ओड़िशा: आदिवासियों, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को माओवादी बना देती है नवीन पटनायक सरकार

फर्जी एनकाउंटर और मामलों की यह कहानी नरेंद्र मोदी के गुजरात की नहीं, बल्कि ओड़िशा के साफ और स्वच्छ छवि के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की है. लगभग 530 लोग फर्जी और झूठे माओवादी व अन्य मामले में विभिन्न जेलों में बंद हैं. इनमें 400 से अधिक गरीब आदिवासी हैं. पिछले 10 वर्षों में पुलिस फायरिंग में 30 लोग मारे गए. माओवाद के नाम पर फर्जी एनकाउंटर में 75 लोग मारे जा चुके हैं. 170 लोग बिना ट्रायल के अब भी जेल में हैं. राज्य मानवाधिकार आयोग के पास 17 से अधिक फर्जी एनकाउंटर के मामले जांच के लिए लंबित हैं.
http://hindi.gulail.com/how-navin-patnaik-government-makes-tribals-lawyers-and-social-activists-a-maoist-in-odisha/

(hindi.gulail.com)

ईश्वर-अल्लाह ''किसका'' नाम

मलेशिया की अदालत ने वर्ष 2009 में हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए फैसला दिया है कि देश में गैर-मुस्लिम अल्लाह शब्द का प्रयोग नहीं कर सकते हैं. वर्ष 2009 में मलेशिया की उच्च न्यायालय ने भगवान को संबोधित करने के लिए अल्लाह शब्द के इस्तेमाल की इजाजत दी थी, लेकिन अब कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए यह फैसला दिया. तीन न्यायाधीशों की पीठ ने सर्वसम्मति से हाईकोर्ट द्वारा 2009 में दिए गए उस फैसले को पलट दिया, जिसने मलय भाषा में छपने वाले अखबार 'द हेराल्ड' को अल्लाह शब्द के इस्तेमाल की अनुमति दी थी. इस फैसले के पीछे मुख्य न्यायाधीश का तर्क था कि अल्लाह शब्द का प्रयोग ईसाई समुदाय की आस्था का अंग नहीं है. इस शब्द के इस्तेमाल से समुदाय में भ्रम की स्थिति उत्पन्न होगी. मामले की सुनवाई के दौरान सरकार ने दलील दी थी कि अल्लाह शब्द मुस्लिमों के लिए बहुत विशिष्ट है. 
गौरतलब है कि 2008 में तत्कालीन गृहमंत्री ने अखबार को इस शब्द के इस्तेमाल की इजाजत देने से इन्कार कर दिया था. इसके बाद अखबार ने इसके खिलाफ अदालत में अपील की. 2009 में अदालत ने उसके पक्ष में फैसला सुनाया. इस फैसले के बाद चर्चों और मस्जिदों को निशाना बनाया गया था. गौरतलब है कि मलेशिया की 2.8 करोड़ की आबादी में दो तिहाई मुसलमान हैं, जबकि नौ प्रतिशत आबादी ईसाइयों की है. ऐसे में अदालत के फैसले से चार साल पुराने विवाद को हवा मिलेगी. विवाद अल्लाह से जुड़ा है. वहां मलय जाति समूह के लोग कैथोलिक ईसाइयों द्वारा अल्लाह शब्द के इस्तेमाल को लेकर विरोध करते रहे हैं. इन लोगों को लगता है कि अल्लाह शब्द का इस्तेमाल सिर्फ़ वही कर सकते हैं, न कि कैथोलिक ईसाई. अधिकारों के इस लड़ाई की सुनवाई कोर्ट में भी हुई थी. कोर्ट ने भी ईसाइयों को अल्लाह शब्द के इस्तेमाल की इजाज़त दे दी थी. हालांकि सरकार ने कोर्ट के फ़ैसले को ख़ारिज़ कर दिया. सरकार ने सर्वोच्च कोर्ट के फ़ैसले को चुनौती देने के इरादे से ऐसा नहीं किया है. बल्कि सारा विवाद भावनात्मक तौर पर इस क़दर उलझ चुका है कि इसे राजनीतिक तौर पर सुलझाना मुश्किल हो रहा है. सारा विवाद उस व़क्त सामने आया था, जब एक चर्च ने गॉड (ईश्वर) शब्द का अनुवाद अल्लाह शब्द के तौर पर किया. इस विवाद की वजह से हिंसा भी हुई. कुछ दिन पहले तीन चर्चों पर हमला किया गया. साठ के दशक मलयों और चीनियों के बीच हुई हिंसक घटनाओं को छोड़ दें, तो कुल मिलाकर वहां हमेशा शांति बनी रही है. लेकिन, एकबार फिर मलय-ईसाई एवं मलय-हिंदुओं के बीच संबंध बिगड़ने लगे हैं. इसी से तनाव पैदा हुआ है. जब ईसाइयों ने अल्लाह शब्द का इस्तेमाल किया तो मलयों ने इसकी मुख़ालफ़त की. उनके मुताबिक़ इससे भ्रमकी स्थिति पैदा होगी. वहीं ईसाई मिशनरी के मुताबिक वे अल्लाह शब्द का इस्तेमाल कर सकते हैं. यह उनका अपना तर्क हो सकता है. पर दिक्कत यह है कि कुछ राजनेता इन विवादों को अपने फ़ायदे के हिसाब से भुनाना चाहते हैं. 
दरअसल, जो लोग ईसाइयों द्वारा अल्लाह शब्द के इस्तेमाल का विरोध कर रहे हैं, उनके पास विरोध की वाजिब वजह नही है. अल्लाह एक हैं और उसने हम सभी को बनाया है. इसलिए इसके इस्तेमाल पर किसी एक मजहब का हक़ नहीं हो सकता है. यदि ग़ैर मुसलमान भी गॉड या ईश्वर के लिए अल्लाह शब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो मुसलमानों को इसका स्वागत करना चाहिए. उन्हें यह समझना चाहिए कि इसके ज़रिए लोग इस्लाम को समझने की कोशिश कर रहे हैं, न कि इस्लाम पर अपना कब्जा कर रहे हैं. इसलिए होना तो यह चाहिए कि मलयों को उदारवादी बन कर इस्लाम के उदार चेहरे से लोगों को वाक़िफ करांए. आज जबकि हर तरफ आतंकवाद की बात हो रही है और लोग आतंकवाद का मतलब इस्लामिक आतंकवाद से ही लगा रहे हैं, जो कि कतई सही नहीं है. ऐसे में इस तरह के नज़ीर से सकारात्मक संदेश लोगों तक पहुंच सकेगा.

नेटवर्क-18 : अमीरों का नौकर बन गया है मीडिया

सोवियत संघ और इसके सैटेलाइट के लंबे अनुभव ने यह साबित किया कि अभिव्यक्ति, सूचना और तर्क-वितर्क की आजादी के लिए फ्री इंटरप्राइजेज (मुक्त बाजार) की आवश्कता है. उन दिनों टेलीविजन पूरी तरह राज्य सत्ता पर निर्भर था. टेलीविजन की इस निर्भरता से यूरोपीय देशों में सभी यह मानने लगे थे कि प्रतिद्वंद्विता के अभाव में मीडिया का स्तर लगातार गिरता जा रहा है. उसके बाद एक दौर वह भी आया जब अमेरिका में तीन कॉमर्शियल नेटवर्क और एयरवेव पर एकाधिकार हो गया. यानी मीडिया का मोनोपोलाइजेशन हुआ. मीडिया की राज्यसत्ता पर निर्भरता से लेकर बाजारवादी युग में प्रतिद्वंद्विता का समय भी आया. मीडिया पर किसी एक घराने का वर्चस्व भी हम देख रहे हैं. भारत में लगभग तमाम बड़े बिजनेस घरानों ने मीडिया में मोटा माल निवेश कर रखा है. मुकेश अंबानी ने इ-टीवी समूह को ही खरीद लिया, तो सीएनएन आईबीएन, आईबीएन-7 और सीएनबीसी आवाज में अंबानी का बड़ा शेयर है. इस बात को समझना कतई मुश्किल नहीं है कि आखिर बिजनेस घराने क्यों मीडिया में निवेश कर रहे हैं या उन्हें खरीद रहे हैं. तमाम तरह के कॉरपोरेट घोटालों और भ्रष्टाचार के मामले को मीडिया अमूमन सामने लेकर आता है. जब उसी मीडिया के मालिक अंबानी और तमाम बिजनेश घराने होंगे, तो फिर अपने मालिक पर भौंकने की हिम्मत किसी होगी. पत्रकारों के लिए दुम हिलाने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं होगा. दक्षिण भारत में तो मीडिया के मालिकाना हक की कहानी तो और दिलचस्प है. आंध्रप्रदेश से लेकर तमिलनाडु तक सत्तारूढ़ और विपक्षी पार्टियों के अपने-अपने मीडिया हाउस हैं, जिनकी टीआरपी और जनता के बीच अच्छी पकड़ है. आंध्रप्रदेश में कांग्रेस से टूटकर अलग हुए वाईएसआर कांग्रेस के प्रमुख जगन मोहन रेड्डी का साक्षी चैनल हो या तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार के मालिकाना हक वाला कलइनार टीवी (इसका नाम टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले के दौरान भी आया) या फिर दयानिधि मारन का सन टीवी. दक्षिण भारत में नेताओं का एकछत्र राज्य मीडिया पर है. नेता और बिजनेस घरानों के हाथ में मीडिया का चाबुक हो, तो फिर अभिव्यक्ति की आजादी और खबरों की हकीकत का अंदाजा आप लगा सकते हैं. नेटवर्क-18 से आज अगर सैकड़ों पत्रकारों को धकियाया गया है, तो इसलिए नहीं कि इनका प्रदर्शन बेहतर नहीं था. यह कॉस्ट कटिंग का सीधा मसला है. लेकिन, मीडिया किसी की निजी संपत्ति नहीं है. पैसा बिजनेस घरानों या नेताओं का भले ही हो, लेकिन मीडिया का बिजनेस जनहितों का बिजनेस है. ऐसे में हम भला यह कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि चंद मुट्ठीभर बिजनेस घरानों के मालिक जनहित के सबसे बड़े माध्यम को नियंत्रित करने लगे और वह भी उसकी बेहतरी नहीं, बल्कि सिर्फ अधिक मुनाफा कमाने के लिए. नेटवर्क-18 के साथ यही मसला है. ऐसे में भला हम संविधान के उस विश्वास और सरकार के उस दावे पर कैसे यकीन कर लें कि प्रेस पूरी तरह आजाद है. हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि मीडिया अल्पसंख्यक अमीरों का नौकर बन गया है. सभा और सेमिनारों में तो बड़े-बड़े संपादक लच्छेदार और लुभावनी बातों से मीडिया की आजादी की पुरजोर वकालत करते हैं. लेकिन, अपने पत्रकारों के लिए लड़ने का वक्त आता है, तो ट्विट करते नजर आते हैं. अगर सभी सहमत ही हैं कि मीडिया को स्वतंत्र होना चाहिए, तो फिर एक कानून क्यों नहीं बनाना चाहिए. और, उस कानून में पत्रकारों की नौकरी की सुरक्षा से लेकर खबरों की स्वतंत्रता को लेकर विस्तृत चर्चा हो. लेकिन, नहीं अगर मीडिया से संबंधित किसी कानून को लाने की बात होती है, तो सभी संविधान याद आने लगता है. अभिव्यक्ति की आजादी याद आने लगती है. लेकिन, आज जब सैकड़ों पत्रकार एक बिजनेस घराने की मनमर्जी और अधिक मुनाफा कमाने के लालच का शिकार हो रहे हैं, तो कहीं कोई शोर नहीं है. कल तक जो रणभेरी बजाया करते थे, आज आवाज उनकी धीमी हो गई है या वे गूंगे हो गए हैं. हमें अब कुछ नहीं लड़ने की जरूरत है. अपने ही नहीं अपनों के लिए भी...पाश भी यही कहते हैं कि बिना लड़े यहां कुछ मिलता नहीं...
                   हम लड़ेंगे,
                   जब तक दुनिया में लड़ने की जरूरत बाकी है,
                   जब तक बंदूक न हुई, तब तक तलवार होगी
                   जब तक तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
                   लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की जरूरत होगी
                   और हम लड़ेंगे साथी
                   हम लड़ेंगे कि बगैर लड़े कुछ नहीं मिलता।