काम का सिलसिला जब काफी वक़्त तक चलता है तो इंसान मशीन बन जाता है. फिर मशीन के अन्दर न तो सोचने की ताकत होती है और न ही महसूस करने की. आजकल कुछ ऐसा ही है. काम में दोहराव और बेवजह बेकार की बातों पर बवाल. पिछले कुछ समय से काफी जद्दोजेहद में था. कई बार सोचा आखिर इसकी वजह क्या है? पर, समझ में नहीं आया. इसका जवाब लगभग 2 से ३ महीने बाद मुझे आज मिला. वह भी सवाल के शक्ल में. यानी उलझनों का जवाब एक सवाल है. दरअसल, साल भर से नौकरी कर रहा हूँ. पहले मै अपने काम को पत्रकारिता कहा करता था. वजह यह कि पढ़ाई पत्रकारिता की ही की थी. नतीज़तन, सोचता था जब पढ़ाई पत्रकारिता की करी है मैंने तो जो नौकरी कर रहा हूँ वह भी पत्रकारिता की ही है. बाद में यह भ्रम भी टूट गया. इस वजह से कि क्लास की आदर्शवादी बातों और फील्ड की दुनियावी बातों में काफी फर्क होता है. इस फर्क को सही ढंग से न समझ पाने की वजह से थोड़ा मै मात खा गया. खैर, मुझे मात खाने का मलाल नहीं है. मलाल इस बात का है कि सपने और विश्वास दोनों चकनाचूर हो गए. अभी हाल में इसका एहसास, एक दर्द बन के आया और मै अपनी कुंठा आपके सामने निकाल रहा हूँ. हालाँकि मै मूल बात फिलहाल आप सभी को नहीं बता सकता, क्योंकि इसको लेकर विवादों का सिलसिला जारी है. जब तक यह अपने अंजाम तक न पहुँच जाये, आधा अधूरा कुछ भी कहना मुनासिब नहीं होगा. ऐसा मेरा मानना है. मै सही नहीं भी हो सकता हूँ. पर मेरा यही फैसला है और सोचने का नजरिया भी. पर, बहुत दुःख होता है और मैं ही अकेला इस कतार में नहीं हूँ. कई हैं जिनका सपना टूटा है. अब एक बात यह भी बता दूं कि मै अपने काम को मैं नौकरी क्यों कहता हूँ? दरअसल तीन से चार महीने पहले एक मुख्यधारा के चैनल के बहुत ही बेहतर पत्रकार से बात हुई. वह भी फेसबुक के जरिये. उनसे जब इस मसले पर छोटी सी चर्चा हुई तो उन्होंने ही कहा. पत्रकारिता तो कब का ख़त्म हो गयी, हम सब नौकरी कर रहे हैं. यदि आप इसमें कुछ बदलाव या क्रांति की तरह कुछ करना चाहते हैं तो यह पूरी तरह आपका फैसला होगा. तभी से मै समझ गया...हम पत्रकारिता नहीं नौकरी कर रहे हैं चेहरों पर नकाब लगा कर.
जो पढ़ते हैं हम, उससे इतर गढ़ते हैं।
ReplyDeleteMere pass shabd nahi hain! Chhoriye ab apke samajh par bhi sandeh hai mujhe.
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