आज फिर से लेखनी चलाने का मन कर रहा है. वो भी हथियार की तरह की कुछ असर हो. सोचा था अब नहीं लिखूंगा. वजह जब कुछ कहने से आपकी बात का कोई असर ही न हो, किसी को कोई फर्क ही न पड़े तो कागज़ काला करने से फायदा क्या? लेकिन महिला दिवस के अवसर पर जो हुआ और उस खास दिन के अलावा भी जो वारदात महिलाओं के साथ आये दिन हो रहा है, उससे रहा नहीं गया. अब भी जनता हूँ कुछ खास असर नहीं पड़ेगा. पुरुषवादी समाज में महिलाओं को दोयम दर्जे का समझा जाना अब भी जारी है. भले ही महिलएं घर की देहरी से बहार आ चुकी हों या पुरुषों को हर क्षेत्र में चुनौती दे रही हों फिर भी उनको बराबरी का दर्ज़ा देने को हम पुरुष दिल से रजामंद नहीं हैं. आरक्षण के मसले पर उनको ३३ फीसदी भी नहीं देना चाहते. कहते हैं, इससे हमारा हक मारा जायेगा. पता नहीं ये कैसा हक है जो मारा जायेगा. सदियों से हम उनका हक मार रहे हैं और बातें करते हैं अपने हक की. अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर राजधानी दिल्ली में एक लड़की को सरेआम गोली मरना क्या यह हमारा हक है? मैंने आज तक कभी नहीं सुना, इस तरह के मामले में एक लड़की ने लड़के को गोली मारी हो. लेकिन पुरुषों द्वारा इस तरह या इससे भी बदतर अपराध को अंजाम देना बदस्तूर जारी है., अगर मान भी ले, अपवाद के तौर पर एक दो मामला महिलाओं के भी अपराध के सामने आते हैं तो क्या हम इसे जस्टिफाई करेंगे या फिर अपनी ज़िम्मेदारी समझेंगे, आखिर ऐसा क्यों हो रहा है. फिलहाल तो मामला बेहद संगीन है. सबसे ज्यादा संकीर्ण सोच तो पढ़े लिखे और उच्च वर्ग के लोग ही रखते हैं. इनकी नज़रों में महिलाएं महज उपभोग की वास्तु के अलावा कुछ नहीं. यदि एक मिसाल दूं तो...मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से law कर रहा हूँ...महिला दिवस के अवसर पर ही मेरे साथियों से बात हुयी...इन सभी का मानना था की महिलाओं को जितना आरक्षण मिल रहा है वे उतना ही पुरुषों के सर पर चढ़ रही हैं. एक तो मेट्रो की सबसे आगे वाली बोगी में आरक्षण और उसके बाद भी वे आम बोगी में चढ़ जाती हैं. इस बात से मेरे कुछ मित्रों को काफी तकलीफ हुयी. भला उन्हें इतना फायदा क्यों. हालाँकि, सभी का ऐसा नहिन्मानन था पर मेरी समस्या ये है की ऐसा ख्याल रखने वाले जो मेरे सहपाठी थे वो बचपन से ही हाई-फाई माहौल में पले-बढे तो मैंने सोचा सोच भी इनकी ढंग की होगी. पर, अपवाद से मैं इनकार नहीं कर रहा है. पर, अपवाद अपवाद ही होता है. यहाँ हम बात पूरी महिला जाति की बात कर रहे हैं, नहीं तो महिलाओं में भी दलित या निचले तबके के महिलाओं की हालत तो और भी दयनीय है.