कश्मीर. तब और अब यानी आजादी के पहले और आज़ादी के बाद हमेशा से एक अहम मसला रहा है. अब यह मसला नहीं उलझा और सबसे अधिक विवादास्पद मुद्दा है. मुझे लगता है आगे भी रहेगा. इसकी वजह भी है. मेरा मानना है कि इस समस्या का समाधान बहुत पहले ही हो जाता. उसी समय जब यह सामने आया था. लेकिन हमारे नेताओं ने अपने निकम्मेपन से इसे तिल का ताड़ बना दिया. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पास ही यह मौका था कि वह आनेवाली पीढ़ी को इस मुसीबत से बचा सकते थे. हजारों लोगों को कश्मीर के नाम पर मरने से बचा सकते थे. लेकिन यह उनकी अदूरदर्शिता थी या क्या नहीं पता, पर गलती तो कर ही गए. शेख अब्दुल्ला और पंडितजी कभी दोस्ती के नाम पर तो कभी लोकतंत्र और स्वयत्ता के नाम पर खेल खेलते रहे. वह इस खेल में माहिर भी थे. इनका दाँव कोई समझ भी नहीं पाया. और हम भी समस्या से जूझ रहे हैं. आसानी से हल होने वाला मसला आज मिसाइल बनकर हमारे सामने है. हम कुछ भी न कर पाने कि हालत में हैं सिवाय लोगों को बेवकूफ बनाने के. कश्मीरी आवाम को तो आर्थिक लालच देकर और भी धोखे में रखने की कोशिश की जा रही है. आर्थिक दिलासा जितना दिया जाता है या इसके जरिये कश्मीरियों को फुसलाने की जितनी कोशिश की जाती है, आग की लपटें उतनी ही तेज़ हो जाती हैं. इसका सबसे नकारात्मक असर यह होता है कि गैर कश्मीरी की सोच कश्मीर विरोधी नहीं कश्मीरी जनता विरोधी हो जाती है. यह सबसे खतरनाक है. मेरा मानना है कि हमें कश्मीर का मुस्तकबिल वहां के लोगों पर छोड़ देना चाहिए. अगर वहां की जनता अपना फैसला खुद करना चाहती है तो हमें क्या आपत्ति होनी चाहिए? हमें भला अपने फैसलोंनु को उन पर क्यों थोपना चाहिए. आज अरुंधती राय ने जो कहा है मै उनसे उन अर्थो में सहमत नहीं हूँ, लेकिन हाँ कुछ हद तक सहमत हूँ. हम अरबों रूपये उस जगह फूंक रहे हैं, जहाँ से हमें परेशानी के अलावा कुछ नहीं मिल रहा है. अगर नयी आर्थिक नीतियों को लागू करने वाले तब के वित्त मंत्री और अब हमारे प्यारे प्रधानमंत्री इस आर्थिक पहलू को नज़रंदाज़ करते हैं तो उन्हें क्या कहा जाये? क्या वह लंगड़े घोड़े पर बेट नहीं लगा रहे? इस पहलू पर सोचने कि ज़रुरत है. गैर कश्मीरी आवाम के टैक्स को कश्मीरी जनता पर खर्च किया जा रहा है यही कुछ तर्क लगभग साल या डेढ़ साल पहले हिंदुस्तान टाइम्स के वीर सांघवी ने दिया था. अब एक दूसरा तर्क चर्चित समाजसेवी अरुंधती ने दिया है. उधर, कश्मीर के लिए नियुक्त वार्ताकार दिलीप पढगावंकर ने भी इसे सुलझाने के लिए पाकिस्तान को शामिल करने की बात कही है. ये सभी बातें व्यावहारिक हैं, जो भारत सरकार को कतई मंजूर नहीं होगा. मतलब यह कि वह कश्मीर समस्या का समाधान करने को लेकर संजीदा नहीं है. यही बात कश्मीरियों को सालती है और वो कभी पत्थरबाजी तो कभी भारत विरोधी नारे लगते हैं. हमें व्यावहारिक रास्ता अपनाने की ज़रुरत है.
No comments:
Post a Comment