भारतीय सिनमा के पहले सुपरस्टार के ग़म में हम इस कदर डूब गये कि मृणाल गोरे
को भूल ही गये. यह बदलते दौर का प्रतीक है. हमारे हक़ की लड़ाई लड़ने वाली
महिला ने जब आख़िरी सांसें ली, तो मुख्यधारा मीडिया से सोशल मीडिया सबने
खा़मोशी बरती. यह लवर ब्वॉय के जाने का मातम था या उस मातम में हम इतने
मशगूल हो गये कि एक ज़मीनी लड़ाई लड़ने वाली गोरे हमें याद ही नहीं आयीं.
17 जुलाई 2012 को अंतिम सांस लेने वाली 83 वर्षीय गोरे एक खांटी समाजवादी
नेता थी. वह सांसद भी रह चुकी थीं. मुंबई उपनगरीय क्षेत्र के गोरेगांव
इलाके में पीने के पानी की सुविधा मुहैया कराने की उनकी कोशिशों की वजह से
ही उन्हें पानीवाली बाई के नाम से जाना जाता है.1977
में छठे लोकसभा के लिए चुने जाने से पहले वो महाराष्ट्र विधानसभा में नेता
विपक्ष थीं. 1977 का साल वही साल था, जब इंदिरा गांधी की करारी हार हुई
थी. लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद जब वह दिल्ली लोकसभा पहुंची तो एक
स्लोगन काफी मशहूर हुआ था, ''पानीवाली बाई दिल्ली में, दिल्ली वाली बाई पानी में''
यह इंदिरा गांधी की हार के बाद उन पर किया गया सबसे तीखा व्यंग्य था. आज
जबकि नेता मंत्री पद पाने के लिए जोड़-घटाव और तमाम तरह के गुना-भाग का
सहारा लेते हैं. आज कृषि मंत्री शरद पवार को जब यूपीए में नंबर दो का पावर
नहीं मिला तो वे रूठ गये. वहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने जब
गोरे को स्वास्थ्य मंत्री बनने की पेशकश की, तो उन्होंने इस प्रस्ताव को
अस्वीकार कर दिया. यह उनके जनता के लिए काम करने की इच्छाशक्ति को बतलाता
है. आज अन्ना हजारे जो लोकपाल के मुद्दे पर लोगों से अपने-अपने सांसदों का
घेराव करने की बात कहते हैं, यह अनूठा तरीक़ा मृणाल गोरे ने ही अपनाया था.
वह विरोध के तौर पर मंत्रियों और प्रशासन का घेराव करने का नायाब फॉर्मूला
अपनाया, जो कारगर भी हुआ. महंगाई से लेकर कई मुद्दों पर सरकार को उन्होंने
कठघरे में खड़ा किया. 1974 में जब जॉर्ज फर्नांडीस ने रेलवे में हड़ताल का
आह्वान किया था, तो उस वक्त सारे नेताओं को गिरफ्तार किया गया. फर्नांडीज
की गिरफ्तारी वाली वह तसवीर आज भी लोगों को याद है. इस दौरान आंदोलन को
जारी रखने के लिए गोरे किसी तरह गिरफ्तारी से बचने में सफल रही थीं. आज
जबकि महाराष्ट्र के मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों पर भ्रष्टाचार का आरोप है,
ऐसे में मृणाल गोरे याद आती हैं जिन्होंने संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन से लेकर गोवा लिबरेशन मूवमेंट
के बाद अपने जीवन को आम आदमी के हितों के लिए लगा दिया. आज भले ही हमें
मीडिया के जरिए हमारे सरोकारों के लिए लड़ने वालों का पता चलता हो, लेकिन
उस वक्त मीडिया भी आज की तरह नहीं था. उसका दायरा सिमटा था. लोग अपने नेता
की पहचान करने में सक्षम थे. आज जबकि मीडिया के बूते कोई आंदोलन खड़ा होता
है, गोरे ने यह साबित किया अगर उद्देश्य जनहित है, तो मीडिया की ज़रूरत
नहीं लोग खुद-ब-खुद जुड़ते चले आते हैं.
मृणाल गोरे की शख्सियत को सलाम!
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