असभ्यता का अभिशाप है आरक्षण

आरक्षण असभ्य समाज की पहचान है. हम आरक्षण किसे देते हैं? इस पर सबका जवाब होगा उसे जो समाज में विकास की होड़ में बहुत ही पीछे छूट गया है. यानी समाज में एक तबका, एक बड़ा वर्ग समझदार है, पढ़ा लिखा है, उसे अच्छे-गलत की समझ भी है. वह खुद को सिविल यानी सभ्य समझता है. फिर उसी में से कुछ खड़े होते हैं और जो विकास की अंधी दौड़ में पीछे  छूट गए, उन्हें दौड़ाने लायक न सही तो चलने लायक बनाने की कोशिश करते है. उनकी मंशा पर मै सवाल नहीं उठा सकता. भला मैं कौन होता हूँ? हाँ, कम से कम मैं अपनी बात तो रख ही सकता हूँ. अब करते हैं सीधी बात नो बकवास. 
जैसा कि मैंने कहा, सभ्य समाज के लोग अपनी सभ्यता का सबूत देते हुए, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और शारीरिक तौर पे पिछड़े लोगों को आगे बढ़ने, समाज के बाकी लोगों के साथ कदम से कदम और कन्धा से कन्धा मिलाकर चलने का अतिरिक्त अवसर मुहैया करते हैं. इसका मतलब यह है कि हमने जो खुद का विकास किया है वह उनके सर पर लात रख कर यानी उनके अधिकारों को कुचलते हुए ही आगे बढे हैं. नहीं तो, जितना संसाधान हमारे हिस्से में था उससे ज्यादा  हमारे पास कभी नहीं होता. आज आरक्षण की बात कौन लोग कर रहें हैं. इसे समझने के लिए हमें अपने समाज के दो चेहरों को समझना पड़ेगा. एक वर्ग वह है, जो पूरी तरह पूंजीवादी है, उसे इस तामझाम से कुछ नहीं लेना देना. दूसरा वर्ग वह है जो पहले वाले वर्ग में जाने के लिए जी तोड़ मेहनत और जद्दोजेहद कर रहा है. यही वह तबका है जो हो हल्ला और हंगामा कर रहा है.लेकिन उन्हें पता है कि पहले वाले वर्ग में शामिल होने के लिए उन्हें सबको कुचलना होगा. जो कि अब उस हद तक मुमकिन नहीं है.  उन्हें पूंजीवादी भी बनना है और गुड बॉय भी कहलाना है. वह जोखिम नहीं लेना चाहता.  सबसे बड़ी सच्चाई यह है कि अगर हमारे समाज में कोई तरक्की करता है तो वह बगैर किसी के अधिकारों का शोषण किये, गरीबो का खून चूसे, या आदिवासियों की ज़मीन हड़पे ऐसा नहीं कर सकता. यदि हम गरीबों के अधिकारों का शोषण न करें, बेसहारों और मजलूमों को शिक्षा से वंचित न करें, आदिवासियों की ज़मीन न हड्पें तो उन्हें आरक्षण देने की नौबत ही नहीं आयेगी. वह भी सभी की  तरह समाज के बराबर के सदस्य होंगे. लेकिन ऐसा होगा नहीं. हम पहले अपनी सोचते हैं. घर में तमाम अय्यासी का साजो-सामान इकठ्ठा करके दूसरों के संसाधनों ,उनकी कमजोरी का फायदा उठा कर अपने घर सजाते हैं. फिर उनके लिए लड़ते हैं. बेचारे को क्या पता उसका हितैषी ही उसका कातिल  है.  इस तरह देखा जाये तो हम आरक्षण की बात करते हैं. हमें उनके लिए आरक्षण नहीं, बल्कि उनकी अपनी ही चीज़ों को लौटाना है, जो हमने उनसे छीन लिए हैं. एक समाज जो अपने भाइयों का शोषण करके, उसे उसके ही अधिकारों से वंचित करके लोभ, लालच, छल, प्रपंच से अपना विकास करता है, उसके सर पर लात रखकर अपना विकास करता है फिर उसके लिए आरक्षण की बात करता है, यह एक असभ्य समाज की पहचान नहीं तो और क्या है. लेकिन, अफ़सोस वाही आज सबसे बड़ा दोस्त है जिसने दुश्मनी के बीज बोये हैं.
हो सकता है मैं इस लेख के बाद आरक्षणविरोधी या फिर अविकासशील मानसिकता का समझा जाऊं. लेकिन जोखिम तो लेना ही पड़ता है. और मैं यही कर रहा हूँ. 

4 comments:

  1. जिसे आरक्षण की आवश्‍यकता है .. उसे कहां आरक्षण मिल पा रहा ??

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  2. हम अभी सभ्य कहाँ हुए हैं ।

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  3. बहुत गहरे मसले को कमतर शब्दों में लपेटा है....इसे तार्किक पोशाक पहनाओ कि सबका जी चुरा सके.....एक तर्क से शुरुआत हो सकती है...पर उसे अंतिम परिणित तो देनी पड़ेगी न....मेरी शुभकामनाएं।

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  4. बिल्किल सही लिख रहे हो चन्दन जी आप, आरक्षण तो एक अभिशाप होता जा रहा है|

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