सोवियत संघ और इसके सैटेलाइट के लंबे अनुभव ने
यह साबित किया कि अभिव्यक्ति, सूचना और तर्क-वितर्क की आजादी के लिए फ्री
इंटरप्राइजेज (मुक्त बाजार) की आवश्कता है. उन दिनों टेलीविजन पूरी तरह राज्य
सत्ता पर निर्भर था. टेलीविजन की इस निर्भरता से यूरोपीय देशों में सभी यह मानने
लगे थे कि प्रतिद्वंद्विता के अभाव में मीडिया का स्तर लगातार गिरता जा रहा है. उसके
बाद एक दौर वह भी आया जब अमेरिका में तीन कॉमर्शियल नेटवर्क और एयरवेव पर एकाधिकार हो गया. यानी मीडिया का मोनोपोलाइजेशन हुआ. मीडिया की राज्यसत्ता पर
निर्भरता से लेकर बाजारवादी युग में प्रतिद्वंद्विता का समय भी आया. मीडिया पर
किसी एक घराने का वर्चस्व भी हम देख रहे हैं. भारत में लगभग तमाम बड़े बिजनेस
घरानों ने मीडिया में मोटा माल निवेश कर रखा है. मुकेश अंबानी ने इ-टीवी समूह को
ही खरीद लिया, तो सीएनएन आईबीएन, आईबीएन-7 और सीएनबीसी आवाज में अंबानी का बड़ा
शेयर है. इस बात को समझना कतई मुश्किल नहीं है कि आखिर बिजनेस घराने क्यों मीडिया
में निवेश कर रहे हैं या उन्हें खरीद रहे हैं. तमाम तरह के कॉरपोरेट घोटालों और
भ्रष्टाचार के मामले को मीडिया अमूमन सामने लेकर आता है. जब उसी मीडिया के मालिक
अंबानी और तमाम बिजनेश घराने होंगे, तो फिर अपने मालिक पर भौंकने की हिम्मत किसी
होगी. पत्रकारों के लिए दुम हिलाने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं होगा. दक्षिण
भारत में तो मीडिया के मालिकाना हक की कहानी तो और दिलचस्प है. आंध्रप्रदेश से
लेकर तमिलनाडु तक सत्तारूढ़ और विपक्षी पार्टियों के अपने-अपने मीडिया हाउस हैं,
जिनकी टीआरपी और जनता के बीच अच्छी पकड़ है. आंध्रप्रदेश में कांग्रेस से टूटकर
अलग हुए वाईएसआर कांग्रेस के प्रमुख जगन मोहन रेड्डी का साक्षी चैनल हो या
तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार के मालिकाना हक वाला कलइनार टीवी (इसका नाम टूजी
स्पेक्ट्रम घोटाले के दौरान भी आया) या फिर दयानिधि मारन का सन टीवी. दक्षिण भारत
में नेताओं का एकछत्र राज्य मीडिया पर है. नेता और बिजनेस घरानों के हाथ में
मीडिया का चाबुक हो, तो फिर अभिव्यक्ति की आजादी और खबरों की हकीकत का अंदाजा आप
लगा सकते हैं. नेटवर्क-18 से आज अगर सैकड़ों पत्रकारों को धकियाया गया है, तो
इसलिए नहीं कि इनका प्रदर्शन बेहतर नहीं था. यह कॉस्ट कटिंग का सीधा मसला है.
लेकिन, मीडिया किसी की निजी संपत्ति नहीं है. पैसा बिजनेस घरानों या नेताओं का भले
ही हो, लेकिन मीडिया का बिजनेस जनहितों का बिजनेस है. ऐसे में हम भला यह कैसे स्वीकार
कर सकते हैं कि चंद मुट्ठीभर बिजनेस घरानों के मालिक जनहित के सबसे बड़े माध्यम को
नियंत्रित करने लगे और वह भी उसकी बेहतरी नहीं, बल्कि सिर्फ अधिक मुनाफा कमाने के
लिए. नेटवर्क-18 के साथ यही मसला है. ऐसे में भला हम संविधान के उस विश्वास और
सरकार के उस दावे पर कैसे यकीन कर लें कि प्रेस पूरी तरह आजाद है. हालात यहां तक
पहुंच गए हैं कि मीडिया अल्पसंख्यक अमीरों का नौकर बन गया है. सभा और सेमिनारों
में तो बड़े-बड़े संपादक लच्छेदार और लुभावनी बातों से मीडिया की आजादी की पुरजोर
वकालत करते हैं. लेकिन, अपने पत्रकारों के लिए लड़ने का वक्त आता है, तो ट्विट
करते नजर आते हैं. अगर सभी सहमत ही हैं कि मीडिया को स्वतंत्र होना चाहिए, तो फिर
एक कानून क्यों नहीं बनाना चाहिए. और, उस कानून में पत्रकारों की नौकरी की सुरक्षा
से लेकर खबरों की स्वतंत्रता को लेकर विस्तृत चर्चा हो. लेकिन, नहीं अगर मीडिया से
संबंधित किसी कानून को लाने की बात होती है, तो सभी संविधान याद आने लगता है.
अभिव्यक्ति की आजादी याद आने लगती है. लेकिन, आज जब सैकड़ों पत्रकार एक बिजनेस
घराने की मनमर्जी और अधिक मुनाफा कमाने के लालच का शिकार हो रहे हैं, तो कहीं कोई
शोर नहीं है. कल तक जो रणभेरी बजाया करते थे, आज आवाज उनकी धीमी हो गई है या वे
गूंगे हो गए हैं. हमें अब कुछ नहीं लड़ने की जरूरत है. अपने ही नहीं अपनों के लिए
भी...पाश भी यही कहते हैं कि बिना लड़े यहां कुछ मिलता नहीं...
हम लड़ेंगे,
जब तक दुनिया में लड़ने की जरूरत बाकी है,
जब तक बंदूक न हुई, तब तक तलवार होगी
जब तक तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की जरूरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे कि बगैर लड़े कुछ नहीं मिलता।