिरावा ,
बिकट रूप धरि रन बनावा भीमरूप धरि शतक बनाए ,
भारत की हार बचाए विश्वकप में जब विपत्ति आई ,
पहुचा फ़ाइनल लाज बचाई तुम उपकार धोनी कीन्हा ,
नए आए तबहु कप्तानी दीन्हा तुम्हारो मंत्र धोनी माना,
विश्वविजेता भय सब जग जाना भारत की जीत के काजही ,
शोकाकुल लौट आये अचरज नाही दुर्गम मैच भारत के जेते,
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते क्रिकेट द्वार के तुम रखवाले,
होत ना कोई चिंता रे जीत मिले तुम्हारी शरना ,
तुम रक्षक हार को डर ना अपने रिकॉर्ड तोड़ो आपे ,
सब टीमें नाम से कापे गेंदबाज कोई सामने ना आवे ,
सचिन तेंदुलकर जब नाम सुनावे मास्टर ब्लास्टर सचिन जंगी,
हार मिटात जीत के संगी संकट ते सचिन छुडावे,
जब मन क्रम वचन से लग जावे ।
पाचो द्वीप परताप तुम्हारा
है प्रसिद्द जगत उजियारा...

पाक की बदलती तस्वीर

आज दुनिया में पाकिस्तान की छवि एक आतंकवाद के पनाहगाह से कम नहीं है। हममें भी अधिकतर को लगता है कि पाकिस्तान का मतलब आतंकवाद और पाकिस्तानी का आतंकवादी। जबकि ऐसा कतई नहीं है। हां, यह जरूर है कि औसतन पाकिस्तानी आवाम का रूझान मजहबी । मजहब को लेकर उनके दिल में बेइंतहा मोहब्बत है। लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि यही पाकिस्तानी कठमुल्लों के हाथों की कठपुतली नहीं बनना चाहते हैं। यानी वह यह नहीं चाहते कि कोई यह तय करे कि उनकी जिंदगी कैसे चलेगी। वह यह भी नहीं चाहते कि फतवों और रिमोट कंट्रोल के जरिए उन्हें नियंत्रित किया जाए। हाल में पाकिस्तानी टीवी चैनलों पर इस बात को लेकर बहस भी हुई। यह बदलते पाकिस्तान की तस्वीर है। इस टीवी शो की खासियत यह थी कि इस दौरान कई पाकिस्तानी लड़कियां भी मौजूद थीं, तो पाकिस्तानी युवक जींस में नजर आए। हां उनके चेहरे पर दाढ़ी भी थी। यह पाकिस्तानी समाज की नई पीढी है। जो अब अपनी जिंदगी में दूसरों का दखल नहीं चाहते हैं। यही तस्वीर आज से कुछ बरस देखने को नहीं मिलती थी।
सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि हाल में वहां एक सर्वे कराया गया, जिसमें पाकिस्तान की यंग आबादी से यह पूछा गया कि क्या आप पाकिस्तान को एक इस्लामिक मुल्क के तौर पर देखना चाहते हैं? इस सवाल के जवाब में लगभग चौसठ फीसदी लोगों ने इसका समर्थन किया। लेकिन सबसे ताज्जुब की बात यह थी कि इस पोल के दौरान मजहबी दलो को महज तीन फीसदी ही वोट मिले। यानी लोग यह नहीं चाहते कि सरकार में मजहबी कट्टरपंथियों की कोई जगह हो। आज अधिकांश पाकिस्तानी भविष्य को लेकर आशावादी हैं। लोग लोकतांत्रिक शासन चाहते हैं, बजाय सैनिक शासन के। लेकिन इसके बावजूद एक निराशा की भी स्थिति है। वह यह कि करीब 55 फीसदी आबादी यह मानती है कि यदि उन्हें मौका मिला तो वह पाकिस्तान में नहीं रहना चाहेंगे। एक तरह से देखा जाए तो इस स्थिति को पाकिस्तान में बदलने की जरूरत है। आवाम आशान्वित है, पर मुल्क में रहना उन्हें पसंद नहीं है। इसकी वजह सभी को मालूम है. सरकार को भी। कैसे इसे दुरूस्त किया जा सकता है, इसकी तरकीब भी पाक सरकार जानती है। बस एकबार वह कड़ाई से इस पर कदम उठाना शुरू कर दे।

अपनी आदत नहीं बदली मैंने

अपनी आदत अभी भी नहीं बदली है मैंने,
लोगों के सामने सर झुकाना नहीं छोड़ा है मैंने।
दिल की तमन्ना दिल में ही दफ़न हो गए,
सारे आरजू बारिश की बूंदों की तरह बिखर गए,
फिर भी किसी को सताना नहीं छोड़ा है मैंने
आज आज़ाद हुए हैं तो लोगों को गुलाम बनाना,
शुरू कर दिया है मैंने।
कहां थे मेरे रहगुजर, जब ख़ून के आंसू रो रहा था मैं,
कोशिश हर मर्तबा करता हूं,
इन बुराइयों से दूर रहने की,
लेकिन मेरे अंदर जो शैतान है, उसे अभी तक
नहीं भूला सका हूं मैं।
काश कोई आए, मुझे समझाए,
मेरी उम्मीद और सपने सभी टूट चुके हैं,
इन्हें संजोने की तरकीब बताए कोई।
क्योंकि अपनी आदत अभी भी नहीं बदली है मैंने,
ख़ुद को सताना नहीं छोड़ा हैं मैंने।

बाज़ारवाद से हारा आतंकवाद

बाज़ार आज हर क्षेत्र में हावी है. आज दुनिया की सबसे बड़ी समस्या आतंकवाद है. आतंकवाद को यदि कैंसर मान लें तो इसने आज पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया है. लेकिन इस आतंकवाद पर भी बाज़ारवाद हावी है. नज़ीर के तौर पर भारत और पाकिस्तान के बीच आपसी संबंध शुरू से ही कटु रहे हैं. अभी हाल में मुंबई पर आतंकी वारदात के बाद दोनो के संबंध और भी बिगड़ गए. कुछ ऐसे ही हालात करगिल के समय में था. लेकिन इन दोनों मुल्कों के बीच व्यापारिक संबंधों में पूरी तरह शिथिलता कभी नहीं देखी गई. यानी आपसी कड़वाहट के बावजूद बाज़ार इनके संबंधों पर हावी रहा. यह बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि भारत दुनिया के उन सौ मुल्कों में शुमार हैं जिसके साथ पाकिस्तान के व्यापारिक रिश्ते हैं और भारत पाकिस्तान का नौवां सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है. इसका सीधा मतलब यह है कि पाकिस्तान जितना व्यापार फ्रांस, इटली, थाइलैंड ईरान और मलेशिया के साथ नहीं करता, उससे कहीं अधिक भारत के साथ करता है. तमाम आतंकी वारदात और बिगड़े संबंधों के बावजूद. एक तरह से कहा जाए कि इंसानियत भले ही आतंकवाद से न जीत पाई हो, बाज़ारवाद ने आतंकवाद से अपनी जंग फतह कर ली है.
हम सऊदी अरब और कुवैत से तेल का आयात करते हैं और इन देशों को इस सूची से बाहर रखा जाए तो भारत पाकिस्तान के साथ व्यापारिक मामलों में सातवां सबसे बड़ा साझीदार बन जाता है. एक तरफ़ तो दोनों मुल्क एक दूसरे को फूटी आंख भी देखना नहीं चाहते, यदि ऐसा नहीं है तो भी कभी कभी ऐसे हालात हो ही जाते हैं. लेकिन दूसरी ओर दोनों पड़ोसी मुल्क आपसी व्यापारिक रिश्तों में हमेशा नहीं तो ज़्यादातर टाईम मधुरता बनाए ही रखते हैं. कुछ बरस पहले एक फिल्म आई थी. गदर. अनिल शर्मा की. वही सन्नी देओल वाला. इसी फिल्म के दृश्य में एक पाकिस्तानी अधिकारी कहता है, हम पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी भले ही एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हो, लेकिन हम पाकिस्तानी होकर भी हिंदुस्तानी पान खाना नहीं छोड़ते और हिंदुस्तानियों को भी हमारी चीनी की मिठास बहुत पसंद है.
दरअसल भारत और पाकिस्तान दोनों एक दूसरे के बेहद क़रीबी हैं. ऐतिहासिक और भौगोलिक तौर भी यह बात ज़ाहिर है. दोनों मुल्कों में सांस्कृति समानता काफी है. रहन-सहन और खान पान का तरीका भी काफी मेल खाता है. पाकिस्तानियों को अमिताभ बच्चन और शाहरूख ख़ान की फिल्में पसंद हैं तो हम भारतीयों को राहत फतेह अली खां का संगीत और जल, स्ट्रिंग्स जैसे पाकिस्तानी बैंड के गाने. यानी हर तरह से भारत और पाकिस्तान के संबंधों पर बाज़ार हावी है.
आख़िर में एक बात यही कही जा सकती है कि भारत और पाकिस्तान को अलग रखने की कितनी भी साज़िश की जाए, दोनों मुल्कों की जो बुनियाद है, उसे अलग कर पाना नामुमकिन है.

लोकतांत्रिक राजनीति की धुंधली तस्वीर

मुंबई और महाराष्ट्र के कुछ इलाक़ों में हिंसा नहीं तो कम से कम भय का माहौल ज़रूर है. इस दौरान प्रशासन का ढुलमुल और मुस्तैद दोनों रवैया देखने को मिला. पर दोनों हालात में वजह अलग-अलग थीं. पहला मसला मराठी वोट बैंक से जुड़ा था, तो दूसरा कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी से. जितना अहम पहला वाला था, उतना ही दूसरा वाला मसला. एक तरफ़ सरकार को यह भी दिखाना है कि वह मराठी अस्मिता के साथ है तो दूसरी ओर उसे राहुल की नाक भी रखनी थी. यही वजह है कि जो सरकार और प्रशासन पिटते बिहारियों और उत्तर भरातीयों की रक्षा नहीं कर पाई, वही शाहरूख़ की फ़िल्म के सिनेमाघरों के पास इस तरह मुस्तैद हो गई कि कोई परिंदा भी पर नहीं मार सका. पर सवाल तो अब उठता है. सही सवाल. सवाल सरकार की नियत का. क्या सरकार की नियत में कहीं खोट है? यदि नहीं तो क्या हर भारतीय या मुंबई के संदर्भ में कहें तो उत्तर भारतीय की सुरक्षा राहुल गांधी की तरह हो सकती है. नहीं, बिल्कुल नहीं. इसकी वजह यह है कि हम और आप या इस मुल्क की अधिकतर आबादी राहुल गांधी की तरह मुंह में चांदी की चम्मच लेकर पैदा नहीं हुए हैं. यही फ़र्क है जनता और नेता में. और, सरकार किस तरह इन मामलों में घालमेल करती है, यह बात भी किसी छिपी नहीं है. दरअसल क़ानून व्यवस्था राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी होती है. लेकिन राज्य सरकार अपनी ज़िम्मेदारियों को हमेशा ठेंगा दिखाती रहती है. अभी मामला ज़्यादा पुराना नहीं हुआ है, जब राज ठाकरे उत्तर भारतीयों के ख़िलाफ़ आग उगल रहे थे और इसके बावजूद मुंबई के पुलिस कमिश्नर ने राज ठाकरे को अपनी बेटी की शादी में आमंत्रित किया. जिसकी जगह जेल में होनी चाहिए थी. वह क़ानून की हिफाजत करने वाले के साथ बेफिक्र घूम रहा था.
शिवसेना और उससे अलग होकर बनी महाराष्ट्र नव निर्माण सेना शुरू से ग़ैर मराठी का विरोध कर अपना जनाधार हासिल करने की कोशिश करती रही है. और, वहां की सरकार भी इनके भड़काऊ भाषणों एवं उपद्रवों को नज़रअंदाज़ करती रही है. शरद पवार की पार्टी तो पहले चुप रहा करती थी, पर वह भी कांग्रेस द्वारा लगातार नीचा दिखाए जाने और महंगाई के मसले पर पवार साहब को घेरने के कारण सक्रिय हो गई है. ख़ुद पवार साहब घुटन महसूस कर रहे थे. इसलिए वह कुछ मज़ा कांग्रेस को चखाना चाहते थे. उनके पास प्रदेश का गृह विभाग है, पर दिलचस्प बात है कि वह अपने घर की हिफाजत के लिए भी बाला साहब ठाकरे की शरण में जाते हैं. बहाना बनाकर ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी की सुरक्षा का. यदि यही बात थी, तो उसके बाद भी बाला साहब ने इन खिलाड़ियों के ख़िलाफ़ टेप क्यों जारी की. ठाकरे साहब तो और भी आग उगलने लगे. यानी पवार साहब का यह दांव भी उल्टा पर गया. यानी जब तकदीर सही न हो तो शतरंज की सीधी चाल भी टेढ़ी नज़र आने लगती है. कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि यह भारतीय लोकतंत्र में एक नई किस्म की राजनीति की शुरुआत है और इसकी असली तस्वीर आने वाले वर्षों में और भी धुंधली होने वाली है.

किस्सा लोकतंत्र का

यह बेहद ही सुलझी हुई बात है. सभी को मालूम है. यही कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है. लेकिन क्या वास्तव में है? एक भारतीय नागरिक होने के नाते तो कोई भी कहेगा. हां, उसका नज़रिया अलग हो सकता है. कोई इसे तल्खी से कहेगा. किसी को इस बात पर एतराज़ भी हो सकती है. मुझे भी है. एक युवा होने के नाते मुझे भी लगता है कि हम लोकतंत्र का अक्सर मजाक बनते देखते हैं. कभी कभी हम भी उसका हिस्सा होते हैं. विरोध प्रदर्शन हर किसी का अधिकार है. ख़ासकर लोकतांत्रिक मुल्क में. चीन में आपको ऐसा नहीं मिलेगा. कई दूसरे देशों में भी आपको भारत जितनी आज़ादी नहीं मिल सकती है. कई दफ़े अनुभवी और लोकतंत्र के दीमकों से हमें ऐसी बातें सुनने को मिलती है. मैं मानता हूं कि हर सिस्टम की अपनी समस्याएं और सीमाएं होती हैं. इसलिए हमें इसकी बुराई नहीं करनी चाहिए. आलोचना तो कर ही सकते हैं. लेकिन इन सबके बावजूद देखें तो भारत पिछले कई सालों से हिंसा की चपेट में है. नब्बे के दशक में शुरू हुआ यह दौर आज भी बदस्तूर जारी है. एक नहीं कई समस्याएं नज़र आती हैं. ऐसी में कोई कह बैठता है कि नकारात्मक विचार दिल में मत पालो. कई अच्छी चीज़ें भी भारत में हैं. वाकई हैं. लेकिन वह बुराई के तले दबी कुचली रहती है. इतनी अंधेरी गलियां हैं अच्छाई और सच्चाई की कि कोई जाने की हिमाकत ही नहीं कर पाता है. अब तो गौतम बुद्ध भी नहीं हैं, जो ज्ञान की तलाश में राजसी ठाठ बाट को त्याग दें. यहां तो सारा खेल ही कुर्सी का है. हमारे कई नेता तो इसी फिराक में रहते हैं. कैसे भी उन्हें सत्ता की कुर्सी मिल जाए. इसके लिए वह साम-दाम-दंड-भेद सभी कुछ अपनाने के लिए तैयार घूमते रहते हैं. कोई नेता गाय का चारा खा जाता है, तो कई यूरिया खाद ही हजम क जाते हैं. शायद फसलों से ज्यादा इनके पेट में ही अधिक कीड़े हैं. कीड़ा भ्रष्टाचार और घपला का. कई नेता कुएं के मेढ़क की तरह होते हैं. अपने घर से नहीं निकलते और पूरी दुनिया को अपनी अंगुली पर घुमाने की बात करते हैं. जब उनकी राजनीति की दुकान नहीं चलती है तो फिल्मों के ज़रिए राजनीति चमकाने लगते हैं. कुल मिलाकर यही बात कही जा सकती है. भारत एक लोकतांत्रिक देश है.जिसमें विभिन्न जाति, मजहब, भाषा और रंग के लोग रहते हैं. इनमें हरकोई अपनी अभिव्यक्ति का अपना अलग तरीक़ा निकालता है.

महिलाएं महज़ उपभोग के लिए नहीं हैं

नसीम हमीद पाकिस्तानी एथलीट हैं. उन्होंने दक्षिण एशियाई खेलों में 100 मीटर दौड़ का गोल्ड मेडल जीता. बांगलादेश में हुए इन खेलों की समाप्ति के बाद जब नसीम पाकिस्तान वापस लौंटी तो उनका जोरदार तरीके से स्वागत हुआ। इन खेलो के 26 साल के इतिहास में नसीम पहली पाकिस्तानी महिला हैं, जिन्होंने 100 मीटर के दौड़ में गोल्ड मेडल जीतकर पाकिस्तान का नाम रोशन किया है. इस महिला खिलाड़ी ने आतंकवाद की चोट से घायल मुल्क के लोगों के लिए खुशी का जो अवसर दिया है, उसकी तुलना नहीं हो सकती है. कहतेहैं पाकिस्तान एक मुस्लिम मुल्क है. वाकई वह है. लेकिन इस्लामिक मुल्क होने का यह मतलब कतई नहीं होता कि वहां महिलाओं को घर से बाहर न निकलने दिया जाए. उन्हें तालीम हासिल न करने दी जाए. यह सोच कट्टरपंथी मानसिकता वाले लोगों की ही हो सकती है. चाहे वह किसी भी मजहब के हों. यदि मुसलमान भी यही सोचते कि महिलाओं को घर से बाहर निकलना इस्लाम के ख़िलाफ़ है तो वही लोग नसीम के स्वागत की अगुवाई नहीं करते. यह बात पाकिस्तान की है. जहां तालीबान जैसे चरमपंथी हावी हो रहे हैं. पाक की छवि इसी चरमपंथी टाइप की बना दी गई है. लेकिन वहां के लोगों की सोच तो कुछ और ही है. तरक्की करना भला कौन नहीं चाहता? हर मुल्क, हर शख्स अपनी सफलता पर शान करता है. यदि कोई अपने देश का नाम रोशन करता है तो उसकी ख़ातिरदारी भी बेहद ही जश्न वाले अंदाज़ में होता है. आए दिन पाकिस्तान में धमाकों की ख़बरें सुनने को मिलती रहती हैं. तालीबान का तांडव हर रोज़ खुलेआम देखने को मिलता है. महिलाओं पर तो ख़ास तौर से पाबंदी में रहना पड़ता है. मुस्लिम मुल्कों में महिलाओं पर पाबंदी की बात होना कोई बड़ी बात नहीं है. पहले महिलाओं से उनकी आज़ादी छीनी जाती है. उसके बाद धीरे धीरे कर उनके अधिकारों पर नकेल कसी जाती है. एक दौर ऐसा आता है जब महिलाएं ग़ुलामी ज़िंदगी जीने को मजबूर होती हैं. हम भले ही यह कहते रहें कि चीन भारत से अधिक विकसित मुल्क है, लेकिन वहां क्या भारत जैसी आज़ादी है. अधिकारों की आज़ादी. हममें कई ख़ामियां हैं. बेशक हैं, लकिन इन सबके बावजूद खूबियां भी हैं. यहां लोगों को खुली हवा में सांस लेने की आज़ादी है. भले ही इस आज़ादी का फायदा कुछ लगो उठाते हैं. इसका दुरूपयोग करते हैं. लेकिन यह किसी अमानत कम नहीं है. यानी कोई आम आदमी अपनी आज़ादी और सफलता पर हमेशा गुमान करता है. आज मजहब को लेकर मुल्क बंटे हुए हैं. मजहब के मुताबिक ज़िंदगियां तय हो रही हैं और जी जा रही हैं. कुछ धर्म के ठेकेदार धर्म की बातों के मुताबिक ज़्यादा ही सख्ती बरत रहे हैं. उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान को ही ले लें तो वहां महिलाओं पर काफी पाबंदी हैं. वहां कई इलाकों में तालीबान की हुकूमत चलती है. उन्हीं के मुताबिक कायदे कानून बनाए जाते हैं. इन कायदे कानूनों की पहली गाज महिलाओं पर ही गिरती है. आखिर पुरुषों को घर में रहने की पाबंदी क्यों नहीं है? महिलाओं को ही शिक्षा से महरूम क्यों रखा जाता है? लेकिन हम आपको बता दें कि यह कोई नहीं चाहता कि कोई उसकी ज़िंदगी जीने के तरीके को तय करे. भले मजहब का मतलब होता है जिंदगी जीने का तरीक़ा, लेकिन इसी से ज़िंदगी रिमोट कंट्रोल होने लगे तो कष्ट होता है.

तुमसे वादा था मेरा

काफी लंबा अरसा बीत गया। इस दौरान कई ख्याल मेरे जेहन में आए। तुम्हारी याद भी आई। मैंने कुछ वायदे किये थे तुमसे। वह वायदा क्या था। तुम्हें नहीं पता। मुमकिन है तुम्हें उसकी मालूमात हो भी न पाए। इस दौरान मैं अपनी ज़िंदगी जीता रहा। वह भी तुम्हारी दी हुई। तुम्हारी ही अमानत है। ज़िंदगी की लहरों के थपेरों को सहते, आख़िर खुद को तुम्हारे बग़ैर संभाल ही लिया। सबकी नज़रों में लायक़ भी बना। पर अपनी नज़रों में मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। एक ऐसा सितारा बना रहा जो हर पल अपनी ज़िंदगी की चमक खोता जा रहा है। अभी भी थोड़ी रोशनी है मेरे अंदर। जलूंगा एकबार अचानक तेज़ लौ के साथ। पर तुम्हारा इंतज़ार है। कई दफ़ा बहुत दुख होता है। परेशानी भी। हताशा भी। निराशा भी। सबकुछ सहने को मैं तैयार हूं। पर कहीं न कहीं एक बात है जो अक्सर चुभती रहती है। उसका दंश तड़पने को मजबूर करता है। कुछ लोग कहते हैं फालतू की हैं ये बातें। वह बेजा ऐसा नहीं कहते। उसकी भी वजह होती है। उनका अपना आकलन होता है। नज़रिया होता है। पर मैं क्या सोचता हूं यह मै किसी को नहीं बता पाया। शायद बता भी न पाऊं। अपने क़रीबियों को भी। मैं किसी के जितना क़रीब होता हूं ख़ुद को उससे उतना ही दूर पाता हूं। शायद यही मेरी नियति है।

पाकिस्तान में लड़कियों की हालत

यह ख़बर पाकिस्तान की है. वहां से जुड़े हालात पर है. गनीमत है कि मैं अभी बम्बई, माफ़ी चाहूंगा मुंबई में नहीं हूं. मुम्बई नहीं लिखा तो मराठियों के ठेकेदार आकर मुझे मारने लगेंगे। मीडिया में मैं भी ख़बर बन जाऊंगा। ख़ैर, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकियों की बहुत मौत हो रही है। यह ख़बर दुनिया की मीडिया में है. लेकिन इन अमेरिकियों से ज़्यादा मौते हुई हैं, वहां कि लड़कियों की और न जाने कितनी गंभीर तौर पर घायल हैं. लेकिन यह ख़बर कहीं नहीं है. यह एक दूसरा चेहरा है मीडिया का. पूरी दुनिया भर की मीडिया का. हम सभी आज पाकिस्तान या अफ़ग़ानिस्तान को ख़बरों में पाते हैं तो बस आतंकवादी हमलों और धमाकों से. इसके अलावा कोई भी सकारात्मक ख़बर मीडिया में जगह नहीं बना पाती है। संवेदनाशील ख़बरों के लिए जगह की बात करना बेमानी ही है। ज़रा याद कीजिए स्वात की उस ख़बर को जब वहां एक पत्रकार को बड़ी बेरहमी मारा गया था। बेहद ही बुरे हालात थे। लड़कियों के स्कूल को निशाना बनाया जा रहा था. उन्हें तहस नहस किया गया. उस घटना के बाद जीयो न्यूज़ के पत्रकार ने वहां एक शो आयोजित किया. एक छोटी से बच्ची से चंद बातें की. उसकी तमन्ना पूछी कि वह अपना क्या मुस्तकबिल देखती है. तब उस लड़की ने जवाब दिया कि मैं पढ़ना चाहती हूं. चाहती हूं कि पाकिस्तान की सभी लड़कियां तालीम हासिल करे. उसके बाद उस लड़की युसरा, शायद यही नाम था कहीं भी ख़बरों में नहीं है. मुझे नहीं पता वह है भी या नहीं. या उस घटना के बाद कहां गई. लेकिन उस लड़की ने जो बात कही थी वह हमने भूला दिया. पूरी दुनिया की मीडिया ने याद रखा तो अमेरिकी फौज की ख़बरें. शायद यही उसके हित की बात थी. आज इस पूरे इलाक़े में सबसे ज़्यादा कोई दहशत में है तो ये बच्चियां. इन्हें घर से निकलने नहीं दिया जाता। आतंक की इस जंग में लड़कियों की जो हालत रही, कितनों की मौत हुई, कितनी तालीबानी हमले में मारी गईं। कितनी सेना की जवाबी कार्रवाई में और कितनी अमेरिका के आतंक के ख़िलाफ़ जंग की मुहिम में किसी को सही आंकड़ा और हालत का अंदाज़ा तक नहीं है। ऐसे में बाक़ियों की हालत क्या होगी....यह बताकर हम ख़ौफ़ पैदा करने में ज़रा भी नहीं हिचकेगें। शायद यही हमारी फितरत हो गई है.

चंद चरमपंथी धर्म के ठेकेदार नहीं हो सकते

ईसाइयों द्वारा अल्लाह शब्द का इस्तेमाल से भय स़िर्फ उन्हीं लोगों को हो सकता है, जो यह समझते हैं कि मजहब का पालन केवल भाषाई तौर पर ही होता है. आज मलेशिया में मलय और मुसलमान एक दूसरे की पहचान बन चुके हैं. ऐसे में इस तरह के भय को सही कैसे ठहराया जा सकता है?
कुछ साल पहले की बात है. एक मलय मुसलमान ने इस्लाम धर्म से दूसरा धर्म अपना लिया. इस पर का़फी शोर शराबा हुआ. यहां तक कि शरिया अदालत ने उसे सज़ा भी दी थी. उसे फिर से इस्लाम धर्म को क़बूलना पड़ा. ऐसे में भला इस बात को न्यायोचित कैसे ठहराया जा सकता है कि पूरा जनसमुदाय धर्म परिवर्तन कर ईसाई बन जाएगा. और, आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में कोई किसी को क़ानून का भय दिखाकर अपना मज़हब बदलने से नहीं रोक सकता है. यदि कोई धर्म परिवर्तन करता है तो यह मसला अल्लाह और उसके बीच का है. इन मामलों में कोई इंसान स़िर्फ ख़ुदा के प्रति ही जवाबदेह होता है.
फिर भी, यदि सही मायनों में देखें तो यह सारा मसला मज़हबी नहीं, बल्कि राजनीतिक है. बहुसंख्यक समुदाय यह महसूस करता है कि वह अल्पसंख्यक बन जाएंगे. इसीलिए वह इसकी मुख़ाल़फत कर रहे हैं. भारत में हिंदुवादी ताक़तें भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों में क़ानून बना रहे हैं. ताकि वह हिंदुओं को ईसाई या मुसलमान बनने से रोक सकें. लेकिन, यदि कोई मुसलमान या ईसाई हिंदु धर्म क़बूलता है तो वह इसका स्वागत करते हैं. इस तरह यह मसला राजनीतिक स्वार्थ से जुड़ा है, न कि धर्म परिवर्तन से. धर्म परिवर्तन का मुद्दा बेहद ही निजी है. यदि ऐसा नहीं होता है तो हमारा लोकतांत्रिक अधिकार ख़तरे में पड़ जाएगा.
कट्टरपंथियों ने अल्पसंख्यकों में डर का माहौल पैदा करने के लिए यह सारा मुद्दा खड़ा किया है. मलेशिया में भी इन्हीं वजहों से विवादों को तूल दिया गया है. और, जब भारत में भाजपा ने ऐसा ही विवादास्पद मुद्दा रामजन्मभूमि के बारे में उठाया तो नरसिंहा राव की अगुवाई वाली कांग्रेस पार्टी ने बाबरी मस्जिद को गिरने दिया. मलेशियाई सरकार भी सहमी हुई है और इसी चलते वह उच्च न्यायालय के फैसले को लागू नहीं कर रही है.
किसी भी बहु धार्मिक और बहु सांस्कृतिक लोकतंत्र को आदर्श माहौल में काम करना मुश्किल होता है. यहां तक कि पश्चिम के विकसित मुल्कों में भी धर्म को लेकर तनाव पैदा होते रहते हैं. फ्रांस में अफ्रीकी मुसलमान और गोरे फ्रेंच के बीच अक्सर तनाव होता रहता है. यह मसला धार्मिक नहीं, बल्कि उससे अधिक आर्थिक और राजनीतिक है. ऐसी विवादों के पीछे दक्षिणपंथी ताक़तें भी होती हैं. हाल में, फ्रेंच सरकार ने बुरक़ा पर प्रतिबंध लगाया है. यदि किसी को बुरक़े में देखा गया तो उसे पर 750 यूरो दंड देना होगा. ग़ौरतलब है कि फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी भी वैचारिक तौर पर दक्षिणपंथी हैं. किसी को क्या पहनना चाहिए और क्या नहीं, यदि एक विकसित लोकतंत्र इस बात का फैसला करता है तो यह हास्यास्पद नहीं तो और क्या है. फ्रेंच सरकार ने बुरक़ा को ग़ुलामी का प्रतीक माना है और यदि ऐसा है भी तो सरकार को इससे कोई मतलब नहीं होना चाहिए कि कोई क्या पहनता है. कोई मज़हब न तो चंद चरमपंथियों की वजह से ख़तरे में पड़ सकता है और न धर्मनिरपेक्षता ही फ्रांस में महिलाओं के बुरक़ा पहनने से कभी ख़तरे में पड़ेगी।

साभार...न्यू एज़ इस्लाम

अल्लाह पर किसका हक़ है?

मलेशिया में इन दिनों एक नया विवाद सुर्ख़ियों में है. विवाद अल्लाह से जुड़ा है. वहां मलय जाति समूह के लोग कैथोलिक ईसाइयों द्वारा अल्लाह शब्द के इस्तेमाल को लेकर विरोध कर रहे हैं. इन लोगों को लगता है कि अल्लाह शब्द का इस्तेमाल सिर्फ़ वही कर सकते हैं, न कि कैथोलिक ईसाई. अधिकारों के इस लड़ाई की सुनवाई कोर्ट में भी हुई. और कोर्ट ने भी ईसाइयों को अल्लाह शब्द के इस्तेमाल की इजाज़त दे दी थी. हालांकि सरकार ने कोर्ट के फ़ैसले को ख़ारिज़ कर दिया. सरकार ने सर्वोच्च कोर्ट के फ़ैसले को चुनौती देने के इरादे से ऐसा नहीं किया है. बल्कि सारा विवाद भावनात्मक तौर पर इस क़दर उलझ चुका है कि इसे राजनीतिक तौर पर सुलझाना मुश्किल हो रहा है.
सारा विवाद उस व़क्त सामने आया जब एक चर्च ने गॉड (ईश्वर) शब्द का अनुवाद अल्लाह शब्द के तौर पर किया. इस विवाद की वजह से हिंसा भी हुई. कुछ दिन पहले तीन चर्चों पर हमला किया गया. साठ के दशक मलयों और चीनियों के बीच हुई हिंसक घटनाओं को छोड़ दें, तो कुल मिलाकर वहां हमेशा शांति बनी रही है.
लेकिन, एकबार फिर मलय-ईसाई एवं मलय-हिंदुओं के बीच संबंध बिगड़ने लगे हैं. इसी से तनाव पैदा हुआ है. जब ईसाइयों ने अल्लाह शब्द का इस्तेमाल किया तो मलयों ने इसकी मुख़ालफ़त की. उनके मुताबिक़ इससे भ्रम’ की स्थिति पैदा होगी. वहीं ईसाई मिशनरी के मुताबिक वे अल्लाह शब्द का इस्तेमाल कर सकते हैं. यह उनका अपना तर्क हो सकता है. पर दिक्कत यह है कि कुछ राजनेता इन विवादों को अपने फ़ायदे के हिसाब से भुनाना चाहते हैं.
दरअसल, जो लोग ईसाइयों द्वारा अल्लाह शब्द के इस्तेमाल का विरोध कर रहे हैं, उनके पास विरोध की वाजिब वजह नही है. अल्लाह एक हैं और उसने हम सभी को बनाया है. इसलिए इसके इस्तेमाल पर किसी एक मजहब का हक़ नहीं हो सकता है. यदि ग़ैर मुसलमान भी गॉड या ईश्वर के लिए अल्लाह शब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो मुसलमानों को इसका स्वागत करना चाहिए. उन्हें यह समझना चाहिए कि इसके ज़रिए लोग इस्लाम को समझने की कोशिश कर रहे हैं, न कि इस्लाम पर अपना कब्जा कर रहे हैं. इसलिए होना तो यह चाहिए कि मलयों को उदारवादी बन कर इस्लाम के उदार चेहरे से लोगों को वाक़िफ करांए. आज जबकि हर तरफ आतंकवाद की बात हो रही है और लोग आतंकवाद का मतलब इस्लामिक आतंकवाद से ही लगा रहे हैं, जो कि कतई सही नहीं है. ऐसे में इस तरह के नज़ीर से सकारात्मक संदेश लोगों तक पहुंच सकेगा.

साभार...न्यू एज़ इस्लाम