तो मीडिया है पाक साफ !

यार, सचिन पायलट की फोटो 2 कॉलम लगा लेना। ठीक सर। लेकिन उससे अच्छी तो पीएम की फोटो है, उसी की लगा लूंगा. ठीक है, लेकिन जल्दी करो. सर भेज दिया पेज. दिखाओ ज़रा। ये क्या किया तुमने सचिन पायलट की फोटो नहीं लगायी. यार, तुम समझते नहीं हो, जान लोगी मेरी। जल्दी करो, पेज रुकवाओ। अरे, सर काफी देर हो चुकी है। तुम समझते नहीं तो पूछ लिया करो पहले। लेकिन, सर उसकी कोई ख़बर भी तो नहीं है, बस एक मामूली समारोह में बैठा है। अरे बात...उफ्फ!!! तुम कर लोगे, यहां क्लास होगी मेरी। मेरा साथी किसी तरह सचिन पायलट की फोटो लगाता है। पेड न्यूज़ का पहला अनुभव था मेरे साथ. सीधे शब्दों में कहें तो एक अख़बार की पॉलिसी या दलाली। एक अलग किस्सा...अरे सर आज तो जेसिका लाल मामले में कुछ फ़ैसला आने वाला है। ज़रा धीरे बोलो...क्यों सर, नहीं तो टांग दिये जाओगे। अभी इंटर्न ही हो न। अगर आगे भी काम करते रहना है तो तरीक़ा सीख लो। लेकिन सर बतलाइए तो, क्या बात है? अरे सुनो ज़रा इसे बतलाओ ज़रा। अच्छा तो ये बात है। लेकिन सर ये तो ग़लत है न। हमारा काम तो ख़बर दिखलाना है और ये तो एथिक्स के उलट है। बाबू ये एथिक्स केया होता है? सुनो कहां से पढ़कर आए हो? सर, जामिया मिल्लिया इसलामिया से। कौन पढ़ाता था? कई लोग आते थे। कभी एनडीटीवी से (उस वक्त एनडीटीवी एथिक्स के मामले में अव्वल था, बाद में पतन की कहानी बकायदा उदाहरण सहित, फिर कभी) तो न्यूज़ 24 से, तो किसी और चैनल से फैकल्टी आते थे, हमारे इस चैनल से कई लोग जाते थे हमें पढ़ाने। तभी बड़े लोगों के झांसे में बहुत जल्दी आ जाते हो तुम लोग। ख़ैर इसमें तुम बच्चों का कोई दोष नहीं। तालीम ही ग़लत जब मिलती हो तो और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है? चलो तो अब समझ गये माजरा।
इसीलिए जब पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट से रियाटर होने के बाद मार्कंडेय काटजू ने मीडिया को सवालों के घेरे में लेना शुरू किया है तो लोगों को जलने लगी है। लेकिन, कुछ अतिशयोक्ति वाले उनके बयान को छोड़ दिया जाये तो काटजू साहब के बयान से सहमत होने में कोई अपराध नहीं है।  कुल मिलाकर बात सिर्फ इतनी है कि चाहे इलेक्ट्रॉनिक हो या प्रिंट (टीवी या अख़बार) ''पेड न्यूज़'' दोनों जगह है. कुछ पत्रकार दलालों के वर्ग के हैं, तो कुछ मजबूर. मजबूर वाले वर्ग को तेज़ धार वाली अपनी ख़बर की धार कुंद करनी पड़ती है, क्योंकि बॉस ने बोला है। हालांकि आज के कारोबारी दुनिया में पेड न्यूज़ का चलन खत्म हो जाए, यह मुमकिन नहीं। क्योंकि जो मीडिया घराने हैं, उनके कई बिजनेस हैं। अगर सरकार का आप साथ नहीं देंगे तो सरकार तो सरकार है, हर कदम पर आपके लिए तलवार लटका देगी। इस तलवार की मार असली वाले से कई गुना होता है, आख़िर अर्थतंत्र ही तो सारे तंत्रों को नियंत्रित करने का काम करती है। 

2 comments:

  1. कुछ प्रश्न तो उठने ही चाहिये, तन्त्र स्वस्थ बना रहेगा..

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