लॉकडाउन में भूख से मरते ग़रीब, लेकिन गिद्धभोज में जुटे हैं सत्ता के सरमायेदार


दिल्ली-जयपुर नेशनल हाइवे पर एक मजदूर भूख की वजह से मरे हुए कुत्ते का मांस खाने को मजबूर हो गया। ख़बर बस इतनी है। एक ऐसी ख़बर जिससे सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। गरीबों की आंखों के आंसू पोछने की बात कहने वाले नरेंद्र मोदी 6 साल से देश के प्रधानमंत्री हैं और उसी दिल्ली में रह रहे हैं, जहां से कुछ किलोमीटर की दूरी पर यह वाकया होता है।
देश की गरीबी दूर करने की बात कहने वाले भुखमरी तक हालात लेकर आ गए। लोकतंत्र को गाली देने वाले लोकतंत्र के मंदिर में बैठकर गिद्धभोज करने लगे। सरकारें बिल्कुल फेल हो चुकी हैं, कृपया यह तस्वीर कोई सरकारों तक पहुंचा दे। खुद को राजनीति का चाणक्य कहने वाले बस चुनावी जयचंद बन कर रह गए हैं। जब अपना घर यानी देश त्रासदी से घिरा है, तो उनकी खोजखबर भी नहीं है। चुनाव जीतना, जोड़-तोड़ की राजनीति से सत्ता हासिल करना, फर्जी राष्ट्रवाद की आड़ में हिंदू-मुसलमान की खाई पैदा करना ही चाणक्य नीति नहीं होती है। वक्त बुरा है...वक्त बदलेगा, लोग भी बदलेंगे...
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दिल्ली-जयपुर हाईवे पर भूख को बर्दाश्त न करने वाली रोंगटे खड़े करने वाली तस्वीर क्या सत्ता में काबिज अंधों को नहीं दिखती। यह तस्वीर बताती है कि कोरोना वायरस को लेकर सरकार की नीतियों ने आम इंसानों को क्या बना दिया है। इंसान एक मरे हुए कुत्ते को खाने को मजबूर है। आख़िर यह सरकार किसकी है। बस अमीरों और नेताओं की, जिनकी भूख इन ग़रीबों की भूख से अलग है। ग़रीबों की भूख कुछ खाने की है, तो उनकी कुछ पाने की। गरीबों की भूख को बस रोटी चाहिए, इन नेताओं की भूख पैसा और सत्ता की मांग करती है।
इस लॉकडाउन में भूख से मौतों की घटनाएं आम हो रही हैं और अब यह नया मामला भी सरकार को अगर सोचने पर मजबूर नहीं करती है, तो सोचिए हालात कहां तक बदल गए हैं। पहली बार लॉकडाउन लागू होने के बाद से ही देश भर में लोगों को काम मिलना बंद हो गया। गरीब दिहाड़ी मजदूरों पर सबसे ज्यादा मार पड़ी। इसकी एक मिसाल यह है। घटना 31 मार्च की बिहार के भोजपुर ज़िले के आरा की है। मुसहर समुदाय से आने वाले आठ वर्षीय राकेश की मौत 26 मार्च को हो गई थी। उनकी मां का कहना है कि लॉकडाउन के चलते उनके पति का मजदूरी का काम बंद था, जिससे 24 मार्च के बाद उनके घर खाना नहीं बना था। इसके बाद 17 अप्रैल को मध्य प्रदेश में एक बुजुर्ग की भूख से मौत की खबर आई। बुजुर्ग सड़क किनारे बैठकर लोगों से मांगकर खाता था। लॉकडाउन में सब बंद हुआ तो उन्हें खाना देने वाला भी नहीं रहा। सरकारें तो दावा करत रहेंगी कि सबका ख्याल रखा जा रहा है, लेकिन किस तरह रखा जा रहा है, वह भूख से होने वाली मौतें साफ बयां कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में एक 60 साल के प्रवासी कामगार की भूख से मौत हो गईयह शख्स तीन दिन पहले महाराष्ट्र से अपने परिवार के कुछ सदस्यों के साथ यात्रा शुरू की थीपरिवार के सदस्यों का कहना था कि कई दिनों से उन्होंने खाना नहीं मिलने पर कुच नहीं खाया था। फिर एक खबर आई 19 मई को कि झारखंड में महज पांच साल की बच्ची की भूख से मौत हो गई। सरकार अमला भूख से मौतों से इनकार करने में जुट गया, लेकिन जिस परिवार ने अपनी बच्ची को खोया कोई उसकी फरियाद नहीं सुनने वाला।
अगर किसी मामले का आकलन करने के लिए सैंपल सर्वे का सहारा लिया जाता है, तो भूख से होने वाली मौतें आखिर क्या कहती हैं। सिर्फ एक क्षेत्र या राज्य ही नहीं... लॉकडाउन के बाद और सरकारी सुस्ती के बीच भूख से मौतें हर तरफ हो रही हैं। हम वैसे मामलों को ही देख-सुन या जान पा रहे हैं, जो मीडिया में आ रहे हैं। कई मामलों को दबाया जा रहा है या फिर उसे अखबारों/मीडिया तक आने से पहले ही खत्म कर दिया जा रहा है।

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