संसद का सत्र चल रहा है। इसके पहले दिन गन्ना किसानों ने अपनी मांगों कों लेकर संसद और जंतर मंतर पर डेरा डाला। फिर भी पीएम अमेरिका गए। महंगाई आसमान पर है, दिन में ही तारे नज़र आने लगे हैं, सब्जि और आटा सहित कई ज़रूरी सामानों को ख़रीदते-ख़रीदते। इधर मधु कोड़ा ख़रबों की संपत्ति चपत करने के बाद भी पकड़ में नहीं आ रहा है। उधर अमेरिका चीन के सामने घुटने टेक कर भारत को लॉलीपॉप थमा रहा है। कोड़ा कांग्रेस की मदद से ही मुख्यमंत्री बना। राजनीति में आने से पहले कोड़ा कोयला खादान में काम करता था। हालांकि उसे राजनीति में बीजेपी लेकर आई, लेकिन सीएम बनाया कांग्रेस ने। अंदरूनी समस्याएं सुलझ ही नहीं रही हैं और पीएम चले गए अमेरिका से संबंध बनाने। शायद उन्हें नहीं मालूम जब तक हम अपने नाव की छेद को बंद नहीं करते तब तक नाव के डूबने का ख़तरा बरकरार ही रहने वाला है। ख़ैर इन सब बातों को छोड़ दीजिए, बातें हैं सब बातों का क्या? लेकिन ज़रा फ़ुर्सत मिले तो ठहर कर इन पर ग़ौर करने की जहमत ज़रूर उठाइए, तो आपको ख़ुद के कुछ सवालों को जवाब ज़रूर मिल जाएगा। लेकिन मेरा एक सवाल यह भी है कि पीएम अमेरिका चले गए।
ज़रा एक और बात पर नज़रे इनायत कीजिएगा। सबसे पहले अमेरिका में हुए नाइन इलेवन के हमले को याद कीजिए और उसके ठीक साल भर बाद मनाए जाने वाली बरसी को भी। अमेरिकी राष्ट्रपति उस हमले के बरसी के दिन कहां थे, क्या वो भारत, जापान, चीन या इज़रायल के दौरे पर थे। जी नहीं, वो किसी विदेशी दौरे पर नहीं थे। अमेरिकी राष्ट्रपति हमले में मारे गए लोगों को अपनी श्रद्धांजलि दे रहे थे, ठीक किसी आम अमेरिकी की तरह। उनसे यही अपेक्षा भी की जा रही थी। यही अमेरिकी राष्ट्रपति की संवेदनशीलता है या कहें कि अपने मुल्क के प्रति उनकी ज़िम्मेदारी। लेकिन क्या आप यही आपने मुल्क यानी भारत के आंग्रेज़ी दां प्रधानमंत्री से यही उम्मीद कर सकते हैं, यदि हां तो यहीं आपकी उम्मीदों का चिराग हवा की झोंकों से बूझ जाएगा। मुमकिन हो हम या आप कुछ बहाना तलाश लें कि पीएम का अपना प्रोटोकॉल होता है, वो जो कर रहे हैं, देश की तरक्की और नीतियों के हिसाब ही कर रहे हैं। यदि हम यही सोचते हैं हम हमारी सोच को दोष नहीं दे सकते। हमारी सोच भी अंग्रेज़ियत के चश्मे में मिल गई है। लेकिन मैं परेशान हूं, हताश हूं और निराश भी। मैं संतुष्ट नहीं हूं। एक बेचैनी है। तड़प है। विपक्षी पार्टी बीजेपी हिंदुओं का ठेकेदार बन चुकी है तो तथाकथित समाजवादी पूंजीपतियों के इशारे के बग़ैर सर भी नहीं हिला सकते। आम आदमी अब आम नहीं रहा, तबाह हो गया। दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेल होने वाले हैं, इसी दौरान शीला दीक्षित को दिल्ली को शंघाई और पेरिस बनाने की सूझी। दिल्ली की ग़रीबी दूर करने की सूझी। ग़रीबी ख़त्म हो या न हो, पर ग़रीबों को ख़त्म करने का उन्होंने पूरा बंदोबस्त कर लिया है। बस किराया दोगुना हो चुका है, लोगों को दाल और आटा मिल नहीं रहा है, इसलिए सरकार ख़ुद इन्हें बेचने सड़कों पर उतर आई है। कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ, इसी नारे से चुनाव जीता कांग्रेस ने, पर वो हाथ भी अब शायद मैली हो गई। उससे इतनी बदबू आने लगी है कि आम आदमी का दम ही घुटने लगा है। फिर भी प्रधानमंत्री अमेरिका चले गए। हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री लोगों को उसके हाल पर छोड़ कर अमेरिका चले गए इसका ग़म नहीं है ग़म तो इस बात का है कि छब्बीस इलेवन के शहीदों की बरसी तक वो क्या नहीं क सकते थे, शायद नहीं तभी तो चले गए। बेहद ज़रूरी था। या सब नज़रों का धोखा।
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