कोई वजह तो हो

वो सचमुच बेहद खूबसूरत है। बिल्कुल गंगा की तरह निर्मल और उनमुक्त। जी चाहता है उसे कभी खुद से दूर न जाने दूं। उसकी आंखों में मदहोशी और जुल्फों में काली घटा। बोलती है तो मानो मोती गिर रहे हों। चलती है तो मन का मयूर नाचने लगता है। उसका मुस्कुराना, दिल पर कहर बनकर गिरता है। जब वो झुकी नजरों से देखती है तो दिल मचल उठता है। उससे बातें करने का तो जी बहुत चाहता है, पर बेबसी सामने जाती है। कुछ न कह पाने की बेबसी। इंसान जब जन्म लेता है तो उसमें जो तमाम खुबियां या खामियां आती हैं, वह उसके परिवेश और जिस तरह से उसका पालन पोषण होता है, उसी आधार पर आती है। ज़िदगी के हर मोड़ पर मैं असफल रहा हूं। यदि आप अपनी मर्जी से ज़िदंगी नहीं जी रहे हैं तो गुलामी की ज़िदगी जी रहे हैं। जन्म लेने के बाद से ही हमे गुलाम बना दिया जाता है। पहचान के नाम हमारा नामाकरण किया जाता है। इंसान बहुत ही स्वार्थी है। वह हर चीज के लिए जस्टीफिकेशन ढूंढ लेता है। यदि वह गलत भी करता है तो तरह-तरह के तर्को से खुद को समझाता है कि नहीं तुमने जो किया है वह सही है। तुमने सबसे अलग काम किया। तुमने वह काम किया है जो कोई नहीं कर सकता। ऐसी बहुत सी बातें या तर्क हैं जो गलत करने पर हम खुद सही साबित करने के लिए देते हैं। कितना झूठा दिलासा अपने दिल को हम देते हैं। दुनिया की तहजीब ही यही है। यहां कोई भी आपके दर्द या आपकी बातों को समझना नहीं चाहता। समझे भी क्यों, सभी के पास अपनी-अपनी समस्या है। मुझे समस्या है कि मैं एक गांव से दिल्ली में आया। मेरी पढ़ाई-लिखाई बेहद ही लो-प्रोफाइल स्कूल,जिसे हम सब गांव का स्कूल कहते हैं में हुई। उसके बाद यहां यानी दिल्ली आया तो हिंदी में ग्रैजुएशन किया। साला इस देश की मातृभाषा हिंदी है, इसकी कद्र कोई नहीं करता। अंग्रेज चले गे, लिकन अभी भी हमें गुलाम बनाए हुए हैं। हम अपने आप को महान समझते हैं। भारत महान देश। पर सच मानिए यहां महनता के लायक कुछ भी नहीं है। आजादी की 63वीं वर्षगांठ हम मनाने जा रहे हैं, लेकिन हम बात क्या कर रहे हैं, खेलों में घोटाले की। यहां एसे हरामी नेता पड़े हैं, जो हर इवेंट को अपनी झोली भरने का मौका मानते हैं। माफ करना दोस्तों कहां से शुरू किया और कहां पहुंच गया। पर, क्या करूं कभी किसी को मुकम्मल जहां, जो नहीं मिलता। मुझे मेरी ज़िंदगी चाहिए, लेकिन मेरी ज़िंदगी कहीं और कैद है। उसे मेरे होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। अब मैं क्या करूं। इस बात की तकलीफ तो बहुत है, लेकिन क्या कर सकता हूं। हां, वो ज़िंदगी भी मांगे तो कुर्बान करने को तैयार हूं। लेकिन इसकी भी किसी को कहां फिक्र है?

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