नरेंद्र मोदी... नाम तो सुना ही होगा... देश के
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। उनका सबसे बड़ा हथियार है, उनकी सोच। सार्थक या घातक, उसका फैसला जनता
कर चुकी है। जनता से वह कुछ इस तरह पेश आते हैं, “जो तुमको हो पसंद
वही बात कहेंगे...” लेकिन जनता को जो चाहिए, उसके लिए जरूरी है, वह नहीं कहते। मौजूदा समय
और संकट कुछ ऐसा ही है। देश नेतृत्व संकट से गुजर रहा है, लेकिन वह जनता को अभी भी नए रैपर में राष्ट्रवाद और
कांग्रेस विरोध की पुरानी टॉफी खिलाते जा रहे हैं।
अब ज़रा याद करिए भारतीय क्रिकेट का वह दौर... जब सचिन
तेंदुलकर, सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़, सदगोपन रमेश, आकाश चोपड़ा, नयन मोंगिया जैसे खिलाड़ी
किसी देश के खिलाफ उतरते थे, तो कागजों पर टीम हमेशा
बीस ही नजर आती थी। लेकिन मैदान में उतरते ही सारी गलतफहमी ढेर हो जाया करती थी।
देश की हालत भी कुछ वैसी ही है। 56 इंच के कप्तान प्रधानमंत्री
से लेकर तेजतर्रार गृहमंत्री और आर्थिक मोर्चे पर आग उगलने वालीं वित्त मंत्री
सीतारमण जी। बीच में कभी रोबिन सिंह ऑलराउंडर के तौर पर आए थे...
इसमें कोई शक नहीं कि आज रिपब्लिक ऑफ इंडिया यानी भारत
नेतृत्व के गंभीर संकट से गुजर रहा है। देश की हालत उसी दौर के क्रिकेट की तरह हो
चुकी है।
PM Modi with Chinese President. Photo: Internet |
हमारे सामने अभी तीन बड़ी समस्याएं हैं। कोरोना महामारी, चीन से तनाव और आर्थिक संकट। बाकी सारी समस्याएं इनकी
बाई-प्रोडक्ट हैं। हालांकि, अगर आप क्रमवार देखेंगे
तो सबसे पहली समस्या आर्थिक मोर्चे पर थी। इस मोर्चे पर सरकार लगातार नाकामयाब
साबित रही। जब सारे तीर-तुक्के असफल साबित हुए,
तो जीडीपी से
लेकर बेरोजगारी के आंकड़ों में हेरफेर से भी बाज नहीं आई। इसका चर्चा खूब हो चुकी
है। इन असफलताओं के बावजूद मोदी की सरकार लगातार दूसरी बार सत्ता में आने में सफल
रही। तो इस मोर्चे पर बात करना एक तरह से बेमानी या फिर जनता ही इस काबिल है कि वह
सामने खाई देखकर भी उसमें छलांग लगाने को एंडवेंचर का नाम देती है।
दूसरे मोर्चे की बात करते हैं। करोनो महामारी। इस मोर्चे पर
भी सरकार नोटबंदी की तरह बिना किसी तैयारी के मैदान में उतर गई। लाखों लोग सड़कों
पर आ गए। पैदल ही अपने घरों को कूच करने लगे। कई जान गई, तो कई की जान ली गई। लेकिन यहां भी गलतियों से सीखने की जगह
पुराने ट्रिक्स के भरोसे सरकार काम करती रही। जब कोरोना संकट हाथ फिसलने लगा, तो राज्य सरकार के मत्थे जिम्मेदारिया मढ़ी जाने लगीं।
राजनीतिक रंग-रोगन में इस महामारी से सामना किया जाने लगा। पहले पश्चिम बंगाल, फिर महाराष्ट्र। हर रोज ऐसे फरमान आने लगे कि उस फरमान को
समझाने के लिए एक नया फरमान जारी किया जाने लगा। यहां भी अपने सबसे मजबूत हथियार
झूठ और सांप्रदायिकता से मोदी सरकार अपनी नाकामयाबी पर पैबंद लगाती दिखी। इस कोशिश
में आईटी सेल और लगभग रेंग रही मीडिया ने बखूबी साथ दिया। जब भी बाजारों या
धार्मिक स्थलों में भीड़ दिखती तो मुसलमान एंगल खबरों और सोशल मीडिया पर पसरा
मिलता। हम इसको भी छोड़ते हैं, क्योंकि अब महामारी को
लेकर दावे औऱ वादे कितने भी किए जाएं, अब सबकुछ भगवान भरोसे ही
छोड़ दिया गया है। नहीं, तो टेस्टिंग, क्वांरटीन, मेडिकल साजोसामान, स्वास्थ्य-व्यवस्था के चर्चे होते न कि हिंदू-मुसलमानों के।
बीजेपी राज्यों में पीपीई किट को लेकर घोटाले हुए, प्रदेश अध्यक्ष
को इस्तीफा तक देना पड़ा। लेकिन, हुआ क्या? हुआ यह कि कोरोना महामारी के नाम पर कुछ गैर-बीजेपी राज्यों
की सरकार गिराने की कोशिश की गई। एक राज्य में सरकार बना भी ली गई। कुछ में दूसरे
दलों के विधायकों को खरीदा गया। कुल जमा यही कामयाबी है इस कोरोना के खिलाफ सरकार
की लड़ाई का।
अब लौटते हैं चीन पर। “न तो वहां कोई हमारी सीमा
में घुसा हुआ है और न ही हमारी कोई पोस्ट किसी दूसरे के कब्जे में है।” अब यह मशहूर डायलॉग तब तक गूंजता रहेगा, जब तक दुनिया रहेगी। इस पर कई सवाल उठ चुके हैं कि जब न कोई
घुसा है, तो फिर 20 जवान हमारे शहीद गोटियां खेलते हुए तो नहीं ही हुए। अगर
किसी देश का प्रधानमंत्री इस तरह का गैर-जिम्मेदराना बयान दे, तो उस देश की सरहद की सुरक्षा भी भगवान भरोसे ही हो सकती
है। इस मुद्दे पर भी ज्यादा बोलना सूरज को दिया दिखाने के बराबर है। फिर भी कुछ
बातें तो की ही जा सकती है। कहां तो सरकार को मुंहतोड़ जवाब चीन को देना था, लेकिन सारी ऊर्जा और पैसा नेहरू और कांग्रेस पार्टी को जवाब
देने में खर्च किया जा रहा है। जब देश के प्रधानमंत्री के बयान को ही आधार बनाकर
दुश्मन देश हम पर ही आरोप लगाए, तो इससे ख़तरनाक नेतृत्व
देश के लिए कुछ नहीं हो सकता है। इसमें पत्रकारों की फौज भी सरकार के बचाव में
खुलेआम कूद गई है। कुछ पत्रकारों ने बाकायदा सोशल मीडिया पर लिखा इतिहास की
गलतियों की सजा भविष्य को भुगतना पड़ता है। लेकिन उन्होंने तो वर्तमान को सिरे से
गोल ही कर दिया। आखिर वर्तमान क्या है?, जिसकी पर्देदारी की जा
रही है। कौन और कब, किस मकसद से क्या बोल रहा
है? यह याद रखा जाना चाहिए।
बाकी पड़ोसी देशों की जिक्र ही क्या किया जाए?
नेपाल से हमारा
रोजी-बेटी का संबंध आज से नहीं, बल्कि वर्षों से है।
लेकिन वह लगातार भारत की ओर शत्रुता भरे कदम उठाता जा रहा है। पाकिस्तान से
ताल्लुक पहले से ही खराब हैं। श्रीलंका हमारे हाथ से कब का निकल चुका है। रूस से
पहले से जैसे संबंध रहे नहीं। अमेरिका में ट्रंप का बड़बोलापन कभी खुद उन्हें तो
कभी उनके साथ ताल्लुक रखने वाले देश और नेताओं को बीच सड़क पर नंगा करके रख देता
है।
लेकिन यहां सवाल उठता है कि आखिर हर मोर्चे पर हमारा
नेतृत्व इतना विफल क्यों है?
चार मार्च 2020 की इकोनॉमिक्स टाइम्स की
खबर है। खबर विदेश मंत्रालय के हवाले से लिखी गई है कि पिछले पांच साल में नरेंद्र
मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री विदेश यात्राओं पर करीब 446.52 करोड़ रुपये खर्च
किए। जब किसी देश का मुखिया विदेश यात्राओं पर इतना खर्च करे, तो लगभग सारे देशों से न सही पड़ोसियों से ताल्लुक बेहतर
होने की गारंटी ली ही जा सकती है। लेकिन विदेश नीति के मोर्चे पर नाकामयाबी की
कीमत आज देश को चुकानी पड़ रही है। और इसकी जिम्मेदारी आईटी सेल और बिकाऊ मीडिया
के जरिए उसी नेहरू और कांग्रेस पार्टी पर डाली जा रही है, जिसकी बदौलत मोदी सत्ता में हैं।
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