आमिर खान की फ़िल्म धोबी घाट. आमिर की पत्नी किरण राव निर्देशित है यह फ़िल्म. यानी आमिर के लिए बहुत बड़ी चुनौती थी. फ़िल्म का प्रोमो देखकर लगा बेहतरीन फ़िल्म होगी. लेकिन देखने के बात लगा पता नहीं फ़िल्म क्या बताना चाहती है. चार निराश, हताश और कुंठित लोगों की कहानी है. वह भी अनमने ढंग से कही गयी. फ़िल्म शुरू होती है और ख़त्म हो जाती और आप जब फ़िल्म देख बहार निकलते हैं तो ठगा सा महसूस करते हैं. शायद यह खास वर्ग के लोगों के लिए फ़िल्म बनाई गयी है. किरण राव भी यही मानती हैं. हालाँकि उनका यह भी कहना है कि अब आमिर खान प्रोडक्शन पर बेहतर फिल्मों को लेकर काफी दबाव होता है. लोग उम्मीद अधिक करने लगे हैं. धोबी-घाट की कहानी काफ़ी अलग किस्म की है और उसे दूसरी फ़िल्मों की तुलना में काफ़ी अलग अंदाज़ में पेश भी किया गया है. मुंबई पर गढ़ी गयी ये फिल्म एक डाक्यूमेंट्री है। जिसमें हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करता एक शख्स मौजूद है। इस फिल्म में इंसान को प्यार भी मिलता है तो उसे दर्द भी नसीब होता है, कहीं फटकार मिलती है तो कही सहारा भी। बस इंसानी जज्बात और भावनाओं की कहानी है धोबी घाट जिसे संजीदा बनाने की भरपूर कोशिश की गयी है. कहना गलत नहीं होगा कि धोबी-घाट एक मास फिल्म नहीं बल्कि एक क्लास फिल्म हैं। जिसे शायद लोगों के मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि, पुरस्कार जीतने के लिए बनाया गया है. यह फिल्म में मुंबई पर लिखे गए कुछ फुटकर नोट जैसी है। जिसे हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से लेने के लिए स्वतंत्र है। कहानी कुछ ऐसा है कि महानगर में मौजूद हर वर्ग का आदमी किसी ना किसी कहानी में अपना अक्स तलाश लेगा। फिल्म में मसाला, भावुकता, प्यार एक भी ऐसा तत्व नहीं है जो आपको फिल्म में रोके रखने के लिए या आपको अच्छा लगाने के लिए या सहज महसूस कराने के लिए डाला गया हो। कुल मिलकर कहा जाये तो यह फ़िल्म एक प्रयोग है...
हताशा को महिमामंडित करने की आवश्यकता?
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