हमारे घरों में जब बच्चे का जन्म होता है, तो मां और बच्चे को कितने ख्याल से रखा जाता है यह तो मिडिल से क्लास से लेकर सोशल मीडिया वाले क्लास को भी बखूबी पता ही होगा। जब कोई महिला बच्चे को जन्म देती है, तो संवर कहे जाने वाले 15 दिन के पीरियड में मां-बच्चे को बाहर की हवा नहीं लगने दी जाती, लेकिन गरीबों पर यह भला कब से लागू होने लगा...
इंदौर में भट्ठों पर काम करने
वालीं सुमन अपनी 16 दिन
की बच्ची के साथ 40 डिग्री
सेल्सियस तापमान में लू के थपेड़ों के बीच पलायन कर रही हैं... फिर भी हमारे साथी
कहते हैं कि इनको चुल्ल क्यों मची है भागने की... सरकारों को तो शर्म नहीं ही आती
है, इंसान भी जब ऐसे लोगों के दुख और तकलीफ
का मज़ाक उड़ाता है तो फिर दुनिया में बचता ही क्या है? इससे तो बेहतर है कि चौपाया ही बना रहता...
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| सुमन अपनी बच्ची के साथ। फोटोः ट्विटर |
अब
सरकारों का हाल कैसा है, यह अंदाजा लगाना चुटकी भर का खेल है। उत्तर प्रदेश के
मुख्यमंत्री को ही देख लीजिए। दावे बहुत बड़े-बड़े। खुद को मजदूर प्रेमी साबित
करने की होड़ और पीआर यानी विज्ञापन पर जितना पैसा खर्च किया, उससे कम सुध भी
लोगों की ले लेते तो यह हालत बेघर और जरूरतमंद मजदूरों की नहीं होती। एक तरफ
कांग्रेस की तरफ से मुहैया कराई गई बसों से भेजना उन्हें मुनासिब नहीं लगा। अगर
इरादा नेक न हो तो बहाने कई बनाए जा सकते हैं। वही किया गया इस पूरे मामले में।
पहले 1000 बसों की लिस्ट मंगाई गई और जब आ गई तो बसों में नुक्ताचीनी। यह माना जा
सकता है कि 1000 बसों में 300 से ज्यादा सही नहीं भी रहे होंगे, लेकिन बाकी की
बसों से भेजने से क्या हो जाता?
लेकिन दूसरे दलों से बात-बात पर राजनीति न करने की अपील करने वाली भाजपा और इसके
नेता कण-कण में राजनीति की तलाश करते हैं, जैसे कि कण-कण में प्रभु श्रीराम बसे
हों।
लेकिन
इरादा तो कभी इन गरीबों की मदद का रहा ही नहीं। यह तस्वीर है उत्तर प्रदेश के
बांदा जिले के अतर्रा की... कोरोना वायरस लॉकडाउन के दौरान फूड सब्सिडी स्कीम के
तहत गरीबों को मुफ्त में एक किलो दाल दी जा रही है। चने की दाल का हाल आप खुद ही
देखिए... दाल कम फफूंदी ज्यादा... इस दाल को जानवरों को भी खिलाना ज़हर के समान है
और यहां उत्तर प्रदेश में महंथ जी की सरकार बड़े प्यार से ग़रीबों को खिला रही है।
जितनी मेहनत बसों की फिटनेस और कागज की जांच में महंथ जी लगवाई है, काश इस दाल की हालत की भी जांच करवाकर लोगों को देते तो क्या हो जाता? लेकिन नहीं... पिसना तो दोनों ही स्थिति में गरीबों को ही है... भले वहां बसों
को लेकर बहाना बनाना या फफूंदी वाली दाल खिलाना...
सरकार
तो सरकार आम आदमी भी उससके प्यार में इतना अंध भक्त भला कैसे हो सकता है कि अपने
जैसे लोगों की हालत भी उसे दयनीय नहीं लग रही है। कुछ लोग इस मामले में दोहरे पिच
पर खेलते साफ दिख रहे हैं। इनको देश के मजदूर कोरोना के कैरियर नजर आते हैं, जबकि विदेशों
से वंदे भारत मिशन के तहत जिन लोगों का बचाव करके लाया जा रहा है, उसके बारे में
चूं तक करना मुनासिब नहीं समझते। ऊपर से तर्क यह कि विदेशों से आने वाले लोग अपने
घर पहुंचकर नमक-रोटी का इंतजाम करने में सक्षम हैं, जबकि ये प्रवासी मजदूर घर लौटने
के बाद भी सरकारी मदद के भरोसे रहेंगे। तो फिर सरकारें होती किसलिए हैं? लोगों
का तर्क यह भी है कि मजदूर जहां थे, वहां ही सरकार मदद देती तो ठीक रहता। बिल्कुल
ठीक रहता। लेकिन मदद करती तब तो.. आख़िर मदद मिल रही होती और जो समस्याएं इन
मजदूरों के सामने हैं, उन्हें हल किया जाता, तो भला ये हजारों किलोमीटर पैदल चलक,
अपने 4-5 साल के बच्चों को तेज धूप में लेकर और गर्भवती पत्नी को साथ बिठाकर क्यों
ले जा रहे होते?
सवाल
तो साफ है कि फिर सरकारों ने इनके लिए किया क्यों नहीं...सरकार पर सवाल उठाने के
बजाय लोग मजदूरों पर ही सवाल उठा रहे हैं...सरकार अगर उनकी सोचती तो वे जाते भी
क्यों...सरकार बस यही सोच रही है कि हादसे के बाद उसी ट्रक में लाश और घायलों को
वापस गृह राज्य भेज दे रही है...इस पर तो बोलते नहीं देखा... अगर गलती मजदूरों की
लग रही और यह भी कि मजदूर गांव जाकर कोरोना फैला रहे हैं तो गजब ही कहा जाए... फिर
तो विदेशों से आने वाले क्या देश की डूबती अर्थव्यवस्था की नैया पार कराने के लिए
सोना और कोरोना मरीजों के इलाज के लिए वैक्सीन लेकर आ रहे हैं...
बात
यहीं तक खत्म नहीं होती? विदेशों
से आने वालों के प्रति सहानुभूति कुलांचे मार रही हैं। लेकिन जान जोखिम में डालकर अपने
घरों को जाने वाले मजदूरों से तीखे सवाल पूछने से बाज नहीं आते कि ये घर किसके भरोसे
जा रहे हैं? बाप-दादा
का खजाना गड़ा है? सहानुभूति
से सत्य को नहीं झुठलाया जा सकता। इनकी मूर्खता पर संवेदना नहीं जताई जा सकती।
जवाब तो साफ है कि संवेदना ऐसे लोगों से या फिर सरकार से ही कौन मांग रहा है? ये
प्रवासी मजदूर तो कतई नहीं मांग रहे। हादसे में मौत के बाद लाशों और घायलों को एक
ही गाड़ी से उके गृह राज्य पहुंचाने वाली सरकार से संवेदना की उम्मीद तो की भी
नहीं जा सकती है। ऐसे लोगों से भी नहीं, जो 16 दिन के बच्चे के लिए आवाज़ नहीं उठाकर
उसी से सवाल करते नजर आते हैं।
इन
सबसे भी बड़ी बात कि क्या ऐसा नहीं है कि हमने बतौर देश इस मानवीय आपदा की घड़ी
में एक वेलफेयर स्टेट की आवधारणा को पूरी तरह विफल कर दिया। यह किया है हमारे
हुक्मरानों ने जो दिल्ली की गद्दी पर सत्ता के नशे में चूर हैं। खुद को राजनीति का
चाणक्य कहने वाले बस चुनावी जयचंद बन कर रह गए हैं। जब अपना घर यानी देश त्रासदी
से घिरा है, तो गृह मंत्री की खोजखबर भी नहीं है। चुनाव जीतना, जोड़-तोड़ की
राजनीति से सत्ता हासिल करना, फर्जी राष्ट्रवाद की आड़ में हिंदू-मुसलमान की खाई
पैदा करना ही चाणक्य नीति नहीं होती है। वक्त बुरा है, लोग नहीं। वक्त बदलेगा, लोग
बदलेंगे।

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