गृह राज्य मंत्री का बेटा... जज साहेब अदालतें मंदिर की घंटी बन चुकी हैं...

देश की न्याय व्यवस्था मंदिर के घंटे की तरह हो गई है। कोई भी आ रहा है और बजाकर चला जा रहा है। मंदिर के घंटे को बजाने का भी एक तय समय होता है, लेकिन न्याय व्यवस्था के साथ जिस तरह घंटी बजाई जा रही है, उसका को नियत समय नहीं है। देश के गृह राज्य मंत्री के बेटे से लेकर राज्य के मुख्यमंत्री से लेकर तक इस सिस्टम की घंटी नहीं, बैंड बजा रहे हैं। बस उम्मीद सिर्फ आम जनता, दबे-कुचले लोगों, जिनके पास दौलत नहीं है, प्रभावशाली नहीं है, उनसे की जाती है कि वे देश के तमाम कायदे-कानून को सर पर बिठाकर रखें। हालिया घटनाक्रम ने इस मीडिया, न्यायिक, पुलिसिया और राजनीतिक सिस्टम में भरोसे को खाई में ही धकेलने का काम किया है।

बॉलिवुड के बादशाह शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान इन दिनों मुंबई के ऑर्थर रोडजेल में बंद हैं। अदालत ने आर्यन को 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेजा है। मामला क्रूज रेव पार्टी से जुड़ा है। शनिवार को कुल 18 लोग गिरफ्तार हो चुके हैं। आर्यन खान के वकील ने मैजिस्ट्रेट कोर्ट में जमानत की अर्जी दी। खारिज हो गई। शनिवार को वकील ने सेशन कोर्ट का रुख किया। मामला खींचेगा। इस बीच, समझने की बात है कि शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान के पास से किसी भी तरह का ड्रग्स नहीं मिला है। एनसीबी के हवाले से कई मीडिया संस्थान खबरें चला रहे हैं कि आर्यन ने माना है कि ड्रग्स का सेवन किया। जमानत पर सुनवाई के दौरान कोर्ट में आर्यन के वकील ने मैजिस्ट्रेट को बताया कि आर्यन खान ने ड्रग्स को लेकर अपना ब्लड टेस्ट देने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन एनसीबी के अधिकारियों ने सैंपल लेने से मना कर दिया। दो बातें साफ हैं...1. आर्यन खान के पास से ड्रग्स नहीं मिला। 2. सेवन का शक था, तो एनसीबी ने मेडिकल क्यों नहीं कराया यानी यहां भी आर्यन से कुछ हासिल नहीं हुआ।
अब चलते हैं उत्तर प्रदेश के लखमीपुर खीरी। यहां केंद्रीय गृह राज्य मंत्री के बेटे पर चार किसानों पर खुलेआम जीप चढ़ा देने का आरोप है। मंत्री जी बेटे का बचाव करते रहे। आरोपी बेटा अपना बचाव करता है। हक है, करिए। लेकिन हत्या के आरोपी की गिरफ्तारी कब होती है। सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा,
क्या हत्या के दूसरे के मामले में पुलिस इसी तरह मंत्री जी के बेटे की तरह नोटिस भेजकर बुलाती। दुनिया जानती ही कि अगर आम आदमी छोटा-मोटा अपराध कर दे, तो हवालात की हवा खाने तुरंत भेज दिया जाता है। यहां मंत्री जी के बेटे की आवभगत होती रही। हत्या के आरोपी को 5-6 दिनों के बाद गिरफ्तार किया गया। मंत्री जी के बेटे को भी 14 दिनों के न्यायिक हिरासत में भेजा गया। आर्यन खान के पास से ड्रग्स बरामद भी नहीं हुआ, फिर भी पहले वह दो-तीन दिनों तक एनसीबी की हिरासत में रहा। फिर 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में। यहां मंत्री जी का बेटा, चार लोगों पर गाड़ी चढ़ाने के चार दिन बाद तक मौज करते रहे, फिर 10 घंटे पूछताछ हुई। फिर गिरफ्तारी के बाद अरेस्ट किया गया। दूसरी बात यह कि जिसके पास से ड्रग्स तक बरामद नहीं हुआ, न सेवन का पता करने के लिए मेडिकल कराया गया। उधर, गुजरात के अडानी मुंद्रा पोर्ट से 3000 किलोग्राम की हेरोइन बरामद हुई। इस मामले में एनसीबी की सक्रियता किसी मुर्दा की तरह नजर आती है।

एनसीबी का कहना है कि आर्यन खान के वॉट्सऐप चैट से पता चलता है कि मुमकिन है कि वह नियमित तौर पर ड्रग्स का सेवन करता हो। यानी एनसीबी कंफर्म नहीं है। आर्यन के वकील ने कहा कि फुटबॉल के बारे में चैट है। एनसीबी का यह भी कहना है कि यह संभव है कि गिरफ्तार लोगों के तार जुड़े हो और उन्होंने पार्टी में शामिल होने की योजना बनाई। इससे आर्यन खान ने इनकार किया। एनसीबी का बड़ा दावा है कि आर्यन खान एक प्रभावशाली परिवार से हैं। अगर उन्हें जमानत पर छोड़ा गया तो वह सबूतों से छेड़छाड़ कर सकते हैं। बिल्कुल सही बात है कि आर्यन एक प्रभावशाली परिवार से ताल्लुक रखता है, तो क्या मंत्री जी का बेटा किसी चरवाहे के घर का है, जिसके पास फूस का घर है औऱ वह किसी सबूत से छेड़छाड़ नहीं कर सकता। इसीलिए पुलिस उसे चार-पांच दिनों तक छुट्टा छोड़े रखती है। फिर पूछताछ के लिए आने के लिए नोटिस भेजती है। जरा सोचिए, क्या आपको इस तरह की छूट मिलती? हत्या का आरोप ही छोड़िए, किसी की गाड़ी का एक्सिडेंट ही हो जाता और गलती से कोई जख्मी हो जाता तो भी इतनी रियायत आपको मिलती क्या? यहां मंत्री जी का बेटा पुलिस के नोटिस भेजने के एक दिन बाद तब आता है, जब मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचता है। सुप्रीम कोर्ट जैसा कि इस तरह के मामलों में रिवाज है, सख्त टिप्पणी के बाद मामले को लंबे समय के लिए बोरिया-बिस्तर में डाल देता है। पेगासस जासूसी वाले में जिस-जिस दिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई, अखबारों के पहले पन्ने पर हेडिंग बनी खबर। लेकिन अब उस मामले का क्या हुआ? इसी तरह लखीमपुर खीरी मामले में एक दिन की सुनवाई के बाद जज साहेब लोग छुट्टी पर चले गए और सुनवाई छुट्टियों के बाद करेंगे। जनता की जिंदगी की कीमत का फैसला छुट्टियों के बाद होगा।

भारत-पाकिस्तान... दो मुल्क, पर राजनीति एक!


पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान... इस पाकिस्तान की कोई बात नहीं करना चाहता। चाहता भी है, तो बस तोप-बंदूकों की जुबान में। कोई पाकिस्तान की बर्बादी का जश्न मनाना चाहता है, तो कोई पाकिस्तान का नाम भर लेकर ही हिंदुस्तान में राष्ट्रवाद की अलख जगाना चाहता है। उसका नाम लेकर सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने के सिवा पाकिस्तान से उसका कोई और राब्ता नहीं।
कमोबेश यही हालात सरहद के उस ओर भी हों! यहां के हुक्मरानों की तरह वहां भी सत्तानशीं के लिए हिंदुस्तान की फिक्र बस इसलिए होती है कि पावर पॉलिटिक्स में कहीं से कमजोर न नजर आएं। उनके ख्यालों में जनता हमेशा से इन सबके बाद की प्राथमिकताओं में रही है, अगर रही भी है तो! 
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डॉन वेबसाइट के मुताबिक, पाकिस्तान में कोरोना वायरस के कुल मामले तकरीबन दो लाख के आंकड़े तक पहुंच चुकी है। चार हजार से ज्यादा की मौत हो चुकी है। हिंदुस्तान में यही संख्या पांच लाख से अधिक है और यहां 15 हजार से ज्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। सीमा के दोनों तरफ आर्थिक हालात किसी से छिपी नहीं है। पाकिस्तान की थोड़ी ज्यादा खस्ती होगी। लेकिन दोनों मुल्कों में राजनीति अजीब ही करवट ले रही है।
वरिष्ठ पाकिस्तानी कॉलमनिस्ट खालिद अहमद इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि जब इमरान खान ने 2018 में देश की बागडोर संभाली तो अर्थव्यवस्था की हालत बहुत ही खराब थी। उन्हें विरासत में मिली इस खस्ताहाल अर्थव्यवस्था से निपटने की चुनौती मिली। लेकिन इमरान के करिश्मा यानी उनकी पर्सनैलिटी से उनकी चुनौती और कई गुना बढ़ गई। वह एक तेज गेंदबाज की तरह आक्रामक थे, बतौर कप्तान काम पूरी तरह खत्म करना चाहते थे, लेकिन राजनीति समझौतों और वक्त के साथ तालमेल बिठाने का नाम है। आज लगभग दो साल बाद भी हालात कम नहीं हुए हैं। विपक्ष कहीं दिख नहीं रहा है, लेकिन कोरोना वायरस महामारी और टिड्डियों के हमले से उनकी पार्टी पाकिस्तान-तहरीके-इंसाफ जबरदस्त दबाव में है। अंदरखाने पार्टी में सिरफुटौव्वल चल रहा है। कई मंत्रियों के विभाग छीने जा रहे हैं, तो कई को सख्त निर्देश दिए जा रहे हैं। फवाद चौधरी के नाम से सभी वाकिफ हैं। पहले सूचना मंत्री थे, लेकिन ओहदा छीन लिया गया और साइंस एंड टेक्नॉलजी मंत्रालय की जिम्मेदारी दे दी गई। उनके बिना सुरताल की बोली ने इमरान की छवि बहुत खराब की है। इमरान की दो सबसे बड़ी ताकते हैं उनकी दोनों विपक्षी पार्टियां- पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी)। लेकिन सेना और नेशनल अकांउटबिलिटी बिल (नैब) की वजह से पूरे परिदृश्य से नदारद हैं।
अब हिंदुस्तान लौटते हैं। हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ताकत क्या है? सोचिए... कांग्रेस पार्टी और गांधी परिवार। महात्मा गांधी नहीं, गांधी परिवार मतलब नेहरू, सोनिया और राहुल गांधी। जब भी कोई संकट या समस्या आती है तो क्या हमारे देश के प्रधानमंत्री नेहरू और गांदी परिवार पर हमला बोलना शुरू नहीं करते। क्या बीजेपी नेहरू और गांधी परिवार के पीछे नहीं पड़ जाती है? हालिया उदाहरण ही ले लीजिए। चीन से सीमा विवाद चरम पर है। बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा से लेकर सारे प्रवक्ता तक नेहरू-गांधी परिवार के पीछे नहीं पड़ गए हैं। अब गांधी परिवार ने 45 साल से ज्यादा वक्त तक देश पर शासन किया है तो जनता का मिजाज भी उनसे खफा-खफा है। वह पिछले छह साल से सत्ता में काबिज बीजेपी सरकार की जगह अब भी विपक्ष से ही सारे सवालों के जवाब की उम्मीद करती है। या ऐसा कहें कि जनता के दिमाग को इस तरह फीड कर दिया गया है कि वह सरकार से सवाल पूछने की हिमाकत ही नहीं कर सकती।
इसकी मिसाल यह है कि जब चीन हम पर बार-बार चढ़ रहा है, तो प्रधानमंत्री से लेकर बीजेपी के सारे आला नेता उसे जवाब देने की जगह नेहरू-गांधी परिवार का झुनझुना जनता के अहं को संतुष्ट करने के लिए बेच रही है। सरेआम झूठ बेचा जा रहा है। प्रधानमंत्री जी सर्वदलीय बैठक में कहते हैं कि लद्दाख में झड़प हुई। हमारे 20 जवान शहीद हो गए, लेकिन कोई हमारी सीमा में घुसा ही नहीं। बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा कहते हैं कि मौजूदा समस्या की जिम्मेदारी नेहरू की है। बीजेपी अध्यक्ष कहते हैं कि एक परिवार की गलतियों के कारण 43 हजार स्क्वेयर किलोमीटर (यह कितना सही है कोई फैक्ट चेकर ही बताए) भूमि चली गई। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि राजीव गांधी फाउंडेशन को चीन से 90 लाख की फंडिंग की गई। लद्दाख से बीजेपी सांसद जमयांग सेरिंग नामग्याल का मानना है कि कांग्रेस के शासन में चीन ने डेमचोक सेक्टर के उसके इलाके तक कब्जा कर लिया।मतलब चीन ने भारत से जंग जैसे हालात छेड़ रखे हैं और सारी लड़ाई कांग्रेस के खिलाफ लड़ी जा रही है।
पाकिस्तान में इमरान खान देश की बर्बाद होती अर्थव्यवस्था पर कुछ नहीं बोल रहे हैं। आतंकवाद को शह देने के कारण अबी एफएटीएफ की लिस्ट में वह बना हुआ है। बिजली संकट सुरसा की तरह बढ़ती जा रही है, जिससे उद्योग धंधे चौपट हो रहे हैं। पिछले महीने पाकिस्तान में एक विमान हादसे में 97 लोगों की जान चली गई, तो पता चला कि यह किसी तकनीकी खामी नहीं, बल्कि पायलट आपस में कोरोना महामारी की चर्चा कर रहे थे। इस कारण वह विमान संभाल नहीं पाए और हादसा हो गया। फिर पता चला कि पाकिस्तान का हर तीसरा पायलट फर्जी डिग्री और लाइसेंस लेकर फ्लाइट उड़ा रहा है। आसमान में विमान उड़ाते हुए पायलट कोरोना की चर्चा कर रहे हैं, लेकिन पाकिस्तान का प्रधानमंत्री कोरोना के मामले में खामोश हैं। वह पाकिस्तानी असेंबली में बोलते भी हैं, तो ओसामा बिन लादेन को शहीद तक बता जाते हैं। कश्मीर पर बाज नहीं आते।
यह कुछ ऐसा मसला है कि जनता भूखे मर जाएगी, लेकिन इन मुद्दों पर सरकार से सवाल नहीं करेगी। ठीक उसी तरह जैसे हिंदुस्तान में जनता राष्ट्रवाद और विपक्ष का नाम आते ही मोदी सरकार के खिलाफ सवालों को सुनने से पहले कान बंद कर लेती है। आखिर पाकिस्तान हमारा पड़ोसी देश ही तो है। 1947 से पहले तो हमारा ही हिस्सा था। क्या हुआ जो दो अलग-अलग मुल्क बन गए। एक ही परिवार को दो भाई भी अलग होता ही है, लेकिन इस अलगाव या बंटवारे के बावजूद दोनों की फितरत तो वही रहती है। पाकिस्तान-हिंदुस्तान की भी यही हालत है। दोनों मुल्कों के नेताओं की नब्ज भी वही है।

इकोनॉमी, कोरोना अब चीन-नेपाल, हमारा लीडर बजा रहा बस गाल

नरेंद्र मोदी... नाम तो सुना ही होगा... देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। उनका सबसे बड़ा हथियार है, उनकी सोच। सार्थक या घातक, उसका फैसला जनता कर चुकी है। जनता से वह कुछ इस तरह पेश आते हैं, “जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगे...लेकिन जनता को जो चाहिए, उसके लिए जरूरी है, वह नहीं कहते। मौजूदा समय और संकट कुछ ऐसा ही है। देश नेतृत्व संकट से गुजर रहा है, लेकिन वह जनता को अभी भी नए रैपर में राष्ट्रवाद और कांग्रेस विरोध की पुरानी टॉफी खिलाते जा रहे हैं।
अब ज़रा याद करिए भारतीय क्रिकेट का वह दौर... जब सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़, सदगोपन रमेश, आकाश चोपड़ा, नयन मोंगिया जैसे खिलाड़ी किसी देश के खिलाफ उतरते थे, तो कागजों पर टीम हमेशा बीस ही नजर आती थी। लेकिन मैदान में उतरते ही सारी गलतफहमी ढेर हो जाया करती थी। देश की हालत भी कुछ वैसी ही है। 56 इंच के कप्तान प्रधानमंत्री से लेकर तेजतर्रार गृहमंत्री और आर्थिक मोर्चे पर आग उगलने वालीं वित्त मंत्री सीतारमण जी। बीच में कभी रोबिन सिंह ऑलराउंडर के तौर पर आए थे...
इसमें कोई शक नहीं कि आज रिपब्लिक ऑफ इंडिया यानी भारत नेतृत्व के गंभीर संकट से गुजर रहा है। देश की हालत उसी दौर के क्रिकेट की तरह हो चुकी है।
PM Modi with Chinese President. Photo: Internet
हमारे सामने अभी तीन बड़ी समस्याएं हैं। कोरोना महामारी, चीन से तनाव और आर्थिक संकट। बाकी सारी समस्याएं इनकी बाई-प्रोडक्ट हैं। हालांकि, अगर आप क्रमवार देखेंगे तो सबसे पहली समस्या आर्थिक मोर्चे पर थी। इस मोर्चे पर सरकार लगातार नाकामयाब साबित रही। जब सारे तीर-तुक्के असफल साबित हुए, तो जीडीपी से लेकर बेरोजगारी के आंकड़ों में हेरफेर से भी बाज नहीं आई। इसका चर्चा खूब हो चुकी है। इन असफलताओं के बावजूद मोदी की सरकार लगातार दूसरी बार सत्ता में आने में सफल रही। तो इस मोर्चे पर बात करना एक तरह से बेमानी या फिर जनता ही इस काबिल है कि वह सामने खाई देखकर भी उसमें छलांग लगाने को एंडवेंचर का नाम देती है।
दूसरे मोर्चे की बात करते हैं। करोनो महामारी। इस मोर्चे पर भी सरकार नोटबंदी की तरह बिना किसी तैयारी के मैदान में उतर गई। लाखों लोग सड़कों पर आ गए। पैदल ही अपने घरों को कूच करने लगे। कई जान गई, तो कई की जान ली गई। लेकिन यहां भी गलतियों से सीखने की जगह पुराने ट्रिक्स के भरोसे सरकार काम करती रही। जब कोरोना संकट हाथ फिसलने लगा, तो राज्य सरकार के मत्थे जिम्मेदारिया मढ़ी जाने लगीं। राजनीतिक रंग-रोगन में इस महामारी से सामना किया जाने लगा। पहले पश्चिम बंगाल, फिर महाराष्ट्र। हर रोज ऐसे फरमान आने लगे कि उस फरमान को समझाने के लिए एक नया फरमान जारी किया जाने लगा। यहां भी अपने सबसे मजबूत हथियार झूठ और सांप्रदायिकता से मोदी सरकार अपनी नाकामयाबी पर पैबंद लगाती दिखी। इस कोशिश में आईटी सेल और लगभग रेंग रही मीडिया ने बखूबी साथ दिया। जब भी बाजारों या धार्मिक स्थलों में भीड़ दिखती तो मुसलमान एंगल खबरों और सोशल मीडिया पर पसरा मिलता। हम इसको भी छोड़ते हैं, क्योंकि अब महामारी को लेकर दावे औऱ वादे कितने भी किए जाएं, अब सबकुछ भगवान भरोसे ही छोड़ दिया गया है। नहीं, तो टेस्टिंग, क्वांरटीन, मेडिकल साजोसामान, स्वास्थ्य-व्यवस्था के चर्चे होते न कि हिंदू-मुसलमानों के। बीजेपी राज्यों में पीपीई किट को लेकर घोटाले हुए, प्रदेश अध्यक्ष को इस्तीफा तक देना पड़ा। लेकिन, हुआ क्या? हुआ यह कि कोरोना महामारी के नाम पर कुछ गैर-बीजेपी राज्यों की सरकार गिराने की कोशिश की गई। एक राज्य में सरकार बना भी ली गई। कुछ में दूसरे दलों के विधायकों को खरीदा गया। कुल जमा यही कामयाबी है इस कोरोना के खिलाफ सरकार की लड़ाई का।
अब लौटते हैं चीन पर। न तो वहां कोई हमारी सीमा में घुसा हुआ है और न ही हमारी कोई पोस्ट किसी दूसरे के कब्जे में है।अब यह मशहूर डायलॉग तब तक गूंजता रहेगा, जब तक दुनिया रहेगी। इस पर कई सवाल उठ चुके हैं कि जब न कोई घुसा है, तो फिर 20 जवान हमारे शहीद गोटियां खेलते हुए तो नहीं ही हुए। अगर किसी देश का प्रधानमंत्री इस तरह का गैर-जिम्मेदराना बयान दे, तो उस देश की सरहद की सुरक्षा भी भगवान भरोसे ही हो सकती है। इस मुद्दे पर भी ज्यादा बोलना सूरज को दिया दिखाने के बराबर है। फिर भी कुछ बातें तो की ही जा सकती है। कहां तो सरकार को मुंहतोड़ जवाब चीन को देना था, लेकिन सारी ऊर्जा और पैसा नेहरू और कांग्रेस पार्टी को जवाब देने में खर्च किया जा रहा है। जब देश के प्रधानमंत्री के बयान को ही आधार बनाकर दुश्मन देश हम पर ही आरोप लगाए, तो इससे ख़तरनाक नेतृत्व देश के लिए कुछ नहीं हो सकता है। इसमें पत्रकारों की फौज भी सरकार के बचाव में खुलेआम कूद गई है। कुछ पत्रकारों ने बाकायदा सोशल मीडिया पर लिखा इतिहास की गलतियों की सजा भविष्य को भुगतना पड़ता है। लेकिन उन्होंने तो वर्तमान को सिरे से गोल ही कर दिया। आखिर वर्तमान क्या है?, जिसकी पर्देदारी की जा रही है। कौन और कब, किस मकसद से क्या बोल रहा है? यह याद रखा जाना चाहिए। बाकी पड़ोसी देशों की जिक्र ही क्या किया जाए? नेपाल से हमारा रोजी-बेटी का संबंध आज से नहीं, बल्कि वर्षों से है। लेकिन वह लगातार भारत की ओर शत्रुता भरे कदम उठाता जा रहा है। पाकिस्तान से ताल्लुक पहले से ही खराब हैं। श्रीलंका हमारे हाथ से कब का निकल चुका है। रूस से पहले से जैसे संबंध रहे नहीं। अमेरिका में ट्रंप का बड़बोलापन कभी खुद उन्हें तो कभी उनके साथ ताल्लुक रखने वाले देश और नेताओं को बीच सड़क पर नंगा करके रख देता है।
लेकिन यहां सवाल उठता है कि आखिर हर मोर्चे पर हमारा नेतृत्व इतना विफल क्यों है?
चार मार्च 2020 की इकोनॉमिक्स टाइम्स की खबर है। खबर विदेश मंत्रालय के हवाले से लिखी गई है कि पिछले पांच साल में नरेंद्र मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री विदेश यात्राओं पर करीब 446.52 करोड़ रुपये खर्च किए। जब किसी देश का मुखिया विदेश यात्राओं पर इतना खर्च करे, तो लगभग सारे देशों से न सही पड़ोसियों से ताल्लुक बेहतर होने की गारंटी ली ही जा सकती है। लेकिन विदेश नीति के मोर्चे पर नाकामयाबी की कीमत आज देश को चुकानी पड़ रही है। और इसकी जिम्मेदारी आईटी सेल और बिकाऊ मीडिया के जरिए उसी नेहरू और कांग्रेस पार्टी पर डाली जा रही है, जिसकी बदौलत मोदी सत्ता में हैं।

लॉकडाउन में भूख से मरते ग़रीब, लेकिन गिद्धभोज में जुटे हैं सत्ता के सरमायेदार


दिल्ली-जयपुर नेशनल हाइवे पर एक मजदूर भूख की वजह से मरे हुए कुत्ते का मांस खाने को मजबूर हो गया। ख़बर बस इतनी है। एक ऐसी ख़बर जिससे सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। गरीबों की आंखों के आंसू पोछने की बात कहने वाले नरेंद्र मोदी 6 साल से देश के प्रधानमंत्री हैं और उसी दिल्ली में रह रहे हैं, जहां से कुछ किलोमीटर की दूरी पर यह वाकया होता है।
देश की गरीबी दूर करने की बात कहने वाले भुखमरी तक हालात लेकर आ गए। लोकतंत्र को गाली देने वाले लोकतंत्र के मंदिर में बैठकर गिद्धभोज करने लगे। सरकारें बिल्कुल फेल हो चुकी हैं, कृपया यह तस्वीर कोई सरकारों तक पहुंचा दे। खुद को राजनीति का चाणक्य कहने वाले बस चुनावी जयचंद बन कर रह गए हैं। जब अपना घर यानी देश त्रासदी से घिरा है, तो उनकी खोजखबर भी नहीं है। चुनाव जीतना, जोड़-तोड़ की राजनीति से सत्ता हासिल करना, फर्जी राष्ट्रवाद की आड़ में हिंदू-मुसलमान की खाई पैदा करना ही चाणक्य नीति नहीं होती है। वक्त बुरा है...वक्त बदलेगा, लोग भी बदलेंगे...
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दिल्ली-जयपुर हाईवे पर भूख को बर्दाश्त न करने वाली रोंगटे खड़े करने वाली तस्वीर क्या सत्ता में काबिज अंधों को नहीं दिखती। यह तस्वीर बताती है कि कोरोना वायरस को लेकर सरकार की नीतियों ने आम इंसानों को क्या बना दिया है। इंसान एक मरे हुए कुत्ते को खाने को मजबूर है। आख़िर यह सरकार किसकी है। बस अमीरों और नेताओं की, जिनकी भूख इन ग़रीबों की भूख से अलग है। ग़रीबों की भूख कुछ खाने की है, तो उनकी कुछ पाने की। गरीबों की भूख को बस रोटी चाहिए, इन नेताओं की भूख पैसा और सत्ता की मांग करती है।
इस लॉकडाउन में भूख से मौतों की घटनाएं आम हो रही हैं और अब यह नया मामला भी सरकार को अगर सोचने पर मजबूर नहीं करती है, तो सोचिए हालात कहां तक बदल गए हैं। पहली बार लॉकडाउन लागू होने के बाद से ही देश भर में लोगों को काम मिलना बंद हो गया। गरीब दिहाड़ी मजदूरों पर सबसे ज्यादा मार पड़ी। इसकी एक मिसाल यह है। घटना 31 मार्च की बिहार के भोजपुर ज़िले के आरा की है। मुसहर समुदाय से आने वाले आठ वर्षीय राकेश की मौत 26 मार्च को हो गई थी। उनकी मां का कहना है कि लॉकडाउन के चलते उनके पति का मजदूरी का काम बंद था, जिससे 24 मार्च के बाद उनके घर खाना नहीं बना था। इसके बाद 17 अप्रैल को मध्य प्रदेश में एक बुजुर्ग की भूख से मौत की खबर आई। बुजुर्ग सड़क किनारे बैठकर लोगों से मांगकर खाता था। लॉकडाउन में सब बंद हुआ तो उन्हें खाना देने वाला भी नहीं रहा। सरकारें तो दावा करत रहेंगी कि सबका ख्याल रखा जा रहा है, लेकिन किस तरह रखा जा रहा है, वह भूख से होने वाली मौतें साफ बयां कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में एक 60 साल के प्रवासी कामगार की भूख से मौत हो गईयह शख्स तीन दिन पहले महाराष्ट्र से अपने परिवार के कुछ सदस्यों के साथ यात्रा शुरू की थीपरिवार के सदस्यों का कहना था कि कई दिनों से उन्होंने खाना नहीं मिलने पर कुच नहीं खाया था। फिर एक खबर आई 19 मई को कि झारखंड में महज पांच साल की बच्ची की भूख से मौत हो गई। सरकार अमला भूख से मौतों से इनकार करने में जुट गया, लेकिन जिस परिवार ने अपनी बच्ची को खोया कोई उसकी फरियाद नहीं सुनने वाला।
अगर किसी मामले का आकलन करने के लिए सैंपल सर्वे का सहारा लिया जाता है, तो भूख से होने वाली मौतें आखिर क्या कहती हैं। सिर्फ एक क्षेत्र या राज्य ही नहीं... लॉकडाउन के बाद और सरकारी सुस्ती के बीच भूख से मौतें हर तरफ हो रही हैं। हम वैसे मामलों को ही देख-सुन या जान पा रहे हैं, जो मीडिया में आ रहे हैं। कई मामलों को दबाया जा रहा है या फिर उसे अखबारों/मीडिया तक आने से पहले ही खत्म कर दिया जा रहा है।

लॉकडाउन में पलायनः 16 दिन की बच्ची, 40 डिग्री सेल्सियस की धूप... शर्म तो नहीं ही आती होगी सरकार


हमारे घरों में जब बच्चे का जन्म होता है, तो मां और बच्चे को कितने ख्याल से रखा जाता है यह तो मिडिल से क्लास से लेकर सोशल मीडिया वाले क्लास को भी बखूबी पता ही होगा। जब कोई महिला बच्चे को जन्म देती है, तो संवर कहे जाने वाले 15 दिन के पीरियड में मां-बच्चे को बाहर की हवा नहीं लगने दी जाती, लेकिन गरीबों पर यह भला कब से लागू होने लगा...
इंदौर में भट्ठों पर काम करने वालीं सुमन अपनी 16 दिन की बच्ची के साथ 40 डिग्री सेल्सियस तापमान में लू के थपेड़ों के बीच पलायन कर रही हैं... फिर भी हमारे साथी कहते हैं कि इनको चुल्ल क्यों मची है भागने की... सरकारों को तो शर्म नहीं ही आती है, इंसान भी जब ऐसे लोगों के दुख और तकलीफ का मज़ाक उड़ाता है तो फिर दुनिया में बचता ही क्या है? इससे तो बेहतर है कि चौपाया ही बना रहता...
सुमन अपनी बच्ची के साथ। फोटोः ट्विटर
अब सरकारों का हाल कैसा है, यह अंदाजा लगाना चुटकी भर का खेल है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को ही देख लीजिए। दावे बहुत बड़े-बड़े। खुद को मजदूर प्रेमी साबित करने की होड़ और पीआर यानी विज्ञापन पर जितना पैसा खर्च किया, उससे कम सुध भी लोगों की ले लेते तो यह हालत बेघर और जरूरतमंद मजदूरों की नहीं होती। एक तरफ कांग्रेस की तरफ से मुहैया कराई गई बसों से भेजना उन्हें मुनासिब नहीं लगा। अगर इरादा नेक न हो तो बहाने कई बनाए जा सकते हैं। वही किया गया इस पूरे मामले में। पहले 1000 बसों की लिस्ट मंगाई गई और जब आ गई तो बसों में नुक्ताचीनी। यह माना जा सकता है कि 1000 बसों में 300 से ज्यादा सही नहीं भी रहे होंगे, लेकिन बाकी की बसों से भेजने से क्या हो जाता? लेकिन दूसरे दलों से बात-बात पर राजनीति न करने की अपील करने वाली भाजपा और इसके नेता कण-कण में राजनीति की तलाश करते हैं, जैसे कि कण-कण में प्रभु श्रीराम बसे हों।
लेकिन इरादा तो कभी इन गरीबों की मदद का रहा ही नहीं। यह तस्वीर है उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के अतर्रा की... कोरोना वायरस लॉकडाउन के दौरान फूड सब्सिडी स्कीम के तहत गरीबों को मुफ्त में एक किलो दाल दी जा रही है। चने की दाल का हाल आप खुद ही देखिए... दाल कम फफूंदी ज्यादा... इस दाल को जानवरों को भी खिलाना ज़हर के समान है और यहां उत्तर प्रदेश में महंथ जी की सरकार बड़े प्यार से ग़रीबों को खिला रही है। जितनी मेहनत बसों की फिटनेस और कागज की जांच में महंथ जी लगवाई है, काश इस दाल की हालत की भी जांच करवाकर लोगों को देते तो क्या हो जाता? लेकिन नहीं... पिसना तो दोनों ही स्थिति में गरीबों को ही है... भले वहां बसों को लेकर बहाना बनाना या फफूंदी वाली दाल खिलाना...
सरकार तो सरकार आम आदमी भी उससके प्यार में इतना अंध भक्त भला कैसे हो सकता है कि अपने जैसे लोगों की हालत भी उसे दयनीय नहीं लग रही है। कुछ लोग इस मामले में दोहरे पिच पर खेलते साफ दिख रहे हैं। इनको देश के मजदूर कोरोना के कैरियर नजर आते हैं, जबकि विदेशों से वंदे भारत मिशन के तहत जिन लोगों का बचाव करके लाया जा रहा है, उसके बारे में चूं तक करना मुनासिब नहीं समझते। ऊपर से तर्क यह कि विदेशों से आने वाले लोग अपने घर पहुंचकर नमक-रोटी का इंतजाम करने में सक्षम हैं, जबकि ये प्रवासी मजदूर घर लौटने के बाद भी सरकारी मदद के भरोसे रहेंगे। तो फिर सरकारें होती किसलिए हैं? लोगों का तर्क यह भी है कि मजदूर जहां थे, वहां ही सरकार मदद देती तो ठीक रहता। बिल्कुल ठीक रहता। लेकिन मदद करती तब तो.. आख़िर मदद मिल रही होती और जो समस्याएं इन मजदूरों के सामने हैं, उन्हें हल किया जाता, तो भला ये हजारों किलोमीटर पैदल चलक, अपने 4-5 साल के बच्चों को तेज धूप में लेकर और गर्भवती पत्नी को साथ बिठाकर क्यों ले जा रहे होते?
सवाल तो साफ है कि फिर सरकारों ने इनके लिए किया क्यों नहीं...सरकार पर सवाल उठाने के बजाय लोग मजदूरों पर ही सवाल उठा रहे हैं...सरकार अगर उनकी सोचती तो वे जाते भी क्यों...सरकार बस यही सोच रही है कि हादसे के बाद उसी ट्रक में लाश और घायलों को वापस गृह राज्य भेज दे रही है...इस पर तो बोलते नहीं देखा... अगर गलती मजदूरों की लग रही और यह भी कि मजदूर गांव जाकर कोरोना फैला रहे हैं तो गजब ही कहा जाए... फिर तो विदेशों से आने वाले क्या देश की डूबती अर्थव्यवस्था की नैया पार कराने के लिए सोना और कोरोना मरीजों के इलाज के लिए वैक्सीन लेकर आ रहे हैं...
बात यहीं तक खत्म नहीं होती? विदेशों से आने वालों के प्रति सहानुभूति कुलांचे मार रही हैं। लेकिन जान जोखिम में डालकर अपने घरों को जाने वाले मजदूरों से तीखे सवाल पूछने से बाज नहीं आते कि ये घर किसके भरोसे जा रहे हैं? बाप-दादा का खजाना गड़ा है? सहानुभूति से सत्य को नहीं झुठलाया जा सकता। इनकी मूर्खता पर संवेदना नहीं जताई जा सकती। जवाब तो साफ है कि संवेदना ऐसे लोगों से या फिर सरकार से ही कौन मांग रहा है? ये प्रवासी मजदूर तो कतई नहीं मांग रहे। हादसे में मौत के बाद लाशों और घायलों को एक ही गाड़ी से उके गृह राज्य पहुंचाने वाली सरकार से संवेदना की उम्मीद तो की भी नहीं जा सकती है। ऐसे लोगों से भी नहीं, जो 16 दिन के बच्चे के लिए आवाज़ नहीं उठाकर उसी से सवाल करते नजर आते हैं।
इन सबसे भी बड़ी बात कि क्या ऐसा नहीं है कि हमने बतौर देश इस मानवीय आपदा की घड़ी में एक वेलफेयर स्टेट की आवधारणा को पूरी तरह विफल कर दिया। यह किया है हमारे हुक्मरानों ने जो दिल्ली की गद्दी पर सत्ता के नशे में चूर हैं। खुद को राजनीति का चाणक्य कहने वाले बस चुनावी जयचंद बन कर रह गए हैं। जब अपना घर यानी देश त्रासदी से घिरा है, तो गृह मंत्री की खोजखबर भी नहीं है। चुनाव जीतना, जोड़-तोड़ की राजनीति से सत्ता हासिल करना, फर्जी राष्ट्रवाद की आड़ में हिंदू-मुसलमान की खाई पैदा करना ही चाणक्य नीति नहीं होती है। वक्त बुरा है, लोग नहीं। वक्त बदलेगा, लोग बदलेंगे।