अपनी योग्यता बढ़ाने के लिए मैंने इसबार लॉ में दाखिला लिया है। दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस फैकल्टी ऑफ लॉ। अगर सब टीवी पर दिखाए जाने वाले शरद जोशी कहानियों का पता- लापतागंज वाले स्टाइल में कहूं तो बिजी इन डूइंग लॉ लाइक बिजी पांडे। तीन साल का कोर्स है। ज्यादा नहीं है, बस तीन ही तो है। हां, जब हमारे देश की सरकारों को आम आदमी का विकास करने में पांच साल भी कम लगते हैं, तो मुझे तो ये तीन साल और भी कम लगने चाहिए। हां, भई देखते नहीं हैं, जब-जब चुनाव का मौसम आता है, सरकारें लोक कल्याणकारी योजनाओं की बौछार कर देती हैं। उनका दावा होता है कि जो भी राज्य में इस दौरान काम हुआ वह उनकी ही देन है। हालांकि कुछ नहीं हुआ होता है। पर गिनाने को तो वह आजाद हैं। चूंकि हुआ नहीं होता है तो उनको लगता है वक्त कम पड़ गया। जनता के बीच जाते हैं और कहते हैं इस बार उन सभी कामों को करना है। यानी पांच साल कम है, इसलिए जनता उन्हें फिर पांच साल दे। जनता देती भी है। फिर भी कुछ नहीं होता, वह एकबार फिर अधूरे कामों का रोना लेकर जनता की अदालत में पांच साल के भीख मांगने हाजिर हो जाते हं। यानी निष्कर्ष यही निकला कि नेताओं के पास वक्त की कमी होती है। हालांकि, मुझे लॉ कितने साल में पूरा करना है इस पर मैं बाद में विचार करूंगा। पर, मुझे इसके लिए किसी के पास जाने और न ही कुछ कहने की जरूरत है। मेरा कुछ न करना ही मेरे लॉ के तीन साल के कोर्स की अवधि को बढ़ाने के लिए काफी है। खैर, इसकों भी छोड़ते हैं। दरअसल, मैं लॉ कैंपस से इन दो चार दिनों की कुछ सुनहरी बातें आपसे साझा करना चाहता था। पर, उसे अगली बार आपके साथ साझा करूंगा। अभी थोड़ा डोज ज्यादा हो गया। लिखने की शुरुआत उन्हीं बातों से की थी। पर, अचानक से विचारों की तन्मयता टूटी। विचार दूसरी जगह गोते लगाने लगे। इस तरह जाना था जापान और पहुंच गए चीन की तरह मेरा यह लेख बन गया। एक बात और कहते चलूं, ताकि अगली बार वही बात कहूं जो आप से इस बार कहना चाहता था। बात यह है इस बार जब घर गया तो कुछ अच्छे पढ़े-लिखे और ऊंचे ओहदेदार लोगों के घर शादी में जाना हुआ। वहां लड़के के भाव की चर्चा ज्यादा थी यानी दहेज की। हाल में मेरे चचेरे भाई की नौकरी एयरफोर्स में हुई है। इससे उसका रेट भी बढ़ गया है। पहले लोग उसकी शादी के लिए अगुअई के लिए आते तो हजार में ही दाम लगाकर निकल लेते थे। अब मेरे सरकारी नौकरीशुदा भाई की कीमत लाखों में लगाई जाने लगी है। घर वाले भी खुश हैं। इस बीच मुझे शर्मिंदगी महसूस हो रही थी। मैं एक अखबार में काम करता हूं, सब एडिटर हूं। घर जाता हूं तो रुआब झाड़ने के लिए खुद को पत्रकार बतलाता हूं। हां तो मैं अपने मामा के लड़के की शादी में गया था। वहां मामाजी ने जब अपने समधि से परिचय कराया, पत्रकार के तौर पर। मामाजी के समधि ने कहा, हां वो तो ठीक है पर तनख्वाह कम है। उस वक्त तो कसम से दिल को बहुत बुरा लगा। वजह यह कि सैलरी तो सभी को हमेश कम ही लगती है। मुझे भी लगती है। पर अभी मैंने छह महीने पहले कैरियर की शुरुआत की है तो भाई लोग ठीक-ठाक दे देते हैं। पर उनकी बातों से लगा, पत्रकार लोगों का मार्केट डाउन है। उनकी कीमत बाजार में कम ही लगती है। सो मैंने अपनी योग्यता बढ़ाने की ठानी पहले तो सोचा आईएएस बनूंगा, सीधे करोड़ों में अपने आप को बेचूंगा। पर, यहां आकर शुरुआत लॉ से की है। इसलिए मैंने शुरू में लिखा भी है, योग्यता बढ़ाने के लिए मैंने लॉ में दाखिला ले लिया है। मकसद आपको बता दिया। इसकी एक सच्चाई बाद में, जो सबसे अहम है।
ख़बरों को बेचिए, पर ज़रा संभल के...
मीडिया में अनुप्रास युग बढ़-चढ़ कर बोल रहा है। अनुप्रास के आलोचक भी इसके कायल हैं। पहले इसका इस्तेमाल करते हैं, फिर उसे गरियाते हैं। एक तरह से जिस ताली में खाओ उसी थाली में छेद करने की परंपरा भी तेजी से बढ़ रही है। कुछ तो यहां तक कहते हैं कि इसका कोई विकल्प नहीं है। हम सड़क छाप उपन्यासों के नामों के खबरों में धड़ल्ले इस्तेमाल करते जा रहे हैं। फिर मेरे भाई इस तरह का ड्रामा क्यों? यही हालत पत्रकारिता की है. पत्रकाल लोग अपनी पूरी प्रतिभा दिखा रहे हैं। लेकिन यह प्रतिभा उनके पेशे की पवित्रता को बचाने के लिए नहीं, बल्कि अपनी साख बनाने के लिए होती है। सही भी है, लोकतंत्र में हरकिसी को अपनी तरह से जीने का हक है। पर, लोग वही रास्ता क्यों अख्तियार कर रहे हैं, जो सबसे आसान और विध्वंसक है। समस्या तो और भी गंभीर बनती जा रही है, क्योंकि इनके बारे में इतना लिखा जा चुका है कि अब सब बेअसर ही रहता है। तो क्या विकल्प हमारे पास बेहद ही कम बचे हैं या फिर वह भी नहीं बचा है। आज देखें तो तमाम तथाकथित बड़े पत्रकार बड़े-बड़े ओहदों पर विराजमान हैं। जब वे हमारी उम्र के थे या जब उन्होंने पत्रकारिता शुरू की थी तो उनकी बातें भी बड़ी-बड़ी हुआ करती थीं। हम उनकी लेखों को पढ़कर उन्हें सम्मान की नजर से देखते थे। पत्रकारिता में गलत चीजों के घुसपैठ पर चर्चा तो उस वक्त भी हुआ करती थी। लेकिन यह चर्चा पत्रकार के सत्ता से समझौता करने की होती थी। आपातकाल इसका उदाहरण है। लेकिन अब तो हालत और भी खतरनाक है। सत्ता से समझौता करने वालो का विरोध करने वाले भी चुप रहने लगे हैं। यदि वो बोलते भी हैं तो उनकी आवाज में वह बात नहीं जिसका असर हो। अब यह है कि हर कोई दलाल नजर आ रहा है। पहले खबरों को लेकर अखबारों और टीवी चैनलों में ठन जाती थी। चैनल वालो की खिंचाई में अखबार वाले भाई हमेशा लगे रहते। पर, अब उनको क्या हुआ? वक्त के साथ समझौता किया। वक्त नहीं अपने ईमान, पाठक और पाक पेशे से समझौता किया। एक तरह से लोग समझौतावादी हो गए। खबरों को छोड़ खुद इसे गढ़ने लगे हैं। मनगढ़ंत खबरें आज कुछ और चलती हैं तो कल ठीक उसके उलट वाली खबर चलती हैं। वह भी उसी चैनल या अखबार में। हाल में, सचिन तेंदुलकर के बायोग्राफी का उदाहरण। रुछ दिनों तक खुलेआम चलता रहा कि इसमें सचिन का खून है। सब भाइयों ने चलाया, क्या अखबार वाले क्या चैनल वाले। चंद दिनों बाद सचिन सामने आए और कहा इसमें मेरा कोई खून वगैरह नहीं है। कहने का मतलब कि भाई जिसकी खबर चला रहे हो, उससे कम से कम कंफर्म तो कर लो। यह भी जहमत उठाने की किसी ने कोशिश तक नहीं की। यह हो गया है खबर का स्तर उसकी सच्चाई से किसी को कोई लेना-देना नहीं है। बस खबरों को बेचो...
गऊ होता है उंगलीबाज
आजकल एक विचित्र तरह का प्रचलन बन-चल पड़ा है। विरोध के नाम पर विरोध करना। मुद्दों के आधार पर नहीं, बल्कि वह कुछ भी कहे, मुझे उसकी हर बात काटनी है। मसला चाहे कोई भी हो, उसकी हर बात में उंगली करनी है। कुछ दिनों पहले कहीं ब्लॉग पर ही पढ़ा था, इस तरह के लोगों को उंगलीबाज कहते हैं। ब्लॉगर भाई साहब इस तरह के प्राणी का बहुत ही मनोरम वर्णन किया था। काफी दिनों बाद मुझे उनकी याद आई और उससे अधिक उनके उंगलीबाज। इस तरह के लोग बात-बात में मिनमेख निकालकार उसका फलूदा निकालते हैं। इस तरह के लोगों से बचने की बहुत ज्यादा जरूरत होती है। वजह यह कि भाई लोग बड़े ही शातिर और तिलिस्मी प्रतिभा से भरे होते हैं। इनकी विद्वता का लोहा हर कोई मानता है, ज्ञान का नगारा चौतरफा सुनाई पड़ता है। हालांकि, आम लोग इन्हें सुपिरियरिटी कॉम्प्लेक्स से ग्रसित भी बताते हैं। इनकी इस बीमारी का स्तर उनके कुंठित होने के पैमाने से मापा जाता है। यह जितना अधिक होगा, उंगलीबाज की हरकतें भी उतनी ज्यादा बढ़ती जाती है। वह बेतरतीब सा अपनी ही दुनिया में मगन रहता है। लेकिन इनको झेलना उतना ही मुश्किल होता है, जितना मरखाह गाय को खूंटे से बांधना। मतलब समझ ही गए होंगे। वैसे गाय सबसे मासूम जीव है, ऐसा लोग कहते हैं, तो मैं भी मान लेता हूं। उसके जैसा सीधा-साधा और भोला-भाला जीव कोई नहीं। पर, यह भई लोग कहते हैं कि सीधा-साधा और भोला-भाला अपने रंग में रंगता है तो वह सांड़ से भी खतरनाक बन जाता है। इसलिए उसे लोग मरखाह गाय भी कह देते हैं। दूसरी बात यह कि अक्सर कामकाजी महिलाओं को भी गऊ यानी गाय मान लिया जाता है, क्योंकि वह सारा काम बिना कुछ पूछे-रुठे या फिर बिना विरोध के चुपचाप कर लेती है। यहां तक कि अपनी गलती न होने पर पति का मार भी खा लेती है। हालांकि, कुछ कहानी इसके ठीक उलट भी होती है। पर, ऐसा कम ही होता है। अपवाद की तरह। लेकिन, उंगलीबाज के बारे में कोई अपवाद काम नहीं करता है। वह आपको इतना परेशान करता है कि आप अक्सर तनाव में रहने लगते हैं। उसकी संगति से आप इन चीजों से लाभान्वित होते हैं। मसलन ब्लडप्रेशर, तनाव, क्रोध, खीझ, चिड़चिड़ापन आदि। आत्ममुग्ध इस महामानव की एक खासियत यह भी होती है कि वह आपको बार-बार एहसास दिलाता रहता है कि आर कितने निकम्मे हैं और वह काबिल। उसे अपनी मार्केटिंग भी अच्छी तरह से करने आती है। वह जहां जाता है या तो सबकी आंखों का तारा बन जाता है या आंखों की किरकिरी। सबसे जरूरी सूचना यह कि इन्हें पहचानना जितना आसान है, उतना मुश्किल भी। बस अनुभवी और पारखी नजर वाले ही इस तरह के विभूतियों को पहचान पाने में सक्षम होते हैं। इसलिए, बंधु आपको इस तरह के चरित्र वाले कुछ अद्भुत प्राणी मिलें तो क्या करना है यह आप खुद तय कीजिए....क्योंकि वक्त के साथ-साथ ये अपना चाल-चिरत्र-चेहरा और चिंतन बदलते रहते हैं।
दिल्ली है या गड्ढा
गुलाल फिल्म के गाने की दो लाइनें याद आ रही हैं. " जिस कवि की कल्पना में जिन्दगी हो प्रेम गीत, उस कवि को आज तुम नकार दो." दरअसल, मै कहना कुछ और चाहता हूँ. पर उसके लिए भूमिका बांधना बेहतर नहीं समझता. बात नक्सलियों की है. हर दफा कोई बड़ा हादसा होता है, मीडिया वाले उसे सुर्खियाँ बनाते हैं, लोगों में नक्सलियों के प्रति नफ़रत की भावना जगती है. सरकार भी यही चाहती है. यही वजह है कि वह इस गंभीर समस्या से निपटने के बजाय आग में घी डालने का काम करती है. यहाँ एक बात और कहना चाहूँगा कि हमारा देश, प्यारा भारत विविधताओं का देश है. अब तक मै इसे स्कूलों में पढता आ रहा था. पर अब चन्द अनुभवों के बाद अब लग रहा है, नहीं वाकई हमारा देश विविधताओं का देश है. यहाँ इतनी समस्याएँ हैं फिर भी लोग मजे से रहते हैं. लोगों को दो वक़्त कि रोटी नसीब नहीं होती फिर भी हँसते हुए जिन्दगी गुजरती है. भारत नमक इस महान मुल्क में कई मजहब के लोग रहते हैं, वह भी साथ-साथ. आपस में दंगे होते है. कोई बात नहीं, एक परुवार में झगड़े कहाँ नहीं होते हैं. कहते भी हैं, झगड़ा से मोहब्बत बढ़ता है. हालाँकि यह अलग बात है कि इस मोहब्बत बढ़ने के कारोबार में बेगुनाहों को अपनी जान गवांनी पड़ती है. एक बात और कि इस तरह कि मोहब्बत बढाने में हमारी राजनीति और नेता विशेषज्ञ माने जाते हैं. यानी कुछ बात है हस्ती मिटती नहीं हमारी, वह बात कौन सी है, पता नहीं. पर कुछ बात है जों हमारी हस्ती मिटने नहीं देती है. लोग भूखे सोते हैं, फिर भी उनकी हस्ती नहीं मिटती है. आजकल एक और काम हो रहा है. राष्ट्रमंडल खेलों कि तैयारियां जोरों से चल रही हैं. देश कि राजधानी दिल्ली में यह खेल तक़रीबन दो महीने बाद होना है. लेकिन दिल्ली को पेरिस बनने का दावा करने वालों ने इसकी जों हालत कर राखी है, उससे यह हडप्पा और मोहनजोदड़ो ज्यादा लग रही है. कहने का मतलब यह कि...यहाँ खुदा है, वहां खुदा है, जहाँ नहीं खुदा है, वहां कल खोदने कि तैयारियां चल रही हैं. हर जगह एक साजिश चल रही है. आम आदमी के पैसों पर चांदी काटने वाले हर तरफ नज़र आ रहे हैं. लोगों को उनके हक से महरूम करने वाले जिन्दगी से भी जुदा करने कि साजिश रच रहे हैं. इसके बावजूद दावा यह कि यह सब उनकी खातिर ही हो रहा है.
भ्रमित भारत का सच
भारत आज अपनी हालत पर आंसू बहा रहा है। हर तरफ हाहाकार मचा हुआ है। फिर भी एक अजीब तरह की खामोश नजर आती है। लोग मर रहे हैं। हम चुप हैं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं, हम चुप हैं। सरकार जबरन किसानों का जमीन हथिया रही है, फिर भी हम चुप है। उद्योगों के लिए जमीन नहीं देने वालो को पुलिस सरकार के हुक्म से किसानों पर गोलियां बरसाती है, हम चुप रहते हैं। नेता, जनता यानी हमारे अरबों रुपए डकार जाते हैं, हम चुप रहते हैं। कई इलाकों में बाढ़ आया, सरकार ने पैसा आवंटित किया, जनता तक पैसा नहीं पहुंचा, हम चुप। हमारे नेता सेक्स स्कैंडलों में लिप्त मिलते हैं, हम सवाल नहीं करते। चुर रहना बेहतर विकल्प समझ बैठते हैं। महंगाई से हाल बेहाल, हम चुप। नेता गुलछर्रे उड़ाते हैं, हम मारे जाते हैं। चुप रहकर हम हलत को सही साबित करते रहते हैं। जब तक हम पर असर नहीं पड़ता हम मुंह खोलना मुनासिब नहीं समझते। जब खोलते हैं तो अलग-अलग। यह हमारी मजबूरी भी हो सकती है या फिर तूफान से पहले की खामोशी।
दूसरी बात, आज हमारा मुल्क, प्यारा देश भारत कई क्षेत्रों में विकसित देशों को चुनौती दे रहा है तो कुछ मामलों में हम निर्धनतम देशो से भी बदतर हैं। मतलब यह कि फिर आजाद होने की वर्षगांठ माने वाले हैं। इस बार 64वीं वर्षगांठ मनाएंगे, लेकिन इनते सालों बाद भी देश के समग्र विकास का सपना अधूरा ही है। देश में जहां कुछ लोगों की आय हर घंटे हजारों-लाखों बढ़ रही है, वहीं 40 करोड़ से अधिक की आबादी महज दो वक्त की रोटी के लिए हर रोज जद्दोजहद करता नजर आता है। इसमें भी पूंजी पैदा करने वाले स्रोतों पर उसी का कब्जा होता है, जिसके पास पहले से ही पूंजी है। मतलब यह कि गरीब यदि चाहे कि वह अमीर हो जाए तो उसके लिए दूर की कौड़ी है. जो इस पूंजी बनाने की दौड़ में भी पीछे रह रहे हैं वह या तो गरीबी या शोषण के मारे हैं या फिर वह भ्रष्टाचार और आपराधिक तरीकों को अपना रहे हैं, ताकि वह भी ग्लोबल दुनिया की अंधी दौर में शामिल हो सके। फिर यहां से एक और समस्या उत्पन्न होती है कि जो कानून को पूजते हैं, उसके हर हुक्म की तामील करते हैं, उन्हें ही सताया जाता है। दो-चार सौ की चोरी करने वाले को या झूठे मुकदमों में लोगों को 4-5 साल या इससे भी अधिक तक जेल में सड़ना पड़ता है। वहीं, देश को अरबों का चूना लगाने वाला और कई अपराधों का गुनहगार महज एक-दो दिन जेल में रहने के बाद आसानी से बेल पर रिहा हो जाता है। जेल से बाहर आने पर उसका स्वागत फूल हारों से किया जाता है। मानों देश को चूना नहीं आजादी दिलवाई हो। तमाम काली करतूतों के बाद वह राजनेता के खिताब से सम्मानित किया जाता है। यह किसी दूसरे देश की बात नहीं बल्कि मंदी के दौर में भी सात-आठ फीसदी से तरक्की करने वाले मुल्क भारत की कड़वी और काली हकीकत है। नेताओं का उदाहरण देना मुनासिब नहीं होगा। वजह यह कि अगर गिनती की जाए तो शायद ही कोई ऐसा है, जिसका दमान दागदार न हुआ हो। जिस पर शायद किसी तरह के आरोप न लगे हों। शायद ही कोई आर्थिक गड़बड़ी, सेक्स स्कैंडल, धोखाधड़ी, हत्या, मारपीट, यहां तक कि बलात्कार, पत्नी के रहते दूसरी नामचीन महिलाओं से अवैध संबंध, कबूतरबाजी जैसे कई मामलो के कसूरवार न हों। हर किसी पर किसी न किसी तरह का आरोप है। यह उस देश की दुर्दशा की कहनी है, जो कथा कुछ और हुआ करती थी। पर सब बातें हैं, बातों का क्या?
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