कभी न ख़त्म होने वाली दुनिया





हमारी दुनिया की यही पहचान है। एक भेड़ चाल से चलने वाली दुनिया। बिना सोचकर कुछ भी करने वाली दुनिया
क्या यही हमारी पहचान है? बिना कुछ सोचे कुछ भी करने वाले हमलोग। अपने ही पैरों पर कुल्हाडी मारने वाले लोग। अपनी स्वार्थों में चूर रहने वाले हमलोग। क्या यही है मानवता की पहचान?
लेकिन वो पल दूर नहीं जब हम अपने ही जल में फसेंगे। अपनी करनी पर पछतायेंगे।
जी हाँ, विकास की प्रक्रिया में अंधाधुन्द किसी भी चीज़ को ठोकर मारकार, आगे बढ़ने को तैयार रहते हैं।





दुनिया- दुनिया ये कैसी दुनिया ,
कभी-कभी अपना रंग बदलती दुनिया,
नहीं, दुनिया कभी बदलती नहीं,
चाहे हम बदल जाए, दुनिया कभी बदलती नहीं।
कार्बन, हाइड्रोजन और हीलियम की दुनिया,
ऑक्सीजन और naaitrojan की दुनिया।
दुनिया-दुनिया ये कैसी दुनिया?
badalte समय में बदलती दुनिया
ये तेरी-मेरी, हम सब की दुनिया।
लेकिन हम ही इसे मिटाते है,
इसकी उपयोगिता समझ नहीं paate हैं।
समझने के बाद भी, इसको क्यो सहेज नहीं पाते है।
ग्लोबल वार्मिंग और न जाने क्या-क्या कोहराम मचाते हैं?

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