म्यांमार में सांप्रदायिक हिंसा की घटना ऐसी कोई खबर नहीं, जिसे सुनने को
दुनिया अधीर हो। दरअसल, जम्हूरियत की तरफ मुल्क के डगमगाते कदम बढ़ रहे हैं
और ‘बदलाव की इस प्रक्रिया’ की निगरानी कर रही हैं नोबेल पुरस्कार विजेता
आंग सान सू की। लेकिन बदकिस्मती देखिए, पिछले कुछ दिनों से रखिन सूबे में
बौद्ध अनुयायियों व रोहिंग्या मुसलमानों के बीच हुई सांप्रदायिक हिंसा को
लेकर म्यांमार सुर्खियों में है। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों की हालत बदतर है। उन्हें नागरिक मानने से
इनकार किया जाता रहा है। दरअसल, म्यांमार की नस्लीय संरचना बेहद पेचीदा
है। आधिकारिक तौर पर वहां 135 नस्ली समूहों की पहचान की गई है। लेकिन इसमें
रोहिंग्या लोगों का नाम नहीं है, जबकि ये रखिन बौद्ध, चिटगांव के बंगाली
और अरब सागर से आए कारोबारियों की संतानें हैं। वे बांग्ला की एक बोली का
बतौर भाषा इस्तेमाल करते हैं। न्यूयॉर्क की ह्यूमन राइट्स वॉच संस्था के
मुताबिक, वे दशकों से रखिन बौद्ध के साथ म्यांमार में रह रहे हैं। जब
ब्रिटिश हुकूमत ने हिन्दुस्तान और म्यांमार की सरहद का डिमार्केशन किया,
उससे भी पहले के तत्कालीन बर्मा में उनकी मौजूदगी थी। फिलहाल, मुल्क में
उनकी आबादी अंदाजन आठ लाख है। दो लाख तो बांग्लादेश में भी हैं। रिपोर्टे
यह भी कहती हैं कि म्यांमार का एक बड़ा तबका रोहिंग्या विरोधी है। यही संकट
की जड़ है। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों को घुसपैठी माना जाता है. सबसे पहले मई में हिंसा की छिटपुट घटनाएं हुईं. इसके बाद हिंसक आग पूरे
इलाके में फैल गई. 10 जून को राखिल प्रांत में इमरजेंसी लगा दी गई. शुरुआती दौर की हिंसा में दोनों पक्षों को नुकसान हुआ लेकिन एमनेस्टी
इंटरनेशनल के मुताबिक अब मुसलमानों को ही निशाना बनाया जा रहा है. इस मामले में अंतरराष्ट्रीय राजनीति भी शुरू हो गई. ईरान ने संयुक्त
राष्ट्र संघ से अपील की है कि वह इस मामले में दखल दे और म्यांमार सरकार से
मुसलमानों के खिलाफ हिंसा रोकने के लिए कहे. संयुक्त राष्ट्र में ईरान के
राजदूत मुहम्मद काजी ने यूएन सचिव बान की मून को एक पत्र लिख कर हस्तक्षेप
की मांग की है. म्यांमार में जातीय हिंसा का इतिहास पुराना है. हालांकि नई सरकार ने कई
गुटों के बीच सुलह की कोशिश की है लेकिन कई मसले अभी भी अनसुलझे हैं. सरकार
और विद्रोही गुटों के बीच देश के उत्तरी इलाके में जब तब हिंसक झड़पें
होती रहती हैं. रोहिंग्या लोग मूल रूप से बंगाली हैं और ये 19वीं शताब्दी में म्यांमार में
बस गए थे. तब म्यांमार ब्रिटेन का उपनिवेश था और इसका नाम बर्मा हुआ करता
था. 1948 के बाद म्यांमार पहुंचने वाले मुसलमानों को गैरकानूनी माना जाता
है. उधर, बांग्लादेश भी रोहिंग्या लोगों को नागरिकता देने से इनकार करता
है. बांग्लादेश का कहना है कि रोहिंग्या कई सौ सालों से म्यांमार में रहते
आए हैं इसलिए उन्हें वहीं की नागरिकता मिलनी चाहिए. संयुक्त राष्ट्र के
अनुमान के मुताबिक म्यांमार में करीब 8 लाख रोहिंग्या हैं. ये हर साल
हजारों की तादाद में या तो बांग्लादेश या फिर मलेशिया भाग जाते हैं.
मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि इस समुदाय के लोगों को जबरन काम में
लगाया जाता है. उन्हें प्रताड़ित किया जाता है और उनकी शादियों पर भी
प्रतिबंध लगाया गया है. अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक दुनिया का कोई आदमी
बिना किसी देश की नागरिकता के नहीं रह सकता. अगर हुकूमत इस संकट को खत्म करना चाहती है, तो उसे अलोकप्रिय और सख्त फैसले लेने होंगे.
क्यूबा में 26 जुलाई की क्रांति के कुछ पहलू
26 जुलाई, 1953 को ही क्यूबाई क्रांति की शुरुआत हुई थी. फिदेल कास्त्रो की
अगुवाई में शुरू हुई यह एक सशस्त्र-क्रांति थी, जो तानाशाह शासक
फुल्जेंसियो बतिस्ता के शासन के खिलाफ थी. अपने भाई राउल कास्त्रो और
मारियो चांस सहित सर्मथकों के साथ फिदेल ने एक भूमिगत संगठन का गठन किया.
इस क्रांति की शुरुआत कास्त्रो द्वारा मोनकाडा बैरक पर हमले से हुई, जिसमें
कई की मौत हो गयी. हालांकि, तख्तापलट की कोशिश में लगे कास्त्रो और उनके
भाई पक.डे गये. 1953 में कास्त्रो पर मुकदमा चला और उन्हें 15 साल की सजा
हुई. लेकिन, 1955 में व्यापक राजनीतिक दबाव के कारण बातिस्ता को सभी
राजनीतिक बंदियों को छोड़ना पड़ा. इसके बाद कास्त्रो बंधु निर्वास में
मेक्सिको चले गये, जहां उन्होंने बतिस्ता की सत्ता का तख्ता पलट करने की
योजना बनायी. जून, 1955 में फिदेल कास्त्रो की मुलाकात अज्रेंटीना के
क्रांतिकारी चे ग्वेरा से हुई. 26 जुलाई को शुरू हुई क्रांति का अंत
बतिस्ता के तख्तापलट से हुई. एक जनवरी, 1959 को फिदेल कास्त्रो ने क्यूबा
में नयी सरकार बनायी. जनवरी 1959 में जब फिदेल कास्त्रो क्यूबा की राजधानी हवाना पहुंचे, तो उस वक्त क्यूबा ही नहीं पूरे लैटिन अमेरिकी में खुशी की लहर थी. एक अलोकप्रिय तानाशाही शासन को उखाड़ फेंका जा चुका था और अब सत्ता क्यूबाई आबादी समर्थित युवा क्रांतिकारियों के हाथों में थी. उस वक्त कास्त्रो का मुख्य एजेंडा भूमि सुधार और देश की अर्थव्यवस्था पर अच्छी खासी पकड़ था. कुल मिलाकर पूरे देश में सुधारवादी नज़रिया झलक रहा था. हालांकि, चुनौतियां भी कम नहीं थी. पहले ही दिन इस सरकार को अमेरिकी राजनीति और शहरी एलीट तबके से खतरा था. इन सबके पीछे उनका अपना आर्थिक हित छिपा था. 1959 की क्रांति की विचारधार पूरी तरह से स्पष्ट नहीं थी. वह पूरी तरह फिडेल कास्त्रो के रंगों में रंगी थी. उसके बाद निकारगुआ में भी सैंडिनिज्मो और शावेज का वेनेजुएला बोलिवारियाई क्रांति का प्रतीक बना. लेकिन, अपने पहले ही दिन से कास्त्रो की नीतियों ने अमेरिकी हितों पर चोट पहुंचाना शुरू कर दिया था. तेल से लेकर गन्ना, दूर संचार तक सभी क्षेत्र में. अमेरिकी ने कास्त्रो को कम्युनिस्ट के तौर पर पेश किया जिसने अपनी क्रांति और क्यूबा की जनता को धोखा दिया. अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनआवर के मुताबिक, क्यूबा ने किसी भी लैटिन अमेरिकी देशों के हितों का प्रतिनिधित्व नहीं किया. वह सिर्फ सोवियत संघ की हाथों का कठपुतली बन गया. 1961 तक सिर्फ मेक्सिको और कनाडा ही ऐसे देश बने, जिसने अमेरिकी दबाव का विरोध किया और साथ में क्यूबा के साथ राजनीतिक संबंध बनाये हुए था. सोवियत संघ से करीबी संबंध विकसित करने से पहले क्यूबा राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर तमाम सुविधाओं के लिए इन पर निर्भर था. इसके बाद अमेरिकी को नाराज़ करने की क़ीमत भी क्यूबा को चुकानी पड़ी. अप्रैल 1961 में बे ऑफ पिग्स का हमला किसे नहीं याद है. अमेरिका ने कास्त्रो की हत्या के लिए पूरी रणनीति बना ली थी. उसके बाद अक्तूबर 1962 का मिसाइल संकट सामने आया. 1965 में उसने सोवियत संघ की तरह का सांस्थानिक ढांचा देश में विकसित किया. एक ऐसी पार्टी, जिसमें महासचिव जेनरल कमेटी आदि सभी थे. लेकिन इसमें भी महत्वपूर्ण पद कास्त्रो के करीबियों और 26 जुलाई के आंदोलन में शामिल लोगों के पास ही था. सीमित संसाधनों और बढ़ते अमेरिकी दबावों के बावजूद क्यूबा ने गन्ना निर्यात के लिए सोविय संघ और पूर्वी यूरोपीय देशों के साथ संपर्क बढ़ाया. शिक्षा और स्वास्थ क्षेत्र को अधिक प्राथमिकता दी गयी. इसके अलावा अमेरिकी खतरे का सामना करने के लिए क्यूबा की सेना आधुनिक हथियारों से लैस हो चुकी थी. जब फिदेल कास्त्रो ने दक्षिणी अफ्रीकी राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लिया, तो सभी ने क्यूबा की क्रांति के बाद उसकी सफलता को व्यापक संदर्भ में देखना शुरू कर दिया. वहां शिक्षा और स्वास्थ्य से लेकर तमाम बुनियादों क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता से सभी प्रभावित थे. इसके बाद अंगोला में क्यूबा के सैन्य हस्तक्षेप से अन्य देश अनभिज्ञ थे. यह बहुत बड़ी विडंबना थी कि क्यूबा लैटिन अमेरिका में गुरिल्ला जंग से क्रांति लाने में असफल रहा, जबकि ख़ुद गुरिल्ला जंग से उसकी क्रांति सफल हुई थी. 1980 में जब रोनाल्ड रीगन अमेरिकी राष्ट्रपति बने तो उन्होंने साम्यवाद के खात्मे की घोषणा की. इसके लिए उसने हर तरकीब अपनायी. मध्य अमेरिका और कैरेबियाई देशों में सैन्य हस्तक्षेप तक किया. सोवियत संघ ने शुरू में अमेरिका को चुनौती देनी चाही, लेकिन सोवियत संघ के सहयोगी देश आर्थिक रूप से दिवालिया हो रहे थे. यहां तक कि उसकी भी हालत कुछ सही नहीं थी. 1989 से 1991 तक सोवियत संघ से जुड़े तमाम देशों की हालत खस्ता हो चुकी थी. यहां तक कि सोवियत संघ का भी विघटन हो गया. 1990 के शुरुआत में क्यूबा की आयात क्षमता, निवेश, निर्यात से मुनाफा और लोगों का जीवन स्तर बुरी तरह प्रभावित हो गया. बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ गयी. इसके बावजूद क्यूबा ने शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में अपना दबदबा बनाये रखा. हालांकि, सरकार की आमदनी बहुत कम हो गयी थी. आर्थिक तौर पर खुद को बचाए रखने के लिए ऐसे में क्यूबा ने अपनी नीतियों में व्यापक बदलाव किये. पर्यटन से लेकर माइनिंग तक के क्षेत्र में विदेशी निवेश को मंजूरी दी. इसका असर यह हुआ कि 2000 तक क्यूबा की अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट चुकी थी. 2000 का साल लैटिन अमेरिका के लिए भी काफी अहम रहा. ह्यूगो शावेज वेनेजुएला में सत्ता में थे. उसके बाद एक दौर आया जब फिदेल कास्त्रो ने खुद सत्ता की कमान अपने भाई राउल कास्त्रो को सौंप दी. पहले कास्त्रो की अगुवाई में अब राउल कास्त्रो की अगुवाई में क्यूबा तरक्की के रास्ते पर है. एक 26 जुलाई का दिन वह था, जब क्यूबा की क्रांति की शुरुआत हुई थी और आज फिर 26 जुलाई है. क्यूबा एक स्वतंत्र और आर्थिक, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में कई विकसित देशों से अव्वल है.
'जन'लोकपाल पर फिर घमासान !
लोकपाल
पर घमासान शुरू होने वाला है. दिल्ली जंतर-मंतर फिर होगा युद्धस्थल.
अरविंद केजरीवाल होंगे इस बार के महायोद्धा.
अन्ना चार दिनों पर फस्ट डाउन बैंटिंग करेंगे. केजरीवाल, मनीष सिसोदिया,
गोपाल राय ने नये बल्लेबाज़ के तौर पर पहले ख़ुद मोरचा संभाला है. क्या
होगा इस मैच में. कौन सी टीम हारेगी और कौन जीतेगी. आंखो देखा हाल आप
भारतीय न्यूज़ चैनल पर देख सकते हैं. लेकिन, सबसे बड़ा सवाल कि क्या नये
योद्दा टिक पाएंगे. टिकेंगे तो कितना. लेकिन इन सबके सवालों के बीच सबसे
बडी़ बात यह कि टीम अन्ना ने जिन 15 लोगों के ख़िलाफ भ्रष्टाचार का आरोप
लगाया है, उसमें निर्वाचित राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का भी नाम शामिल है.
ऐसे में यह सवाल उठ सकता है कि अब टीम अन्ना प्रणब दा का नाम इस तरह उछालकर
देश के सर्वोच्च पद का अपमान नहीं कर रही. ऐसे लोगों को यह पता होना चाहिए
कि टीम अन्ना प्रणब दा पर उनके राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन दाखिल करने
से पहले ही यह आरोप लगा रही है. ऐसे में यह कतई नहीं माना जाना चाहिए कि यह
राष्ट्रपति पद की गरिमा का अपमान है. अगर लोगों को ऐसा लगता है तो उन्हें
प्रणब दा के पास जाना चाहिए था और उनसे यह अनुरोध करना चाहिए कि प्रणब दा
आप पर कुछ आरोप हैं, उसकी जांच हो जाने के बाद ही आप इस चुनाव के लिए
नामांकन करिए, नहीं तो देश के सर्वोच्च पद का अपमान हो जायेगा. ख़ैर, इस
बात को भी छोड़ दिया जाये तो सरकार यह तर्क भी दे सकती है कि टीम अन्ना को
कमेटियों का इंतजार करना चाहिए. हर काम के लिए एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया
होती है, उसका पालन ज़रूरी है. सरकार कहती है कि लोकपाल पर कमेटी काम कर
रही है. इंतज़ार करिए. सरकार
बख़ूबी जानती है कि जब उसे कोई काम टालना होता है, तो एक कमेटी के बाद
दूसरी कमेटी बनाती है. जनलोकपाल पर पहले स्टैंडिंग कमेटी, फिर सेलेक्ट
कमेटी. ''आरटीआई फाइल करके मैं सरकार से पता करने वाला हूं कि इस देश में
कितनी कमेटियां काम कर रही हैं.' मैंने
सरकार द्वारा बनायी गयी कमेटियों का हिसाब-किताब जानने के लिए आरटीआई फाइल
करने का प्लान ख़ारिज कर दिया है. अभी-अभी पता चला है कि सरकार की इतनी
कमेटियां है कि अगर वो उनकी फोटो स्टेट आपको भेजें तो दो रुपये प्रति पेज
के हिसाब से आपको रिपोर्ट लेने में अपना घर तक बेचना पड़ सकता है. यानी
आपको रिपोर्ट 2 रुपये प्रति पेज के हिसाब से मिलेगी और अगर उस रिपोर्ट को
आप रद्दी में बेचने जाएं तो वह 2 रुपये प्रति किलोग्राम बिकेगा. 2 रुपये
प्रति पेज से 2 रुपये प्रति किलोग्राम....बाप-रे-बाप...
दलीलों से आगे बढ़ने का वक्त
प्रणब मुखर्जी भ्रष्ट हैं. वह राष्ट्रपति तो बन गये, लेकिन इसके लिए उन्हें कई तरह के कुचक्र रचने पड़े. घोटालों के जरिए वह राष्ट्रपति बनने में सफल हो पाये. इस तरह के कई आरोप आपको सुनने को मिल सकते हैं. टीम अन्ना से लेकर कई फेसबुकिया क्रांतिकारियों तक भी. लेकिन, क्या वजह है कि ये लोग सिर्फ दलील देते हैं, कोई ठोस सबूत नहीं. तर्क-कुतर्कों के सहारे किसी को भ्रष्ट बनाने में इन्होंने जी-जान लगा दिया है. प्रणब दा भ्रष्ट हैं, क्योंकि उन्होंने ए राजा, कलमाडी जैसों की रक्षा की. अरे कैसे की बाबा. अगर वो दोषी हैं, तो सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान क्यों नहीं लिया. क्या सुप्रीम कोर्ट भी बिका हुआ है. सिर्फ कोरे तर्कों के आधार पर बकवासबाजी करना आसान है. क्योंकि आपको सिर्फ किसी पर आरोप लगाना होता है. आरोप लगाने बहुत आसान है, लेकिन जब उसे साबित करने की बात आती है तो पता नहीं किस बिल में छिप जाते हैं ये लोग. इस ीतरह राम जेठमलानी हैं, दशकों से कहते आ रहे हैं कि (संकेतों में ही सही) पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का ब्लैक मनी स्विस बैंक में जमा है. उनका अकाउंट है. अभी तक साबित नहीं कर पाये हैं, वह. देश के सबसे बड़े वकील माने जाते हैं, पूरा संविधान और कानून की हर बारीकियां कंठस्थ है उन्हें, फिर भी इस तरह की बचकानी हरकत वह जारी रखते हैं. उन्हें पता होना चाहिए वकील के पास दमदार तर्क होता है, जिससे वह जज और लोगों को प्रभावित कर सकता है. लेकिन, जज सिर्फ उस तर्क के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराता. उसे सबूत चाहिए. यही सबूत आजतक जेठमलानी नहीं दे पाये हैं. जबतक कोई
ठोस सबूत आपके पास, नहीं हो तब तक आप किसी को कानून दोषी नहीं ठहरा सकते है. यहां एक समस्या यह भी है कि तथाकथित फेसबुकिया और चुरकुटिया क्रांतिकारी चोर का खुन्नस उसके रिश्तेदारों पर निकालने लगते हैं.अगर कुछ लोगों को प्रणब दा के
राष्ट्रपति बनने में भी घोटाला दिख रहा है, तो फिर मैं इसे उनका मानसिक दिवालियापन ही कहूंगा. अभिव्यक्ति की सही आजा़दी आजकल यही
मानी जा रही है, आप कुछ भी किसी पर बकर-बकर आरोप लगाते रहिए. ज़रूरत है, दलीलों और आरोपों के दौर से आगे बढ़ने का और हर बात में नुक्ताचीनी से बचने का. साथ में, फेसबुकिया क्रांति से बाज आने का भी.
पानीवाली बाई ''मृणाल गोरे''
भारतीय सिनमा के पहले सुपरस्टार के ग़म में हम इस कदर डूब गये कि मृणाल गोरे
को भूल ही गये. यह बदलते दौर का प्रतीक है. हमारे हक़ की लड़ाई लड़ने वाली
महिला ने जब आख़िरी सांसें ली, तो मुख्यधारा मीडिया से सोशल मीडिया सबने
खा़मोशी बरती. यह लवर ब्वॉय के जाने का मातम था या उस मातम में हम इतने
मशगूल हो गये कि एक ज़मीनी लड़ाई लड़ने वाली गोरे हमें याद ही नहीं आयीं.
17 जुलाई 2012 को अंतिम सांस लेने वाली 83 वर्षीय गोरे एक खांटी समाजवादी
नेता थी. वह सांसद भी रह चुकी थीं. मुंबई उपनगरीय क्षेत्र के गोरेगांव
इलाके में पीने के पानी की सुविधा मुहैया कराने की उनकी कोशिशों की वजह से
ही उन्हें पानीवाली बाई के नाम से जाना जाता है.1977
में छठे लोकसभा के लिए चुने जाने से पहले वो महाराष्ट्र विधानसभा में नेता
विपक्ष थीं. 1977 का साल वही साल था, जब इंदिरा गांधी की करारी हार हुई
थी. लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद जब वह दिल्ली लोकसभा पहुंची तो एक
स्लोगन काफी मशहूर हुआ था, ''पानीवाली बाई दिल्ली में, दिल्ली वाली बाई पानी में''
यह इंदिरा गांधी की हार के बाद उन पर किया गया सबसे तीखा व्यंग्य था. आज
जबकि नेता मंत्री पद पाने के लिए जोड़-घटाव और तमाम तरह के गुना-भाग का
सहारा लेते हैं. आज कृषि मंत्री शरद पवार को जब यूपीए में नंबर दो का पावर
नहीं मिला तो वे रूठ गये. वहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने जब
गोरे को स्वास्थ्य मंत्री बनने की पेशकश की, तो उन्होंने इस प्रस्ताव को
अस्वीकार कर दिया. यह उनके जनता के लिए काम करने की इच्छाशक्ति को बतलाता
है. आज अन्ना हजारे जो लोकपाल के मुद्दे पर लोगों से अपने-अपने सांसदों का
घेराव करने की बात कहते हैं, यह अनूठा तरीक़ा मृणाल गोरे ने ही अपनाया था.
वह विरोध के तौर पर मंत्रियों और प्रशासन का घेराव करने का नायाब फॉर्मूला
अपनाया, जो कारगर भी हुआ. महंगाई से लेकर कई मुद्दों पर सरकार को उन्होंने
कठघरे में खड़ा किया. 1974 में जब जॉर्ज फर्नांडीस ने रेलवे में हड़ताल का
आह्वान किया था, तो उस वक्त सारे नेताओं को गिरफ्तार किया गया. फर्नांडीज
की गिरफ्तारी वाली वह तसवीर आज भी लोगों को याद है. इस दौरान आंदोलन को
जारी रखने के लिए गोरे किसी तरह गिरफ्तारी से बचने में सफल रही थीं. आज
जबकि महाराष्ट्र के मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों पर भ्रष्टाचार का आरोप है,
ऐसे में मृणाल गोरे याद आती हैं जिन्होंने संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन से लेकर गोवा लिबरेशन मूवमेंट
के बाद अपने जीवन को आम आदमी के हितों के लिए लगा दिया. आज भले ही हमें
मीडिया के जरिए हमारे सरोकारों के लिए लड़ने वालों का पता चलता हो, लेकिन
उस वक्त मीडिया भी आज की तरह नहीं था. उसका दायरा सिमटा था. लोग अपने नेता
की पहचान करने में सक्षम थे. आज जबकि मीडिया के बूते कोई आंदोलन खड़ा होता
है, गोरे ने यह साबित किया अगर उद्देश्य जनहित है, तो मीडिया की ज़रूरत
नहीं लोग खुद-ब-खुद जुड़ते चले आते हैं.
मृणाल गोरे की शख्सियत को सलाम!
''भारतीय सिनेमा का पहला सुपरस्टार''
एक सुपरस्टार के तौर पर राजेश खन्ना का उदय और अस्त जिस नाटकीय अंदाज़
में हुआ, शायद ही ऐसा किसी कलाकार के साथ हुआ हो! 1969 से 1972 तक, राजेश
खन्ना नामक एक फेनोमना ने बॉलीवुड को कदमों पर लाकर रख दिया. उन्होंने जो हिस्टीरिया पैदा किया, वैसा फिल्म इंडस्ट्री में न पहले कभी देखा गया और न
ही बाद में. दरअसल, 1969 से 1973 के इन तीन वर्षों में राजेश खन्ना ने एक
के बाद एक 15 लगातार हिट फिल्में दीं. यह अभी तक एक रिकॉर्ड है. अभी तक यह
कीर्तिमान कोई कलाकार या एक्टर नहीं तोड़ पाया है. ऑल इंडिया टैलेंट
प्रतियोगिता जीतकर फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखने वाला राजेश खन्ना की पहली
फिल्म थी, आख़िरी ख़त. यह फिल्म 1966 में आयी थी. इसके बाद आयी राज़. लेकिन दोनों फिल्में ज्यादा नहीं चली. ऐसा कहा जाता है कि राजेश खन्ना एकमात्र स्ट्रगलिंग एक्टर थे, जो उन दिनों फिल्म निर्माताओं से काम मांगने अपनी कार से जाते थे. उनकी शुरुआती फिल्मों से करियर को कुछ ख़ास फायदा नहीं हुआ. लेकिन, 1969 में आयी आराधना
ने उन्हें रातों-रात सुपरस्टार बना दिया. बाप और बेटे के डबल रोल वाले
किरदार ने उनके चाहने वालों को दीवाना बना दिया. आरडी बर्मन के संगीतों ने
मेरे सपनों की रानी, कोरा काग़ज़ था ये मन मेरा, रूप तेरा मस्ताना, गुनगुना
रहे हैं भंवरे, गानों के साथ आराधना को गोल्डन जुबली हिट बना दिया. राज
खोसला की दो रास्ते भी गोल्डन हिट रही. उन दिनों आलम यह था कि बांबे में एक सड़क के दोनों किनारे वाले थिएटर में से एक ओपेरा हाउस में आराधना लगी थी, तो दूसरी तरफ रॉक्सी
में दो रास्ते. अब बांबे में किसी एक एक्टर के लिए इससे बड़ी बात उन दिनों
कुछ नहीं हो सकती थी. 1969 तक तो हाल ये था कि लगता कि राजेश खन्ना कुछ भी
ग़लत नहीं कर सकता है. एक के बाद एक फिल्में बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचा रही
थीं. अभी तक उनकी फिल्मों एक मैनरिज्म झलकता था. लेकिन, उनमें इस मैनरिज्म से भी अधिक काफी कुछ था. 1969 की ख़ामोशी, सफर (1970) और आनंद (1970)
में उन्होंने दिल से बेहद संवेदनशील किरदारों को निभाया. कैंसर से पीड़ित,
लेकिन मरने से पहले अपनी पूरी ज़िंदगी जीने की चाहत रखने वाले शख्स के तौर
आनंद संभवतः उनकी सबसे महान परफॉरमेंस वाली फिल्म थी. आनंद में राजेश
खन्ना फ्रैंक काप्रा के अमर्त्य संबंधी विचारों को जस्टीफाइ की परिकल्पना से भी आगे ले गये..., ट्रैजडी वह नहीं है, जब एक्टर रोता है. ऑडिएंस का रोना ही ट्रैजडी है. फ़िल्म के अंत में जब अमिताभ राजेश खन्ना के मृत शरीर के बगल में बैठे होते हैं और टेपरिकॉर्डर से राजेश खन्ना की आवाज़ आती है, तो उस वक्त आपकी आंखे भर आती हैं और आप उस आंसू को रोक नहीं पाते. वह एक के बाद एक हिट फिल्में देते गये. यहां तक कि अंदाज (1971)
में आयी फिल्म में उनकी मेहमान भूमिका को भी लोगों ने मुख्य हीरो शम्मी
कपूर से अधिक पसंद किया. यह शम्मी कपूर काल के अंत और राजेश खन्ना काल के
शीर्ष पर होने का प्रतीक था. हालांकि, राजेश खन्ना ने अपने दौर की शीर्ष
अभिनेत्रियों वहीदा रहमान, नंदा, माला सिन्हा, तनुजा और हेमामालिनी के साथ काम किया, लेकिन उनकी जोड़ी सुपरहिट रही शर्मिला टैगोर और मुमताज़ के साथ. बीबीसी ने 1973 में अपने डॉक्यूमेंट्री सिरीज़ मैन अलाइव में राजेश खन्ना के बारे में बांबे सुपरस्टार नामक
कार्यक्रम पेश किया. यह पहली बार था जब बीबीसी ने बॉलीवुड के किसी एक्टर
पर डॉक्यूमेंट्री बनाने का फ़ैसला किया था. राजेश खन्ना ने निर्देशक शक्ति
सामंत, संगीतकार आरडी बर्मन और गायक किशोर कुमार के साथ जबरदस्त तालमेल
बनाया. यह तिकड़ी और राजेश खन्ना के साथ का ही नतीजा था कि लोगों को कटी
पतंग (1970) और अमर प्रेम (1971) जैसी फिल्में देखने को मिली. ह्रषिकेश
मुखर्जी के साथ बावर्जी (1972) में राजेश खन्ना के हरमनमौला रसोइया का
किरदार कौन भूल सकता है, वहीं नमक हराम ने तो अमिट छाप छोड़ी. करियर के
शीर्ष काल में राजेश खन्ना को देखने के लिए भीड़ का पागल हो जाना आम बात
थी. कहा तो यहां तक जाता है कि लड़कियां उन्हें ख़ून से ख़त लिखा करती थी.
उनकी तसवीर से शादी करती थीं. भारतीय सिनेमा में सुपरस्टार शब्द पहली बार
राजेश खन्ना के लिए ही इस्तेमाल हुआ था. वह वाकई हमारे सुपरस्टार थे और
रहेंगे.
(राजेश खन्ना मेरी नज़र से)
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