शाम हो आयी है. सड़क पर लोगों की चहलकदमी पहले की ही तरह है. रात भर यहां
ऐसे ही रहता है. लोग-आते जाते रहते हैं, किसी को फर्क़ नहीं पड़ता है.
हज़ारों लोगों की भीड़ में वह भी एक था, बिल्कुल मेरी तरह. पर, कभी लगता
था, किसी चीज की तलाश में है. लेकिन किस चीज की यह शायद किसी को पता नहीं
था? दोस्तों ने कभी समझने की कोशिश ही नहीं. क्योंकि हर किसी की अपनी एक
कहानी थी. सभी अपनी-अपनी कहानियों में एक गुमनाम जीवन जी रहे थे. बात यह थी
कि मैं किसी कहानी में खोना नहीं चाहता था. अकसर उसे भी लगता कि मैंने उसे
ग़लत समझ लिया. जैसा मैं सोचता हूं वह वैसी बिल्कुल नहीं है. गुस्सा तो
मुझे भी कभी-कभी आता था, अगर मैं उससे इतनी बातें कर रहा हूं तो क्यों?
क्या वह इतना भी नहीं समझ सकती थी. शायद वह भी अपनी छवि और कहानी को लेकर
सतर्क थी. मुझे इससे कभी एतराज़ नहीं रहा और न है. लेकिन, एक सवाल तो हमेशा
से रहा है और है भी? शायद वह सवाल उसके जवाब में छिपा है, जो अभी तक मुझे
नहीं मिला. शायद उसे भी किसी बात का इंतज़ार हो. अब इतनी बात कर लेने के
बाद भी उसे मुझे अनजान नहीं मानना चाहिए. लगता है परखना चाहती हो. लेकिन
किसे, क्या वाकई मुझे? उसे जो एक पहलेनुमा घेरा अपने चारों ओर लेकर चलता
है. एक ऐसा घेरा जिसे वह ख़ुद आजतक नहीं तोड़ पाया. ऐसा नहीं कि मैं इससे
बाहर नहीं आना चाहता है. दादी अकसर कहती थी, वह फलाने नगर (वक्त के साथ
दादी के किस्सों का शहर कहीं खो-सा गया है, इसलिए नाम याद नहीं) का
राजकुमार जब भी उदास होता तो एक चिड़िया आती और उससे बातें करने लगती थी.
उसकी आवाज़ किसी राजकुमारी की तरह थी. एक दिन राजकुमार ने फ़ैसला किया इस
रहस्य का वह पता लगायेगा. फिर एक दिन पता चला कि उसके ही महल में एक
नौकरानी थी, जिसने एक राजकुमारी को काले जादू से चिड़िया बनाया था. यह बात
पता चलते ही राजकुमार ने नौकरानी को मौत की सजा दी लेकिन एक शर्त रखी कि
अगर वह राजकुमारी को उसका सही रूप लौटा दे तो उसे छोड़ दिया जायेगा. ऐसा ही
हुआ. जब राजकुमारी अपने असली रूप में आयी तो राजकुमार ने पूछा मेरे उदास
रहने पर तुम अकसर मेरे पास क्यों आ जाया करती थी? यही सवाल मेरे साथ है. जो
अभी तक उसकी समझ में नहीं आया और शायद जो अभी तक गुस्सा नहीं थी, सच में
गुस्सा हो गई वह. नहीं भी हुई हो, लेकिन मुझे कैसे पता? शायद अभी यह बताने
का वक्त का नहीं था. नहीं, तो वह बता चुकी होती. लेकिन मैं जो ठहरा अधीर,
मां भी कहती थी तुम्हें सारी मिठाइयां एक-साथ चाहिए. एक-एक करके खाओ फिर और
दूंगी. लेकिन नहीं, मुझे तो एक-साथ पांच-छह चाहिए थी. अभी मुझे पांच-छह तो
नहीं बस एक ही चाहिए, लेकिन वह धीरज या धैर्य कहां से लाऊं, ताकि मैं
इंतज़ार कर सकूं. और अकसर यही होता है अंत में मैं फ्रस्ट्रेट होकर परेशान
हो जाता हूं. कुछ दिनों तक डिस्टर्ब रहता हूं और धीरे-धीरे वह भी कहानी बन
जाती है. क्या इस बार भी यही होगा?
तो मीडिया है पाक साफ !
इसीलिए जब पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट से रियाटर होने के बाद मार्कंडेय काटजू ने मीडिया को सवालों के घेरे में लेना शुरू किया है तो लोगों को जलने लगी है। लेकिन, कुछ अतिशयोक्ति वाले उनके बयान को छोड़ दिया जाये तो काटजू साहब के बयान से सहमत होने में कोई अपराध नहीं है। कुल मिलाकर बात सिर्फ इतनी है कि चाहे इलेक्ट्रॉनिक हो या प्रिंट (टीवी या अख़बार) ''पेड न्यूज़'' दोनों जगह है. कुछ पत्रकार दलालों के वर्ग के हैं, तो कुछ मजबूर. मजबूर वाले वर्ग को तेज़ धार वाली अपनी ख़बर की धार कुंद करनी पड़ती है, क्योंकि बॉस ने बोला है। हालांकि आज के कारोबारी दुनिया में पेड न्यूज़ का चलन खत्म हो जाए, यह मुमकिन नहीं। क्योंकि जो मीडिया घराने हैं, उनके कई बिजनेस हैं। अगर सरकार का आप साथ नहीं देंगे तो सरकार तो सरकार है, हर कदम पर आपके लिए तलवार लटका देगी। इस तलवार की मार असली वाले से कई गुना होता है, आख़िर अर्थतंत्र ही तो सारे तंत्रों को नियंत्रित करने का काम करती है।
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